निर्भया - किसे परवाह है !!!

निर्भया के मुख्य आरोपी जिसे नाबालिग बताया जा रहा था,  की अपराध के समय उम्र 17 वर्ष और कुछ माह थी। उसकी वास्तविक उम्र को लेकर संदेह बना हुआ था और यह माना जा रहा था कि वह 18 वर्ष पूरे कर चुका है। किन्तु उसकी जन्म तारीख को सुनिश्चित करने के लिए मार्क शीट को आधार बनाया गया, क्योंकि मौजूदा क़ानून इसी प्रकार से है। बोन-टेस्ट करके उसकी वास्तविक आयु का निर्धारिण किया जा सकता था। लेकिन मोदी साहेब ने साफ़ इंकार कर दिया कि जुवेनाइल का बॉन टेस्ट किसी भी सूरत में नहीं लिया जाएगा। अत: उन्होंने आयु निर्धारण के लिए बोन-टेस्ट के क़ानून को पास करने से मना कर दिया।
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सोनिया और केजरीवाल ने भी इस मामले में मोदी साहेब का समर्थन किया कि 'अशरफ अली' (छद्म नाम ) का बोन-टेस्ट किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए। मोदी-सोनिया और केजरीवाल को यह शंका थी कि बोन-टेस्ट में यदि अशरफ वयस्क पाया गया तो उस पर आईपीसी की धारा 302 के तहत मुकदमा चल जाएगा और उसे निश्चित रूप से फांसी होगी।
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http://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/18280306.cms
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अशरफ की माँ ने बताया कि "उन्हें बच्चे के जन्म की तिथि ठीक से याद नहीं है। वे उसे जब ये कुछ वर्षो का हो गया तो मैंने इसे स्कूल में भर्ती करवा दिया था। मास्टर द्वारा उम्र पूछे जाने पर मैंने अपने अंदाजे से उसकी उम्र 5 वर्ष बता दी थी"
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ऐसी हालत में उसकी उम्र का पता लगाने के लिए बोन-टेस्ट आवश्यक था, किन्तु सोनिया-मोदी और केजरीवाल मिली भगत करके आरोपी के बोन-टेस्ट से इंकार कर दिया। हमेशा की तरह सोनिया-मोदी और केजरीवाल के अंध-भक्तो ने भी अपने कुटिल नेताओ का इस मुद्दे पर समर्थन किया और अशरफ के बोन-टेस्ट का विरोध किया।
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मोदी साहेब बोन-टेस्ट के क़ानून को लागू करने से इसलिए भी मना कर रहे थे, क्योंकि इस क़ानून के आने से जहां 'अशरफ अली' को फांसी हो जायेगी वहीँ संत आसाराम बापू को बेल मिल जाएगी। क्योंकि आसाराम जी पर आरोप लगाने वाली लड़की को अब तक नाबालिग 'माना' जा रहा है। जबकि इस बालिका की अदालत में दो अंक तालिकाएं पेश की गयी है, जिसमे में एक के अनुसार वह बालिग़ है और दूसरी अंक तालिका के अनुसार नाबालिग।
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यहां तक कि मोदी साहेब ने सोनिया-केजरीवाल की सहमति से जुवेनाइल एक्ट के नए क़ानून में भी बोन-टेस्ट के प्रावधान जोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया है, तथा इनके अंध भक्त उनके इस फैसले का भी समर्थन किये  है।

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यदि मोदी साहेब ने वैवाहिक धर्म का विधिवत पालन किया होता और यदि उन्हें किसी पुत्री के पिता बनने का अवसर प्राप्त होता, और यदि दिसंबर 2012 में साहेब की पुत्री के साथ वही हादसा पेश आता जो कि ज्योति सिंह के साथ पेश आया था और 2014 में यदि मोदी साहेब प्रधानमन्त्री बन जाते तो ---
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१. वे सबसे पहले वाजपेयी के लिए भारत रत्न के प्रस्ताव को खारिज कर देते, और यह सुनिश्चित करते कि सरकार में जेटली को कोई मंत्रालय नहीं मिले। क्योंकि वाजपेयी और जेटली ने मिलकर ही 1999 में जुवेनाइल की आयु 16 से बढ़ाकर 18 कर दी थी।
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२. प्रधानमन्त्री पद की शपथ लेने के अगले दिन ही मोदी साहेब जो जुवेनाइल एक्ट प्रस्तुत करते उसमें 'वर्ष 2012 से प्रभावी' होने का प्रावधान जोड़ देते।

[*उल्ल्खेनीय है कि मोदी साहेब ने जिस जुवेनाइल एक्ट को लोकसभा से पास किया है, उसमे उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थो के चलते '2012 से प्रभावी' होने का प्रावधान जोड़ने का विशेष रूप से विरोध किया था, ताकी अशरफ अली (छद्म नाम) की रिहाई में कोई बाधा न बने। अत: मोदी साहेब द्वारा प्रस्तावित जुवेनाइल एक्ट यदि नाबालिग की रिहाई से पहले भी राज्य सभा से पास हो जाता, तब भी इस क़ानून के तहत उसकी रिहाई को रोका नहीं जा सकता था]
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३. यदि कांग्रेस या अन्य कोई पार्टी बिल को प्रस्तुत करने के दौरान हंगामा खड़ा करती तो मोदी साहेब स्पीकर के आदेश देकर उन सांसदों की सदस्यता कुछ दिनों के लिए रद्द करवा देते, और बिल पास करते।
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४. यदि कांग्रेस राज्य सभा में इस बिल को गिरा देती तो मोदी साहेब अगले दिन एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस करते जिसमे वे बेहद संवेदनशील तरीके से इस बात को जनता के सामने रखते कि एक दरिंदे को रिहा करवाने के लिए कांग्रेस ने राज्य सभा में बिल गिरवा दिया है।
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५. इससे यह तथ्य देश की करोड़ो नागरिको के स्पष्ट संज्ञान में आ जाता कि, कांग्रेस साफ़ तौर पर एक अपराधी की रिहाई करवाने में सक्रीय योगदान दे रही है। इससे जुवेनाइल एक्ट को '2012 से प्रभावी' करने के लिए कांग्रेस और अन्य पार्टियों पर पर्याप्त दबाव बनता और उनके सांसद जनता के सामने एक्सपोज़ होने के भय से इस प्रावधान को जोड़ने पर सहमत हो जाते।
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[ इस समय एनडीए के पास लोकसभा में 340 सांसद है, किन्तु ऐसे प्रस्ताव को पास करने के लिए लोकसभा में 370 सांसदों की आवशयकता है। लेकिन इसमें कोई संदेह नही है कि देश के करोड़ो नागरिको का बहुमत इस आदमी को आजाद करने के पक्ष में नहीं है, अत: सांसद जनाधार बचाने के लिए इसे '2012 से प्रभावी' करने का प्रावधान जोड़ने पर सहमति जताते। यदि ये प्रस्ताव गिर भी जाता तो कांग्रेस और अन्य पार्टियां देश की जनता के सामने पूरी तरह एक्सपोज़ हो जाती और मोदी साहेब की नियत साफ़ है यह बात साबित हो जाती ] 


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(2) यदि भारत के नागरिको के पास अपने सांसदों और प्रधानमंत्री को नौकरी से निकालने का अधिकार होता तो, क्यों निर्भया का मुख्य आरोपी रिहा नहीं हो पाता ?
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जिस तरह सभी अधिकारियों में अपनी नौकरी चली जाने का भय सबसे प्रधान होता है, उसी तरह से सभी जनप्रतिनिधि चुनाव में जाने से डरते है, क्योंकि चुनाव हारने से वे अपना पद, मंत्रालय, आवास, भत्ते, सुविधाएं और ताकत खो सकते है। इसलिए कोई भी नेता 5 वर्ष से पहले फिर से मतदाताओ को अपना वोट बदलने का अधिकार नहीं देना चाहता। राईट टू रिकॉल मतदाता को किसी भी समय अपने वोट को वापिस लेकर किसी दूसरे उम्मीदवार को देने का अवसर दे देता है।
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यदि नागरिको के पास पाने सांसद और प्रधानमन्त्री को नौकरी से निकालने का अधिकार होता तो मोदी साहेब समेत सभी सांसद इस डर की गिरफ्त में आ जाते कि देश की करोड़ो मतदाता इस अपराधी को फिर से सड़को पर खुला देखने के लिए तैयार नहीं है, अत: इसकी रिहाई पर रोक लगाने के लिए आवश्यक क़ानून पास नहीं किया गया तो पूरी संभावना है कि मतदाताओ का एक बड़ा प्रतिशत अपने वोट वापिस खिंच लेगा और हमें 2019 से पहले ही अपने पद से हाथ धोना पडेगा।
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यह भय प्रधानमन्त्री समेत सभी सभी सांसदों को अपनी नौटंकी बंद करके परिणाम मुखी कदम उठाने के लिए प्रेरित करता। किन्तु भारत के मतदाताओ के पास राईट टू रिकॉल प्रक्रियाएं न होने से चुनाव जीतते ही सभी जन प्रतिनिधियों का चमड़ा मोटा हो जाता है, और उनकी गैँडाई खाल पर नागरिको की मांग का कोई असर नहीं होता।
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यदि महादुरात्मा गांधी महात्मा भगत सिंह को और जवाहर लाल ग़ाज़ी महात्मा चंद्रशेखर आजाद को रास्ते से हटाने में कामयाब नहीं हो पाते, यदि संघ 1925 से 1947 तक ब्रिटिश साम्राज्य के सरंक्षण में नहीं पल रहे होता तो भगत, आजाद और सान्याल जैसे कार्यकर्ता 1947 तक टिक जाते और उनकी मांग के अनुसार भारत के नागरिको को प्रधानमन्त्री, सांसदों, विधायको आदि को नौकरी से निकालने का अधिकार मिल जाता। यदि 1977 के आंदोलन से सत्ता में आई जनता सरकार ने चुनाव पूर्व राईट टू रिकॉल कानूनो के ड्राफ्ट कार्यकर्ताओ के सामने रख दिए होते, तो भारत में राईट टू रिकॉल क़ानून प्रक्रियाएं 1977 में ही लागू हो गयी होती। यदि 2010 में महात्मा राजीव दीक्षित की हत्या न हो गयी होती तब भी भारत में अब तक नागरिको को ऐसी प्रक्रिया मिल गयी होती, जिसकी सहायता से नागरिक अपने प्रतिनिधियों को नौकरी से निकाल सके।
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[ ज्ञातव्य है की, महात्मा राजीव दीक्षित देश में राईट टू रिकॉल कानूनो को लागू करवाने के लिए जन-आंदोलन खड़ा करने पर कार्य कर रहे थे। 1977 के चुनावो में सुब्रह्मनियम स्वामी आदि नेताओ ने राईट टू रिकॉल कानूनो को पास करने का वादा किया था, किन्तु सत्ता में आकर वे पलट गए। महात्मा भगत, महात्मा आजाद और महात्मा सान्याल ने भारत के नागरिको को चेतावनी दी थी कि, 'यदि आजाद भारत में नागरिको के पास अपने प्रतिनिधियों को नौकरी से निकालने का अधिकार नहीं हुआ तो लोकतंत्र एक मजाक बन कर रह जाएगा।]
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(3) यदि मोदी साहेब देश में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव लोकसभा में साधारण बहुमत से भी पास कर देते तो देश के सभी 84 करोड़ मतदाताओ को इस विषय पर जनमत संग्रह करवाया जा सकता था कि, क्या निर्भया का मुख्य आरोपी को रिहा किया जाना चाहिए। लेकिन चूंकि निर्भया उनकी पुत्री नहीं थी अत: उन्होंने ऐसे किसी भी जनमत संग्रह को करवाने का प्रस्ताव रखने से साफ़ इंकार कर दिया।
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संविधान के अनुसार भारत के संविधान में किसी भी प्रकार का संशोधन करने का अधिकार भारत देश के नागरिको के पास है। यदि मतदाताओ का बहुमत किसी प्रस्ताव पर सीधे मुहर लगा देता है, तो वह प्रस्ताव संविधान के अनुसार वैध है। मोदी साहेब इस तरह का प्रस्ताव भी लोकसभा में रख सकते थे कि यदि यह जनमत संग्रह देश के कुल मतदाताओ के 51% मतदाताओ की सहमति से पास हो जाता है तो यह प्रस्ताव क़ानून का रूप ले लेगा। लेकिन मोदी साहेब ने ऐसे किसी भी प्रस्ताव को संसद में रखने का शुरुआत से ही विरोध करना शुरू कर दिया था।
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यदि कांग्रेस या अन्य कोई भी पार्टी ऐसे किसी प्रस्ताव का विरोध करती, जो प्रस्ताव देश के आम नागरिको को किसी विषय पर अपनी राय व्यक्त करने की प्रक्रिया मुहैया कराता हो तो, कांग्रेस को करोड़ो नागरिको के भारी विरोध का सामना करना पड़ता और जन दबाव में कांग्रेस इस प्रस्ताव पर सहमति दे देती।
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यदि तब भी कांग्रेस इस प्रस्ताव का विरोध करती तो मोदी साहेब संसद का संयुक्त अधिवेशन आहूत करके इस प्रस्ताव को पास कर सकते थे। ज्ञातव्य है कि प्रधानमन्त्री जब भी चाहे संसद का संयुंक्त अधिवेशन बुलाकर संविधान संशोधन को छोड़कर किसी भी प्रस्ताव या बिल को पास कर सकते है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मोदी साहेब के नेतृत्व में एनडीए के पास संयुंक्त अधिवेशन में बिल पास करने के लिए आवश्यक संख्या मौजूद है। लेकिन मोदी साहेब ने साफ़ कह दिया कि इस विषय पर वे किसी भी सूरत में जॉइंट शेषन बुलाने वाले नहीं है, अलबत्ता भूमि अधिग्रहण और जीएसटी आदि बिल अटक जाते है तो वे संयुक्त अधिवेशन बुलवाने पर विचार करेंगे।
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मोदी साहेब ने इस सम्बन्ध में कोई अध्यादेश निकालने से भी मना कर दिया। उनका मानना है की अध्यादेश जैसी प्रक्रिया का प्रयोग वे सिर्फ 'भूमि अधिग्रहण' जैसे विवादित बिलो के लिए ही करेंगे, ऐसे प्रस्ताव के लिए नहीं जिस पर देश के करोड़ो नागरिक सहमत हो।
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[ मालूम हो कि, संविधान प्रधानमंत्री को यह शक्ति प्रदान करता है कि, वे किसी भी बिल को सीधे अध्यादेश के माध्यम से 6 महीने के लिए लागू कर सकते है। 6 महीने बाद उस बिल को संसद में वोटिंग के लिए रखा जाता है। लेकिन इस 6 महीने की अवधि के दौरान अमुक अध्यादेश देश में क़ानून की तरह ही लागू रहता है। फिलहाल भूमि अधिग्रहण क़ानून का विरोध होने के कारण मोदी साहेब ने इस क़ानून को अध्यादेश के माध्यम से ही लागू करवा रखा है, तथा वे अब तक इस क़ानून को बनाये रखने के लिए 2 बार अध्यादेश निकाल चुके है। नृपेन्द्र मिश्रा जो कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियो के काफी करीबी है, और विश्व बैंक में लम्बे समय तक अपनी सेवाएं दे चुके है, को प्रधान सचिव की नियुक्ति में जब कुछ तकनीकी बाधाएं उत्पन्न हो रही थी, तब भी मोदी साहेब ने रातों रात अध्यादेश पारी करके उन्हें प्रधानमन्त्री कार्यालय के शीर्ष पद पर तैनात कर दिया था।]
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(4) यदि नागरिको/कार्यकर्ताओं ने नेता भक्ति करने की जगह राईट टू रिकॉल ग्रुप की अपील पर ध्यान दिया होता तो, 2014 में ही निर्भया के मुख्य आरोपी को उम्रकैद या फांसी हो गयी होती।
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राईट टू रिकॉल ग्रुप के कार्यकर्ता 2008 से जुवेनाइल एक्ट में संशोधन करने के लिए अभियान चला रहे थे, ताकी लव जिहाद और बलात्कार जैसे अपराधो में कमी आये। लेकिन नेता भक्ति में मानने वाले ज्यादातर कार्यकर्ताओ ने क़ानून में संशोधन की मांग को ही खारिज कर दिया और वे अपने इस भ्रम के शिकार बने रहे कि 'कानूनो में बदलाव करने का तर्क फिजूल है, और सिर्फ नेता को बदलने से ही हालात में बदलाव लाया जा सकता है'
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इस थ्योरी का परिणाम यह हुआ कि निर्भया समेत न जाने कितनी महिलाओ को उत्पीड़न सहना पड़ा और अपराधी नाबालिग का सर्टिफिकेट दिखाकर क़ानून के पंजे से बच निकले।
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इतना ही नहीं, राईट टू रिकॉल ग्रुप पिछले एक दशक से देश में राईट टू रिकॉल और जनमत संग्रह क़ानून प्रक्रियाओ की मांग कर रहा है, तथा कार्यकर्ताओ से अपील कर रहा है कि वे अपने सांसद से इन कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करने का दबाव बनाये, लेकिन भारत के कार्यकर्ताओ ने नेता भक्ति को कानूनो पर तरजीह दी।
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जनमत संग्रह के लिए प्रस्तावित क़ानून ड्राफ्ट जिसे गैजेट में प्रकाशित करने की हम मांग कर रहे है ---www.facebook.com/pawan.jury/posts/809753852476186
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दिसंबर, 2012 की घटना के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि वर्तमान जुवेनाइल एक्ट में संशोधन के अभाव में यह तय है कि मुख्य आरोपी नाबालिग होने के कारण दिसंबर में रिहा हो जाएगा। अत: नागरिको को चाहिए था कि वे अपने सांसदों को जुवेनाइल एक्ट में बदलाव करने और उसे 2012 से लागू करने के लिए एसएमएस द्वारा आदेश भेजे। किन्तु सिर्फ 20 से 25 हजार नागरिको ने अपने सांसदों से ऐसी मांग की, शेष नागरिक अपने अपने नताओ की भक्ति में लीन रहे। चूंकि नागरिको ने अपने सांसदों से क़ानून में बदलाव की मांग नहीं की अत: नेताओ ने क़ानून में कोई बदलाव नहीं किया। इस तरह लाखों मोमबत्तियां जलाना, नारे लगाना, सोशल मिडिया पर संवेदनाएं प्रकट करना, जुलुस निकालना, पैदल मार्च करना, धरने देना आदि गतिविधियों में राष्ट्र की असीमित ऊर्जा सिर्फ इसलिए जाया हो गयी क्योंकि कार्यकर्ताओ ने क़ानून में बदलाव को तवज्जो नही दी।
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सिर्फ बीजेपी ही नहीं, इस प्रकरण में सभी राजनैतिक पार्टियां बराबर की दोषी है। 2012 से 2014 तक कांग्रेस सत्ता में रही लेकिन मेडम सोनिया ने जुवेनाइल एक्ट में संशोधन करने से इंकार कर दिया, तथा केजरीवाल ने भी अपने सांसदों को स्पष्ट निर्देश दे दिए थे कि वे लोकसभा में निजी बिल के रूप में ऐसा कोई प्रस्ताव प्रस्तुत नही करें जिससे मुख्य आरोपी की रिहाई पर रोक लगाईं जा सके।
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(5) इस पर भी मोदी साहेब ने मजबूत क़ानून पास करने की जगह लूला लंगड़ा क़ानून पास करके खाना पूर्ती कर दी, तथा जुवेनाइल की वयस्कता निर्धारित करने का अधिकार जुवेनाइल बोर्ड को दे दिया है। जाहिर है यदि किसी रईस की संतान को मुक़दमे का सामना करना पड़ता है तो जुवेनाइल बोर्ड के सदस्य बिकने के लिए उनके घर पर कतार बाँध कर खड़े हो जाएंगे।
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हमने इस सम्बन्ध में प्रस्ताव किया है कि जुवेनाइल की वयस्कता का निर्धारण करने का अधिकार नागरिको की ज्यूरी को दिया जाए। लेकिन मोदी साहेब ने इसका अधिकार जुवेनाइल बोर्ड को देकर यह सुनिश्चित कर दिया है कि इन मामलो में भी जिसकी जेब में पैसा होगा वह न्याय को अपने पक्ष में मोड़ सकेगा।
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इस प्रकरण से पहला सबक यह मिलता है कि देश को क़ानून चलाते है, अत: यदि हम देश की किसी व्यवस्था में किसी भी प्रकार का परिवर्तन लाना चाहते है तो हमें कानूनो में परिवर्तन की मांग करनी चाहिए। दूसरा सबक यह है कि सोनिया-मोदी-केजरीवाल एक दूसरे के पर्याय है, इसलिए नागरिक देश में जो भी बदलाव चाहते है उन बदलावों को लाने के लिए नागरिको को वांछित कानूनो को गैजेट में प्रकाशित करवाने के लिए अपने सांसद को सीधे आदेश भेजने चाहिए।
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मोमबत्तियाँ लेकर घूमना, नारे लगाना, जुलुस निकालना, भावुक अपीले जारी करना, और नेताओ की पूँछ पकड़ कर लटके रहने से निर्भया, दामिनी जैसी पीड़िताएं घाटे में और उनके पीड़क फायदे की स्थिति में बने रहेंगे।

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