राष्ट्र्चिह्न और धर्मचक्र
लेखक- श्री विनय झा
कई लोग समझ नहीं पाते कि क्यों मैं भाजपा की आलोचना भी करता हूँ किन्तु वोट भी भाजपा को देने के लिए कहता हूँ | भाजपा इटली की नहीं बल्कि आपकी अपनी देसी भैंस है, अतः वोट इसी को दें, लेकिन भैंस है, भैंस को सही राह पर चलाने के लिए मजबूत लाठी भी रखें |
अब कुछ लोग बिगड़ेंगे कि भैंस क्यों कहता हूँ ! कोई भी पार्टी झुण्ड ही होती है, हालाँकि उसे व्यवस्थित टीम बनाने के प्रयास होते रहते हैं, किन्तु झुण्डवृत्ति 84 लाख योनियों के दीर्घ अभ्यास की देन है, आसानी से छूटने वाली नहीं, और झुण्डवृत्ति तो भैंसवृत्ति ही होती है |
लोकतन्त्र का तन्त्र यदि गड़बड़ है तो दोष लोक के मानवों का है जो अपने तन्त्र को ठीक करने का प्रयास नहीं करते | केवल वोट देना ही हमारा कर्तव्य नहीं है, बल्कि उस वोट का सही प्रयोग हो रहा है या नहीं इसकी देखरेख करते रहने का दायित्व भी हमपर ही है, उसके लिए लोक यदि परलोक से किसी अवतार की बाट जोहता रहे तो यह अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना है | सरकार हमारी ही है, इसे सही राह पर ठीक से चलाना हमारा कर्तव्य है |
उदाहरणार्थ, कई लोग शिकायत करते हैं कि जिस तरह कांग्रेस ने विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के लिए कुछ नहीं किया उसी तरह भाजपा ने भी कुछ नहीं किया | किन्तु इतने बड़े देश की जनता में से कितने लोगों ने उनके लिए आवाज़ उठायी जो अपने ही देश में 28 वर्षों से रिफ्यूजी बने बैठे हैं, जबकि उनकी झोपड़ियों के बगल में अवैध रोहिंग्या घुसपैठियों को पक्के सरकारी आवासों में बसाया गया ? जनता जैसी जागरूक होगी वैसी ही सरकार होगी | जनजागरण का प्रयास करेंगे तो किसी भी पार्टी की सरकार हो उसके पोसे हुए अन्धभक्त गरियायेंगे ही, उनकी चिन्ता न करें, वे केवल फुफकारने वाले साँप हैं, काटने की औकात नहीं रखते, क्योंकि वे भी जानते हैं कि असली लाठी तो जनता के पास है |
राष्ट्र भूगोल का टुकड़ा नहीं बल्कि चारों पुरुषार्थों की लब्धि द्वारा प्रजा के सर्वांगीण रंजन की सनातन संस्था है जो उसी सीमा तक प्रजा का रंजन कर पाती है जितनी कि धर्म की अखण्ड ज्योति प्रजा के हृदय में जलती है | प्रजा यदि धर्म से च्युत होने लगे तो कालचक्र प्रजा को रौंदकर प्रलय के गर्त में धकेल देता है और नयी प्रजा को अन्य लोकों से आमन्त्रित करके नए सतयुग को पुनः स्थापित करता है | सत से कलि की ओर लुढ़कते हुए प्रलय में समाना काल की स्वाभाविक गति है, किन्तु यही कालचक्र जब और आगे बढ़ता है तो नए युग का भी आरम्भ करता है | उस नए युग में पुराने युग के भी बहुत से मानव रह सकते हैं, बशर्ते उनमें धर्म सुरक्षित हो | अतः काल भी धर्म द्वारा निदेशित होता है, काल केवल उनका संहार कर पाता है जो अपने व्यक्तिगत जीवन में और समाज में धर्म का संहार करते हैं | जो धर्म की रक्षा करते हैं, धर्म उनकी रक्षा करता है | गोरक्षा को गुण्डागर्दी कहने वाले नेताओं की दुम से लटककर वैतरणी पार नहीं की जा सकती, उन नेताओं और चमचों को तो पता भी नहीं कि वैतरणी क्या बला है और गाय क्यों माता है !
जिस प्रकार धर्म केवल एक है और वह सनातन है जिसकी स्थापना किसी ने नहीं की, उसी तरह राष्ट्र भी एक ही है जो शाश्वत सनातन है और उस अनश्वर सनातन राष्ट्र ने सहस्र वर्षों के अन्ध्युग की समाप्ति होते ही अपने मस्तक पर धर्मचक्र को पुनः धारण कर लिया | यह दूसरी बात है कि दुष्टों ने उसे गोतम बुद्ध या अशोक के नाम पर प्रचारित कर रखा है | स्वतन्त्र भारत का वर्तमान राजचिह्न अनादिकाल से सनातन धर्मचक्र का चिह्न रहा है जिसका अस्तित्व कलियुग से पहले भी था | जिस मगध ने कलियुग में भी आचार्य चाणक्य के निदेशन में सम्पूर्ण देश को बिना किसी युद्ध के राजनैतिक एकता के सूत्र में बांधा था, युद्ध तो केवल धर्मच्युत घनानन्द को हटाने और विदेशी आक्रान्ताओं को भगाने के लिए हुआ था, घनानन्द के अलावा किसी भारतीय राज्य ने आचार्य चाणक्य का विरोध नहीं किया (इसके साक्ष्य पृथक लेख में दूंगा), उस मगध का राजचिह्न 24 अरों वाला धर्मचक्र नहीं था जिसे बौद्धमत से झूठमूठ जोड़कर पढ़ाया जा रहा है | दुष्टों ने जानबूझकर हमपर झूठा इतिहास थोप रखा है ताकि हम अपने ही राष्ट्र और धर्म को पहचान न सकें |
दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी की पुस्तक से आहत (punched marked) मुद्राओं के चित्र संलग्न कर रहा हूँ जिनमें राजाओं के नाम कोसाम्बी के अनुसार ही दे रहा हूँ | प्रत्येक पंक्ति एक सिक्के के चिह्नों की है | उनकी मूल पुस्तक इस वेबलिंक से मुफ्त में डाउनलोड की जा सकती है -- https://archive.org/…/AnIntroductionToTheStudyOfIndianHisto… | वामपन्थी लेखक थे, किन्तु अन्य वामपन्थियों से बेहतर थे, जानबूझकर झूठ नहीं लिखते थे, हालांकि मैक्समूलर किस्म के लोगों का बहुत सा कचड़ा उनके माथे में भी था |
चित्र में सबसे ऊपर कोसल के सिक्कों पर चिह्नों का संकलन है | उनमें सबसे ऊपर के दो सिक्कों को इक्ष्वाकु वंश से जोड़ने की भूल कोसाम्बी जी ने की | ऊपर के दो सिक्के जिन दो राजाओं के थे उनका राज्य छोटा था जिसका विस्तार होने पर राज्य का प्रतीक बदला गया - हर सिक्के का दूसरा प्रतीक राज्य का राजनैतिक प्रतीक है | तीसरा चिह्न राजवंश का प्रतीक है | कोसल के अन्तिम चार राजा मातंग वंश के थे, मातंग का अर्थ है हाथी | उन चार में से तीसरे राजा प्रसेनजित गोतम बुद्ध के समकालीन थे और लगभग समान आयु के थे | प्रसेनजित से पहले के सात राजाओं का नाम इतिहासकारों को ज्ञात नहीं है |
हरेक सिक्के का पहला चिह्न किसी भी राज्य के धार्मिक सम्प्रदाय का चिह्न है, हालाँकि आज के अधिकाँश इतिहासकार नास्तिक हैं जिस कारण इस तथ्य की जानबूझकर अनदेखी करते हैं, यद्यपि कोसाम्बी जी ने स्पष्ट लिख दिया था कि इन सिक्कों के चिह्नों का तान्त्रिक प्रतीकों से सम्बन्ध है | इससे अधिक लिखने का साहस कोसाम्बी नहीं कर सके क्योंकि वे नास्तिक थे, इन विषयों पर उनका ज्ञान शून्य था |
कोसल के सभी सिक्कों में प्रथम चिह्न है त्रिकोणात्मक शक्ति के भीतर शिवलिंग | कोसल के बाद मगध के सिक्के हैं, उनमें भी प्रथम चिह्न राज्य के सम्प्रदाय का प्रतीक था - सोलह दल के कमल का चिह्न शक्ति की प्रतीक है जिसके भीतर शिवलिंग स्थापित है, कोसल की तरह | सम्प्रदाय में अन्तर नहीं लगता, केवल अभिव्यक्ति में अन्तर है |
कोसल के बाद मगध के सिक्के हैं जिनमें सबसे पहले सिक्के को कोसाम्बी ने अजातशत्रु का माना , क्योंकि उनको संस्कृत नहीं आती थी, सभी वामपंथियों की तरह | अजातशत्रु "हर्यंक" वंश के थे जिसका अर्थ है सिंह के चिह्न वाला वंश | किन्तु इस सिक्के पर वंश का प्रतीक सिंह के बदले खरगोश का लगता है | पुराणों में अजातशत्रु और मौर्यों के बीच बहुत से राजाओं का उल्लेख है, उन्हीं में से किसी का है | कोसाम्बी ने शिशुनाग वंश से जोड़ने में भी भूल की |
किन्तु यहाँ मेरा विषय भिन्न है, सभी सिक्कों का प्रथम प्रतीक राज्य के सम्प्रदाय का है और दूसरा प्रतीक राज्य का राजचिह्न है | मौर्यों के सिक्कों के बाद मौर्यों के अधीन जनजातियों के दो सिक्के हैं जिनमें क्रमश: बिन्दुसार तथा अशोक के व्यक्तिगत प्रतीक भी हैं, उनसे पहले जनपदीय चिह्न मानवाकृति में है |
फोटो के अन्त में दरभंगा जिले से प्राप्त सिक्के के दोनों पृष्ठों के फोटो हैं जिनमें मगध का राजचिह्न भी है और जनपदीय चिह्न भी जो सिद्ध करता है कि आठ गणराज्यों वाले वृज्जि (वैशाली) संघ पर मगध का आधिपत्य होने के बाद भी उत्तर बिहार के जनपदों को अपना सिक्का निकालने की छूट रही, अर्थात उनको आन्तरिक स्वायत्तता प्राप्त थी जिसका इतिहासकार उल्लेख नहीं करते, किन्तु बाद में लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह के कारण गुप्तों की शक्ति बढ़ी तो उनके राज्य का विस्तार हुआ जो सिद्ध करता है कि वृज्जि के आठ जनपद बचे हुए थे और उनकी सैन्य और आर्थिक शक्ति भी अक्षुण्ण थी | उन जनपदों की कथा अनेक लोकगाथाओं में आजतक सुरक्षित है जिसे देखने का अवकाश हमारे अतिव्यस्त इतिहासकारों के पास नहीं है, जैसे कि "लोरिक" महाकाव्य जो असम से पश्चिमी मध्यप्रदेश तक के ग्रामीणों में लोकप्रिय है और राजामौली जैसे किसी अच्छे फिल्मकार की दृष्टि पड़ जाय तो बाहुबली से भी बेहतर फिल्म बन सकती है |
सारनाथ से प्राप्त अशोक के सिंह प्रतीक और उनपर धर्मचक्र के फोटो भी मैंने संलग्न कर दिए हैं जिनमें 24 अरों वाले धर्मचक्र का चित्र है, मगध के 16 दल वाला कमल नहीं | मगध का साम्प्रदायिक राजचिह्न भी षोडशी कमल है यह कोई इतिहासकार नहीं लिखता, हालांकि साँची स्तूप के द्वार पर उसे प्रमुखता से दर्शाया गया जिसे मैंने सबसे नीचे संलग्न कर दिया है, वह 16 पत्रों वाला कमल ही है जिसका बौद्धमत से कोई सम्बन्ध नहीं था, वह शक्ति उपासकों का प्रतीक रहा है और मगध का चिह्न गोतम बुद्ध के पहले से ही था |
24 अरों वाले धर्मचक्र का सम्बन्ध बौद्धमत से जोड़ने का कोई साक्ष्य नहीं है | वैदिक साहित्य का अध्ययन आधुनिक "विद्वान" नहीं करते जिस कारण ऊंटपटांग "थ्योरी" खोजते रहते हैं | मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद के दो भाग हैं, पूर्वभाग जिसे "कर्मकाण्ड" अथवा "धर्म" कहा जाता है और उत्तरभाग जो ज्ञानकाण्ड अर्थात मोक्ष से सम्बन्धित है | पूर्वमीमांसा कर्मकाण्ड पर है जो आरम्भ में ही अपने विषय को "धर्म" कहता है | कर्मकाण्ड को वैदिक यज्ञ कहते हैं, जिनका अधिकार सन्यासियों को नहीं बल्कि गृहस्थों को होता है | यज्ञ का वेद है यजुर्वेद, जिसका प्रथम यज्ञ है "दर्शपौर्णमास", अर्थात प्रत्येक शुक्लपक्ष और अमावस की पूर्ति होने पर किया जाने वाला नियमित और अनिवार्य यज्ञ | अन्य यज्ञ ऐच्छिक होते हैं, जैसे कि पुत्र या स्वर्ग चाहिए तो अमुक यज्ञ करें | किन्तु दर्शपौर्णमास वैदिक "धर्म" का अनिवार्य अंग है | धार्मिक वर्ष में 360 तिथियाँ होती हैं, अधिमास की गिनती धार्मिक वर्ष में नहीं की जाती जिस कारण उसे "अधिक" मास कहते हैं, उसे धार्मिक कृत्यों के लिए अशुद्ध माना जाता है जिस कारण उसे मलमास भी कहते हैं | हिन्दुओं में यही धार्मिक वर्ष आजतक प्रचलित है जिसमें 24 पक्ष अर्थात 24 पाक्षिक यज्ञ होते हैं जिनपर सनातन धर्म का चक्र टिका है | नेहरु को इसका ज्ञान होता तो उसे भारत का राष्ट्र्चिह्न कदापि न बनाता | अंग्रेजों ने इसे बौद्धमत से जोड़ा जिस कारण नेहरु और उसकी पार्टी ने बौद्ध चिह्न समझकर इसे भारत का राष्ट्र्चिह्न बनाया, जबकि उस समय बोधगया में मुट्ठी भर (सर्वभक्षी) बौद्धों को छोड़कर पूरे देश में एक भी बौद्ध नहीं था |
किन्तु जैसा कि स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने स्पष्ट लिखा, सनातन हिन्दू राष्ट्र समय के अनुसार अपनी संस्थाओं को खड़ा कर लेता है | सहस्र वर्षों की दासता समाप्त हुई तो सनातन राष्ट्र ने अपने वैदिक प्रतीक को पुनः धारण कर लिया, किन्तु युग हिन्दू विरोधी था अतः बौद्ध प्रतीक बताकर धारण किया | ज्यों-ज्यों हिन्दुओं का स्वधर्म-प्रेम और सामर्थ्य बढेगा, त्यों-त्यों सनातन राष्ट्र खुलकर अपने को अभिव्यक्त करने लगेगा | पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने सत्य ही लिखा था कि हिन्दू राष्ट्र निर्जीव नहीं होता | अशक्त हो गया था, अब पुनः खड़ा हो रहा है |
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.