जब जब हिन्दू धर्म में भोगवाद बढ़ता है, तब तब अब्राहमी, इसाईयत व मूसल्वान संस्कृति राज करती है !!
वेदों के अनुसार सनातन धर्म मे त्रिमूर्ति में से एक प्रमुख देवता ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और त्रिमूर्ति सहित समस्त 33 प्रकार (कोटि) के देवता एक ही अमूर्त ब्रह्म के विभिन्न स्वरुप हैं |
जब जब हिन्दू धर्म में भोगवाद बढ़ता है, तब तब श्रिष्टी में तामसिक अभ्युदय होता है, जैसा की वर्तमान में धरती की स्थिति हो चुकी है, वह सब भूतकाल में हिन्दुओं की अकर्मण्यता एवं ज्ञान का आदर न करने के कारण हुआ है. अतः, जब जब हिन्दुओं में भोगवाद बढ़ता है , तब तब अब्राहमी, इसाईयत व मूसल्वान संस्कृति राज करती है !!
समस्या यह है कि सनातन धर्म भोग-विलास को अशुभ मानता है और तप-त्याग आदि को पुण्य मानता है | अतः भोग-विलास को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाले असुरों की एक शाखा ने ब्रह्म के विरुद्ध एक काल्पनिक अ-ब्रह्म (Abraham) को सबका पूर्वज माना |
इन लोगों की दो शाखाएं हुईं, अफ्रीका में हमिटिक और मध्य-पूर्व में समिटिक (हेमिटिक और सेमिटिक) |
सैमिटिक लोगों में से जो बचे हैं उनमें सबसे प्राचीन यहूदी हैं जो अपने को "चुने हुए" मानते हैं और अन्य सबको बे-हूदी | यहूदियों के धर्मग्रन्थ तौरात (बाइबिल का ओल्ड टेस्टामेंट) के पुराने अंशों में उनका देवता था एलोअह जिसे मुह:मद ने अल्लाह कहा और यहूदियों के बाद वाले देवता "यहवह" (जिसका अपभ्रंश है "जेहोवा") को नकार दिया |
यहूदियों का भी प्राचीनतम धर्म सनातन धर्म ही था जिसका साक्ष्य है उनकी भाषा हिब्रू के 95% मूल धातुओं का संस्कृत से सम्बद्ध होना, यद्यपि यहूदियों के आधुनिक वित्तीय प्रभाव के कारण इस विषय पर शोधकार्य को दबा दिया गया और प्रचारित किया गया कि आर्यों की भाषाओं से हिब्रू का सम्बन्ध तो है किन्तु किस प्रकार का सम्बन्ध है यह अनिश्चित है !
एलो-अह का असली उच्चारण था इलु-वह, संस्कृत में इल का अर्थ है जिसकी स्तुति की जाय | ओल्ड टेस्टामेंट में यहूदियों के देवता को हिंसक बलि प्रदान की जाती थी जो इस्लाम में भी होता है | ईसा मसीह ने इसका निषेध किया किन्तु यहूदियों ने षड्यन्त्र करके उनको मरवा डाला और बाद में अपना ओल्ड टेस्टामेंट भी बाइबिल में जोड़ दिया, यद्यपि ईसाइयों के बाइबिल में जो ओल्ड टेस्टामेंट है उसका परिवर्तित रूप यहूदी मानते हैं | ईसा मसीह ने कभी चर्च या पोप आदि का उल्लेख तक नहीं किया | उनके मार्ग को त्यागकर ईसाइयों को भी सेमेटिक घोषित किया गया, यद्यपि यूरोप के ईसाइयों की भाषाएँ आर्य परिवार की हैं | हिटलर ने यहूदियों पर अत्याचार किया तो निर्णय लिया गया कि "आर्य" बुरा शब्द है अतः यूरोपियनों के लिए "आर्य" शब्द का प्रयोग नहीं किया जाएगा, अब भाषाविज्ञान में "आर्य" शब्द का प्रयोग केवल भारतीय-ईरानी शाखा के लिए किया जाता है, जबकि यूरोप में दूरतम स्थित आयरलैंड (आर्यलैंड) तक लोग अपने को आर्य कहते थे | यहूदियों के आर्य-विरोध को राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के लोग भी समझ नहीं पाते, सोचते हैं कि यहूदियों का इस्लाम से विरोध है तो यहूदी अच्छे हो गए
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ऋग्वेद में "ब्रह्मवाद" शब्द का भी प्रयोग है जिसके विरोधियों को हिन्दू नहीं माना जा सकता | ऋग्वेद में ही विभिन्न देवताओं को एक (अमूर्त) सत्य के विभिन्न रूप कहा गया है | यजुर्वेद में कहा गया है कि उनकी कोई प्रतिमा नहीं है | आजकल वैदिक ब्रह्म को परब्रह्म या परमात्मा कहा जाता है (ये वैदिक शब्द नहीं हैं, वेदों में आत्मा और परमात्मा में अन्तर नहीं है, क्योंकि अद्वैत में दोनों एक ही हैं)| आजतक ब्रह्म और ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं बनी है, मूर्तियाँ मूर्त देवताओं की बनती है | वेदों में ही विराट पुरुष के सिर, हाथ, पैर, उदर का, अर्थात मूर्ति का उल्लेख है | हर युग में विष्णु के दश अवतार दुहराते रहते हैं, किन्तु विष्णु के अन्य बहुत से और भी अवतार होते हैं | ब्रह्मा और शिव के अवतार नहीं होते क्योंकि संसार के पालन के लिए अवतार आते हैं जो विष्णु का प्रभार है | त्रिमूर्ति भी वैदिक अवधारणा है | म्लेच्छों ने झूठा प्रचार किया कि शिव अवैदिक हैं, जबकि यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता में "महादेव", "गौरी", "स्कन्द" और "वक्रतुण्ड गणेश" की स्तुति के कई मन्त्र हैं | तैंतीस कोटि के लिए तैंतीस व्यंजन हैं जिनमें प्रथम व्यंजन "क" है ब्रह्म का प्रतीक | इस "क" को ही सारी हवियाँ जाती हैं, और इस "क" के तीन चिह्न (लिंग) है जो "कलिंग" कहलाता था | ब्रह्मा जी की परमायु 72000 कल्पों की है जिसके बाद विष्णु की नाभि से दुसरे ब्रह्मा प्रकट होते हैं | एक कल्प 432 करोड़ वर्षों का होता है | यह समस्त प्राचीन पुराणों, महाभारत, ज्योतिष-सिद्धांतो, आदि में वर्णित है |
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ईसा मसीह का धर्म वैदिक था, यहूदियों के विरुद्ध उन्होंने प्राचीन सनातन मत को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया था, सुकरात की तरह | किन्तु ईसा के तीन सौ वर्षों के पश्चात रोमन सम्राट Constantine ने अपने ढर्रे पर नए ईसाई सम्प्रदाय को खड़ा किया जिसका केन्द्र "रोमन चर्च" था | तबतक यहूदियों ने ईसा के मत को काफी विकृत कर दिया था , रही-सही कसर चर्च ने पूरी कर दी |
दरअसल 'अईसाई' कॉन्सटेन्टाइन ने जिस धर्म को राजनीतिक दबाव में अपना 'राजधर्म' घोषित किया उसका ईसा की शिक्षा से कोई लेना-देना ही नहीं था। उसके बाद ईसा और ईसाई धर्म के नाम पर गैर-ईसाइयों पर लोमहर्षक अत्याचार किए गए।
श्रीराम का नाम सुनते ही सेक्युलर समाज की नाक भौं तन जाती है॥ ऐसे मे वो न्यायालय मे श्री राम जी की मर्यादा स्थापित करेंगे नहीं॥ उन पर बाह्य रूप से भौतिक बल लगाना होगा.
ग्रीस की अंधी देवी को त्याग कर पुरुषोत्तम की मर्यादा को अपनाकर न्याय का राम राज्य स्थापित होगा । और न्यायालय में लोगों की श्रद्धा बढेगा ।
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प्रश्नोत्तरी:
(1) प्रश्न :--"जातियों की उत्पत्ति कब और कैसे हुयी? पुरातन समाज तो वर्ण में विभाजित था तो जातियों का नामकरण किसने किया? जैसे गुप्ता, जायसवाल, वर्मा, शर्मा, पांडे, तिवारी, त्रिपाठी आदि। इन जातिसूचक नामों के पीछे क्या रहस्य है?"
उत्तर :-- आपने जिन आस्पदों (Surnames) का उल्लेख किया है वे सब के सब कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था पर ही आधारित हैं, किन्तु हिन्दू समाज के अन्धयुग में वर्णसंकरता का बोलबाला हो गया । उदाहरणार्थ, ब्राह्मणों के लिए सामान्यतः "शर्मन्" आस्पद का प्रयोग होता था , आज भी धार्मिक कृत्यों के संकल्प में सारे ब्राह्मणों को "शर्मन्" ही कहा जाता है । "वर्मन्" क्षत्रिय का आस्पद था । त्रिवेदी या तिवारी का अर्थ था तीन वेद पढ़े वाले । दूसरों को वेद पढ़ाने वाले "उपाध्याय" कहलाते थे, जिसका अपभ्रंश बना 'ओझा' और 'झा' । बाद के काल में भी नयी-नयी जातियाँ और उपजातियाँ बनीं तो कर्मानुसार ही, जैसे कि तेल का कार्य करने वाले तेली कहलाए, नमक (नोन, नून) का कर्म करने वाले "नोनिया" हुए (ये औद्योगिक जातियाँ थीं, कृषिप्रधान नहीं)। भारत की सभी जातियों के मूल कर्मों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि भारत की बहुसंख्यक आबादी गैर-कृषि कर्म पर आश्रित थी, अंग्रेजी राज से पहले इतिहास के किसी भी युग में भारत कृषिप्रधान देश नहीं था । भारत पूरे संसार का औद्योगिक कर्मशाला था । रोमन साम्राज्य के लेखक भी शिकायत करते थे कि हर साल भारत से व्यापार में रोमनों को 60 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का घाटा होता था जिसकी पूर्ति के लिए रोमनों को तीन-तीन महादेशों में लूट-पाट करनी पड़ती थी । मुक्त व्यापार का ढकोसला करने वाले अंग्रेजों ने अन्यायपूर्ण तरीकों द्वारा भारतीय उद्योगों को नष्ट किया और गैर-कृषक जातियों को कृषि पर आश्रित होने के लिए बाध्य कर दिया । इतनी आबादी के लिए कृषियोग्य भूमि भी नहीं थी, अतः अधिकाँश गैर-कृषक जातियाँ भूमिहीन मजदूर बनने के लिए बाध्य हो गयीं । लगभग 19 वीं शती के मध्य से पहले भारत में एक भी भूमिहीन मजदूर नहीं था जो 1872 के बाद से किये गए जनगणना के आंकड़ों से सिद्ध होता है। आज़ादी के बाद भी किसान-विरोधी नीतियों के कारण भूमिहीन मजदूरों की सापेक्ष संख्या बढ़ती ही जा रही है, मँझोले किसान सीमान्त बनते जा रहे हैं, और सीमान्त किसान या तो भूमिहीन मजदूर बनते हैं या फिर आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं । वर्ण और जाति में असमानता हिन्दू समाज की गुलामी के काल की दुर्घटना है । अधिकाँश जातियाँ गुलामी के काल की उपज हैं । आज भी हिन्दुओं को झूठा इतिहास, झूठा समाजशास्त्र, झूठा भारतीय-दर्शन, आदि पढ़ाया जा रहा है । इतना कूड़ा-कर्कट मैं अकेले दूर नहीं कर सकता, आप लोगों का भी दायित्व बनता है । हमारे विश्वविद्यालयों में सही पुस्तकें पढ़ाई जाएँ और यदि सही पुस्तकें उपलब्ध न हों तो सही शोध हों ताकि भविष्य में सही पुस्तकें प्रकाशित हो सकें ।
उत्तर :-- आपने जिन आस्पदों (Surnames) का उल्लेख किया है वे सब के सब कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था पर ही आधारित हैं, किन्तु हिन्दू समाज के अन्धयुग में वर्णसंकरता का बोलबाला हो गया । उदाहरणार्थ, ब्राह्मणों के लिए सामान्यतः "शर्मन्" आस्पद का प्रयोग होता था , आज भी धार्मिक कृत्यों के संकल्प में सारे ब्राह्मणों को "शर्मन्" ही कहा जाता है । "वर्मन्" क्षत्रिय का आस्पद था । त्रिवेदी या तिवारी का अर्थ था तीन वेद पढ़े वाले । दूसरों को वेद पढ़ाने वाले "उपाध्याय" कहलाते थे, जिसका अपभ्रंश बना 'ओझा' और 'झा' । बाद के काल में भी नयी-नयी जातियाँ और उपजातियाँ बनीं तो कर्मानुसार ही, जैसे कि तेल का कार्य करने वाले तेली कहलाए, नमक (नोन, नून) का कर्म करने वाले "नोनिया" हुए (ये औद्योगिक जातियाँ थीं, कृषिप्रधान नहीं)। भारत की सभी जातियों के मूल कर्मों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि भारत की बहुसंख्यक आबादी गैर-कृषि कर्म पर आश्रित थी, अंग्रेजी राज से पहले इतिहास के किसी भी युग में भारत कृषिप्रधान देश नहीं था । भारत पूरे संसार का औद्योगिक कर्मशाला था । रोमन साम्राज्य के लेखक भी शिकायत करते थे कि हर साल भारत से व्यापार में रोमनों को 60 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का घाटा होता था जिसकी पूर्ति के लिए रोमनों को तीन-तीन महादेशों में लूट-पाट करनी पड़ती थी । मुक्त व्यापार का ढकोसला करने वाले अंग्रेजों ने अन्यायपूर्ण तरीकों द्वारा भारतीय उद्योगों को नष्ट किया और गैर-कृषक जातियों को कृषि पर आश्रित होने के लिए बाध्य कर दिया । इतनी आबादी के लिए कृषियोग्य भूमि भी नहीं थी, अतः अधिकाँश गैर-कृषक जातियाँ भूमिहीन मजदूर बनने के लिए बाध्य हो गयीं । लगभग 19 वीं शती के मध्य से पहले भारत में एक भी भूमिहीन मजदूर नहीं था जो 1872 के बाद से किये गए जनगणना के आंकड़ों से सिद्ध होता है। आज़ादी के बाद भी किसान-विरोधी नीतियों के कारण भूमिहीन मजदूरों की सापेक्ष संख्या बढ़ती ही जा रही है, मँझोले किसान सीमान्त बनते जा रहे हैं, और सीमान्त किसान या तो भूमिहीन मजदूर बनते हैं या फिर आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं । वर्ण और जाति में असमानता हिन्दू समाज की गुलामी के काल की दुर्घटना है । अधिकाँश जातियाँ गुलामी के काल की उपज हैं । आज भी हिन्दुओं को झूठा इतिहास, झूठा समाजशास्त्र, झूठा भारतीय-दर्शन, आदि पढ़ाया जा रहा है । इतना कूड़ा-कर्कट मैं अकेले दूर नहीं कर सकता, आप लोगों का भी दायित्व बनता है । हमारे विश्वविद्यालयों में सही पुस्तकें पढ़ाई जाएँ और यदि सही पुस्तकें उपलब्ध न हों तो सही शोध हों ताकि भविष्य में सही पुस्तकें प्रकाशित हो सकें ।
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(2) प्रश्न :--"मुझे लगता है कि आर्य और द्रविड़ को इंगित करने हेतु ही श्रेष्ठता के क्रम में सुर और असुर शब्द की उत्पत्ति हुयी। मैं यह भी मानता हूँ कि स्वर्ग भारत के उत्तरी भूभाग जो कि हिमालय के अधीन था (प्राचीन तिब्बत, उत्तराखंड, हिमाचल, हिन्दुकुश और काश्मीर) को कहा गया और सुदूर दक्षिण जहां द्रविणों का वास था उसे पाताल लोक कहा गया।"
उत्तर :-- आर्य का अर्थ था "वैदिक संस्कारों में जो श्रेष्ठ हो"। "द्रविड़" शब्द भी आदरसूचक ही था । द्रव्य और द्रविड़ की सामान व्युत्पत्ति है, द्रविड़ का अर्थ है "सम्पन्न" । अर्थात जो धन में श्रेष्ठ हो । "श्रेष्ठ" से ही "सेठ" शब्द बना है । "सुर" शब्द बाद का है, असुर प्राचीन है । "असुर" का वैदिक अर्थ है "जो सत्ता में हो, शक्तिशाली हो"। असुर का पर्याय है "पूर्वदेव", अर्थात जो पहले देव थे किन्तु भोगवाद के कारण असुर बन गए । वास्तविक सुर और असुर दिव्य योनियाँ हैं, मनुष्य नहीं । देवलोक और पाताल भौतिक संसार में नहीं मिलेंगे । भौतिकवादियों को भ्रम है कि केवल भौतिक वस्तु का ही अस्तित्व है, शेष सब कुछ काल्पनिक है, जैसे कि आत्मा, परमात्मा, परलोक, कर्मों के फल, पाप-पुण्य, नैतिकता, आदि । "भौतिक" का अर्थ है पाँच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जिस पञ्च-भौतिक प्र-पञ्च का संज्ञान हो । इन्द्रियाँ केवल ऐन्द्रिक वस्तुओं का ही संज्ञान कर सकती हैं, सूक्ष्म तत्वों का नहीं ।
(2) प्रश्न :--"मुझे लगता है कि आर्य और द्रविड़ को इंगित करने हेतु ही श्रेष्ठता के क्रम में सुर और असुर शब्द की उत्पत्ति हुयी। मैं यह भी मानता हूँ कि स्वर्ग भारत के उत्तरी भूभाग जो कि हिमालय के अधीन था (प्राचीन तिब्बत, उत्तराखंड, हिमाचल, हिन्दुकुश और काश्मीर) को कहा गया और सुदूर दक्षिण जहां द्रविणों का वास था उसे पाताल लोक कहा गया।"
उत्तर :-- आर्य का अर्थ था "वैदिक संस्कारों में जो श्रेष्ठ हो"। "द्रविड़" शब्द भी आदरसूचक ही था । द्रव्य और द्रविड़ की सामान व्युत्पत्ति है, द्रविड़ का अर्थ है "सम्पन्न" । अर्थात जो धन में श्रेष्ठ हो । "श्रेष्ठ" से ही "सेठ" शब्द बना है । "सुर" शब्द बाद का है, असुर प्राचीन है । "असुर" का वैदिक अर्थ है "जो सत्ता में हो, शक्तिशाली हो"। असुर का पर्याय है "पूर्वदेव", अर्थात जो पहले देव थे किन्तु भोगवाद के कारण असुर बन गए । वास्तविक सुर और असुर दिव्य योनियाँ हैं, मनुष्य नहीं । देवलोक और पाताल भौतिक संसार में नहीं मिलेंगे । भौतिकवादियों को भ्रम है कि केवल भौतिक वस्तु का ही अस्तित्व है, शेष सब कुछ काल्पनिक है, जैसे कि आत्मा, परमात्मा, परलोक, कर्मों के फल, पाप-पुण्य, नैतिकता, आदि । "भौतिक" का अर्थ है पाँच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जिस पञ्च-भौतिक प्र-पञ्च का संज्ञान हो । इन्द्रियाँ केवल ऐन्द्रिक वस्तुओं का ही संज्ञान कर सकती हैं, सूक्ष्म तत्वों का नहीं ।
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.