वर्ण व्यवस्था कर्मगत है जन्मगत नहीं, ये ऋग्वेद का पुरुष-सूक्त बतलाता है !!

ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में, परम पुरुष के चरणों से शूद्रों, जाँघों से वैश्य, भुजाओं से क्षत्रिय एवं मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न बताया गया है.
इसी तरह से उसी विराट पुरुष के मस्तक से द्यू लोक, नाभि से आकाश एवं चरण से इस पृथ्वी लोक कि उत्पत्ति हुई है.
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इन श्लोकों का ये मतलब नही बताया गया है कि, कोई वर्ण उच्च हुआ और कोई वर्ण निम्न हुआ, अगर मनुष्यों के उच्च-नीच की लोलुपता इस दुनिया में मानी ही जानी होती तो पृथ्वी भी अछूत मानी जानी चाहिए.
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ये उंच नीच का जन्म मनुष्यों से अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए किया है. न कि भगवान ने उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार दिया है.
इन श्लोकों के बाद सभी वर्णों का कर्तव्य भी बताया है, लेकिन इन्हें जानने से पहले ही मानव अपने स्वार्थ-सिद्धि और स्वार्थ पूर्ती में ऐसा उलझा कि पुरुष सूक्त एवं इसके बाद के श्लोकों का कोई मतलब ही नही है.
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भगवान ने भी सोचा होगा कि किसे उपदेश दे दिया !!
भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में कर्मयोग एवं चौथे अध्याय तथा १६-१८ अध्याय तक सभी तरह के मानवों के कर्मों, गुणों, सभी वर्णों के बारे में एवं कर्मयोग के बारे में बताया है,
कहीं पे भी जन्म आधारित आजीविका का वर्णन नहीं है.
आजीविका चुनने के लिए सभी लोग स्वतंत्र हैं, अर्थात, कोई पंडित शुद्र बन सकता है और कोई शुद्र पंडित बन सकता है, व्यास बन सकता है.

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