वैदिक परम्परा में मांसभक्षण का वर्णन विदेशियों-विधर्मियों द्वारा जोड़ा गया है. इसका प्रमाण क्या है?


वैदिक परम्परा में मांसभक्षण का वर्णन विदेशियों-विधर्मियों द्वारा जोड़ा गया है. इसका प्रमाण क्या है? जानने के लिए पोस्ट को धैर्यपूर्वक पूरा पढ़ें. 
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मनुष्यों के मन का ९०% से अधिक अचेतन है, जिसका कारण है पूर्वकृत पापजनित अशुभ संस्कार । जब मानवजाति बनी थी तब भी पाप का भाग ५०% था । इक्का-दुक्का परमहंसों को छोड़ दें तो मानवों को चैतन्य प्राणी नहीं माना जा सकता । किन्तु देवभाषा जैसी पूर्णतः नियमबद्ध और वैज्ञानिक भाषा का निर्माण वही समाज कर सकता है जिसके प्रायः सभी सदस्य पूर्ण चैतन्य हों । अतः संस्कृत देवभाषा है, मानवकृत नहीं ।
इसका अर्थ यह है कि जब भाषा बनी, अर्थात जब मानवों को देवभाषा प्राप्त हुई, तब धात्वर्थों और प्रचलित अर्थों में विरोध नहीं था । आज "सम्भ्रान्त" शब्द अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होता है, किन्तु संस्कृत में इसका अर्थ अच्छा नहीं है ("सम्यक् रूपेण भ्रान्त")। प्रचलित अर्थ धात्वर्थ से भिन्न हो सकते हैं ,किन्तु धात्वर्थ का विरोध नहीं कर सकते : यह देवभाषा का मौलिक नियम है ।
मांस शब्द "मन्" धातु से बना है (देखें शिवराम वामन आप्टे का शब्दकोष), जिसका अर्थ यह है कि मन को जो पसन्द हो उस खाद्य पदार्थ को मांस कहते थे, जो मांसल और कोमल हो, जैसे कि फल का गूदा । आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि मनुष्य प्राइमेट्स परिवार से निकला है जो मूलतः शाकाहारी परिवार है ।
मानव शिशु को अन्नप्राशन में पशु का मांस या मछली खिलाना स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी अशुभ है । वनस्पति औषधियों द्वारा पशुमांस के विष को नष्ट करके खाने योग्य बनाया जाता है (समस्त मसाले वनस्पति हैं, और औषधियाँ हैं)। जब कृत्रिम खाद और कीटनाशकों द्वारा भूमि और फसलों को जहरीला नहीं बनाया जाता था तब सब्जियों और चावल आदि पदार्थों का स्वाद मसालों के स्वाद से भी अच्छा होता था । मुझे ऐसी सब्जियाँ खाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो ऐसी भूमि में उगाई गयी थीं जिसमें कभी भी कृत्रिम खादों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं हुआ था । किन्तु ऐसी भूमि में उगाई फसलों का स्वाद भी प्राचीन फसलों और सब्जियों की तुलना में फीका है, क्योंकि आज हवा, नदियों-तालाबों और भूगर्भ के जल में भी विष है । पशुमांस बिना मिर्च-मसालों और तेल के मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक नहीं खा सकता । हविष्यान्न में मिर्च-मसालें, नमक और तेल वर्जित हैं , अतः हविष्यान्न में पशुमांस-भक्षण सम्भव नहीं है ।
फिर भी "धूर्तों ने यज्ञ में पशुमांस का प्रचलन त्रेता युग में आरम्भ कर दिया" (- महाभारत) । मनुस्मृति (अध्याय-५) के १५वें श्लोक में पशुमांस और मछली खाने का निषेध है, किन्तु अगले ही श्लोक में हव्य वा कव्य पदार्थ के रूप में खाने का आदेश है ! बिना मिर्च-मसालों-नमक-तेल के हव्य पदार्थ पकाये जाते हैं , अतः ऐसे श्लोक प्रक्षिप्त अंश हैं जो धूर्तों ने कलियुग में जोड़े । ३६वें श्लोक में ब्राह्मणों द्वारा मांस खाने पर मनाही है, किन्तु यज्ञ में मांसभक्षण को उचित ठहराया गया है ! उसी अध्याय में श्लोक ४८ से ५५ में मांसभक्षण पर निषेध और कारणों का वर्णन है : श्लोक ५५ तो मांस शब्द की व्युत्पत्ति भी ऐसे ही सन्दर्भ में देता है, जिसे आप्टे के शब्दकोष में भी उद्धृत किया गया है । किन्तु वहीं श्लोक-५६ में कहा है कि "मांस, शराब और मैथुन में दोष नहीं है क्योंकि ये प्राणियों का स्वभाव है, यद्यपि इनसे दूर रहने में कल्याण है " !
इसी अध्याय में श्लोक-१३१ कहता है कि कुत्तों, हिंसक पशुओं और चाण्डालों द्वारा मारे गए पशुओं का मांस ब्राह्मण के लिए शुद्ध है ! तब फिर बचा क्या ? ब्राह्मण को शिकार नहीं करना चाहिए, मांस बेचना नहीं चाहिए, लेकिन दूसरों के मारे हुए मांस खाने में दोष नहीं है ! अध्याय-१० में आपातधर्म की तौर पर मांसभक्षण के उद्धरण हैं, किन्तु में (श्लोक-९६) सुरा, मांस आदि को यक्षों , राक्षसों और पिशाचों का आहार कहा गया है और ब्राह्मणों को ऐसे पदार्थों से दूर रहने का आदेश है क्योंकि ब्राह्मणों को देवयज्ञ में अवशिष्ट हविष्यान्न के भक्षण का आदेश है । यह श्लोक स्पष्ट कि देवयज्ञ में सुरा और मांस का निषेध है । किन्तु इसी अध्याय में श्लोक १५३ और १५७ बताते हैं कि केवल कुछ ख़ास प्रकार के मांस ही निषिद्ध है ! ध्यातव्य है कि निषिद्ध सूची में गोमांस का उल्लेख नहीं है ! अतः जिन धूर्तों ने मनुस्मृति की भावना के विपरीत प्रक्षिप्त अंश जोड़े, वे गोमांस भी खाते थे !
इसका कारण जानना है कठिन नहीं है । यजुर्वेद के पशुयाग का हवाला देकर मांसभक्षक धूर्तों द्वारा पशुमांस खाने की वकालत की जाती है, किन्तु पशुयाग में बकरे का उल्लेख नहीं है - यदि वैदिक पशुयाग में पशुमांस का उल्लेख उसी अर्थ में है जिस अर्थ में मांसप्रेमियों द्वारा प्रचारित किया जाता है तब तो श्रोत्रिय ब्राह्मणों को गोमांस खाना चाहिए ! श्रोत्रिय ब्राह्मण ही ऐसा करेंगे तो शेष लोग क्यों पीछे रहेंगे ?
स्पष्ट है के ऐसे प्रक्षिप्त अंश उन लोगों ने जोड़े जो मनुस्मृति की शब्दावली में स्वभावतः "यक्ष, राक्षस या पिशाच" थे क्योंकि ऐसे धूर्तों ने अध्याय-५ के प्रक्षिप्त श्लोक-५६ में स्वीकारा है कि शराब और पशुमांस ("यक्ष, राक्षस और पिशाच" स्वभाव के) प्राणियों का स्वभाव है !
आसान नहीं है मनुस्मृति पढ़ना, कलियुग में राक्षसों के वाममार्गियों चेलों ने मनुस्मृति में ढेर सारे प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ रखे हैं, और आधुनिक काल के तथाकथित भाष्यकारों ने अर्थ का अनर्थ कर रखा है । मनुस्मृति में मांसभक्षण के विरोध में स्पष्ट कहा गया है , किन्तु वहीं मांसभक्षण के पक्ष में भी बकवास जोड़ दी गयी है । क्या दोनों प्रकार के मत मनु महाराज के ही हो सकते हैं ? क्या माँसभक्षण का प्रचार करने वाले ग्रन्थ में वैष्णव अपना मत जोड़ सकते हैं ? यज्ञ में पशुहिंसा की वकालत मनुस्मृति में की गयी है, किन्तु यज्ञ को अध्वर कहा जाता है जिसका शब्दार्थ है "हिंसा-रहित" , और यज्ञ में जिस पुरोहित के हाथों पशुहत्या करवाई जाती है उसे "अध्वर" कहा जाता है जिसका अर्थ है "अहिंसक" । मनुस्मृति (और महाभारत) में कहा गया है कि वैदिक यज्ञ, पौरोहित्य-कर्म, चिकित्सा और ज्योतिष से जो जीविका चलाये उसे (आर्यों के समाज से बहिष्कृत करके) चाण्डाल घोषित कर देना चाहिए (क्योंकि कष्ट से पीड़ित मनुष्य ही इन चारों के पास पंहुचते हैं)। कलियुग में इन कर्मों में चाण्डालों का ही कब्जा है जो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं करते किन्तु ब्राह्मण-जाति में जन्म लिए हुए हैं । सभी वर्णों में विकृति आयी है, किन्तु सिर ही गड़बड़ा गया है तो हाथ-पाँव-पेट को कौन ठीक करे ?
कौलमार्ग और अन्यान्य वामाचार के ग्रंथों में सुरा और मांसभक्षण का ही वर्णन नहीं है, उससे आगे की बातें भी है जहां अभी तक पश्चिम का समाज भी "विकास" नहीं कर पाया है : माँ-बहन से मैथुन को धार्मिक कृत्य के रूप में प्रचारित किया गया है ! यही कारण है कि रामचरितमानस में १४ प्रकार के निकृष्ट कौलों को सबसे पहले रखा गया है । सत्यार्थ-प्रकाश में दयानंद सरस्वती महोदय ने ऐसे कुछ घृणित श्लोकों को उद्धृत किया है। पञ्च-मकारी कुलार्णव-तंत्र का एक श्लोक (पीत्वा-पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले । पुनरुत्थानं वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥) गीता की पैरोडी है, केवल भगवत-चिंतन को हटाकर सुरापान को मोक्ष का साधन बताया गया है, अन्तिम वाक्यांश गीता से चुराए गए हैं : "पुनर्जन्म न विद्यते")!
शुक्ल-यजुर्वेद (माध्यन्दिन-शाखा) का पशुयाग वाला अध्याय पढ़ें जिसका हवाला देकर हल्ला मचाया जाता है कि वेद में गोहत्या का आदेश है | अध्याय-6 की बाइसवीं यजु कहती है :
"यदाहुरघ्न्या इति वरुणेति शपामहे ततो वरुणो नो मुञ्च ।"
जिस (गाय) को लोग अवध्य कहते हैं (और) हम भी (ऐसा ही) शपथ खाते हैं (कि गाय अवध्य / अघ्न्या है), उसके प्रति किसी पाप से वरुण हमें मुक्त कीजिए !
किन्तु भाष्यकारों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया : "शपतिहिंसार्थः", तात्पर्य यह हुआ कि गाय को अघ्न्या कहते हैं, किन्तु यज्ञ करने वाले अध्वर्यु उसे मार डालते हैं ! "शप" का अर्थ 'हिंसा' नहीं होता, और अध्वर्यु का शब्दार्थ ही है : "जो हिंसा न करे" । यज्ञ को अध्वर कहते हैं, जिसका अर्थ है अ+ध्वर = जिसमे हिंसा वर्जित हो । धूर्तों ने गलत अर्थ कर दिया : यज्ञ में गोहत्या को हिंसा नहीं कहते ! पग पग पर ऐसे ही अनर्थ मिलेंगे । पशुयाग का सही अर्थ कलियुगी मनुष्य नहीं जान सकते । बड़े भाग्य से वेद का सही अर्थ प्राप्त होता है ।
ताज्जुब है कि फलित ज्योतिष में "ज्योतिषियों" की रूचि नहीं है !
किन्तु जिनके ह्रदय में मानवता नहीं, करुणा नहीं, उनपर किसी भी तर्क का प्रभाव नहीं पड़ने वाला ।
इसी परिप्रेक्ष्य में एक और धातु "मिष्" पर ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे ये तीन शब्द बने हैं : मिष्टान्न, सामिष और निरामिष । मिष् धातु (रस द्वारा तर या आर्द्र करना, छिड़कना) का सामिष और निरामिष के कलियुगी अर्थ से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है , किन्तु मिष्टान्न से सम्बन्ध है : आज भी रसगुल्ला आदि ऐसे ही बनते हैं : गुल्ला को रस में मिष् करने पर रसगुल्ला बनता है । संस्कृत में ऐसे और भी शब्द हैं जिनका अर्थ "यक्ष, राक्षस या पिशाच" स्वभाव वाले क्रूर लोगों ने बिगाड़ दिया है ।
"मांस" शब्द बना है संस्कृत के "मन्" धातु से । अतः "मांस" का धात्वर्थ है :- "जो मन को पसन्द हो, माँसल या कोमल हो" (जैसे कि फल का गूदा) । किन्तु राक्षसों को लहू और पशुमांस ही पसन्द था, अतः कलियुग में राक्षसी अर्थ ही प्रचलित हो गया । किन्तु आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि मनुष्य प्राइमेट परिवार से आया है जो शाकाहारी परिवार है (बन्दर. लँगूर, आदि) । फलतः पशुमांस खाने के लिए मनुष्य के शरीर का भोजन-तन्त्र प्राकृतिक रूप से परिपक्व नहीं है । वैसे भी मसाले, तेल, आदि वनस्पति-औषधियाँ डालकर आग में पकाया न जाय तो मनुष्य के गले में पशुमांस उतर ही नहीं सकता । अप्राकृतिक भोजन से व्याधियों की संभावना बढ़ती हैं और मन भी अप्रकृतिं बनता है । शास्त्रों में कहा गया है कि अन्न से मन बनता है । हिंसक अन्न से मन हिंसक हो जाता है । विभिन्न पशुओं के मांसों में गोमांस मनुष्य के लिए सर्वाधिक घातक है क्योंकि पाली हुई गाय गृहवासियों को सन्तान समझकर दूध देती है, बिना ममता के थन में दूध आ ही नहीं सकता । ऋषियों में पशुओं का मन पढ़ने की शक्ति थी, अतः गाय की ममता को वे अनुभव करते थे और गाय को माता कहते थे ।
"मिष्" का अर्थ है "रस में भिगोना" । मिष्टान्न का अर्थ है (मीठे-) रस में भिगोया हुआ अन्न , अर्थात मिठाई । अतः "सामिष" का अर्थ था "मीठा" भोजन । किन्तु "मांस" की तरह कलियुग में "सामिष" का भी अर्थ बदल गया । वाममार्गियों का इसमें बहुत बड़ा हाथ था, जिनका हिन्दू सभ्यता के पतनकाल में बहुत प्रसार हुआ ।
गीता के अठारहवें अध्याय में उल्लेख है कि सात्विक भोजन में "लवण" और "तीक्ष्ण" पदार्थ (कड़वे, खट्टे) वर्जित हैं । अतः सात्विक भोजन दो प्रकार के थे :— सामिष और निरामिष । सामिष में थीं मीठी वस्तुएं । निरामिष उन लोगों के लिए था जो पूर्ण इन्द्रियनिग्रह हेतु मीठे पदार्थों से भी दूर रहते थे, खास कर विशेष अवसरों पर । अंग्रेजी का "मीट" शब्द भी उसी स्रोत से निकला है जिससे हिन्दी क्षेत्र का "मीठ" या "मीठा" बना है ।
साभार-Vinay Jha

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