देवशयनी एकादशी

********* देवशयनी एकादशी ********
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"शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥"

देवशयनी एकादशी को सबसे महत्वपूर्ण बड़ी एकादशी कहते है । क्योंकि सूर्य दक्षिणायन होते ही चंद्रमा की ऊर्जा बलवतर बनती है और एकादशी पर उनका ऊर्जा प्रवाह पृथ्वी पर होता है । इसलिए साल की सभी 24 एकादशी मे सबसे ज्यादा लाभ इस एकादशी को मिलता है । उपवास से नाभि गरम होती है और मणिपुर चक्र सक्रिय हो जाता है। तिथि के तत्व देवता की शक्ति जागृत होती है , इसलिए उनका यजन पूजन , स्तोत्र , जाप से उनकी प्रसन्नता प्राप्त होती है । महानारायण का नाम , मंत्र , विष्णु सहस्त्र पाठ शीघ्र फलदायी होता है ।

वैज्ञानिक तथ्य :- 

हमारा ये ब्रह्मांड राशि और नक्षत्रों से बंधा हुवा है । हरेक मनुष्य और पशु पक्षी एवं जड़ पदार्थो पर भी अवकाशी Cosmic ऊर्जा की भिन्न भिन्न असर होती है ये विज्ञान सम्मत सिद्धान्त है । पूर्णिमा के आसपास मेन्टल होस्पिटलो मे दर्दी का उन्माद ( पागलपन ) बढ़ जाता है । कुत्ते , बाघ जैसे जंगली पशु खूंखार बन जाते है । सांप , बिच्छू जैसे जहरीले जीवो का काटना इन दिनोंमें ज्यादा होता है । समुद्र मे पानी का उछाल भी चरम पर होती है । ग्रह नक्षत्र नित्य सूर्य की परिक्रमा करते हुवे गतिशील है और इसलिए हर दिन अलग अलग एंगल पर होते है । इस सूक्ष्म विज्ञान को ही खगोलशास्त्र कहते है । मास के 30 दिन की अलग अलग स्थितियों को ही तिथि कहते है । उसदिन पृथ्वी की ओर प्रभावी ऊर्जा जिनकी होती है ये सूक्ष्म विज्ञान समझकर ही वार ओर तिथि पर विविध देवी देवता या ग्रह नक्षत्र पूजा व्रत का विधान उस ऊर्जा का भरपूर लाभ उठाने केलिए है । एकादशी ओर प्रदोषकाल में पृथ्वी पर सबसे ज्यादा चंद्र की ऊर्जा प्रवाहित होती है । उस दिनके उपवास व्रत से पेट खाली रहता है तब नाभि गर्म रहती है और ज्यादसे ज्यादा ग्रह नक्षत्र की ऊर्जा शरीर सोख सकता है । 

उक्त दोनों तिथियों पर व्रत रखने का लाभ : दोनों ही तिथियां चंद्र से संबंधित है। जो भी व्यक्ति दोनों में से एक या दोनों ही तिथियों पर व्रत रखकर मात्र फलाहार का ही सेवन करना है उसका चंद्र कैसा भी खराब हो वह सुधरने लगता है। अर्थात शरीर में चंद्र तत्व में सुधार होता है। माना जाता है कि चंद्र के सुधार होने से शुक्र भी सुधरता है और शुक्र से सुधरने से बुध भी सुधर जाता है। दोनों ही व्रतों का संबंध चंद्र के सुधारने और भाग्य को जाग्रत करने से है अत: किसी भी देव का पूजन करें।

 
चंद्रमा की स्थिति के कारण व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक स्थिति खराब या अच्छी होती है। चंद्रमा की स्थिति का प्रत्येक व्यक्ति पर असर पड़ता ही पड़ता है। ऐसी दशा में एकादशी का ठीक से व्रत रखने पर, सही तरीके से व्रत रखने पर आप चंद्रमा के खराब प्रभाव को, नकारात्मक प्रभाव को रोक सकते हैं। चंद्रमा ही नहीं यहां तक की बाकी ग्रहों के असर को भी आप बहुत हद तक कम कर सकते हैं। एकादशी के व्रत का प्रभाव आपके मन और शरीर दोनों पर पड़ता है।

      जीवात्मा के पूर्वजन्मों कृत कर्म और संस्कार ही प्रारब्ध बनकर अगले जन्ममें सुख दुख के स्वरूपमे आते है ये तो सृष्टि का नियम है , पर कर्म का भुगतान कैसे हो वो जगतपिता की इच्छा है । कोई पुत्र कितनी भी गलती करके पिता की शरणमे आता है तो पिता उन्हें क्षमा करके प्रधान रक्षक बन जाते है । महादेव के वामदेव स्वरूप नारायण हमेशा भक्तवत्सल स्वरूप है । हमारे पास आये अनेक भक्तो को हमने एकादशी का व्रत करवाया और अहोम आश्चर्य सालोंसे समस्याग्रस्त व्यक्तिने शुभ फल पाए । एकादशी का व्रत और विष्णु सहस्त्र पाठ के साथ ॐ नमो नारायण मंत्र के जाप के अद्भुत चमत्कार हमने देखे । इनके महत्व को थोड़ा विस्तृत समझते है ।

      शरीर तंत्र के चक्र मे हर पंद्रह दिनमे एक दिन ऐसा आता है जब शरीर को बिल्कुल खाद्य पेय ऊर्जा की आवश्यकता नही होती । हरेक मनुष्य के लिए वो दिन अलग अलग हो सकता है । जिस साधक की चेतना जागृत होती है वो उस चोकस दिन को जान सकता है पर सब केलिय ये संभव नही है । इसलिए ऋषिमुनियों ने आराध्य देव की तिथि के दिन उपवास करना प्रस्थापित किया । पंद्रह दिन के इस एक दिन उपवास करने से आरोग्य स्वाथ्य के लाभ के साथ साथ आंतरिक चेतना जागृत करने का ये सहज उपाय है । आकाश ब्रह्मांड से नित्य अलग अलग Cosmic ऊर्जा का प्रवाह अविरत शुरू रहता है ये खगोल वैज्ञानिकों ने सर्च किया । चोकस तिथि पर विविध देवताओ की उपासना का यही विज्ञान है कि उस तिथि पर ब्रह्मांडमें पृथ्वी की स्थिति एक चोकस एंगल पर होती है और उसदिन सूर्यलोक,गणपतिलोक,मणिपुरलोक या उनकी ऊर्जाशक्ति से चालित ग्रह नक्षत्र से अधिक से अधिक ऊर्जा पृथ्वी की ओर प्रवाहित होती है तब शरीर हल्का फुल्का हो और जठर खाली हो तो उनकी गर्मी से नाभी ( मणिपुर चक्र ) सक्रिय होता है और आकाशीय ऊर्जा शक्ति को अधिक ग्रहण कर सके इसलिए चतुर्थी को गणेश उपासना व्रत , छष्ठी को सूर्य , एकादशी को नारायण , पूर्णिमा को भगवती , अमावस्या को शिव पूजा व्रत उपवास का महत्व है ।

      एकादशीके दिन आकाश ब्रह्मांडमें पृथ्वी की स्थिति मे जब ब्रह्मांड से भरपूर प्राण तत्व ( वायु तत्व ) पृथ्वी की ओर प्रवाहित होता है । भरपूर Cosmic ऊर्जा का लाभ तब मिलता है जब शरीर हल्का फुल्का हो , मन मस्तिष्क एकाग्र हो इसलिए एकादशी का उपवास व्रत अति महत्वपूर्ण है । प्राण तत्व ही है जो शरीर को पुष्ट रखता है । धन , धान्य , आरोग्य , ऐश्वर्य प्राणशक्ति के आधार से ही मिलता है । 

    विश्वके सभी अणुवैज्ञानिक ज्यादातर अणु प्रयोग भारतीय कैलेंडर की एकादशी के दिन ही क्यों करते है ये भी कोई महत्वपूर्ण विषय है । एकादशी के दिन अणु प्रयोग का परिणाम कोई चोकस परिणामदाई होगा ऐसा लगता है । नासा संस्था के आकाशीय संशोधन मुजब कॉस्मेटिक ऊर्जा प्रवाह एकादशी के दिन अधिक प्रबल होता है । 

एकादशी तिथि ;-

वर्ष के प्रत्येक मास के शुक्ल व कृष्ण पक्ष मे आनेवाले एकादशी तिथियों के नाम, निम्न तालिका । वैदिक मास पालक देवता शुक्लपक्ष एकादशी कृष्णपक्ष एकादशी ।

चैत्र (मार्च-अप्रैल) विष्णु कामदा , वरूथिनी
वैशाख (अप्रैल-मई) मधुसूदन मोहिनी , अपरा
ज्येष्ठ (मई-जून) त्रिविक्रम निर्जला , योगिनी
आषाढ़ (जून-जुलाई) वामन देवशयनी , कामिका
श्रावण (जुलाई-अगस्त) श्रीधर पुत्रदा , अजा
भाद्रपद (अगस्त-सितंबर) हृशीकेश परिवर्तिनी , इंदिरा
आश्विन (सितंबर-अक्टूबर) पद्मनाभ पापांकुशा , रमा
कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) दामोदर प्रबोधिनी , उत्पन्ना
मार्गशीर्ष (नवंबर-दिसम्बर) केशव मोक्षदा , सफला
पौष (दिसम्बर-जनवरी) नारायण पुत्रदा , षटतिला
माघ (जनवरी-फरवरी) माधव जया , विजया
फाल्गुन (फरवरी-मार्च) गोविंद आमलकी , पापमोचिनी
अधिक (3 वर्ष में एक बार) पुरुषोत्तम पद्मिनी परमा
व्रत ।

       एकादशी ओर नारायण उपासना 

   भगवान विष्णु ( नारायण ) की उपासनामे विष्णु सहस्त्र नाम पाठ श्रेष्ठ स्तोत्र है । राम , कृष्ण , बुद्ध या नारायण के किसी भी अवतार की उपासनामें विष्णु सहस्त्र नाम पाठ शीघ्र फलदायी है । नारायण की प्रसन्नता केलिए एकादशी का व्रत करना और तुलसी पूजा उत्तम है । वैष्णव कभी धन धान्य से दुखी नही होता । वैष्णव वो है जो प्राणिमात्रमे नारायण का दर्शन कर ओर हरेक जीव के प्रति सद्भाव रखे । किसी की निंदा , कुथली या अहित करने से नारायण भक्ति अफल हो जाती है । सत्य का आचरण और सद्भाव ही नारायण को प्रिय है इसलिए ही वो सत्यनारायण रूप पूजे जाते है । विष्णु सहस्त्र नाम पाठमे भगवान् के सभी अवतार चरित और गुणों का वर्णन हो जाता है इसलिए सभी स्तोत्र , मंत्र , कवच का पाठ एक ही सहस्त्रनाम पाठ से हो जाता है । 

   जगतपति भगवान श्री नारायण तो इस सृष्टि का पालनकर्ता हैं और ये त्रिदेवों में से एक है । व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक जो भी सुख-दुःख अनुभव करता है वे सभी भगवान नारायण की कृपा पर ही निर्भर है, स्वभाव से शांत और आनंदमयी श्री भगवान सदैव क्षीर सागर में शेषनाग पर विश्राम की अवस्था में विराजमान होकर सृष्टि का भरण पोषण करते रहते हैं । श्री भगवान की आराधना से व्यक्ति के सभी पापों का, रोगों का नाश हो जाता है, और वह जीवन में सभी सुखों को प्राप्त करता है । अगर श्री भगवान के मूल मंत्रों की नियमित जप साधना की जाय तो भगवान नारायण अति शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों की हर मनोकामनां पूरी करते हैं ।

 मूल मंत्र :-

         ।। ॐ नमोः नारायणाय ।।

      श्री भगवान के मूल मंत्र की साधना करने के लिए या तो श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर का चयन कर सकते हैं या अपने घर का ही पूजा स्थल । अगर में पहले से ही भगवान नारायण की फोटो या मूर्ति स्थापित है तो उसके सामने पीले वस्त्र का आसन बिछाकर कलश और दीपक स्थापना करें । अब साधक भी भगवान के सामने कुशा के पीले आसन पर बैठ जाये एवं फिर उपरोक्त मूल मंत्र की 3 माला (तुलसी की माला से ) शुद्ध होकर करें । मंत्र जप के बाद श्री भगवान की आरती करें एवं अपने कार्य की पूर्णता के लिए दंडवत लेटकर प्रार्थना करें । भगवान श्री नारायण की कृपा से साधक के सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं ।

विष्णु सहस्रनाम पाठ :-
 
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम: 
 
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।
 
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च ।। 2 ।।
 
योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः ।
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ।। 3 ।।
 
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः ।। 4 ।।
 
स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।।
 
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। 6 ।।
 
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं ।। 7।।
 
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः ।। 8 ।।
 
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान ।। 9 ।।
 
सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। 10 ।।
 
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः ।
वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।। 11 ।।
 
वसु:वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।। 12 ।।
 
रुद्रो बहु-शिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि-श्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः ।। 13 ।।
 
सर्वगः सर्वविद्-भानु:विष्वक-सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।। 14 ।।
 
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता-कृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूह:-चतुर्दंष्ट्र:-चतुर्भुजः ।। 15 ।।
 
भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। 16 ।।
 
उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः ।
अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। 17 ।।
 
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। 18 ।।
 
महाबुद्धि: महा-वीर्यो महा-शक्ति: महा-द्युतिः।
अनिर्देश्य-वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि-धृक ।। 19 ।।
 
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां-पतिः ।। 20 ।।
 
मरीचि:दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। 21 ।।
 
अमृत्युः सर्व-दृक् सिंहः सन-धाता संधिमान स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। 22 ।।
 
गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य-पराक्रमः ।
निमिषो-अ-निमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार-धीः ।। 23 ।।
 
अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात ।। 24 ।।
 
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः ।। 25 ।।

 सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः ।
सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः ।। 26 ।।
 
असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। 27।।
 
वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।। 28 ।।
 
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः ।
नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। 29 ।।
 
ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र:चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः ।। 30 ।।
 
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः ।। 31 ।।
 
भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः ।
कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। 32 ।।
 
युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित ।। 33 ।।
 
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः ।। 34 ।।
 
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। 35 ।।
 
स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।
 
अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर: ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। 37 ।।
 
पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत ।
महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ।। 38 ।।
 
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः ।। 39 ।।
 
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः ।। 40 ।।
 
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।। 41 ।।
 
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः ।
परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। 42 ।।
 
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः ।। 43 ।।
 
वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। 44।।
 
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः ।। 45 ।।
 
विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम ।
अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।। 46 ।।
 
अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः ।
नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। 47 ।।
 
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं ।। 48 ।।
 
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत ।
मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। 49 ।।
 
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।। 50 ।।
 
 धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः ।। 51 ।।
 
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः ।। 52 ।।
 
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः ।। 53 ।।
 
सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। 54 ।।
 
जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः ।। 55 ।।
 
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। 56 ।।
 
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत ।। 57 ।।
 
महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी ।
गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः ।। 58 ।।
 
वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः ।
वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। 59 ।।
 
भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।
 
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवि:स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति:अयोनिजः ।। 61 ।।
 
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक ।
संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम ।। 62 ।।
 
शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। 63 ।।
 
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। 64 ।।
 
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः ।। 65 ।।
 
स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर: ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।। 66 ।।
 
उदीर्णः सर्वत:चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। 67 ।।
 
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। 68 ।।
 
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। 69 ।।
 
कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः ।। 70 ।।
 
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। 71 ।।
 
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। 72 ।।
 
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। 73 ।।
 
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। 74 ।।
 
सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। 75 ।।
 
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः ।। 76 ।।
 
विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति:दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। 77 ।।
 
एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम ।
लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। 78 ।।
 
सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः ।। 79 ।।
 
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। 80 ।।
 
 तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ।। 81 ।।
 
चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु:श्चतुर्व्यूह:चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भाव:चतुर्वेदविदेकपात ।। 82 ।।
 
समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।। 83 ।।
 
शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः ।
इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। 84 ।।
 
उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी ।। 85 ।।
 
सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः ।। 86 ।।
 
कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः ।
अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।। 87 ।।
 
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ:चाणूरांध्रनिषूदनः ।। 88 ।।
 
सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः ।। 89 ।।
 
अणु:बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। 90 ।।
 
भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। 91 ।।
 
धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः ।। 92 ।।
 
सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः ।। 93 ।।
 
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। 94 ।।
 
अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः ।। 95।।
 
सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः ।। 96 ।।
 
अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। 97 ।।
 
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। 98 ।।
 
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः ।। 99 ।।
 
अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः ।
चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। 100 ।।
 
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः ।
जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः ।। 101 ।।
 
आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। 102 ।।
 
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः ।। 103 ।।
 
भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। 104 ।।
 
यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।। 105 ।।
 
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। 106 ।।
 
शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। 107

सहस्त्रनाम पाठ के बाद आरती कीजिये ।

जगतके पालनहार श्री नारायण आप सभी पर सदैव कृपा करें यही प्रार्थना सह अस्तु .. श्री मात्रेय नमः

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