श्रीराधातत्त्वविमर्श


श्रीराधातत्त्वविमर्श - ०१ & 02

शास्त्रों के परम्परागत ज्ञान और आचरण से विमुख जनों के मन में एक भ्रम बहुत शीघ्रता से व्याप्त हो रहा है कि राधा नामक कोई चरित्र था ही नहीं, यह बाद के कवियों या विधर्मियों ने भगवान् श्रीकृष्ण को बदनाम करने के लिए मिलावट कर दी। इस कुतर्क के पक्ष में वे यह कहते हैं कि यदि राधा का कोई अस्तित्व होता तो क्या श्रीमद्भागवत जैसे महत्वपूर्ण वैष्णव ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं होता ? अब इस बात का उत्तर देने के चक्कर में आज के कुछ अभिनव कथावाचक बिना सम्प्रदायानुगमन के ही श्रीमद्भागवत में कहीं भी र और ध शब्द की संगति देखकर वहीं हठपूर्वक राधाजी को सिद्ध करने बैठ जाते हैं। 

वर्तमान में आधावन्तः/राधावन्तः शब्द में वितण्डापूर्वक राधाजी को सिद्ध करने का कुप्रयास प्रसिद्ध है ही। और राधावान् बताया भी किसे जा रहा है ? कबन्धों को। देवता तो अमृतपान कर चुके थे, सो उनका कबन्धीकरण सम्भव नहीं, वैसे भी कबन्ध तो सुरों के नहीं, असुरों के ही बने हैं - कबन्धा युयुधुर्देव्याः। तो कुछ महानुभाव कबन्धों को ही राधाभक्त सिद्ध करने लग गए। 

गुरुजनों ने व्याकरण पढा है, वर्षों तक पढा है। पढ़ा भी है, लड़ा भी है। व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा है। मतलब पढा है किन्तु उतनी गम्भीरता और परिश्रम से नहीं पढ़ा है। गुरुजन कह रहे हैं कि व्याकरण से राधावन्तः शब्द बन जाएगा। बिल्कुल बन सकता है। किन्तु पूर्व के किसी टीकाकार ने ऐसा अर्थ क्यों नहीं किया ? क्योंकि शब्द बनने पर भी उस शब्द को प्रसङ्ग का समर्थन मिलना चाहिए और यहाँ शब्द को प्रसङ्ग का समर्थन नहीं है। 

एक बार तो विनोद में अली मौला का अर्थ 'दो प्राचीन सखी' और द्वा सुपर्णा से उसकी संगति मैंने ही सिद्ध की थी किन्तु यह अर्थ शिष्टसम्मत नहीं माना जाएगा। मात्र व्याकरण से कोई शब्द बन रहा है या नहीं, यह उसके अर्थ को सिद्ध नहीं कर सकता। राम शब्द व्याकरण से निष्पन्न है किन्तु कहाँ उसका अर्थ वासुदेव, कहाँ दाशरथी और कहाँ जामदग्न्य होगा, यह प्रसङ्ग बताएगा, व्याकरण नहीं। यही वार्तिककार के कथन का उदाहरण है। बाण शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ शस्त्र और कहाँ दैत्य होगा, यह प्रसङ्ग पर ही आश्रित है, व्याकरण पर नहीं।

श्रीराधाजी की उस प्रसङ्ग में लाक्षणिक या वाच्य में कोई संगति नहीं है, यही प्रसिद्धहानि का द्योतक है। सिद्ध अर्थ मात्र व्याकरणव्यवहार से नहीं, अपितु प्रसङ्गानुरूप भी होना चाहिए। ऐसे तो सभी अर्थ सिद्ध ही हो जाएंगे। जहाँ रावण के लिए वाल्मीकिजी या विश्वामित्रजी ने श्रीमान् शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ श्री का अर्थ लक्ष्मी लेने से व्याकरण उसे सिद्ध करके लक्ष्मीपति बना देगा किन्तु प्रसङ्गविरोध उस शब्दसिद्धि के साधु होने पर भी अग्राह्य बताएगा, वहाँ श्रीमान् शब्द का अर्थ ऐश्वर्यसम्पन्न ही लगाएंगे। सूत्रविस्तार से शब्दसिद्धिमात्र अर्थसिद्धि नहीं कर सकता है।

तात शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ पिता होगा और कहाँ पुत्र, यह प्रसङ्ग ही बताएगा। हरि शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ विष्णु होगा और कहाँ बन्दर, यह प्रसङ्ग ही बताएगा। पञ्चानन शब्द व्याकरण से सिद्ध है किन्तु कहाँ उसका अर्थ शिव होगा और कहाँ सिंह, यह प्रसङ्ग ही बताएगा। गुरुजन विद्वान् हैं, राधावन्तः शब्द को सिद्ध कर सकते हैं किन्तु प्रसङ्गसम्मत न होने से शब्द की वृषभानुजा राधाजी के सन्दर्भ में अर्थसिद्धि नहीं हो सकती।

प्रसिद्धहानिः शब्दानामप्रसिद्धे च कल्पना।
न कार्या वृत्तिकारेण सति सिद्धार्थसम्भवे॥
(श्लोकवार्त्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक ३५)

परम्परालब्ध प्रसङ्गसम्मत सिद्ध अर्थ के उपलब्ध होने पर भी अपारम्परिक प्रसङ्गविरुद्ध अर्थग्रहण सैन्धवं आनय के समान विभ्रमकारक और दोषपूर्ण है। पर्याय और लक्षण भी प्रसङ्ग से सम्मत ही होकर ग्राह्य होते हैं, विरुद्ध जाकर नहीं।

गुरुजन कहते हैं कि श्रीराधाजी के भजनप्रताप से वे लोग खड़े होकर बिना मस्तक के ही लड़ते थे, यह अर्थ है। आश्चर्य है कि इतना अद्भुत विशेषण जो कि इतना महत्वपूर्ण है कि माथा कटने पर भी श्रीराधाप्रताप से वे कबन्धरूप से पुनः उठ खड़े हुए, फिर भी पूर्व के सर्ववेत्ता श्रीधराचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीवीराघवाचार्य, श्रीवंशीधराचार्य, श्रीजीवगोस्वामीजीप्रभृति, श्रीविश्वनाथचक्रवर्ती आदि सबों ने इसमें कहीं श्रीराधाजी की इस अद्भुत महिमा का उल्लेख तक करना उचित नहीं समझा, अपितु धावन्तो आदि ही अर्थ किया। श्रीराधाजी के इस अप्रकाशित माहात्म्य को अब जाकर इस विवाद के बाद प्रकाशित करने हेतु आप सभी गुरुजनों का आभार।

श्रीवेदव्यासजी धन्य हैं कि उन्होंने पूरे दशम स्कन्ध के पूर्वार्द्ध में जहाँ कदम कदम पर श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम आ सकता था, रासपञ्चाध्यायी आदि में, वहाँ लिखा ही नहीं और अष्टम स्कन्ध के देवासुरसंग्राम में जाकर लिख दिया। उनसे भी अधिक धन्य हैं आज तक के सभी मान्य टीकाकार, जिन्होंने उस एक स्थान पर, जहाँ राधाजी के प्रताप से योद्धागण मरने के बाद भी उठ खड़े हो रहे थे, वहाँ श्रीराधाजी के इस अद्भुत माहात्म्य का वर्णन अपनी किसी टीका में करना उचित नहीं समझा।

सर्वाधिक धन्य हैं आज के गुरुजन, जिन्होंने अपने व्याकरणमल्ल का प्रदर्शन करके अघटनघटनापटीयसी शब्देन्द्रजाललीला से असिद्ध को सिद्ध, अदृष्ट को अदृष्ट एवं अप्रासङ्गिक को प्रासङ्गिक बना दिया। वेदव्यास जी और टीकाकारों की भूल को सुधारा। धन्य हैं, धन्य हैं, धन्य हैं। भावुकता का विभाग भिन्न है। शब्दशास्त्र भिन्न है। श्रीमद्भागवत के पद पद में राधादर्शन की जिसमें दृढ़ भावना हो गयी है, ऐसे भावुक को उसी श्लोक में क्यों राधा दिख रही हैं, बाकी श्लोकों में क्यों नहीं ? पूरे भागवत के सभी श्लोकों में उन्हें सिद्ध करना चाहिए न।

श्रीमद्भागवत में श्रीराधाजी का नाम इसीलिए नहीं है क्योंकि ब्रह्मरात श्रीशुकदेवजी और विष्णुरात महाराज परीक्षित् के मध्य हुए संवाद को आधार बनाकर ही त्रिकालदर्शी वेदव्यासजी ने अष्टादशसहस्रश्लोकमित श्रीमद्भागवत का लेखन किया है। 

मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः॥
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः॥
(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, भागवतमाहात्म्य, अध्याय - ०४, श्लोक - ०८-०९)

अब श्रीशुकदेवजी कौन हैं ? उद्धव जी ने राजा परीक्षित् को भविष्यवाणी करते हुए बताया है कि श्रीशुकदेवजी स्वयं श्रीकृष्णरूप ही हैं और वही तुम्हें श्रीमद्भागवत सुनाएंगे, इसमें संशय नहीं है -

नन्दनन्दनरूपस्तु श्रीशुको भगवानृषिः।
श्रीमद्भागवतं तुभ्यं श्रावयिष्यत्यसंशयः॥
(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, भागवतमाहात्म्य, अध्याय - ०३, श्लोक - ६३)

स्वयं श्रीकृष्णरूप होने से शुकदेवजी ब्रह्मभावावेश के कारण 'राधा' शब्द के उच्चारणमात्र से छः महीनों के लिए मूर्च्छित हो जाते थे, और परीक्षित् की आयु सप्तदिनावधि ही शेष थी, अतः उनके हित की कामना से शुकदेवजी ने राधाजी का प्रत्यक्ष नाम नहीं लिया है। कौशिकी संहिता के प्रमाण से गुरुजन कहते हैं -

श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत्।
अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनिः॥

इसपर कुछ आचार्यगण कहते हैं कि इस श्लोक का तृतीय और चतुर्थ पाद चिन्तनीय है -"परीक्षित्हितकृन्मुनि: नोच्चारितं"। यहां परीक्षित्हितकृन्मुनिना स्पष्टं (श्रीराधानाम) नोच्चारितम् - ऐसा प्रयोग न करके "अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षित्हितकृन्मुनि:" यह प्रथमान्त प्रयोग कैसे ? तो मैं कहूंगा कि आधावन्तः को राधावन्तः और उसका अन्वय कबन्धाः के साथ करके असिद्ध को सिद्ध करने वाले महानुभाव "अतो नोच्चारितं स्पष्टं, (यस्मात्स) मुनिः परीक्षित्हितकृत्" ऐसा अर्थाध्याहार क्यों नहीं करते, जबकि ऐसे श्लोकप्रयोग बहुतायत से उपलब्ध हैं। वैसे भी स्पष्ट कर ही दिया -

यथा प्रियङ्गुपत्रेषु गूढमारुण्यमिष्यते।
श्रीमद्भागवते शास्त्रे राधिकातत्त्वमीदृशम्॥

जैसे मेहन्दी के पत्तों में (बाहर से हरा होने पर भी) लालिमा अन्दर छिपी हुई, सर्वत्र व्याप्त रहती है वैसे ही श्रीमद्भागवत में राधिकातत्त्व बाहर से न दिखने पर भी अन्दर सर्वत्र निहित है। 

श्रीमद्भागवत क्या है ? श्रीकृष्ण की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा - तेनेयं वाङ्‌मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः। और स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में भगवती कालिन्दी ने क्या कहा ? आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका। आत्माराम कृष्ण की आत्मा निश्चय ही राधिकाजी हैं। तो देह में आत्मा होती हुई भी, जैसे नहीं दिखती है, अदृश्यभाव से निहित होती है, मेहन्दी के पत्तों में लालिमा छिपी होती है, वैसे ही श्रीकृष्णरूपी शब्दकलेवर श्रीमद्भागवत में आत्मारूपी राधिका अदृश्यरूप से निहित हैं। उनका प्रत्यक्ष नहीं, सांकेतिक वर्णन शुकदेवजी ने किया है। 

यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने।
सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय - ३०)

उसी अध्याय में यह भी कहा -

अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥

इस श्लोक में गुरुजन श्रीराधिकाजी का संकेत बताते हैं जो उचित भी है। रासक्रीड़ा के मध्य अन्य गोपियों को छोड़कर एक वरिष्ठ गोपी को भगवान् ले गए थे। वेदों ने कहा कि वे गोपिका श्रीराधाजी ही तो हैं। ऋग्वेद के राधोपनिषत् ने कहा - वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी। वह गोपी मूलप्रकृति, ईश्वरी, वृषभानु की पुत्री हैं। कुछ लोग कहते हैं कि दूसरे स्कन्ध में निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः, इस श्लोक से भी राधाजी का संकेत होता है। अन्यजन कहते हैं कि 'एवं पुरा धारणयात्मयोनिः' श्लोक में पु'रा-धा'रणया शब्द को जोड़ने से राधाजी दिखती हैं। किन्तु अनयाराधितो वाले श्लोक के समान इनमें प्रसङ्गबल प्राप्त नहीं होता। देखने वालों को तो शतमदीनाः स्याम में मदीना दिख जाता है। 'अज्ञानहेतुकृतमोहमदान्धकार' में मोहम्मद दिख जाता है, दीपावली में अली भी दिख जाता है, 'प्रचोदयात्, चूतप्रवालपनसाम्रकदम्बनीपाः और अत्र चोदाहरन्ति स्म' आदि में अश्लीलता दिख जाती है, उस भ्रम का क्या किया जा सकता है। 

कोई वैज्ञानिक किसी को बताए कि ऑक्सीजन के कारण अग्नि जलती है, फिर बताए कि जल में भी ऑक्सीजन होता है, तो सामान्य व्यक्ति तो कहेगा कि यह वैज्ञानिक पागल है क्योंकि जल में ऑक्सीजन होता तो अग्नि कैसे बुझती ? जबकि परम्परागत अध्ययन करने वाले व्यक्ति को कोई भ्रम नहीं होगा। उसी प्रकार न तो हमें श्रीमद्भागवत में श्रीराधाजी को प्रत्यक्ष सिद्ध करने की आवश्यकता है और न उनके अस्तित्व को नकारने की, क्योंकि दोनों ही स्थिति में यह सत्यशास्त्र से द्रोह होगा। किसी को चिकित्सक कहे कि तुम्हारे शरीर में लौहतत्त्व की कमी हो गयी है तो उसकी चिकित्सा लोहे की छड़ चबाने से थोड़े ही दूर होगी।

अब हम इसपर चर्चा करते हैं कि श्रीराधाजी का जन्म जिन वृषभानुगोप और माता कलावती/कीर्तिदा/कीर्ति के घर हुआ, वे कौन हैं ? पूरा प्रसङ्ग तो बताना विस्तारभय से सम्भव नहीं, मात्र प्रधान घटनाक्रम और श्लोकों को सन्दर्भित कर रहा हूँ।

श्रीबहुलाश्व उवाच
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत्।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि॥
श्रीनारद उवाच
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः।
कलावती रत्‍नमाला मेनका नाम नामतः॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते।
वैदेहाय रत्‍नमालां मेनकां च हिमाद्रये॥
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः।
सीताभूद्रत्‍नमालायां मेनकायां च पार्वती॥
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते।

राजा बहुलाश्व ने पूछा - वृषभानु का कितना बड़ा सौभाग्य था कि राधाजी उनकी बेटी के रूप में आयीं। कलावती और सुचन्द्र ने पिछले जन्म में ऐसा क्या पुण्य किया था ? देवर्षि नारद बोले - महाराज नृग ने पुत्र के सुचन्द्र हुए जो विष्णु भगवान् के ही अंश और अत्यन्त सुन्दर थे। पितरों की तीन मनोहर मानस पुत्रियाँ थीं - रत्नमाला, मेनका और कलावती। इसमें कलावती का विवाह बुद्धिमान् सुचन्द्र से हुआ। रत्नमाला का विवाह विदेहराज जनक से और मेनका का हिमालय से हुआ। इसमें रत्नमाला की पुत्री के रूप में सीताजी और मेनका की पुत्री पार्वती हुईं जिनका चरित्र विस्तार से पुराणों में बताया गया है। 

फिर इतनी बात कहकर नारद जी ने सुचन्द्र और कलावती की तपस्या का वर्णन किया और बताया कि कैसे ब्रह्मदेव उन्हें वरदान देने आए। उन्होंने प्रसन्न होकर मात्र सुचन्द्र को मोक्ष देने का प्रस्ताव रखा तो कलावती ने कहा कि मेरे पति का मोक्ष हो जाएगा तो मेरा क्या होगा ? तब ब्रह्मदेव ने कहा कि मोक्ष का कोई दूसरा उपाय देखते हैं -

युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत्।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात्॥
(गर्गसंहिताखण्ड, गोलोकखण्ड, अध्याय - ०८)

ब्रह्मदेव ने कहा - परिपूर्णतम श्रीकृष्ण की प्रिया राधा जब तुम्हारी पुत्री के रूप में आएंगी तब तुम दोनों मोक्ष को प्राप्त कर जाओगे। नारद मुनि कहते हैं - ब्रह्मदेव के दिव्य और अमोघरूपी वरदान के कारण सुचन्द्र और कलावती ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया। इसमें कन्नौज के राजा भलन्दन के यज्ञ में अग्निकुण्ड से कलावती (कीर्तिदा के नाम से) दिव्यरूप से प्रकट हुईं और सुरभानु के यहाँ सुचन्द्र ने वृषभानु के नाम से जन्म लिया। वे दूसरे कामदेव के समान सुन्दर थे और उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की बातें जातिस्मरसिद्धि के कारण स्मरण थीं। इन दोनों से बुद्धिमान् नन्दराय जी ने अपना रिश्ता जोड़ लिया। वृषभानु और कलावती का यह आख्यान सुनने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर श्रीकृष्ण के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है। 

विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती॥
धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति॥
वृषभानस्य वैश्यस्य कनिष्ठा च कलावती।
भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः॥
मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च।
तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परं पदम्॥
धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः।
जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति॥
कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह।
जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः॥
(शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड, अध्याय - ०२)

यह वृत्तान्त शिवपुराण में निम्न प्रकार से वर्णित है। जो सबसे बड़ी मेनका है, वह विष्णु के अंशभूत हिमालय की पत्नी बनेगी, जिसकी पुत्री पार्वती होंगी। जो दूसरी धन्या नाम की योगसम्पन्न कन्या है, वह सीरध्वज जनक की पत्नी बनेगी जिसकी पुत्री के रूप में महालक्ष्मी सीताजी का रूप धारण करके आएंगी। जो सबसे छोटी कन्या कलावती है, वह वृषभान वैश्य की पत्नी बनेगी और द्वापरयुग के अन्त में उसकी पुत्री राधा बनेगी। पार्वती के वरदान से मेनका अपने पति के साथ सदेह परमधाम कैलास जाएगी। धन्या के साथ महायोगी विदेह जनक अपनी पुत्री सीता के कारण जीवन्मुक्त होकर वैकुण्ठलोक को जाएंगे। अपनी पुत्री राधा के साथ वृषभान और कलावती गोलोक जाएंगे, इसमें संशय नहीं है। 

श्रीराधाजी के जन्म का एक सुन्दर वृत्तान्त भविष्यपुराण में वर्णित राधाष्टमी व्रतकथा के अन्तर्गत भी मिलता है। इसमें कहते हैं कि वृषभानु गोप ने अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाली कीर्तिदा से विवाह किया और उन दोनों के सदाचरण के फलस्वरूप भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्याह्न, अभिजित् मुहूर्त में, अनुराधा नक्षत्र के अन्तर्गत गौरवर्ण की अत्यन्त मनोहारिणी राधाजी का जन्म हुआ। 

वृषभानुरिति ख्यातो जज्ञे वैश्यकुलोद्भवः। 
सर्वसम्पत्तिसम्पन्नः सर्वधर्मपरायणः॥
उवाह कीर्तिदानाम्नीं गोपकन्यामनिन्दिताम्। सर्वलक्षणसम्पन्नां प्रतप्तकनकप्रभाम्॥
वृषभानुर्महाभक्तः कीर्तिदायास्तपोबलात्।
अस्माद्विनयबाहुल्यात्तत्कन्या राधिकाभवत्॥ 
भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमी या तिथिर्भवेत्।
अस्यां दिनार्द्धेऽभिजिते नक्षत्रे चानुराधिके॥
राजलक्षणसम्पन्नां कीर्तिदासूत कन्यकाम्।
अतीवसुकुमाराङ्गीं सितरश्मिसमप्रभाम्॥

कल्पभेद से एक मत मानता है कि वृषभानु को यज्ञ के समय अन्तरिक्ष से आयी हुई दिव्यरूप वाली राधाजी मिली थीं -

भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ।
वृषभानोर्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा॥
यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी॥
(पद्मपुराण, ब्रह्मखण्ड, अध्याय- ०७, श्लोक - ४१)

अस्तु, यह सिद्ध है कि कलावती और उनकी पुत्री राधिकाजी, दोनों अयोनिजा हैं। मानवों के समान गर्भ से इनका जन्म नहीं हुआ है। 

अयोनिसम्भवा देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी॥
मातुर्गर्भं वायुपूर्णं कृत्वा च मायया सती।
वायुनिःसारणे काले धृत्वा च शिशुविग्रहम्॥
आविर्बभूव सा सद्यः पृथ्व्यां कृष्णोपदेशतः।
वर्द्धते सा व्रजे राधा शुक्ले चन्द्रकला यथा॥ श्रीकृष्णतेजसोऽर्द्धेन सा च मूर्त्तिमती सती।
एका मूर्त्तिर्द्विधा भूता भेदो वेदे निरूपितः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)

सरल अर्थ यह है कि मूलप्रकृति राधाजी अयोनिजा हैं। माता के गर्भवती अवस्था में मात्र वायु से उनका उदर बढ़ रहा था। प्रसव के समय बस योनि से वायु का ही निःसरण हुआ, उसके बाद श्रीकृष्ण भगवान् के (गोलोक में) कहे अनुसार बाहर ही शिशु के रूप में तत्काल राधिकाजी प्रकट हो गयी थीं। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन वे बढ़ने लगीं। श्रीकृष्ण की मूर्ति ही दो रूपों में राधा-कृष्णमय है। एक का ही दो होना, यह मूर्तिभेद वेदों में वर्णित है। (वैदिक प्रमाण आगे दूंगा)

भगवान् श्रीकृष्ण ने भी बताया है कि राधा और उनकी माता, सीता और उनकी माता, दुर्गा (पार्वती) और उनकी माता, यह सब अयोनिजा ही हैं।

अयोनिसम्भवा राधा राधामाता कलावती।
यास्यत्येव हि तेनैव नित्यदेहेन निश्चितम्॥
पितृणां मानसी कन्या धन्या मान्या कलावती।
धन्या च सीतामाता च दुर्गामाता च मेनका॥
अयोनिसम्भवा दुर्गा तारा सीता च सुन्दरी।
अयोनिसम्भवास्ताश्च धन्या मेना कलावती॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८९)

सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् में सनकादि कुमारों ने श्रीनारदजी को कहा था कि राधा के साथ स्वामी श्रीकृष्ण की तीनों काल में पूजा करनी चाहिए - त्रिकालं पूजयेत्कृष्णं राधया सहितं विभुम्। नारदजी के पूछने पर सनत्कुमारों ने श्रीराधाजी का जो तात्त्विक परिचय दिया था, वह इस प्रकार है -

प्रेमभक्त्युपदेशाय राधाख्यो वै हरिः स्वयम्।
वेदे निरूपितं तत्त्वं तत्सर्वं कथयामि ते॥
उत्सर्जने तु रा शब्दो धारणे पोषणे च धा।
विश्वोत्पत्तिस्थितिलयहेतू राधा प्रकीर्तिता॥
वृषभं त्वादिपुरुषं सूयते या तु लीलया।
वृषभानुसुता तेन नाम चक्रे श्रुतिः स्वयम्॥
गोपनादुच्यते गोपी गो भूवेदेन्द्रियार्थके।
तत्पालने तु या दक्षा तेन गोपी प्रकीर्तिता॥
गोविन्दराधयोरेवं भेदो नार्थेन रूपतः।
श्रीकृष्णो वै स्वयं राधा या राधा स जनार्दनः॥
(सनत्कुमारीय योगरहस्योपनिषत् ०७/४-८) 

आदर्श प्रेम तथा भक्ति का अपनी जीवन के माध्यम से उपदेश देने के लिये श्रीहरि स्वयं ही 'राधा' नामसे प्रसिद्ध हुए। वेदमें इनके तत्त्व का जिस प्रकार निरूपण हुआ है, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ। 'रा' शब्द उत्सर्ग या त्याग के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'धा' शब्द धारण एवं पोषण के अर्थ में। इसके अनुसार राधा इस विश्वकी उत्पत्ति, पालन तथा लय की हेतुभूता कही गयी गयी हैं। आदिपुरुष विराट् ही वृषभ है, उसको निश्चय ही वे लीलापूर्वक उत्पन्न करती हैं; अतः स्वयं श्रुतिने उनका नाम 'वृषभानुसुता' रख दिया है। वे सबका गोपन (रक्षण) करनेसे 'गोपी' कहलाती हैं। 'गो' शब्द गौ, भूमि, वेद तथा इन्द्रियों के अर्थ में प्रसिद्ध है। राधा इन 'गो' शब्दवाच्य सभी पदार्थोंका पालन करनेमें दक्ष हैं, इसलिये भी 'गोपी' कही गयी हैं। इस प्रकार गोविन्द तथा श्रीराधामें केवल बाह्य रूपका अन्तर है, अर्थ की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। श्रीकृष्ण स्वयं राधा हैं और जो राधा हैं, वे साक्षात् श्रीकृष्ण हैं। अब हम राधाकृष्ण शब्द के शास्त्रोक्त अर्थ पर विचार करेंगे।

राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्।
धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥
कृष्णवामांशसम्भूता राधा रासेश्वरी पुरा।
तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः॥
रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः।
ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता॥
बभूव गोपीसङ्घश्च राधाया लोमकूपतः।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४८)

रा शब्द के उच्चारणमात्र से भक्त अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करता है और धा शब्द के उच्चारण होने पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के धाम की ओर वह बढ़ने लगता है। पूर्वकाल में रासेश्वरी राधाजी श्रीकृष्ण के बाएं भाग से प्रकट हुई थीं और उनके अंशों के अंश से अन्य देवताओं की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं। रा शब्द का अर्थ आदान है, धा शब्द का अर्थ मुक्ति है। उनके माध्यम से व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होती है, अतः उन्हें राधा कहते है। श्रीराधाजी के रोमकूप से समस्त गोपियाँ और श्रीकृष्ण के रोमकूप से सभी गोपजन उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिए।

भगवान् कहते हैं -

जानामि विश्वं सर्वार्थं ब्रह्मानन्तो महेश्वरः॥
धर्मः सनत्कुमारश्च नरनारायणावृषी।
कपिलश्च गणेशश्च दुर्गा लक्ष्मीः सरस्वती॥
वेदाश्च वेदमाता च सर्वज्ञा राधिका स्वयम्।
एते जानन्ति विश्वार्थं नान्यो जानाति कश्चन॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८४, श्लोक - ५५-५७)

इस पूरे ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य मैं जानता हूँ, ब्रह्माजी जानते हैं, शेषनाग जानते हैं, भगवान् शिव जानते हैं, धर्मराज जानते हैं, सनत्कुमार और नरनारायण ऋषि जानते हैं, कपिलदेव और भगवान् गणेश जानते हैं, देवी दुर्गा जानती हैं, लक्ष्मीजी और देवी सरस्वती जानती हैं, सभी वेद जानते हैं, वेदमाता गायत्री और सर्वज्ञा राधिका जानती हैं। ये सब विश्व को सम्पूर्णता से जानते हैं, इनके अतिरिक्त कोई नहीं। पुनः आगे कहा -

रासे सम्भूय रामा सा दधार पुरतो मम।
तेन राधा समाख्याता पुरा विद्भिः प्रपूजिता॥
प्रहृष्टा प्रकृतिश्चास्यास्तेन प्रकृतिरीश्वरी।
शक्ता स्यात्सर्वकार्येषु तेन शक्तिः प्रकीर्तिता॥

रास में आकर उन्होंने मुझे पकड़ लिया, धारण कर लिया था, अतः उन्हें विद्वानों ने राधा कहकर पूजन किया। उनका स्वभाव प्रसन्न रहने का है, अतः प्रकृति और ईश्वरी कहते हैं। सभी कार्यों में समर्थ होने के कारण शक्ति कहलाती हैं।

गोपनादुच्यते गोपी राधिका कृष्णवल्लभा।
देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८१)

सबों की रक्षा करने से कृष्ण की वल्लभा राधा को गोपी कहते हैं। वह परम देवता राधा कृष्णमयी हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में सामवेद की परम्परा के अनुसार राधा शब्द का अर्थ ब्रह्मदेव को भगवान् नारायण ने बताया है -

राधाशब्दस्य व्युत्पत्तिः सामवेदे निरूपिता।
नारायणस्तामुवाच ब्रह्माणं नाभिपङ्कजे॥

राधा का गूढार्थ क्या है ?

रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम्।
आकारो गर्भवासञ्च मृत्युञ्च रोगमुत्सृजेत्॥
धकारमायुषो हानिमाकारो भवबन्धनम्।
श्रवणस्मरणोक्तिभ्यः प्रणश्यति न संशयः॥
रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदाम्बुजे।
सर्वेप्सितं सदानन्दं सर्वसिद्धौघमीश्वरम्॥
धकारः सहवासञ्च तत्तुल्यकालमेव च।
ददाति सार्ष्णिं सारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः स्वयम्॥
आकारस्तेजसो राशिं दानशक्तिं हरौ यथा।
योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालहरिस्मृतिम्॥
(ब्रह्मवैवर्त्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १३)

'र'कार करोड़ों जन्मों के पापसमूह और शुभाशुभ कर्मभोग को कहते हैं। 'आ'कार गर्भवास और मृत्यु आदि को व्यक्त करता है। 'ध'कार आयु की हानि और 'आ'कार संसाररूपी बन्धन को दर्शाता है। राधानाम के श्रवण और स्मरण से यह सब अर्थ और विकार नष्ट हो जाते हैं और नवीन अर्थ हो जाता है। 'र'कार से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में निश्चल भक्ति और सेवाभाव की उपलब्धि हो जाती है। सभी प्रकार के आनन्द और सिद्धियों का समूह द्योतित होता है। 'ध'कार से श्रीकृष्ण के साथ नित्य रहना होता है और उनके सायुज्य तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। आ'कार से उनके ही समान तेजस्विता और दानशक्ति का बोध होता है। योगबल और सदैव श्रीकृष्णचिन्तन प्राप्त होता है। अब श्रीकृष्ण कौन हैं ?

ककारः कमलाकान्त ऋकारो राम इत्यपि।
षकारः षड्‍गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत्॥
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक्।
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी॥
सम्प्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि।
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १५)

'कृष्णः' शब्द में 'क्' का अर्थ है, कमला अर्थात् लक्ष्मीदेवी का स्वामी। 'ऋ' का अर्थ है सबों को चित्त को अपने मे रमण कराने वाले राम। 'ष्' का अर्थ है श्वेतद्वीप में निवास करने वाले बल, तेज, ज्ञानादि षडैश्वर्य के अधिपति विष्णु। 'ण्' का अर्थ है, सभी नरसंज्ञक जीवों में सिंह के समान अग्रणी नरसिंह। 'अ' का अर्थ कभी नष्ट न होने वाला अक्षरपुरुष, जो अग्निभोजी (सर्वयज्ञानां भोक्ता) है। कृष्ण शब्द में प्राणसञ्चारक विसर्ग साक्षात् जीवात्मा एवं परमात्मारूपी नर एवं नारायण ऋषि हैं। जिस शुद्धस्वरूप महान् आत्मा (चेतन) में यह छः अर्थ पूर्ण रूप से लीन हैं, उस परिपूर्णतम तत्त्व को 'कृष्ण' कहा जाता है।

श्रीधरस्वामी महाभारत के आश्रय से व्यक्त करते हैं -
कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्चनिर्वृतिवाचकः। कृष्णस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्त्वतः॥

कृषि शब्द से पृथ्वी (जगत्) का वाचन होता है और ण अक्षर निर्वृत्ति का वाचक है। इस प्रकार से सत्वगुण का विस्तार करने वाले विष्णु संसार से मुक्त करने के कारण कृष्ण कहलाते हैं। आकृष्ट करने से भी कृष्ण हैं - कर्षणात्कृष्णः। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -

जगन्माता च प्रकृतिः पुरुषश्च जगत्पिता।
गरीयसीति जगतां माता शतगुणैः पितुः॥
राधाकृष्णेति गौरीशेत्येवं शब्दः श्रुतौ श्रुतः।
कृष्णराधेशगौरीति लोके न च कदा श्रुतः॥

प्रकृति संसार की माता है और पुरुष संसार का पिता है। जगत्पिता की अपेक्षा जगन्माता सौ गुणा महान् है। वेदों में राधाकृष्ण, गौरीश आदि शब्द ही सुनने में आते हैं, कृष्णराधा या ईशगौरी नहीं। फिर आगे स्पष्ट कहा -

आदौ पुरुषमुच्चार्य पश्चात्प्रकृतिमुच्चरेत्।
स भवेन्मातृगामी च वेदातिक्रमणे मुने॥

जो पहले पुरुष का नाम लेकर बाद में प्रकृति का नाम लेता है, हे नारद ! उसे वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने के कारण माता से सम्भोग करने का पाप लगता है। एक और प्रमाण देखें -

गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजस्समर्चयेत्।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे॥
(सम्मोहनतन्त्र)

भगवान् शिव भी कहते हैं - हे शिवे ! गौरतेज (श्रीराधा) के बिना जो श्यामतेज (श्रीकृष्ण) की पूजा, जप अथवा ध्यान करता है, वह पातकी होता है। 

स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में कहते हैं -

आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ।
आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते गूढवेदिभिः॥

उन श्रीकृष्ण की आत्मा राधिका हैं और उनके साथ ही रमण करने से इस रहस्य को जानने वाले बुद्धिमान् उन्हें आत्माराम कहते हैं। आत्मा से युक्त होकर ही देह सार्थक है। शक्ति से युक्त शक्तिमान् की सार्थकता है, अतः कहा -

आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः।
व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ४९, श्लोक - ६०)

बुद्धिमान् को चाहिए कि पहले राधा और फिर कृष्ण का उच्चारण करे। विपरीत करने से उसे ब्रह्महत्या लगती है, इसमें संशय नहीं है।

कथाविस्तार के भय से मैं पूरा वृत्तान्त नहीं बता रहा हूँ किन्तु इच्छुक जन श्रीमद्देवीभागवत में श्रीराधाचरित्र विस्तार से पढ़ सकते हैं। जो मूर्ख हैं, वे कहते हैं कि भागवत में श्रीराधाजी नहीं हैं। और जो दूसरे मूर्ख हैं, वे श्रीराधाजी का नाम ईंट रोड़ा जोड़कर र और ध शब्दमात्र से श्रीमद्भागवत में राधाजी को सिद्ध करने बैठ जाते हैं। श्रीमद्भागवत एकमात्र भागवत नहीं है। पौराणिक परम्परा में पञ्चभागवत मान्य हैं। वैष्णव परम्परा में शुकदेव-परीक्षित् संवादात्मक श्रीमद्भागवत और उपपुराणभूत अनुभागवत है जिसे आदिपुराण अथवा सनत्कुमार पुराण भी कहते हैं। 

शाक्त परम्परा में वेदव्यास-जनमेजय संवादात्मक देवीभागवत और उसका उपपुराणभूत महाभागवत है, जिसे देवीपुराण भी कहते हैं। इस दोनों के अतिरिक्त एक अन्य देवीपुराण भी है, मैंने तीनों का अध्ययन किया है। हेमाद्रि आदि के वचनों से कालिकापुराण की मूलभागवत संज्ञा है। मैंने परम्परा से इन पांचों भागवतों का अध्ययन और पारायण किया है। श्रीशुकदेवजी के निजी भाववश श्रीमद्भागवत में राधानाम प्रत्यक्ष नहीं आया है किन्तु जहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं थी, ऐसे देवीभागवत और महाभागवत आदि में श्रीराधाजी का प्रत्यक्ष नाम और चरित्र वर्णित है। तान्त्रिक परम्परा में तो कहते हैं कि जहाँ श्रीराधाजी का नाम आ जाए और गायत्री का आख्यान हो, वही ग्रन्थ श्रीमद्भागवतसंज्ञक हो जाता है। पञ्चभागवतों का सङ्केत यहाँ भी प्राप्त है -

एतद्धि पद्मिनीतन्त्रं श्रीमद्भागवतं स्मृतम्।
येषु येषु च शास्त्रेषु गायत्री वर्तते प्रिये॥
पञ्चविष्णोरुपाख्यानं यत्र तन्त्रेषु दृश्यते।
पद्मिन्याश्च गुणाख्यानं तद्धि भागवतं स्मृतम्॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, अष्टादश पटल)

राधातन्त्र के इसी पटल में कात्यायनी देवी का व्रत करने वाली कृष्णकामिनियों को कृष्णप्राप्ति का वरदान मिलने का वर्णन है -

कात्यायन्युवाच
मा भयं कुरुषे पुत्रि कृष्णं प्राप्स्यसि साम्प्रतम्।

आगे कहते हैं -

संस्थिता पद्मिनी राधा यावत्कृष्णसमागमः।
अन्याभिर्गोपकन्याभिर्वर्द्धमाना गृहे गृहे॥

राधातन्त्र में श्रीकृष्ण को कालिकारूप भी कहा है -

कृष्णस्तु कालिका साक्षात् राधाप्रकृतिपद्मिनी।
हे कृष्ण राधे गोविन्द इदमुच्चार्य यत्नतः॥
(वासुदेवरहस्य, राधातन्त्र, उनतीस पटल)

महाभागवत में भी श्रीशिव का राधावतार और देवी का श्रीकृष्णावतार सन्दर्भित है -

कदाचिद्राधिका शम्भुश्चारुपञ्चमुखाम्बुजः।
कृष्णो भूत्वा स्वयं गौरी चक्रे विहरणं मुने॥
(महाभागवत उपपुराण, अध्याय - ५३, श्लोक - १५)

मुण्डमाला तन्त्र में भगवती कहती हैं -

गोलोके चैव राधाहं वैकुण्ठे कमलात्मिका।
ब्रह्मलोके च सावित्री भारती वाक्स्वरूपिणी॥
(मुण्डमालातन्त्र, सप्तम पटल, श्लोक - ७४)

मैं गोलोक में राधा हूँ, वैकुण्ठ में लक्ष्मी हूँ, ब्रह्मलोक में सावित्री, भारती और सरस्वती के रूप से रहती हूँ। नारदपुराण का भी यही मत है -

कृष्णो वा मूलप्रकृतिः शिवो वा राधिका स्वयम्।
एवं वा मिथुनं वापि न केनापीति निश्चितम्॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५९)

नारदपुराण के अनुसार सातों समुद्र भगवती राधाजी की ही सन्तान हैं। एक बार ये दूध पीने की इच्छा से राधाजी के पास जा रहे थे तो उस समय श्रीराधाकृष्ण प्रणयस्थिति में थे अतः द्वारपालों ने इन सातों को बाहर ही रोक दिया। उनमें जो सबसे छोटा समुद्र था, वह चुपके से प्रवेश कर दिया जिससे राधाजी ने उसे खारा होने का शाप दे दिया। बाद में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई बात नहीं, मैं खारे समुद्र के किनारे नित्य निवास करूँगा और इस प्रकार वे जगन्नाथ महाप्रभु बने। अतः सबसे छोटा समुद्र का जल खारा हुआ और सभी समुद्रों के बीच में स्थित हुआ। शेष सब द्वीपों के दिव्य समुद्र दूध, मट्ठे आदि के पूर्ववत् बने रहे। पूरा प्रसङ्ग विस्तारभय से नहीं लिख रहा, प्रधान श्लोकों को देखें -

पुरा सृष्टिक्रमे जाताः समुद्राः सप्त मोहिनि।
राधिका गर्भसम्भूता दिव्यदेहाः पृथग्विधाः॥
××××××××××
ते सप्त सागरा बालाः स्तन्यपानकृतक्षणाः।
ततस्ते सर्वतो दृष्ट्वा मातरं तां जगत्प्रसूम्॥
××××××××××
मा भैष्ट पुत्रास्तिष्ठामि समीपे भवतामहम्।
द्रवरूपा भवन्तस्तु पृथग्रूपचराः सदा॥
वर्तध्वं क्षारतां यातु कनिष्ठोऽभ्यन्तरे स्थितः।
एवमुक्त्वा जगन्नाथो बालकान्विससर्ज ह॥
××××××××××
तेषां तु सान्त्वनोर्थाय समीपस्थः सदाभवत्॥
यः प्रविष्टो रतिगृहं स क्षारोदो बभूव ह।
अन्ये तु द्रवरूपा वै क्षीरोदाद्याः पृथक् स्थिताः॥
(नारदपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ५८)

शिवपुराण, देवीभागवत आदि के अनुसार राधाजी के शाप के कारण सुदामागोप को दैत्ययोनि में शङ्खचूड के रूप में जन्म लेना पड़ा था अतः बदले में राधाजी को उन्होंने शाप दिया कि आपको सौ वर्षों का श्रीकृष्णवियोग होगा। अतः संसार की दृष्टि से श्रीराधाकृष्ण का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हुआ। उनका गुप्त विवाह ब्रह्मदेव ने भाण्डीरवट के समीप कराया था। प्रधान श्लोकों को दे रहा हूँ, पूरा प्रसङ्ग सम्बन्धित ग्रन्थ के प्रकरण में स्वयं परिश्रम करके पढ़ें। श्लोक २१ देखें, ब्रह्मदेव ने विवाह कराने से पूर्व कहा -

अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम्।
स्वयं त्वसङ्ख्याण्डपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम्॥

जो अनादि हैं, सबके आदि हैं, पुरुषोत्तमों के भी पुरुषोत्तम हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाले ऐसे परात्पर ब्रह्म, असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी, राधा के पति आप श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण में जाता हूँ। फिर आगे बहुत लम्बी स्तुति है, विवाह के विधानों का वर्णन करने के बाद श्लोक ३४ में देखें -

संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृताञ्जली मौनयुतौ पितामहः।
तौ पाठयामास तु पञ्चमन्त्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम्॥

मौन होकर पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों को उत्तम आसन पर बैठाकर हाथ जोड़कर विवाहसम्बन्धी पांच मन्त्र पढ़वाकर, पिता के समान राधाजी का कन्यादान करके उन्हें श्रीकृष्ण को सौंप दिया। इस समय राधाकृष्ण का शरीर किशोरावस्था के समान था। विवाह के बाद उनकी दाम्पत्यलीला का वर्णन है, फिर श्लोक ५० में देखें -

हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि॥

जब श्रीहरि की शृङ्गारलीला पूर्ण हुई तो श्रीराधाजी ने विश्राम का विचार किया और श्रीकृष्ण अपने किशोरस्वरूप को छोड़कर छोटे बच्चे बन गए। इसके बाद उनके बालकों के समान भूमि पर लोटने और रोने का वर्णन है, जिससे वियोगवश राधाजी व्यथित हो गयीं किन्तु शाप को स्मरण करके उन्होंने श्रीकृष्ण को गोद मे उठाया और वन से उनके घर ले गयीं। तब श्रीकृष्ण को सकुशल देखकर यशोदाजी ने कहा -

उवाच राधां नृप नन्दगेहिनी
धन्यासि राधे वृषभानुकन्यके
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने॥
(गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड, अध्याय - १६, श्लोक - ५४)

नन्दपत्नी यशोदाजी ने अपने पुत्र को देखकर राधाजी से कहा - हे वृषभानु की पुत्री राधिके ! तुम धन्य हो। आज बहुत तेज वर्षा होने वाली है और मेरा बालक वन की ओर चला गया था, सो तुमने उसे यहाँ वापस लाकर बड़े भय से उसकी रक्षा की। 

क्रमशः ...

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
__________

श्रीराधातत्त्वविमर्श - ०२

इस विवाह की बात गर्गाचार्य जी ने नन्दराय को बतायी भी थी किन्तु उन्होंने गोपनीय रखा। जब गोवर्द्धनधारण की लीला हुई तो गोपों को सन्देह हुआ। उन्होंने पूछा कि नन्दजी ! हम गोपों में तो ऐसा अद्भुत पराक्रम देखने को नहीं मिलता है। बलराम यदि ऐसा करते तो समझ में आता है क्योंकि वे वसुदेव-रोहिणी से उत्पन्न क्षत्रिय हैं, किन्तु कृष्ण तो आपकी सन्तान है और गोपों में इतना पराक्रम प्राकृतिक नहीं लगता। ऊपर से आप भी गोरे, यशोदाजी भी गोरी, तो यह आपका बालक काला कैसे हो गया ?

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक्।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥
यद्वास्तु क्षत्रियाणां तु बाल एतादृशो यथा।
बलभद्रे न दोषः स्याच्चन्द्रवंशसमुद्‌भवे॥

तब न चाहते हुए भी नन्दजी को गर्गाचार्य की बात बतानी पड़ी और उन्होंने कहा -

वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि।
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः॥
(गर्गसंहिता, गिरिराजखण्ड, अध्याय - ०५, श्लोक - १५-१६)

सभी इन्द्रियों को वसु कहते हैं, उन्हीं का देवता चित्त भी है। जो उनमें चेष्टा करे, वह वासुदेव कहलाता है। (इस प्रकार उन्होंने प्रत्यक्ष तो नहीं, किन्तु सङ्केत कर दिया कि श्रीकृष्ण वसुदेवपुत्र हैं) वृषभानु की जो पुत्री कीर्ति से उत्पन्न हुई थी, उस राधा का यह साक्षात् पति है, अतः इसे राधापति भी कहते हैं।

श्रीकरपात्री स्वामीजी का उदाहरण देकर कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने भी श्रीमद्भागवत में राधावन्तः शब्द और राधाजी को स्वीकार किया है। ध्यातव्य है कि यह उनका सिद्धान्तपक्ष नहीं है। एक भक्त के इस भाव को उन्होंने राधादर्शन के निमित्त स्वीकार किया है। श्रीराधासुधा आदि ग्रन्थों में तो उन्होंने शास्त्रीय पक्षों की ही सिद्धान्तव्याख्या की है। मूलप्रसङ्ग के अनुसार सदर्थप्रकाशन करने के अनन्तर भक्त अपनी भावसिद्धि हेतु उसी शब्द के अनेकों भाव व्यक्त करता है, यह भिन्न विषय है, इसे सिद्धान्तपक्ष में परिगणित नहीं किया जाता है। 

अब कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि राधाजी का विवाह रायाणगोप से हुआ था, अथवा इस अनुसार राधाजी श्रीकृष्ण की मामी लगती थीं, आदि आदि। रायाण गोप स्वयं भगवान् के अंशभूत बारह गोपपार्षदों में हैं -

स च द्वादशगोपानां रायाणः परमः प्रिये।
श्रीकृष्णांशश्च भगवान् विष्णुतुल्यपराक्रमः॥

इन रायाण से वास्तविक राधा का नहीं, अपितु छायाराधा का विवाह हुआ था। छायाराधा पिछले जन्म में केदार की पुत्री वृन्दा थी। भगवान् ने उसे बताया था कि जब राधाजी का विवाह रायाणगोप से निश्चित होगा तो वास्तविक राधा अन्तर्धान हो जाएगी और उनके स्थान पर छायाराधा आ जाएगी, जिसका विवाह रायाणगोप से होगा। जो वास्तविक राधा होगी, वो मेरे (श्रीकृष्ण) के साथ होगी और जो छायाराधा होगी, वह रायाण की पत्नी बनेगी, जिसे मूर्खतावश लोग वास्तविक राधा समझते रहेंगे।

वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाहं ग्रहीष्यति॥
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा॥
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरूपिणी।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति॥
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा सान्तर्धाना भविष्यति।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति च गोकुले॥
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न हि पश्यन्ति बल्लवाः।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८६, श्लोक - १३७-१४१)

और फिर यही हुआ। बारह वर्ष की होने पर नवयौवन से युक्त राधाजी का विवाह रायाण वैश्य के साथ निश्चित कर दिया गया और वास्तविक राधा अन्तर्धान हो गयीं एवं उनका स्थान छाया राधा ने ले लिया -

अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम्।
सार्द्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः॥
छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानं चकार ह।
बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहच्छायया सह॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण)

माहेश्वरतन्त्र भगवान् शिव को समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ था। उसके अध्याय - २६, श्लोक - १४ में कहते हैं - इदं माहेश्वरं तन्त्रं समाधौ यच्छ्रुतं मया। अध्याय - ०९, चौथे श्लोक में कहते हैं - वृषभानुगृहे जाता राधिकेति च विश्रुता। भगवान् श्रीकृष्ण को गोपियों और पार्श्वस्थित राधाजी के साथ देखकर श्रुतियाँ अत्यन्त विस्मित हुईं। कोई गोपी उन्हें चँवर डुला रही थी, कोई उनके सम्मुख दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी, कोई गोपी मणिमयी दीपमालिका सजाकर राधामाधव के मुखकमल की आरती उतार रही थी -

काचिद्गोपी सचमरकरा बीजयन्ती स्वकान्तं
काचिच्चाग्रे करयुगपुटं कृत्य तस्थौ निरीहा।
काचित्स्थाल्यां मणिगणमयीं कृत्य दीपावलिं तां राधाकृष्णप्रतिमुखगता कुर्वती दीपकृत्यम्॥
(माहेश्वरतन्त्र, अध्याय - ५०, श्लोक - ४५) 

बैल के रूप में आए अरिष्टासुर को मारने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण गौवध की आशंका से जब चिन्तित हो गए थे तो राधाजी ने राधाकुण्ड का निर्माण करके उसके पवित्र जल से उन्हें स्नान कराया था -

स्नातस्तत्र तदा कृष्णो वृषं हत्वा महासुरम्।
वृषहत्यासमायुक्तः कृष्णश्चिन्तान्वितोऽभवत्॥
वृषो हतो मया चायमरिष्टः पापपूरुषः।
तत्र राधा समाश्लिष्य कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥
स्वनाम्ना विदितं कुण्डं कृतं तीर्थमदूरतः।
राधाकुण्डमिति ख्यातं सर्वपापहरं शुभम्॥
(वराहपुराण, अध्याय - १६४)

धर्मरक्षा हेतु अपने श्रीकृष्णावतार की भविष्यवाणी करते हुए भगवान् विष्णु ने ब्रह्मदेव को वृषभानुजा राधाजी के अवतार की भविष्यवाणी भी बतायी थी -

भूभारासुरनाशार्थं पातुं धर्मं च धार्मिकान्।
वसुदेवाद्भविष्यामि देवक्यां मथुरापुरे॥
कृष्णोहं वासुदेवाख्यस्तथा सङ्कर्षणो बलः।
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भविष्यन्ति यदोः कुले॥
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति।
वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज॥
(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, वासुदेवमाहात्म्य, अध्याय - १८)

श्रीराधाजी की प्रार्थना पर कल्कि अवतार लेंगे, यह भविष्यवाणी भी द्रष्टव्य है -

राधया प्रार्थितोऽहं वै यदा कलियुगान्तके।
समाप्य च रहःक्रीडां कल्की च भवितास्म्यहम्॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड - ०४, अध्याय - ०५, श्लोक - २८)

स्वयं सुदर्शनावतार निम्बार्काचार्य जी कहते हैं -

नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै
नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै।
सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्तः 
प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्थम्॥

परम वैष्णव श्रीजीवगोस्वामीजी लिखते हैं कि जीवन और मरण दोनों में श्रीराधाकृष्ण ही उनकी गति हैं -

कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवने निधने नित्यं राधाकृष्णौ गतिर्मम॥

श्रीरूपगोस्वामीजी कहते हैं कि दुर्गम वेदों के सार, सृष्टि और संहार करने वाले, नवीन किशोरस्वरूप, नित्य वृन्दावन में रहने वाले, भय आदि को दूर करने वाले, पापियों को तारने वाले श्रीराधाकृष्ण का भजन करो। अरे मन ! भजन करो।

अगमनिगमसारौ सृष्टिसंहारकारौ 
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ।
शमनभयविनाशौ पापिनस्तारयन्तौ 
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ॥

श्रीचैतन्यमहाप्रभु, हितहरिवंश महाप्रभु, भक्तराज खड्गसेन आदि का तो पूरा जीवन राधाभक्ति से ओतप्रोत रहा है। श्रीराधाजी कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं जिन्हें विधर्मियों ने बाद में मिला दिया।  

त्रैलोक्यपावनीं राधां सन्तोऽसेवन्त नित्यशः।
यत्पादपद्मे भक्त्यार्घ्यं नित्यं कृष्णो ददाति च॥
(नारदपाञ्चरात्र, द्वितीय रात्र, अध्याय - ०६, श्लोक - ११)

भगवान् शिव कहते हैं - सज्जन सदैव उन त्रिलोकपावनी राधाजी की सेवा करते हैं, जिसके चरण कमलों में स्वयं श्रीकृष्ण भक्तिपूर्वक नित्य अर्घ्य प्रदान करते हैं। सनत्कुमारसंहिता में कहते हैं - हे कृष्ण की स्वामिनी ! कृष्ण की प्राणभूता ! कृष्ण को मन को चुराने वाली ! भक्तों को अपना धाम देने वाली राधिके ! तुम मुझपर प्रसन्न हो -

राधे राधे च कृष्णेशे कृष्णप्राणे मनोहरे। 
भक्तधामप्रदे देवि राधिके त्वं प्रसीद मे॥
(सनत्कुमारसंहिता)

नारदपाञ्चरात्र में ही कहते हैं - जैसे श्रीकृष्ण ब्रह्मस्वरूप हैं तथा प्रकृति से सर्वथा परे हैं, वैसे ही श्रीराधा भी ब्रह्मस्वरूपिणी, माया से निर्लिप्त तथा प्रकृति से परे हैं। श्रीकृष्णके प्राणोंकी जो अधिष्ठातृदेवी हैं, वे ही श्रीराधा हैं।

यथा ब्रह्मस्वरूपश्च श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः।
तथा ब्रह्मस्वरूपा च निर्लिप्ता प्रकृतेः परा॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी या राधारूपा च सा मुने।

और कहते हैं,

सौभाग्यासु सुन्दरीषु राधा कृष्णप्रियासु च।
हनुमान्वानराणां च पक्षिणां गरुडो यथा॥
(नारदपाञ्चरात्र, प्रथम रात्र, अध्याय- ०१)

जैसे वानरों में हनुमान् और पक्षियों में गरुड सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाली सभी सौभाग्यवती स्त्रियों में राधाजी श्रेष्ठ हैं। 

वस्तुतः राधा और कृष्ण में कोई भेद शास्त्रज्ञजन देखते ही नहीं हैं। जैसे दूध और उसकी सफेदी एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही श्रीराधाकृष्ण को एक दूसरे से अभिन्न जानना चाहिए -

त्वं कृष्णाङ्गार्धसंभूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः।
श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम्॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १५)

वेदों और पुराणों में, कहीं भी राधा और कृष्ण में भेद नहीं बताया गया है -

त्वमेव राधा त्वं कृष्णस्त्वं पुमान्प्रकृतिः परा। राधामाधवयोर्भेदो न पुराणे श्रुतौ तथा॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ९४, श्लोक - ०५)

द्वारिका में जो शक्तिरूपा प्रकृति रुक्मिणी कहलाती हैं, वही वृन्दावन में राधाजी हैं। 

रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने॥
(मत्स्यपुराण, अध्याय - १३, श्लोक - ३८)

वृन्दावन में श्रीराधाजी की आठ प्रकृतियाँ हो जाती हैं, जिनमें नाम निम्न हैं -

अष्टौ प्रकृतयः पुण्याः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः।
प्रधानप्रकृतिस्त्वाद्या राधा चन्द्रावती समा॥
चन्द्रावली चित्ररेखा चन्द्रा मदनसुन्दरी।
प्रिया च श्रीमधुमती चन्द्ररेखा हरिप्रिया॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ७०, श्लोक - ०७-०८)

प्रधान प्रकृति श्रीराधाजी हैं। फिर उनके ही समान चन्द्रावती हैं। फिर चन्द्रावली, चित्ररेखा, चन्द्रा, मदनसुन्दरी, मधुमती, चन्द्ररेखा और प्रिया अथवा हरिप्रिया। श्रीगर्गसंहिता में बताया गया -

ये राधिकायां मयि केशवे मनाग् -
भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्ल्यवत्।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद् -
अहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः॥ 
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय - १२, श्लोक - ३२)

दूध और उसकी श्वेत कान्ति की भांति जो लोग मुझ कृष्ण में और राधिका में भेद नहीं देखते हैं, अर्थात् एक ही समझते हैं, वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं और वे ही हेतुरहित प्रगाढ़भक्तिके अधिकारी हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी कहा गया है -

योगेनात्मा सृष्टिविधौ द्विधारूपो बभूव सः।
पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः॥ (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - १२, श्लोक - ०९)

परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचनाके समय दो रूपवाले हो गये। दाहिने से पुरुष और बाएं से प्रकृति राधाजी हो गयीं। इसी बात को वेदों ने भी कहा -

राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका विभ्राजन्ते जनेष्विति।
(आश्वलायनशाखा, ऋक्-परिशिष्ट)

स्वयं भगवान् ने अपने वात्सल्यवियोग में कष्ट पा रही यशोदाजी और नन्दबाबा को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु राधाजी के पास भेजा है -

ज्ञानं मोक्षात्मकं सिद्धं परं निर्वाणकारणम्।
निवृत्तिमार्गमारूढं भक्तस्तत्रैव वाञ्छति॥
भक्त्यात्मकं च यज्ज्ञानं तुभ्यं राधा प्रदास्यति।
तस्यां च मानवं भावं त्यक्त्वा ज्ञानं करिष्यति॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ११०, श्लोक - १४-१५)

जो अधम लोग श्रीराधाकृष्ण में भेदबुद्धि करते हैं, उनका अपने पूर्वजों के साथ घोर नरक में पतन होता है। उनका वंशनाश होता है, वे विष्ठा के कीड़े बनते हैं और कालसूत्रादि भयङ्कर नरकों में यातना पाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं -

राधामाधवयोर्भेदं ये कुर्वन्ति नराधमाः।
वंशहानिर्भवेत्तस्य पच्यन्ते नरकं चिरम्॥
यान्ति शूकरयोनिञ्च पितृभिः शतकैः सह।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां कृमयस्तथा॥

कुछ ऐसा ही मत गर्गसंहिता का भी है। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं -

ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता 
रम्भोरु यावत्किल चन्द्रभास्करौ ॥ 
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय - १५)

वेदों की काण्वशाखा के सन्दर्भ में ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं कि श्रीकृष्ण की प्रिया राधिकाजी का जो लोग उपहास करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं, वे कल्पपर्यन्त घोर नरकों में जाते हैं, विष्ठा के कीड़े बनते हैं, वेश्याओं की योनि के (गुप्तरोग के) कीड़े बनते हैं। उन्हें ब्रह्महत्या लगती है और उन्हें गर्म तेल में छाना जाता है, इसमें संशय नहीं है -

ये वा द्बिषन्ति निन्दन्ति पापिनश्च हसन्ति च।
कृष्णप्राणाधिकां देव देवीञ्च राधिकां पराम्॥
ब्रह्महत्याशतं ते च लभन्ते नात्र संशयः।
तत्पापेन च पच्यन्ते कुम्भीपाके च रौरवे॥
तप्ततैले महाघोरे ध्वान्ते कीटे च यन्त्रके।
चतुर्द्दशेन्द्रावच्छिन्नं पितृभिः सप्तभिः सह॥
ततः परमजायन्त जन्मैकं कोलयोनितः।
दिव्यं वर्षसहस्रञ्च विष्ठाकीटाश्च पापतः॥
पुंश्चलीनां योनिकीटास्तद्रक्तमलभक्षणाः। 
मलकीटाश्च तन्मानवर्षञ्च पूयभक्षकाः।
वेदे च काण्वशाखायामित्याह कमलोद्भवः॥

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के स्कन्ध - ०९, अध्याय - ०४ में तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ०४ में दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री को सृष्टिकाल में मूलप्रकृति के पांच रूपों के रूप में गिना गया है। 

गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती।
सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता॥

इसका समर्थन महाभागवत आदि में भी मिलता है। नारदपुराण के पूर्वार्ध, अध्याय - ८३ में इन पांचों के पञ्चप्रकृतिमन्त्रकवचादि का निरूपण उपलब्ध है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ५६ में अलग से राधाकवच भी वर्णित है। अनेकानेक राधातन्त्र, सम्मोहनतन्त्रादि ग्रन्थों में नामावली और पूजापद्धतियों का भी व्यापक वर्णन है। 

भगवान् शिव ने भी राधामन्त्र की दीक्षा ग्रहण की है। भगवान् नारायण ने उन्हें कहा है कि श्रीकृष्ण की प्रसन्नता चाहिए तो श्रीराधाजी की शरण में जाना ही होगा। यह बड़ा अद्भुत रहस्य है। कोई श्रीकृष्ण की शरणागति तो प्राप्त कर ले किन्तु राधाजी की कृपा न हो तो वह कभी श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता है, अतः हे महादेव ! आप मेरे युगलमन्त्र का जप करें, इससे आप मुझे भक्तिपूर्वक वश में कर लेंगे -

यो मामेव प्रपन्नश्च मत्प्रियां न महेश्वर।
न कदापि स चाप्नोति मामेवं ते मयोदितम्॥
सकृदेव प्रपन्नोयस्तवास्मीति वदेदपि।
साधनेन विनाप्येव मामाप्नोति न संशयः॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मत्प्रियां शरणं व्रजेत्।
आश्रित्य मत्प्रियां रुद्र मां वशीकर्त्तुमर्हसि॥
इदं रहस्यं परमं मया ते परिकीर्तितम्।
त्वयाप्येतन्महादेव गोपनीयं प्रयत्नतः॥
त्वमप्येनां समाश्रित्य राधिकां मम वल्लभाम्।
जपन्मे युगलं मन्त्रं सदा तिष्ठ मदालये॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८२, श्लोक - ८४-८८)

ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद एक स्वर से कहते हैं -

स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता॥

ऋग्वेद और सामवेद कहते हैं -

इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते । पिबा त्वस्य गिर्वणः॥ 

वह एक ही ब्रह्मज्योति राधा और माधव, दो रूपों में हो गयी, ऐसा श्रीशिवजी कहते हैं -

तस्माज्ज्योतिरभूद्वेधा राधामाधवरूपकम्।
(सम्मोहनतन्त्र)

ब्रह्म का रसस्वरूप भी तैत्तरीय श्रुति बताती है - रसो वै सः। वह अनादिब्रह्म रसस्वरूप होकर अद्वितीय होता हुआ भी राधा और कृष्ण दो आनन्दमय लीलासिद्ध रूपों में कैसे हो जाता है, यह उपनिषत् बताते हैं -

रसिकानन्दस्य अनादिसंसिद्धा लीलाः भवन्ति। अनादिरयं पुरुष एक एवास्ति। तदेव रूपं द्विधा विधाय समाराधनतत्परोऽभूत् । तस्मात् तां राधां रसिकानन्दां वेदविदो वदन्ति।
(सामरहस्योपनिषत्)

श्रीमद्भागवत के रासप्रकरण में कहा कि भगवान् ऐसे लीला कर रहे थे जैसे कोई अपने प्रतिबिम्ब के साथ हो। राधिकोपनिषत् में वेद यही कहते हैं कि एक होकर राधा और कृष्ण क्रीडालीला के निमित्त रसपूर्ण दो स्वरूपभेद से छायावत् हो जाते हैं, जिनके बारे में सुनकर और पढ़कर व्यक्ति परमधाम जाता है। 

येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धि -
र्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत्।
देहो यथा छायया शोभमानः 
शृण्वन् पठन् याति तद्धाम शुद्धम् ॥ 
(श्रीराधिकोपनिषत् - १२)

ये श्रीराधामाधव ही साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमामृतस्वरूप परब्रह्म हैं - 

परब्रह्मसच्चिदानन्दराधा कृष्णयोः परस्परसुखाभिलाषरसास्वादन इव तत्सच्चिदानन्दामृतं कथ्यते॥
(राधोपनिषत्)

जैसे अग्निज्वाला से चिंगारी का निकलना, पुनः उससे महाज्वाला का बनना देखा जाता है, वैसे ही सब देवों में सभी अन्य शक्तियाँ निहित होती ही हैं।

स एवायं पुरुषः स्वरमणार्थं स्वस्वरूपं प्रकटितवान्।
सर्वे आनन्दरसा यस्मात् प्रकटिता भवन्ति। आनन्दरूपेषु पुरुषोऽयं रमते। स एवायं पुरुषः समाराधनतत्परोऽभूत्। तस्मात् स्वयमेव समाराधनमकरोत्। अतो लोके वेदे च श्रीराधा गीयते॥ 
(सामरहस्योपनिषत्) 

उन राधाजी का उसी इस पुरुष (माधव) ने अपने रमण के लिये अपने अन्दर से निज मूलस्वरूप को प्रकट किया। अतः वेदों के अनुसार भी मूलप्रकृति राधाजी श्रीकृष्ण से कदापि भिन्न नहीं हैं। अथर्ववेद में कहते हैं कि भगवान् बलरामजी को जिज्ञासा हुई कि ये श्रीकृष्ण का तत्त्वरूप क्या है ? तब उन्होंने ज्ञानबुद्धि से चिन्तन किया -

गोकुलाढ्ये माथुरमण्डले वृन्दावनमध्ये सहस्रदलपद्मे षोडशदलमध्ये अष्टदलकेसरे गोविन्दोऽपि श्यामपीताम्बरो द्विभुजो मयूरपिच्छशिराः वेणुवेत्रहस्तो निर्गुणः सगुणो निराकारः साकारो निरीहः स चेष्टते विराजत इति । पार्श्वे राधिका चेति ।
*******
राधाकृष्णयोः एकमासनम्। एका बुद्धिः। एकं मनः। एकं ज्ञानम्। एक आत्मा। एकं पदम्। एका आकृतिः। एकं ब्रह्म। 
(अथर्ववेदीय पुरुषबोधिनी राधोपनिषत् श्रुति)

उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार आदि दिव्यतम स्वरूपों का दर्शन किया, जहाँ उनके बगल में श्रीराधाजी थीं। उन्होंने जाना कि श्रीराधाकृष्ण का आसन, बुद्धि, मन, ज्ञान, आत्मा, पद, आकृति और ब्रह्मतत्त्व एक ही है, भिन्न नहीं। वेदमन्त्रों ने विचार किया और कहा -

सर्वाणि राधिकाया दैवतानि सर्वाणि भूतानि राधिकायास्तां नमामः।
××××××××××
जगद्भर्तुर्विश्वसम्मोहनस्य श्रीकृष्णस्य प्राणतोऽधिकामपि। वृन्दारण्ये स्वेष्टदेवीञ्च नित्यं तां राधिकां वनधात्रीं नमामः॥
(अथर्ववेदीय राधिकातापनीयोपनिषत्)

सभी देवता श्रीराधाजी के ही आश्रय से हैं। सभी प्राणी राधाजी के ही आधार से हैं, ऐसी राधिका को हम प्रणाम करते हैं। फिर आगे कहा, जो विश्व का पालन और सम्मोहन करने वाले श्रीकृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्यारी हैं, वृन्दावन में रहने वाली उन इष्टदेवी  वनदेवी राधिका को हम नित्य प्रणाम करती हैं। 

श्रीरूपगोस्वामीजी ने उज्ज्वलनीलमणि में लिखा है -

ह्लादिनी या महाशक्तिः सर्वशक्तिवरीयसी ।
तत्सारभावरूपेयमिति तन्त्रे प्रतिष्ठिता॥
सुष्ठुकान्तस्वरूपेयं सर्वदा वार्षभानवी।
धृतषोडशशृङ्गारा द्वादशाभरणान्विता॥
(उज्ज्वलनीलमणि, ०४/६-७)

जो सभी शक्तियों में श्रेष्ठ आह्लादिनी शक्ति है, उसका ही सारभूत राधाजी हैं, ऐसा तन्त्रमत है। यह वृषभानुजा सदैव अपने स्वामी को प्रिय लगने वाले सोलह शृंगार एवं बारह आभूषणों से सज्जित रहती हैं। 

श्रीरूपगोस्वामीजी ने जो वर्णन किया है, वही ऋग्वेद में भी वर्णित है -

आह्लादिनीसन्धिनीज्ञानेच्छाक्रियाद्या बहुविधः शक्तयः। तास्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरङ्गभूता राधा। कृष्णेन आराध्यत इति राधा, कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका।
(ऋग्वैदिक राधोपनिषत्)

ब्रह्म की आह्लादिनीशक्ति, सन्धिनीशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति आदि बहुत प्रकार की शक्तियाँ हैं। उनमें सर्वश्रेष्ठ शक्ति आह्लादिनी है, जो उनकी परम अन्तरङ्ग अङ्गीभूता राधाजी हैं। कृष्ण के द्वारा जिनकी आराधना हो, वह राधा हैं और जो सदैव कृष्ण की आराधना करें, वह राधा हैं।

अतः अज्ञानपक्षीय भ्रम या अश्रद्धा के कारण जिन सनातनी बन्धुओं ने श्रीराधाजी को विधर्मियों का षड्यन्त्र समझकर उनका उपहास किया, उनकी निन्दा की, उनके अस्तित्व को नहीं माना, उन्हें चाहिए कि आगे से श्रीराधाकृष्ण में अभेदबुद्धि की श्रद्धा रखते हुए पद्मपुराण के निम्न वचनों से अपने उद्धार हेतु प्रार्थना करें -

संसारसागरान्नाथौ पुत्रमित्रगृहाकुलात्।
गोप्तारौ मे युवामेव प्रपन्नभयभञ्जनौ॥
योऽहं ममास्ति यत्किञ्चिदिह लोके परत्र च।
तत्सर्वं भवतोरद्य चरणेषु समर्पितम्॥ 
अहमस्म्यपराधानामालयस्त्यक्तसाधनः।
अगतिश्च ततो नाथौ भवन्तावेव मे गतिः॥
तवास्मि राधिकाकान्त कर्मणा मनसा गिरा।
कृष्णकान्ते तवैवास्मि युवामेव गतिर्मम॥
शरणं वां प्रपन्नोऽस्मि करुणानिकराकरौ।
प्रसादं कुरुतं दास्यं मयि दुष्टेऽपराधिनि॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८२, श्लोक - ४२-४६)

हे नाथ ! स्त्री, पुत्र, मित्र और घरसे भरे हुए इस बन्धनरूपी संसारसागरसे आप ही दोनों मुझको बचानेवाले हैं। आप ही शरणागतके भयका नाश करते हैं। मैं जो कुछ भी हूँ और इस लोक तथा परलोक में मेरा जो कुछ भी है, वह सभी आज मैं आप दोनों के चरणकमलों में समर्पण कर रहा हूँ। मैं अपराधों का भंडार हूँ। मेरे अपराधों का पार नहीं है। मैं सर्वथा साधनहीन हूँ, गतिहीन हूँ । इसलिये नाथ ! एकमात्र आप ही दोनों प्रिया-प्रियतम मेरी गति हैं। श्रीराधिकाकान्त श्रीकृष्ण ! और श्रीकृष्णकान्ते राधिके ! मैं तन -मन-वचनसे आपका ही हूँ और आप ही मेरी एकमात्र गति हैं। मैं आपके शरण हूँ, आपके चरणों पर पड़ा हूँ। आप दोनों अखिल कृपा के खान हैं। कृपापूर्वक मुझपर दया कीजिये और मुझ दुष्ट अपराधी को अपना तुच्छ दास बना लीजिये।

अन्त में भगवान् परशुरामजी के भावपूर्ण वचनों के साथ मैं लेख को पूर्ण करता हूँ -

या राधा जगदुद्भवस्थितिलयेष्वाराध्यते वा जनैः
शब्दं बोधयतीशवक्त्रविगलत्प्रेमामृतास्वादनम् ।
रासेशी रसिकेश्वरी रमणदृन्निष्ठा निजानन्दिनी
नेत्री सा परिपातु मामवनतं राधेति या कीर्त्यते॥
(ब्रह्माण्डपुराण, मध्यभाग, अध्याय - ४३, श्लोक - ०८)

जो राधा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के समय लोगों के द्वारा आराधिता होती हैं, अपने स्वामी के मुखारविन्द से निर्गत शब्दरूपी प्रेमामृत का आस्वादन करती हैं, महारास की नायिका, रसिकों की स्वामिनी, सदैव अपने स्वामी की ओर दृष्टि रखने वाली, अपने आनन्द में मग्न, भक्तों का नेतृत्व करने वाली वह देवी सदैव मेरी रक्षा करें, जिन्हें राधा कहा जाता है। 

■ निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु

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