ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में पुरुष का अर्थ
ब्राहमण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र को वेदों से जोड़ कर वेदों के पुरुष सूक्त से दिखाया जाना भ्रमित करता है \ क्योंकि वेदों में पुरुष सधारण मनुष्य नहीं है |
पुरूष का मनुष्यरूप विवेचन तो वेदों के अनंत काल पश्चात वेदांत उपनिषद काल से प्रारम्भ हुआ है |
इस के लिए निम्न विवेचना देखिए ;वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द से अभिप्राय:-
आजकल अल्पज्ञान और मतिमन्द होने के कारण बहुत से लोग पुरुष से अभिप्राय केवल अंग्रेजी के जेण्ट्स से लेते हैं । वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द के अनेक अभिप्राय उपलब्ध होते हैं । आइए देखते हैं कि पुरुष शब्द का क्या अभिप्राय हैः---
(१.) पुरुष शब्द परमात्मा का वाचकः--- सृष्टि विद्या के विषय में अति प्राचीन आर्यग्रन्थकार सहमत हैं कि वर्त्तमान दृश्य जगत् का आरम्भ परम पुरुष अविनाशी , अक्षर अथवा परब्रह्म से हुआ । तदनुसार पुरुष शब्द मूलतः परब्रह्म का वाचक है ।
(२.) हिरण्यगर्भ का वाचकः--- पुरुष शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं हिरण्यगर्भ अथवा प्रजापति के लिए भी हुआ है
वेदांत में पुरुष को मनुष्यपरक माना है ।
(३.) मनुष्यपरकः--- पुरुष शब्द का तीसरा मनुष्यपरक अर्थ सुप्रसिद्ध ही है । यह केवल आदमी या जेण्ट्स का वाची नहीं है । यह मनुष्यमात्र का बोधक है, अब चाहे वह मनुष्य पुल्लिंग, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग हो ।
पुरुष का स्वरूप =============
कठोपनिषद् (१.३.१०--११) में कठ ऋषि पुरुष के स्वरूप को स्पष्ट करते हैंः---
"इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।
पुरूषात् न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।।"
अर्थः---अव्यक्त से पुरुष परे हैं । पुरुष से परे कुछ नहीं । वह अन्तिम स्थान और परे से भी परे की गति है । उसे ही अन्यत्र परम-पुरुष कहा है---
"परात् परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.८) अर्थात् परा प्रकृति से परे दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है । उसी के लिए वेदमन्त्र अलौकिक रूप में कहता है---
"आनीदवातं स्वधया तदेकम् ।" (ऋग्वेदः--१०.१२९.२) अर्थात्---प्राण लेता था---जीवित था, विना वायु के, स्वधा-प्रकृति से (युक्त),वह एक अद्वितीय ।
पुरुष का सब पर अधिष्ठानः--- ===================
इस दिव्य परम पुरुष के विना सृष्टि का प्रादुर्भाव असम्भव था ।
एक शिष्य ने श्वेताश्वतरोपनिषद् में ऋषि से प्रश्न किया----"कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुषः इति चिन्त्यम् ।।" जगत् की उत्पत्ति में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पञ्चभूत, योनि (प्रकृति) तथा पुरुष में से प्रधान (मुख्य) कौन हैं , यह विचारणीय है । ऋषि ने उत्तर दिया----"कालादि सात कारणों में से प्रधान कारण पुरुष है ।
पुरूष का मनुष्यरूप विवेचन तो वेदों के अनंत काल पश्चात वेदांत उपनिषद काल से प्रारम्भ हुआ है |
इस के लिए निम्न विवेचना देखिए ;वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द से अभिप्राय:-
आजकल अल्पज्ञान और मतिमन्द होने के कारण बहुत से लोग पुरुष से अभिप्राय केवल अंग्रेजी के जेण्ट्स से लेते हैं । वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द के अनेक अभिप्राय उपलब्ध होते हैं । आइए देखते हैं कि पुरुष शब्द का क्या अभिप्राय हैः---
(१.) पुरुष शब्द परमात्मा का वाचकः--- सृष्टि विद्या के विषय में अति प्राचीन आर्यग्रन्थकार सहमत हैं कि वर्त्तमान दृश्य जगत् का आरम्भ परम पुरुष अविनाशी , अक्षर अथवा परब्रह्म से हुआ । तदनुसार पुरुष शब्द मूलतः परब्रह्म का वाचक है ।
(२.) हिरण्यगर्भ का वाचकः--- पुरुष शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं हिरण्यगर्भ अथवा प्रजापति के लिए भी हुआ है
वेदांत में पुरुष को मनुष्यपरक माना है ।
(३.) मनुष्यपरकः--- पुरुष शब्द का तीसरा मनुष्यपरक अर्थ सुप्रसिद्ध ही है । यह केवल आदमी या जेण्ट्स का वाची नहीं है । यह मनुष्यमात्र का बोधक है, अब चाहे वह मनुष्य पुल्लिंग, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग हो ।
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कठोपनिषद् (१.३.१०--११) में कठ ऋषि पुरुष के स्वरूप को स्पष्ट करते हैंः---
"इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।
पुरूषात् न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।।"
अर्थः---अव्यक्त से पुरुष परे हैं । पुरुष से परे कुछ नहीं । वह अन्तिम स्थान और परे से भी परे की गति है । उसे ही अन्यत्र परम-पुरुष कहा है---
"परात् परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.८) अर्थात् परा प्रकृति से परे दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है । उसी के लिए वेदमन्त्र अलौकिक रूप में कहता है---
"आनीदवातं स्वधया तदेकम् ।" (ऋग्वेदः--१०.१२९.२) अर्थात्---प्राण लेता था---जीवित था, विना वायु के, स्वधा-प्रकृति से (युक्त),वह एक अद्वितीय ।
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