एलेग्जेंडर का सच
By Vinay Jha
Alexander को विश्व-विजेता घोषित करने वालों के ग्रंथों से ही निम्नोक्त बातें उद्धृत कर रहा हूँ |
भारत में तीन बार वह बुरी तरह घायल हुआ, तीसरी बार मालव गण से (मालव-स्थान अर्थात मुल्तान में) युद्ध में घायल हुआ तो भारत छोड़कर भागा |
उसकी पूरी सेना भी सेनाध्यक्ष के साथ वापस जा ("भाग") रही थी किन्तु बहुत कम सेना बेबीलोन पँहुच सकी | मगध और पूर्वी राज्य गंगारिदाई की सेना की संख्या सुनकर उसकी सेना ने आगे बढ़ने से साफ़ इनकार कर दिया | झेलम जिले के राजा पुरु से युद्ध में जिस यवन सेना का बुरा हाल हो गया था वह मगध साम्राज्य की विशाल सेना से लड़ने के लिए तैयार नहीं थी |
http://www.alamy.com/stock-photo-empire-of-alexander-the-great-an-his-conquest-course-from-greece-to-72459400.html
अलेक्सान्दर लड़ने के लिए कटिबद्ध था और राक्षसी यवन "देवों" को प्रसन्न करने किये उसने पशुबलि भी दी ताकि सेना मान जाय, लेकिन सेना ने विद्रोह कर दिया जिस कारण उसे व्यास-तट से लौटना पडा | रोमन इतिहासकार प्लूटार्क ने साफ़ लिखा है कि व्यास नदी के तट पर लड़ने में अनिच्छुक अपनी ही सेना के विद्रोह के कारण उसे लौटना पडा |
आम्भी के अलावा अलेक्सान्दर का कोई मित्र भारत में नहीं बना |
पुरु से उसकी सन्धि हुई थी, पुरु अनुयायी नहीं बना | शेष सब तो अलेक्सान्दर के शत्रु थे |
चन्द्रगुप्त के युद्ध में सहायक "पर्वतराज" को बहुत से इतिहासकार पुरु ही मानते हैं |
वापस लौटने के लिए भी अलेक्सान्दर ने मकरान के रेगिस्तान का खतरनाक रास्ता चुना जिस कारण उसकी अधिकाँश सेना भूख-प्यास से रास्ते में ही मर गयी -- क्योंकि उस राह में शत्रुओं के मिलने की सम्भावना नहीं थी |
जिस रास्ते आया था उस रास्ते लौटने की हिम्मत नहीं की, विरोधियों द्वारा पूरी घेराबन्दी हो चुकी थी जिसे इतिहासकार छुपाते हैं | अलेक्सान्दर को विजेता कहने वाले पश्चिमी इतिहासकार सत्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं, किन्तु भारतीय स्रोत (जैसे कि मुद्राराक्षस) को अनदेखा भी कर दें तब भी पाश्चात्य लेखकों को भी सावधानी से पढने पर आप सत्य का अनुमान लगा सकते हैं, जैसे कि https://en.wikipedia.org/wiki/Alexander_the_Great जिसमें बहुत से पाश्चात्य स्रोतों के सन्दर्भ मिल जायेंगे |
प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ "महावंश" में साफ़ लिखा है कि चाणक्य "तक्षशिला के विद्वान ब्राह्मण" थे, "तीन वेदों और राजनीति" के आचार्य थे , और भिक्षाटन के लिए पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) गए जहाँ उनकी कुरूपता के कारण नन्द राजा ने उनका अपमान किया | क्या तक्षशिला का आचार्य केवल भिक्षाटन हेतु पाटलिपुत्र जाएगा ? चाणक्य को इतिहास से मिटाने के बहुत प्रयास हुए | किन्तु मत भूलें कि अलेक्सान्दर जब भारत से लौटा उसके कुछ काल के पश्चात ही चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठा | इसका सीधा अर्थ यह है कि जब अलेक्सान्दर पश्चिमी भारत में नरसंहार कर रहा था (कई नगरों का सामूहिक नरसंहार कराया) उस समय चाणक्य और चन्द्रगुप्त अपनी सैन्य तैयारी और अभियान में लगे हुए थे | विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक मुद्राराक्षस में साफ़ लिखा है कि चन्द्रगुप्त की सहायता करने वाले अधिकाँश सैनिक पश्चिमी भारत के ही थे और उसकी आरंभिक सेना में कई यवन भी थे (मेगास्थनीस ने भी लिखा था कि अलेक्सान्दर के बहुत से सैनिक पश्चिमी भारत में ही बस गए थे, जैसे कि अलेक्सान्दर द्वारा बसाए बुसेफाला शहर में ; बहुत से यवन पहले से ही पश्चिम भारत में थे क्योंकि वहीं से बहुत से यवन पुरातन काल में यूरोप गए थे-- ग्रीक भाषा में यूरो का अर्थ है पूर्वा-हवा, अतः यूरोपियन का अर्थ हुआ पूर्व से आने वाले लोग)|
अब समझ में आया न कि अलेक्सान्दर जब पश्चिम भारत में था तब चाणक्य और चन्द्रगुप्त कहाँ थे और क्या कर रहे थे !!! अलेक्सान्दर को मारकर भगाने में चाणक्य की भूमिका को हिस्ट्रीट्यूट (सत्य को बेचने वाले इतिहासकारों) ने इतिहास से ही बाहर कर दिया !!
मेगास्थनीज ने दांडायन जैसे ब्राह्मणों की प्रशंसा की जिनका पक्ष सभी ब्राह्मणों ने लिया था | अलेक्सान्दर के जीवन की वह सबसे करारी हार थी | उसने दांडायन नाम के साधू को वन से पकड़कर लाने के लिए सैनिक भेजे, दांडायन ने इनकार किया और अद्वैत अध्यात्म की भाषा में उत्तर दिया -- कहा कि मेरे शरीर को तुमलोग मार सकते हो, मुझे नहीं मार सकते, तुम्हारा राजा ज़ीउस का पुत्र नहीं है, आधी पृथ्वी पर भी उसका राज नहीं है, उससे कहो कि पहले गंगा की घाटी में घुसकर दिखाए , मुझे वह ऐसा कुछ भी नहीं दे सकता है जो मुझे अभीष्ट है, अतः मैं उसके पास क्यों जाऊं ?
इन बातों का उल्लेख मेगास्थनीस ने विस्तार से किया और यूरोप के लेखकों ने उद्धृत किया | अलेक्सान्दर के सैनिक दांडायन का उत्तर सुनकर हतप्रभ रह गए और राजा की आज्ञा का पालन नहीं किया, दांडायन को बिना पकडे लौट आये | अलेक्सान्दर भी मन मसोसकर रह गया |
मेगास्थनीस ने दांडायन जैसे भारत के ब्राह्मणों के दर्शन की तुलना सुकरात के शिष्य प्लूटो से की (अरिस्तोत्र असुर था जबकि उसके गुरु प्लूटो सनातनी यवन थे और सुकरात के सच्चे शिष्य थे), जबकि अलेक्सान्दर देवताओं के शत्रु (अरि) के स्तोत्र पढने वाले शैतान-पूजक अरिस्तोत्र (अरिस्टोट्ल) का शिष्य था, महास्थानी (मेगास्थनीस) ने अलेक्सान्दर का समर्थन करने वाले तक्षशिला के एक आचार्य कलना की निन्दा की -- उसकी विचारधारा और स्वभाव के कारण, और दांडायाण (दमदमी) के नेतृत्व में तक्षशिला के सभी ब्राह्मणों द्वारा अलेक्सान्दर के बहिष्कार की प्रशंसा की -- उनके अध्यात्मिक विचारधारा के कारण | अलेक्सान्दर की भारत में जीत हो जाती तो सनातन धर्म का समूल नाश हो गया रहता | फारस से मिस्र तक अनेक प्राचीन सभ्यताओं को उसने मिटा डाला | मूर्खों द्वारा उसे ग्रीक कहा जाता है, उसने ग्रीक सभ्यता को सदा के लिए मिटा डाला और उसपर बर्बर मकदूनियाई सत्ता थोप दी | अभी तक हमारी पाठ्यपुस्तकों में अलेक्सान्दर और चाणक्य के बारे में अधिकांशतः अंग्रेजों का लिखा झूठ ही पढ़ाया जाता है |
राष्ट्र-रक्षा के लिए चाणक्य धनानन्द के पास गए , लेकिन घनानन्द को अपने राज्य से बाहर की बातों से कोई मतलब नहीं था, "राष्ट्र" की चिन्ता उसे नहीं थी, उसे यह भी पता नहीं था कि सिकन्दर का लक्ष्य पाटलिपुत्र ही था | अंग्रेजों ने यही पढ़ाया कि भारत में "राष्ट्र" की भावना ही नहीं थी, अतः चाणक्य के राष्ट्रवाद और पूरे देश द्वारा उस राष्ट्रवाद के समर्थन की बात आज के हिस्ट्रीटयूट नहीं करते | चन्द्रगुप्त तक्षशिला का छात्र नहीं था, धनानन्द द्वारा ठुकराए जाने के बाद चाणक्य ने उसे ढूँढा | वह वृज्जी महासंघ के मुरिया (या मोर, मौर्य) जनपद का राजकुमार था जहां की जनतांत्रिक रानी को घनानन्द ने दासी बना लिया था |
प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में नन्द वंश को डाकू बताया गया है | वैदिक नामकरण संस्कार में "राक्षस" जैसे नाम नहीं रखे जाते हैं | धनानन्द के महामन्त्री "राक्षस" का नाम स्पष्ट करता है कि ये लोग आसुरी मार्ग वाले थे, यद्यपि जन्म से 'राक्षस' ब्राह्मण था | चाणक्य की विचारधारा सनातनी थी | नन्द वंश का समूल नाश करने के बाद जब कोई बालक भी नहीं बचा तब 'राक्षस' ने चाणक्य का प्रस्ताव मानकर चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार किया, वह बहुत ही योग्य था | तब चाणक्य ने संन्यास लेकर वन की राह पकड़ी | किन्तु बौद्ध और जैन ग्रंथों में बहुत झूठ लिखा है | जैन ग्रंथों में चाणक्य को दक्षिण भारत का जैन बताया गया है और बौद्ध ग्रंथों में उन्हें हिंसक और कपटी बताया गया है | आरम्भिक बौद्ध और जैन झूठ नहीं लिखते थे, यह सब बहुत बाद के लोगों ने जोड़ा | किन्तु मौर्यकाल के ही ग्रन्थ 'पंचतन्त्र' में चाणक्य को ही विष्णुगुप्त और कौटिल्य कहा गया जो अर्थशास्त्र के रचयिता थे | अरिस्टोटल ने पूरे विश्व से सनातन धर्म को उखाड़ने की योजना बनायी थी जिसे चाणक्य ने नाकाम कर दिया |
भारत में बसने वाले सारे विदेशी ग्रीक भी कालान्तर में पूरे भारतीय बन गए | पहले से ही बहुत से यवन भारत में थे जो "पतित क्षत्रिय" कहलाते थे (-मनुस्मृति) , वे भारतीय भाषा बोलते थे (प्राकृत) और उनका शिक्षित वर्ग संस्कृत बोलता था -- यवनराजाओं के संस्कृत ग्रन्थ बचे हुए हैं -- मीनराज (मिनांदर, पाली में मिलिन्द) और स्फुटिध्वज के, जिन्हें आज भी भारत की पाठ्य पुस्तकों में ग्रीक भाषाई बताया जाता है ! उनके ग्रंथों का दर्शन 100% सनातनी है | अलेक्सान्दर ने जिन जनपदों को सताया था वे सब चाणक्य के साथ थे, यह विशाखदत्त के नाटक "मुद्राराक्षस" में वर्णित है |
*********************
अलेक्सान्दर तीन बार गम्भीर रूप से घायल हुआ, किन्तु एक बार भी पुरु से युद्ध में नहीं | पुरु की सेना केवल बीस हज़ार की थी और सिकन्दर की दो लाख की, किन्तु हाथियों के कारण अलेक्सान्दर की सेना में भगदड़ मची |
मगधराज धनानन्द की सेना में कुछ लोग भूल से गंगारिदाई राज्य (बंगाल आदि) की सेना भी जोड़ रहे हैं, प्लूटार्क ने लिखा कि प्राची (मगध) और गंगारिदाई के राजाओं की सेनायें मिलाकर दो लाख पैदल और अस्सी हज़ार घुड़सवारों की थीं जिस कारण अलेक्सान्दर की सेना ने लड़ने से साफ़ इनकार कर दिया और अपने एक सेनापति Coenus के समझाने पर अलेक्सान्दर लौटा |
पुरु से युद्ध में हाथियों के अलेक्सान्दर की घुड़सवार सेना में भगदड़ मची थी, ध्वस्त नहीं हुई थी | पुरु अंतत: पराजित हुआ और अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकार करके उसका सत्रप बन गया, जिसके बाद पुरु के राज में अलेक्सान्दर ने तोहफे के तौर पर कुछ और क्षेत्र दे दिए क्योंकि वह जानता था कि वापस लौटने के बाद बिना पुरु की सहायता के भारतीय क्षेत्रों पर उसका कब्जा नहीं रह पायेगा | पुरु को भारत के लोग आवश्यकता से अधिक उछालते हैं, भूल जाते हैं कि अन्त में उसने अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकारी, जैसे कि मानसिंह ने अकबर की स्वीकारी |
किन्तु ये तथाकथुत राष्ट्रवादी लोग सच्चे वीरों का सम्मान नहीं करते -- मुल्तान के उन मालव वीरों को भुलाते हैं जिन्होंने अलेक्सान्दर को मरणान्तक रूप से घायल किया जिसके बाद अलेक्सान्दर रेगिस्तान के रास्ते भागा, सिन्धु प्रदेश के सभी जनपदों से उसकी कड़ी लडाइयां हुई और अलेक्सान्दर ने क्रोध में आकर दो नगरों मस्सग एवं ओरा में तैमूर लंग और नादिरशाह की तरह कत्लेआम कराया | जब ये सारे जनपद अलेक्सान्दर की अधीनता ठुकराकर जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे तब पुरु पहले से भी बड़ा राज्य पाकर चैन की वंशी बजा रहा था |
यह भी सरासर झूठ है कि अलेक्सान्दर मगधराज धनानन्द के भय से भागा था | वह तो अन्त तक मगध पर आक्रमण के लिए कटिबद्ध था और यदि वह आक्रमण करता तो थकी हुई सेना के बावजूद जीतता क्योंकि अत्याचारी धनानन्द की ताकत दिखावटी थी जिसे अगले ही वर्ष चाणक्य ने सिद्ध कर दिया | राज्य की शक्ति केवल सेना की संख्या से ही नहीं होती, सेना के मनोबल और राजा के प्रति निष्ठा से भी होती है, जो धनानन्द के प्रति नहीं थी | धनानन्द के विरुद्ध असन्तोष के कारण ही चन्द्रगुप्त को सफलता मिली | अलेक्सान्दर को भी अपने गुप्तचरों के माध्यम से पता चल चुका था कि धनानन्द का राज्य खोखला हो चुका है, अतः वह युद्ध के लिए बेचैन था | किन्तु पश्चिम भारत के सारे जनपद उसके विरुद्ध एकजुट हो चुके थे और केवल दो राज्यों में जनतन्त्र नहीं था, राजतन्त्र था, जो अलेक्सान्दर के मित्र बन चुके थे -- आम्भी एवं पुरु |
कम्बोज के दो जनपद -- अश्वायन तथा अश्वकायन -- आरम्भ से ही अलेक्सान्दर के शत्रु थे और उससे लड़ते रहे थे, और विशाखदत्त के अनुसार चन्द्रगुप्त के सहयोगी थे | विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के अन्य सहयोगियों के भी नाम गिनाये, जिनमें अधिकांश पश्चिमी भारत के ही थे और अलेक्सान्दर के शत्रु थे | दुःख की बात है कि प्राचीन साक्ष्यों के आधार पर मैं जिन तथ्यों को उद्धृत कर रहा हूँ उन्हें झुठलाकर कुछ लोग फ़िल्मी बातों का प्रचार कर रहे हैं | मैंने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे सिद्ध करते हैं कि चाणक्य के चक्रव्यूह के कारण अलेक्सान्दर भगा था, न कि धनानन्द के भय से | विशाखदत्त (मुद्राराक्षस का लेखक) के अनुसार चाणक्य के चक्रव्यूह में पश्चिम भारत के सारे जनपद थे , अतः मगध पर यदि अलेक्सान्दर आक्रमण करता तो वापस नहीं लौट पाता |
एलेन (सेल्यूकस की पुत्री Helen, ग्रीक में आरंभिक H कोई व्यंजन नहीं था, एक स्वराघात था) से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह कूटनीतिक कारण से हुआ था, किन्तु चाणक्य की आज्ञा थी कि विदेशी का पुत्र राजा नहीं बने |
चन्द्रगुप्त को मारने का षड्यन्त्र नन्द वंश का अमात्य राक्षस करता रहता था, जिस कारण चन्द्रगुप्त को हल्का विष चाणक्य प्रतिदिन दिया करते थे ताकि उसपर विष का प्रभाव न हो | चन्द्रगुप्त को इसकी जानकारी नहीं थी | एक दिन चन्द्रगुप्त ने वह दूध अपनी गर्भवती रानी को पिला दिया | चाणक्य को सूचना मिली कि रानी मर रही है, तो उन्होंने मरी हुई रानी को कटवाकर पेट से बच्चे को निकलवाया और सात दिनों तक प्रतिदिन एक मृत बकरी के पेट में रखकर उसे बचाया | बच्चे पर खून के बिन्दुओं के चिह्न देखकर उसका नाम "बिन्दुसार" रखा गया, वही राजा बना |
हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट-पर्वन् के अनुसार बिन्दुसार की माँ का नाम दुर्धरा था, यद्यपि कुछ आधुनिक विदेशी इतिहासकार बिना प्रमाण के तुक्का लगाते हैं कि बिन्दुसार की माँ एलेन थी | मेगास्थनीस को उद्धृत करने वाले प्राचीन यूरोपियन ग्रंथों में बिन्दुसार को उसके दूसरे नाम अमित्रघात ( =शत्रु-हन्ता) से पुकारा गया |
बौद्ध ग्रंथों दीपवंश और अशोकावदान में चन्द्रगुप्त के नाम को गायब कर दिया गया और बिन्दुसार को नन्दवंश का कहा गया जो स्पष्ट करता है कि सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले चाणक्य और चन्द्रगुप्त से घृणा करने वाले असुरों ने बाद में बौद्ध सम्प्रदाय में घुसपैठ करके उस सम्प्रदाय को भी विकृत किया और ऐतिहासिक तथ्यों को भी बिगाड़ा | जिस अशोकावदान को प्रामाणिक मानकर अशोक को बौद्ध कहा जाता है उसकी "प्रमाणिकता" का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है !! प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ महावंश में बिन्दुसार को चन्द्रगुप्त का पुत्र कहा गया | बिन्दुसार के कई नाम प्रचलित थे | विदेशी ग्रंथों में अमित्रघात नाम प्रचलित था तो वायु पुराण में भद्रसार एवं नन्दसार तथा भागवत पुराण में वारिसार कहा गया | संस्कृत से अनजान आधुनिक इतिहासकार इन नामों को लिपिकों की भूल कहते हैं, जबकि वारिसार और बिन्दुसार पर्यायवाची हैं, और नन्दसार का अर्थ नन्दवंश का सार नहीं है बल्कि मरते हुए नन्द को बचाकर वंश को सुरक्षित रखने वाला अर्थ है | सेल्यूकुस शब्द भी आसुरी शब्द था -- सूर्यकुश > सोल्यूकुश का अपभ्रंश था जिसका अर्थ था सूर्य को मारने की ईच्छा रखने वाला असुर | ऐसे असुरों की सन्तान को चाणक्य भारत का राज कैसे सौंपते ?
चाणक्य का नाम :-- कूटनीति के विशारद थे, अतः कौटल्य कहलाये, किन्तु असुरों ने नाम बिगाड़कर कौटिल्य कर दिया और उसकी व्युत्पत्ति "कुटिल" से बताई, अब कहते हैं कि कौटिल्य गोत्र नाम था, यद्यपि ऐसा कोई गोत्र कभी नहीं था | उनका गोत्र नाम चाणक्य (चणक-वंशी) था, व्यक्तिगत नाम विष्णुगुप्त था |
कई लोग मेरे लेख की सबसे मुख्य बात को बुल्कुल नहीं समझ पाए, उस धारावाहिक अथवा किसी भी अन्य ग्रन्थ वा मीडिया में मेरी मुख्य बात को नहीं पायेंगे | वह मुख्य बात है वैदिक बनाम आसुरी मतों में संघर्ष, जिसका नेतृत्व एक तरफ चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त कर रहे थे तो दूसरी तरफ देवों के अरि (शत्रु) असुर को पूजने वाले अरि-स्तोत्र और उसका शिष्य अरि-क्षान्द्र (अलेक्सान्द्र) कर रहे थे | असुरों की जीत हो गयी रहती तो सनातन धर्म का पूरे विश्व से लोप हो गया रहता, जैसे कि भारत से बाहर लोप हो चुका है | इस मुख्य बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया | मैं भी यदि टीवी सीरियल बनाऊँ और इस बात को उछालूँ को दुनिया भर के असुर मिलकर मेरे विरोध में आसमान सिर पर उठा लेंगे !!
पुरुस या पोरष मूर्खों का आधुनिक उच्चारण है | ग्रीक में आरंभिक एवं अन्तिम स का उच्चारण नहीं होता था | संस्कृत के अन्तिम हलन्त स् का यह अवशेष यवन मूर्खों में बचा था , वह अन्तिम हलंत स् असल में विसर्ग का प्रतीक है, व्यंजन स का नहीं | प्राचीन ग्रीक ग्रंथों में Purus और लैटिन में Porus लिखा जाता था जिसमें अन्तिम स का उच्चारण वर्जित था | यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं था, वैदिक जनपद "पुरु" का नाम था जिसके मुखिया को पराजित करके अलेक्सान्द्र ने अपने पक्ष में कर लिया | पूरे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जनतान्त्रिक जनपद भरे पड़े थे | नन्दवंश वाले मगध के सिवा भारत में सारे राज्य जनतांत्रिक थे | मेगास्थनीस ने भी साफ़ लिखा है कि भारत के लोग "डेमोक्रेटिक" थे | अंग्रेजों ने ऐसे तथ्यों को दबाया ताकि प्रचार कर सके कि आधुनिक भारत स्वशासन के योग्य नहीं है |
********************************
प्रश्नोत्तरी:
१) इस्लाम सिकन्दर को नबी कहता है जुनैद के नाम से
उत्तर: 124000 नबी इस्लाम मानता है, आखिरी मुहम्मद को | जितने भी प्रमुख असुर हुए हैं वे सब "नबी" थे | त्रिपुरासुर के अवतार अन्तिम नबी थे -- वेदव्यास जी के अनुसार |
२) अमात्य राक्षस के बारे में कुछ बताइए। बहुत नाम सुना है लेकिन उनके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है
अमात्य राक्षस धनानंद के अमात्य यांनी प्रधानमंत्री थे ...चाणक्य और उनके बीच कुटनीतीक लाढाइयों कि कई कहानिया प्रचलीत है . प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में नन्द वंश को डाकू बताया गया है | वैदिक नामकरण संस्कार में "राक्षस" जैसे नाम नहीं रखे जाते हैं | धनानन्द के महामन्त्री "राक्षस" का नाम स्पष्ट करता है कि ये लोग आसुरी मार्ग वाले थे, यद्यपि जन्म से 'राक्षस' ब्राह्मण था | चाणक्य की विचारधारा सनातनी थी | नन्द वंश का समूल नाश करने के बाद जब कोई बालक भी नहीं बचा तब 'राक्षस' ने चाणक्य का प्रस्ताव मानकर चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार किया, वह बहुत ही योग्य था | तब चाणक्य ने संन्यास लेकर वन की राह पकड़ी | किन्तु बौद्ध और जैन ग्रंथों में बहुत झूठ लिखा है | जैन ग्रंथों में चाणक्य को दक्षिण भारत का जैन बताया गया है और बौद्ध ग्रंथों में उन्हें हिंसक और कपटी बताया गया है | आरम्भिक बौद्ध और जैन झूठ नहीं लिखते थे, यह सब बहुत बाद के लोगों ने जोड़ा | किन्तु मौर्यकाल के ही ग्रन्थ 'पंचतन्त्र' में चाणक्य को ही विष्णुगुप्त और कौटिल्य कहा गया जो अर्थशास्त्र के रचयिता थे | अरिस्टोटल ने पूरे विश्व से सनातन धर्म को उखाड़ने की योजना बनायी थी जिसे चाणक्य ने नाकाम कर दिया |
सामान्य इतिहास की पुस्तकों में चाणक्य को काफी कम शब्दों में निपटा दिया गया है। चाणक्य नीति के वर्तमान समय में प्रासंगिक होने के वावजूद इसे पाठ्यक्रम से बिल्कुल दूर कर दिया गया है और अरिस्टोटल और प्लुटो का दर्शन हमें पढ़ाया जाता है।
मेगास्थनीस ने भारत के ब्राह्मणों के दर्शन की तुलना सुकरात के शिष्य प्लूटो से की"| अरिस्तोत्र असुर था जबकि उसके गुरु प्लूटो सनातनी यवन थे और सुकरात के सच्चे शिष्य थे .
मेगास्थनीज ने दांडायन जैसे ब्राह्मणों की प्रशंसा की जिनका पक्ष सभी ब्राह्मणों ने लिया था |
अलेक्सान्दर के जीवन की वह सबसे करारी हार थी | उसने दांडायन नाम के साधू को वन से पकड़कर लाने के लिए सैनिक भेजे, दांडायन ने इनकार किया और अद्वैत अध्यात्म की भाषा में उत्तर दिया -- कहा कि मेरे शरीर को तुमलोग मार सकते हो, मुझे नहीं मार सकते, तुम्हारा राजा ज़ीउस का पुत्र नहीं है, आधी पृथ्वी पर भी उसका राज नहीं है, उससे कहो कि पहले गंगा की घाटी में घुसकर दिखाए , मुझे वह ऐसा कुछ भी नहीं दे सकता है जो मुझे अभीष्ट है, अतः मैं उसके पास क्यों जाऊं ?
इन बातों का उल्लेख मेगास्थनीस ने विस्तार से किया और यूरोप के लेखकों ने उद्धृत किया | अलेक्सान्दर के सैनिक दांडायन का उत्तर सुनकर हतप्रभ रह गए और राजा की आज्ञा का पालन नहीं किया, दांडायन को बिना पकडे लौट आये | अलेक्सान्दर भी मन मसोसकर रह गया |
.
दांडायन के विषय में इतिहासकारों ने विस्तार से कुछ नहीं बताया है.
.
३) सिकंदर का वर्तमान में प्रचलित इतिहास उसकी मृत्यु के ३०० वर्ष बाद लिखा गया। अनेक मिथक और लोकोक्तियों को इतिहास बताया गया उसके बावजूद पश्चिम इतिहासकारो ने विश्व को यह मानने के लिए बाध्य किया कि यही असल इतिहास है। भारत में उस समय इतिहासकारो और अभिलेखको की कमी नहीं थी। कमी है तो आज के बुद्धिजीविओ में जो पश्चिम की बेवकूफिओ तक का अंधानुकरण करने को तैयार है परंतु स्वयं से नए सिरे से अध्ययन करने से डरते है।
उत्तर- वो अन्धानुकरण नहीं कर रहे थे बल्कि अपनी विचारधारा के अनुकूल चीजों को चुन रहे थे और भारतीयता और भारतीय संस्कृति से इन बुद्धिजीवियों का कोई लेना-देना नहीं था।अंतः वे उद्देश्यानुरूप अनुसंधान करते थे।
वामपंथी इतिहासकार भी इस सत्य को स्वीकार करते है कि मगध की विशाल सेना के बारे में सुनकर सिकंदर के सैनिकों में निराशा घर कर गयी थी ,फलतः सिकंदर ने व्यास तट से लौटना ही उचित समझा। फिर भी इस असत्य को स्वीकार करते है कि सिकन्दर विश्वविजेता है। कचरा इतिहास पढ़ाया जाता है।ब्राह्मण विरोध के कारण चाणक्य के योगदान की बात ही नहीं करता।
४) क्या मकदूनिया के लोग ग्रीक नहीं थे ? कई भारतीय विद्वान् ग्रीक्स को आर्य मानते हैं क्योंकि उनकी संस्कृति और देवी देवता बहुत हद तक हमारी परम्पराओं से मिलते हैं क्या आप इसे सत्य मानते हैं?
उत्तर- नहीं, प्राचीन काल से ही पृथक भाषा और राष्ट्र मानने की परम्परा है | आज के ग्रीस के उत्तरी भाग को भी प्राचीन काल में ग्रीस से बाहर माना जाता था, उसी उत्तरी भाग से एरिस्टोटल थे अतः वे भी ग्रीक नहीं थे | मकदूनिया उससे भी उत्तर है, आज भी पृथक देश है, युगोस्लाविया से काटकर बना है |
आर्य नहीं थे, म्लेच्छ थे, किन्तु आर्यों से ही निकले थे | अर्थात आसुरी प्रवत्तियों को अपनाकर म्लेच्छ हो गए.
.
५) वामपंथ और विदेशी इतिहासकारों से प्रेरित होकर लिखे गए इतिहास ने सब कबाड़ा किया हुआ है... एक रक्त पिपासु और दुर्दांत व्यक्ति को महान बताया जाता है जिसने केवल अपनी एक महत्वकांक्षा (सनक जादा उपयुक्त होगा) को पूरा करने के लिए लाखों लोगों का खून बहाया और अपने सगे सम्बंधियों तक को नही छोड़ा..जिसका उदय ही अपने पिता और भाइयों की हत्या करके हुआ हो और जो अपने मार्ग में आनेवालों को बेरहमी से मारता आया हो, भारत आते ही उसका अचानक ह्रदय परिवर्तन कैसे हो गया??वो इतना महान कैसे हो गया की उसने जीते हुये साम्राज्य लौटाने शुरू कर दिए.? क्या कारण थे जीसने विवश होकर उसने अपनी तथाकथित विश्वविजय की सनक से परे हटकर कार्य करने शुरू कर दिए??इस परिवर्तन की असल वजह थी राजा पुरू का शौर्य.. सिकन्दर की मुख्य सैन्य ताकत उसकी घुड़सवार सेना थी, जिसको राजा पुरू ने अपनी गज सेना से नाकों चने चबवा दिए... सिकन्दर की सेना ने हाथी जैसे विशालकाय जीव ही अपने जीवन काल में पहली बार भारत आकर देखे थे, प्रशिक्षित गज सेना तो दूर की कौड़ी थी उन अर्ध नग्न कच्छा धारियों के लिए... सिकन्दर अगर जीता होता तो हम हिन्दुस्तानी आज धोती कुर्ता नहीं बल्कि वो कच्छा पहनकर और सर पर लाल मुर्गा कलगी लगाकर घूमते होते.. सिकन्दर के सिंधु तट पर पहुंचने से पहले ही उसको सुचना मिल चुकी थी की राजा पुरू की सेना से भी कई गुना अधिक बड़ी (उस समय के सबसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक, मगध साम्राज्य) की सेना उसके स्वागत के लिए आतुर खड़ी है... भले ही मगध का नंद वंशी सम्राट धनानन्द अपने निजी जीवन में अय्याश किस्म का व्यक्ति रहा हो (इतिहास में जैसा उसे दर्शाया गया है) पर उसकी सेना और धनबल का उस समय कोई सानी नहीं था और इसी के मद में चूर था वह।ग्रीक इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार मगध की सेना में 2 लाख पैदल सिपाही, 80 हजार घुड़सवार भाला-तलवार धारी सैनिक, 8 हजार युद्धक रथ और 6 हजार से जादा की गज सेना थी, जो सिकन्दर की सम्पूर्ण सेना को एक पहर से भी कम समय में मुर्गी तीतर की तरह काट देने में सक्षम थी.. यह खबर लगते ही सिकन्दर के सेना में हड़कम्प मच गया था और वो दुम दबा कर भागने में ही अपनी भलाई समझते थे क्योंकि अभी तक सिंधु के उस पार तक जिन राज्यों की सेना से सामना हुआ था उनमें मगध की सेना जैसी कूबत नहीं थी.. सिंधु तट तक के सफर और मार्ग में युद्ध करते करते उसकी जयादातर मूल सेना ध्वस्त हो चुकी थी,उस समय तक उसकी सेना में हारे हुए राज्यों के सैनिकों की भरमार थी जिन्हें वह अपने साथ लाया था ताकि उसके जाने के बाद जीते हुए राज्यों में विद्रोह न हो सके..यह सब सुनकर और राजा पुरू से मिली टक्कर से जब सिकन्दर की सेना में और युद्ध न करने को लेकर विद्रोह हुआ तो उसने दुम दबा कर वापिस भागने में ही अपनी भलाई समझी.. राजा पुरू से हुए युद्ध में सिकन्दर की घुड़सवार सेंना ध्वस्त हो चुकी थी और सिकन्दर अपनी सेना के जिन प्रमुख योद्धाओं के सुरक्षा घेरे में लड़ता था वह टूट चूका था और राजा पुरू के भाई जिसका कद 7 फुट था उसके नेतृत्व में दुश्मन सेना उसमे प्रवेश कर चुकी थी,ऐसा पहली बार हुआ था।युद्ध में मिले शारीरिक और मानसिक घावों जिसमें प्रमुख था छाती में लगे भाले का घाव,और उसमें संक्रमण जिससे वापसी के मार्ग में ही म्रत्यु हो गई.. भारत आकर सिकन्दर के विजय रथ का पहिया थम चूका था और उसका विश्वविजय का स्वप्न चूर चूर हो गया... फिर कैसे एक आक्रांता को विश्वविजयी और महान कह महिमामण्डित किया जाता है, जब उसने सबसे समृद्ध और शक्तिशाली देश भारत को नहीं जीता...
उत्तर- कई बातें मनगढ़ंत कथाओं पर आधारित हैं | अलेक्सान्दर तीन बार गम्भीर रूप से घायल हुआ, किन्तु एक बार भी पुरु से युद्ध में नहीं | पुरु की सेना केवल बीस हज़ार की थी और सिकन्दर की दो लाख की, किन्तु हाथियों के कारण अलेक्सान्दर की सेना में भगदड़ मची | मगधराज धनानन्द की सेना में आप गंगारिदाई की सेना भी जोड़ रहे हैं, प्लूटार्क को सही तरीके से उद्धृत करें जिसने लिखा कि प्राची (मगध) और गंगारिदाई के राजाओं की सेनायें मिलाकर दो लाख पैदल और अस्सी हज़ार घुड़सवारों की थीं जिस कारण अलेक्सान्दर की सेना ने लड़ने से साफ़ इनकार कर दिया और अपने एक सेनापति Coenus के समझाने पर अलेक्सान्दर लौटा | पुरु से युद्ध में हाथियों के अलेक्सान्दर की घुड़सवार सेना में भगदड़ मची थी, ध्वस्त नहीं हुई थी | पुरु अंतत: पराजित हुआ और अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकार करके उसका सत्रप बन गया, जिसके बाद पुरु के राज में अलेक्सान्दर ने तोहफे के तौर पर कुछ और क्षेत्र दे दिए क्योंकि वह जानता था कि वापस लौटने के बाद बिना पुरु की सहायता के भारतीय क्षेत्रों पर उसका कब्जा नहीं रह पायेगा | पुरु को भारत के लोग आवश्यकता से अधिक उछालते हैं, भूल जाते हैं कि अन्त में उसने अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकारी, जैसे कि मानसिंह ने अकबर की स्वीकारी | किन्तु ये तथाकथुत राष्ट्रवादी लोग सच्चे वीरों का सम्मान नहीं करते -- मुल्तान के उन मालव वीरों को भुलाते हैं जिन्होंने अलेक्सान्दर को मरणान्तक रूप से घायल किया जिसके बाद अलेक्सान्दर रेगिस्तान के रास्ते भागा, सिन्धु प्रदेश के सभी जनपदों से उसकी कड़ी लडाइयां हुई और अलेक्सान्दर ने क्रोध में आकर दो नगरों मस्सग एवं ओरा में तैमूर लंग और नादिरशाह की तरह कत्लेआम कराया | जब ये सारे जनपद अलेक्सान्दर की अधीनता ठुकराकर जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे तब पुरु पहले से भी बड़ा राज्य पाकर चैन की वंशी बजा रहा था | यह भी सरासर झूठ है कि अलेक्सान्दर मगधराज धनानन्द के भय से भागा था | वह तो अन्त तक मगध पर आक्रमण के लिए कटिबद्ध था और यदि वह आक्रमण करता तो थकी हुई सेना के बावजूद जीतता क्योंकि अत्याचारी धनानन्द की ताकत दिखावटी थी जिसे अगले ही वर्ष चाणक्य ने सिद्ध कर दिया | राज्य की शक्ति केवल सेना की संख्या से ही नहीं होती, सेना के मनोबल और राजा के प्रति निष्ठा से भी होती है, जो धनानन्द के प्रति नहीं थी | धनानन्द के विरुद्ध असन्तोष के कारण ही चन्द्रगुप्त को सफलता मिली | अलेक्सान्दर को भी अपने गुप्तचरों के माध्यम से पता चल चुका था कि धनानन्द का राज्य खोखला हो चुका है, अतः वह युद्ध के लिए बेचैन था | किन्तु पश्चिम भारत के सारे जनपद उसके विरुद्ध एकजुट हो चुके थे और केवल दो राज्यों में जनतन्त्र नहीं था, राजतन्त्र था, जो अलेक्सान्दर के मित्र बन चुके थे -- आम्भी एवं पुरु | कम्बोज के दो जनपद -- अश्वायन तथा अश्वकायन -- आरम्भ से ही अलेक्सान्दर के शत्रु थे और उससे लड़ते रहे थे, और विशाखदत्त के अनुसार चन्द्रगुप्त के सहयोगी थे | विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के अन्य सहयोगियों के भी नाम गिनाये, जिनमें अधिकांश पश्चिमी भारत के ही थे और अलेक्सान्दर के शत्रु थे | दुःख की बात है कि प्राचीन साक्ष्यों के आधार पर मैं जिन तथ्यों को उद्धृत कर रहा हूँ उन्हें झुठलाकर आप जैसे लोग फ़िल्मी बातों का प्रचार कर रहे हैं | मैंने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे सिद्ध करते हैं कि चाणक्य के चक्रव्यूह के कारण अलेक्सान्दर भगा था, न कि धनानन्द के भय से | विशाखदत्त (मुद्राराक्षस का लेखक) के अनुसार चाणक्य के चक्रव्यूह में पश्चिम भारत के सारे जनपद थे , अतः मगध पर यदि अलेक्सान्दर आक्रमण करता तो वापस नहीं लौट पाता |
रत में बसने वाले सारे विदेशी ग्रीक भी कालान्तर में पूरे भारतीय बन गए | पहले से ही बहुत से यवन भारत में थे जो "पतित क्षत्रिय" कहलाते थे (-मनुस्मृति) , वे भारतीय भाषा बोलते थे (प्राकृत) और उनका शिक्षित वर्ग संस्कृत बोलता था -- यवनराजाओं के संस्कृत ग्रन्थ बचे हुए हैं -- मीनराज (मिनांदर, पाली में मिलिन्द) और स्फुटिध्वज के, जिन्हें आज भी भारत की पाठ्य पुस्तकों में ग्रीक भाषाई बताया जाता है ! उनके ग्रंथों का दर्शन 100% सनातनी है | अलेक्सान्दर ने जिन जनपदों को सताया था वे सब चाणक्य के साथ थे, यह विशाखदत्त के नाटक "मुद्राराक्षस" में वर्णित है |
.
६) Bindusaar: एलेन (सेल्यूकस की पुत्री Helen, ग्रीक में आरंभिक H कोई व्यंजन नहीं था, एक स्वराघात था) से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह कूटनीतिक कारण से हुआ था, किन्तु चाणक्य की आज्ञा थी कि विदेशी का पुत्र राजा नहीं बने | चन्द्रगुप्त को मारने का षड्यन्त्र नन्द वंश का अमात्य राक्षस करता रहता था, जिस कारण चन्द्रगुप्त को हल्का विष चाणक्य प्रतिदिन दिया करते थे ताकि उसपर विष का प्रभाव न हो | चन्द्रगुप्त को इसकी जानकारी नहीं थी | एक दिन चन्द्रगुप्त ने वह दूध अपनी गर्भवती रानी को पिला दिया | चाणक्य को सूचना मिली कि रानी मर रही है, तो उन्होंने मरी हुई रानी को कटवाकर पेट से बच्चे को निकलवाया और सात दिनों तक प्रतिदिन एक मृत बकरी के पेट में रखकर उसे बचाया | बच्चे पर खून के बिन्दुओं के चिह्न देखकर उसका नाम "बिन्दुसार" रखा गया, वही राजा बना | हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट-पर्वन् के अनुसार बिन्दुसार की माँ का नाम दुर्धरा था, यद्यपि कुछ आधुनिक विदेशी इतिहासकार बिना प्रमाण के तुक्का लगाते हैं कि बिन्दुसार की माँ एलेन थी | मेगास्थनीस को उद्धृत करने वाले प्राचीन यूरोपियन ग्रंथों में बिन्दुसार को उसके दूसरे नाम अमित्रघात ( =शत्रु-हन्ता) से पुकारा गया | बौद्ध ग्रंथों दीपवंश और अशोकावदान में चन्द्रगुप्त के नाम को गायब कर दिया गया और बिन्दुसार को नन्दवंश का कहा गया जो स्पष्ट करता है कि सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले चाणक्य और चन्द्रगुप्त से घृणा करने वाले असुरों ने बाद में बौद्ध सम्प्रदाय में घुसपैठ करके उस सम्प्रदाय को भी विकृत किया और ऐतिहासिक तथ्यों को भी बिगाड़ा | जिस अशोकावदान को प्रामाणिक मानकर अशोक को बौद्ध कहा जाता है उसकी "प्रमाणिकता" का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है !! प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ महावंश में बिन्दुसार को चन्द्रगुप्त का पुत्र कहा गया | बिन्दुसार के कई नाम प्रचलित थे | विदेशी ग्रंथों में अमित्रघात नाम प्रचलित था तो वायु पुराण में भद्रसार एवं नन्दसार तथा भागवत पुराण में वारिसार कहा गया | संस्कृत से अनजान आधुनिक इतिहासकार इन नामों को लिपिकों की भूल कहते हैं, जबकि वारिसार और बिन्दुसार पर्यायवाची हैं, और नन्दसार का अर्थ नन्दवंश का सार नहीं है बल्कि मरते हुए नन्द को बचाकर वंश को सुरक्षित रखने वाला अर्थ है | सेल्यूकुस शब्द भी आसुरी शब्द था -- सूर्यकुश > सोल्यूकुश का अपभ्रंश था जिसका अर्थ था सूर्य को मारने की ईच्छा रखने वाला असुर | ऐसे असुरों की सन्तान को चाणक्य भारत का राज कैसे सौंपते ?
7) हमारे यहां राजतंत्र में भी प्रजा का रंजन ही किया जाता था यही तो भारत भूमि एवं सनातनी सम्राटों की महानता थी। जनतन्त्रों में भी आज जैसी मूर्खतापूर्ण डेमोक्रेसी तो नहीं होगी जहां घोड़े और गधे की एक कीमत होती है और यदि गधे संख्या में ज्यादा हैं तो सरकार भी बना लेंगे। वास्तव में म्लेच्छों ने राष्ट्र को बहुत हानि पहुंचाई है। प्लेटो या अफलातून के बारे में भी पढ़ा था। उनके विचारों को अफलातून ही मान लिया गया क्योंकि अरस्तु ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए। मेरे एक प्राध्यापक ने बताया था (इंग्लिश के प्राध्यापक होते हुए भी उनकी विचारधारा सनातनी है(मेरा कहने का अर्थ मात्र यह है कि अधिकतर शिक्षक वर्ग वामपंथी / सेक्युलर दिखने का प्रयास करता है)) कि भारतीय संस्कृति में गुरु ज्ञान को सर्वोच्च माना जाता है जबकि म्लेच्छ सभ्यता अपने गुरु की बातों को काटकर स्वयं को महान सिद्ध करती है(यहां उन्होंने अरस्तु का जिक्र किया था)। यह प्रश्न हमेशा मुझे भी खटकता था कि चाणक्य जैसे महाज्ञानी मात्र शरीर के उपहास के कारण तो साम्राज्य के विरुद्ध नहीं खड़े होंगे। आज आपने जिज्ञासा बड़े अच्छे से शांत कर दी। कलिंग महासंघ पर आपके लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
Ans- कलिंग महासंघ =
सो+वियत संघ (रूसी भाषा में सोवियत का अर्थ है "पंचायत", और संस्कृत उपसर्ग सु- का सो- बना) =
वियत+नाम =
(वियत असल में वैदिक संस्था विदथ का अपभ्रंश है और गाँव के वृद्ध विद्वानों की पंचायत का द्योतक है)
गाँधी का त्रिस्तरीय पंचायती हिन्द स्वराज (ग्राम पंचायत, मण्डल वा प्रांतीय पंचायत और राष्ट्रीय पंचायत या संसद) =
जर्मनों का प्राचीन देवतन > तेवतन > त्यूटन , देवत्स+लैंड या Deutsh
(रोम के असुर लोग घृणा से उनको जर्मन या germ कहते थे और वैदिक वर्ण-व्यवस्था वाले यूरोपियनों की भाषाओं को vern-acular ) कहते थे और Verna का अर्थ दास कर दिए) =
वैदिक जनपदों की प्रणाली पूरे विश्व में थी जिसे नगरों की आसुरी असभ्यता वाले घृणा से "कबीलाई" व्यवस्था कहते हैं |
कबीला अरबी शब्द है, जो कबीले के सम्प्रदाय और परम्परा को कबूल करे वह कबीले में रहने का अधिकारी है, कलियुग में यह नस्ल से जुड़ गया, प्राचीन काल में कर्म पर आधारित वर्ण प्रणाली पूरे विश्व में थी |
जब मैंने इंग्लैंड के संवैधानिक विकास के पूरे इतिहास का अध्ययन किया था तब पता चला कि वैदिक जनतांत्रिक पंचायती व्यवस्था सभी जर्मन कबीलों (जनपदों) में थी |
कलिंग महासंघ का प्रमाण शीघ्र प्रस्तुत करूंगा | अंग्रेजों ने जानबूझकर इन प्रमाणों को दबाया |.
Alexander को विश्व-विजेता घोषित करने वालों के ग्रंथों से ही निम्नोक्त बातें उद्धृत कर रहा हूँ |
भारत में तीन बार वह बुरी तरह घायल हुआ, तीसरी बार मालव गण से (मालव-स्थान अर्थात मुल्तान में) युद्ध में घायल हुआ तो भारत छोड़कर भागा |
उसकी पूरी सेना भी सेनाध्यक्ष के साथ वापस जा ("भाग") रही थी किन्तु बहुत कम सेना बेबीलोन पँहुच सकी | मगध और पूर्वी राज्य गंगारिदाई की सेना की संख्या सुनकर उसकी सेना ने आगे बढ़ने से साफ़ इनकार कर दिया | झेलम जिले के राजा पुरु से युद्ध में जिस यवन सेना का बुरा हाल हो गया था वह मगध साम्राज्य की विशाल सेना से लड़ने के लिए तैयार नहीं थी |
http://www.alamy.com/stock-photo-empire-of-alexander-the-great-an-his-conquest-course-from-greece-to-72459400.html
अलेक्सान्दर लड़ने के लिए कटिबद्ध था और राक्षसी यवन "देवों" को प्रसन्न करने किये उसने पशुबलि भी दी ताकि सेना मान जाय, लेकिन सेना ने विद्रोह कर दिया जिस कारण उसे व्यास-तट से लौटना पडा | रोमन इतिहासकार प्लूटार्क ने साफ़ लिखा है कि व्यास नदी के तट पर लड़ने में अनिच्छुक अपनी ही सेना के विद्रोह के कारण उसे लौटना पडा |
आम्भी के अलावा अलेक्सान्दर का कोई मित्र भारत में नहीं बना |
पुरु से उसकी सन्धि हुई थी, पुरु अनुयायी नहीं बना | शेष सब तो अलेक्सान्दर के शत्रु थे |
चन्द्रगुप्त के युद्ध में सहायक "पर्वतराज" को बहुत से इतिहासकार पुरु ही मानते हैं |
वापस लौटने के लिए भी अलेक्सान्दर ने मकरान के रेगिस्तान का खतरनाक रास्ता चुना जिस कारण उसकी अधिकाँश सेना भूख-प्यास से रास्ते में ही मर गयी -- क्योंकि उस राह में शत्रुओं के मिलने की सम्भावना नहीं थी |
जिस रास्ते आया था उस रास्ते लौटने की हिम्मत नहीं की, विरोधियों द्वारा पूरी घेराबन्दी हो चुकी थी जिसे इतिहासकार छुपाते हैं | अलेक्सान्दर को विजेता कहने वाले पश्चिमी इतिहासकार सत्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं, किन्तु भारतीय स्रोत (जैसे कि मुद्राराक्षस) को अनदेखा भी कर दें तब भी पाश्चात्य लेखकों को भी सावधानी से पढने पर आप सत्य का अनुमान लगा सकते हैं, जैसे कि https://en.wikipedia.org/wiki/Alexander_the_Great जिसमें बहुत से पाश्चात्य स्रोतों के सन्दर्भ मिल जायेंगे |
प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ "महावंश" में साफ़ लिखा है कि चाणक्य "तक्षशिला के विद्वान ब्राह्मण" थे, "तीन वेदों और राजनीति" के आचार्य थे , और भिक्षाटन के लिए पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) गए जहाँ उनकी कुरूपता के कारण नन्द राजा ने उनका अपमान किया | क्या तक्षशिला का आचार्य केवल भिक्षाटन हेतु पाटलिपुत्र जाएगा ? चाणक्य को इतिहास से मिटाने के बहुत प्रयास हुए | किन्तु मत भूलें कि अलेक्सान्दर जब भारत से लौटा उसके कुछ काल के पश्चात ही चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठा | इसका सीधा अर्थ यह है कि जब अलेक्सान्दर पश्चिमी भारत में नरसंहार कर रहा था (कई नगरों का सामूहिक नरसंहार कराया) उस समय चाणक्य और चन्द्रगुप्त अपनी सैन्य तैयारी और अभियान में लगे हुए थे | विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक मुद्राराक्षस में साफ़ लिखा है कि चन्द्रगुप्त की सहायता करने वाले अधिकाँश सैनिक पश्चिमी भारत के ही थे और उसकी आरंभिक सेना में कई यवन भी थे (मेगास्थनीस ने भी लिखा था कि अलेक्सान्दर के बहुत से सैनिक पश्चिमी भारत में ही बस गए थे, जैसे कि अलेक्सान्दर द्वारा बसाए बुसेफाला शहर में ; बहुत से यवन पहले से ही पश्चिम भारत में थे क्योंकि वहीं से बहुत से यवन पुरातन काल में यूरोप गए थे-- ग्रीक भाषा में यूरो का अर्थ है पूर्वा-हवा, अतः यूरोपियन का अर्थ हुआ पूर्व से आने वाले लोग)|
अब समझ में आया न कि अलेक्सान्दर जब पश्चिम भारत में था तब चाणक्य और चन्द्रगुप्त कहाँ थे और क्या कर रहे थे !!! अलेक्सान्दर को मारकर भगाने में चाणक्य की भूमिका को हिस्ट्रीट्यूट (सत्य को बेचने वाले इतिहासकारों) ने इतिहास से ही बाहर कर दिया !!
मेगास्थनीज ने दांडायन जैसे ब्राह्मणों की प्रशंसा की जिनका पक्ष सभी ब्राह्मणों ने लिया था | अलेक्सान्दर के जीवन की वह सबसे करारी हार थी | उसने दांडायन नाम के साधू को वन से पकड़कर लाने के लिए सैनिक भेजे, दांडायन ने इनकार किया और अद्वैत अध्यात्म की भाषा में उत्तर दिया -- कहा कि मेरे शरीर को तुमलोग मार सकते हो, मुझे नहीं मार सकते, तुम्हारा राजा ज़ीउस का पुत्र नहीं है, आधी पृथ्वी पर भी उसका राज नहीं है, उससे कहो कि पहले गंगा की घाटी में घुसकर दिखाए , मुझे वह ऐसा कुछ भी नहीं दे सकता है जो मुझे अभीष्ट है, अतः मैं उसके पास क्यों जाऊं ?
इन बातों का उल्लेख मेगास्थनीस ने विस्तार से किया और यूरोप के लेखकों ने उद्धृत किया | अलेक्सान्दर के सैनिक दांडायन का उत्तर सुनकर हतप्रभ रह गए और राजा की आज्ञा का पालन नहीं किया, दांडायन को बिना पकडे लौट आये | अलेक्सान्दर भी मन मसोसकर रह गया |
मेगास्थनीस ने दांडायन जैसे भारत के ब्राह्मणों के दर्शन की तुलना सुकरात के शिष्य प्लूटो से की (अरिस्तोत्र असुर था जबकि उसके गुरु प्लूटो सनातनी यवन थे और सुकरात के सच्चे शिष्य थे), जबकि अलेक्सान्दर देवताओं के शत्रु (अरि) के स्तोत्र पढने वाले शैतान-पूजक अरिस्तोत्र (अरिस्टोट्ल) का शिष्य था, महास्थानी (मेगास्थनीस) ने अलेक्सान्दर का समर्थन करने वाले तक्षशिला के एक आचार्य कलना की निन्दा की -- उसकी विचारधारा और स्वभाव के कारण, और दांडायाण (दमदमी) के नेतृत्व में तक्षशिला के सभी ब्राह्मणों द्वारा अलेक्सान्दर के बहिष्कार की प्रशंसा की -- उनके अध्यात्मिक विचारधारा के कारण | अलेक्सान्दर की भारत में जीत हो जाती तो सनातन धर्म का समूल नाश हो गया रहता | फारस से मिस्र तक अनेक प्राचीन सभ्यताओं को उसने मिटा डाला | मूर्खों द्वारा उसे ग्रीक कहा जाता है, उसने ग्रीक सभ्यता को सदा के लिए मिटा डाला और उसपर बर्बर मकदूनियाई सत्ता थोप दी | अभी तक हमारी पाठ्यपुस्तकों में अलेक्सान्दर और चाणक्य के बारे में अधिकांशतः अंग्रेजों का लिखा झूठ ही पढ़ाया जाता है |
राष्ट्र-रक्षा के लिए चाणक्य धनानन्द के पास गए , लेकिन घनानन्द को अपने राज्य से बाहर की बातों से कोई मतलब नहीं था, "राष्ट्र" की चिन्ता उसे नहीं थी, उसे यह भी पता नहीं था कि सिकन्दर का लक्ष्य पाटलिपुत्र ही था | अंग्रेजों ने यही पढ़ाया कि भारत में "राष्ट्र" की भावना ही नहीं थी, अतः चाणक्य के राष्ट्रवाद और पूरे देश द्वारा उस राष्ट्रवाद के समर्थन की बात आज के हिस्ट्रीटयूट नहीं करते | चन्द्रगुप्त तक्षशिला का छात्र नहीं था, धनानन्द द्वारा ठुकराए जाने के बाद चाणक्य ने उसे ढूँढा | वह वृज्जी महासंघ के मुरिया (या मोर, मौर्य) जनपद का राजकुमार था जहां की जनतांत्रिक रानी को घनानन्द ने दासी बना लिया था |
प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में नन्द वंश को डाकू बताया गया है | वैदिक नामकरण संस्कार में "राक्षस" जैसे नाम नहीं रखे जाते हैं | धनानन्द के महामन्त्री "राक्षस" का नाम स्पष्ट करता है कि ये लोग आसुरी मार्ग वाले थे, यद्यपि जन्म से 'राक्षस' ब्राह्मण था | चाणक्य की विचारधारा सनातनी थी | नन्द वंश का समूल नाश करने के बाद जब कोई बालक भी नहीं बचा तब 'राक्षस' ने चाणक्य का प्रस्ताव मानकर चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार किया, वह बहुत ही योग्य था | तब चाणक्य ने संन्यास लेकर वन की राह पकड़ी | किन्तु बौद्ध और जैन ग्रंथों में बहुत झूठ लिखा है | जैन ग्रंथों में चाणक्य को दक्षिण भारत का जैन बताया गया है और बौद्ध ग्रंथों में उन्हें हिंसक और कपटी बताया गया है | आरम्भिक बौद्ध और जैन झूठ नहीं लिखते थे, यह सब बहुत बाद के लोगों ने जोड़ा | किन्तु मौर्यकाल के ही ग्रन्थ 'पंचतन्त्र' में चाणक्य को ही विष्णुगुप्त और कौटिल्य कहा गया जो अर्थशास्त्र के रचयिता थे | अरिस्टोटल ने पूरे विश्व से सनातन धर्म को उखाड़ने की योजना बनायी थी जिसे चाणक्य ने नाकाम कर दिया |
भारत में बसने वाले सारे विदेशी ग्रीक भी कालान्तर में पूरे भारतीय बन गए | पहले से ही बहुत से यवन भारत में थे जो "पतित क्षत्रिय" कहलाते थे (-मनुस्मृति) , वे भारतीय भाषा बोलते थे (प्राकृत) और उनका शिक्षित वर्ग संस्कृत बोलता था -- यवनराजाओं के संस्कृत ग्रन्थ बचे हुए हैं -- मीनराज (मिनांदर, पाली में मिलिन्द) और स्फुटिध्वज के, जिन्हें आज भी भारत की पाठ्य पुस्तकों में ग्रीक भाषाई बताया जाता है ! उनके ग्रंथों का दर्शन 100% सनातनी है | अलेक्सान्दर ने जिन जनपदों को सताया था वे सब चाणक्य के साथ थे, यह विशाखदत्त के नाटक "मुद्राराक्षस" में वर्णित है |
*********************
अलेक्सान्दर तीन बार गम्भीर रूप से घायल हुआ, किन्तु एक बार भी पुरु से युद्ध में नहीं | पुरु की सेना केवल बीस हज़ार की थी और सिकन्दर की दो लाख की, किन्तु हाथियों के कारण अलेक्सान्दर की सेना में भगदड़ मची |
मगधराज धनानन्द की सेना में कुछ लोग भूल से गंगारिदाई राज्य (बंगाल आदि) की सेना भी जोड़ रहे हैं, प्लूटार्क ने लिखा कि प्राची (मगध) और गंगारिदाई के राजाओं की सेनायें मिलाकर दो लाख पैदल और अस्सी हज़ार घुड़सवारों की थीं जिस कारण अलेक्सान्दर की सेना ने लड़ने से साफ़ इनकार कर दिया और अपने एक सेनापति Coenus के समझाने पर अलेक्सान्दर लौटा |
पुरु से युद्ध में हाथियों के अलेक्सान्दर की घुड़सवार सेना में भगदड़ मची थी, ध्वस्त नहीं हुई थी | पुरु अंतत: पराजित हुआ और अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकार करके उसका सत्रप बन गया, जिसके बाद पुरु के राज में अलेक्सान्दर ने तोहफे के तौर पर कुछ और क्षेत्र दे दिए क्योंकि वह जानता था कि वापस लौटने के बाद बिना पुरु की सहायता के भारतीय क्षेत्रों पर उसका कब्जा नहीं रह पायेगा | पुरु को भारत के लोग आवश्यकता से अधिक उछालते हैं, भूल जाते हैं कि अन्त में उसने अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकारी, जैसे कि मानसिंह ने अकबर की स्वीकारी |
किन्तु ये तथाकथुत राष्ट्रवादी लोग सच्चे वीरों का सम्मान नहीं करते -- मुल्तान के उन मालव वीरों को भुलाते हैं जिन्होंने अलेक्सान्दर को मरणान्तक रूप से घायल किया जिसके बाद अलेक्सान्दर रेगिस्तान के रास्ते भागा, सिन्धु प्रदेश के सभी जनपदों से उसकी कड़ी लडाइयां हुई और अलेक्सान्दर ने क्रोध में आकर दो नगरों मस्सग एवं ओरा में तैमूर लंग और नादिरशाह की तरह कत्लेआम कराया | जब ये सारे जनपद अलेक्सान्दर की अधीनता ठुकराकर जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे तब पुरु पहले से भी बड़ा राज्य पाकर चैन की वंशी बजा रहा था |
यह भी सरासर झूठ है कि अलेक्सान्दर मगधराज धनानन्द के भय से भागा था | वह तो अन्त तक मगध पर आक्रमण के लिए कटिबद्ध था और यदि वह आक्रमण करता तो थकी हुई सेना के बावजूद जीतता क्योंकि अत्याचारी धनानन्द की ताकत दिखावटी थी जिसे अगले ही वर्ष चाणक्य ने सिद्ध कर दिया | राज्य की शक्ति केवल सेना की संख्या से ही नहीं होती, सेना के मनोबल और राजा के प्रति निष्ठा से भी होती है, जो धनानन्द के प्रति नहीं थी | धनानन्द के विरुद्ध असन्तोष के कारण ही चन्द्रगुप्त को सफलता मिली | अलेक्सान्दर को भी अपने गुप्तचरों के माध्यम से पता चल चुका था कि धनानन्द का राज्य खोखला हो चुका है, अतः वह युद्ध के लिए बेचैन था | किन्तु पश्चिम भारत के सारे जनपद उसके विरुद्ध एकजुट हो चुके थे और केवल दो राज्यों में जनतन्त्र नहीं था, राजतन्त्र था, जो अलेक्सान्दर के मित्र बन चुके थे -- आम्भी एवं पुरु |
कम्बोज के दो जनपद -- अश्वायन तथा अश्वकायन -- आरम्भ से ही अलेक्सान्दर के शत्रु थे और उससे लड़ते रहे थे, और विशाखदत्त के अनुसार चन्द्रगुप्त के सहयोगी थे | विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के अन्य सहयोगियों के भी नाम गिनाये, जिनमें अधिकांश पश्चिमी भारत के ही थे और अलेक्सान्दर के शत्रु थे | दुःख की बात है कि प्राचीन साक्ष्यों के आधार पर मैं जिन तथ्यों को उद्धृत कर रहा हूँ उन्हें झुठलाकर कुछ लोग फ़िल्मी बातों का प्रचार कर रहे हैं | मैंने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे सिद्ध करते हैं कि चाणक्य के चक्रव्यूह के कारण अलेक्सान्दर भगा था, न कि धनानन्द के भय से | विशाखदत्त (मुद्राराक्षस का लेखक) के अनुसार चाणक्य के चक्रव्यूह में पश्चिम भारत के सारे जनपद थे , अतः मगध पर यदि अलेक्सान्दर आक्रमण करता तो वापस नहीं लौट पाता |
एलेन (सेल्यूकस की पुत्री Helen, ग्रीक में आरंभिक H कोई व्यंजन नहीं था, एक स्वराघात था) से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह कूटनीतिक कारण से हुआ था, किन्तु चाणक्य की आज्ञा थी कि विदेशी का पुत्र राजा नहीं बने |
चन्द्रगुप्त को मारने का षड्यन्त्र नन्द वंश का अमात्य राक्षस करता रहता था, जिस कारण चन्द्रगुप्त को हल्का विष चाणक्य प्रतिदिन दिया करते थे ताकि उसपर विष का प्रभाव न हो | चन्द्रगुप्त को इसकी जानकारी नहीं थी | एक दिन चन्द्रगुप्त ने वह दूध अपनी गर्भवती रानी को पिला दिया | चाणक्य को सूचना मिली कि रानी मर रही है, तो उन्होंने मरी हुई रानी को कटवाकर पेट से बच्चे को निकलवाया और सात दिनों तक प्रतिदिन एक मृत बकरी के पेट में रखकर उसे बचाया | बच्चे पर खून के बिन्दुओं के चिह्न देखकर उसका नाम "बिन्दुसार" रखा गया, वही राजा बना |
हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट-पर्वन् के अनुसार बिन्दुसार की माँ का नाम दुर्धरा था, यद्यपि कुछ आधुनिक विदेशी इतिहासकार बिना प्रमाण के तुक्का लगाते हैं कि बिन्दुसार की माँ एलेन थी | मेगास्थनीस को उद्धृत करने वाले प्राचीन यूरोपियन ग्रंथों में बिन्दुसार को उसके दूसरे नाम अमित्रघात ( =शत्रु-हन्ता) से पुकारा गया |
बौद्ध ग्रंथों दीपवंश और अशोकावदान में चन्द्रगुप्त के नाम को गायब कर दिया गया और बिन्दुसार को नन्दवंश का कहा गया जो स्पष्ट करता है कि सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले चाणक्य और चन्द्रगुप्त से घृणा करने वाले असुरों ने बाद में बौद्ध सम्प्रदाय में घुसपैठ करके उस सम्प्रदाय को भी विकृत किया और ऐतिहासिक तथ्यों को भी बिगाड़ा | जिस अशोकावदान को प्रामाणिक मानकर अशोक को बौद्ध कहा जाता है उसकी "प्रमाणिकता" का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है !! प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ महावंश में बिन्दुसार को चन्द्रगुप्त का पुत्र कहा गया | बिन्दुसार के कई नाम प्रचलित थे | विदेशी ग्रंथों में अमित्रघात नाम प्रचलित था तो वायु पुराण में भद्रसार एवं नन्दसार तथा भागवत पुराण में वारिसार कहा गया | संस्कृत से अनजान आधुनिक इतिहासकार इन नामों को लिपिकों की भूल कहते हैं, जबकि वारिसार और बिन्दुसार पर्यायवाची हैं, और नन्दसार का अर्थ नन्दवंश का सार नहीं है बल्कि मरते हुए नन्द को बचाकर वंश को सुरक्षित रखने वाला अर्थ है | सेल्यूकुस शब्द भी आसुरी शब्द था -- सूर्यकुश > सोल्यूकुश का अपभ्रंश था जिसका अर्थ था सूर्य को मारने की ईच्छा रखने वाला असुर | ऐसे असुरों की सन्तान को चाणक्य भारत का राज कैसे सौंपते ?
चाणक्य का नाम :-- कूटनीति के विशारद थे, अतः कौटल्य कहलाये, किन्तु असुरों ने नाम बिगाड़कर कौटिल्य कर दिया और उसकी व्युत्पत्ति "कुटिल" से बताई, अब कहते हैं कि कौटिल्य गोत्र नाम था, यद्यपि ऐसा कोई गोत्र कभी नहीं था | उनका गोत्र नाम चाणक्य (चणक-वंशी) था, व्यक्तिगत नाम विष्णुगुप्त था |
कई लोग मेरे लेख की सबसे मुख्य बात को बुल्कुल नहीं समझ पाए, उस धारावाहिक अथवा किसी भी अन्य ग्रन्थ वा मीडिया में मेरी मुख्य बात को नहीं पायेंगे | वह मुख्य बात है वैदिक बनाम आसुरी मतों में संघर्ष, जिसका नेतृत्व एक तरफ चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त कर रहे थे तो दूसरी तरफ देवों के अरि (शत्रु) असुर को पूजने वाले अरि-स्तोत्र और उसका शिष्य अरि-क्षान्द्र (अलेक्सान्द्र) कर रहे थे | असुरों की जीत हो गयी रहती तो सनातन धर्म का पूरे विश्व से लोप हो गया रहता, जैसे कि भारत से बाहर लोप हो चुका है | इस मुख्य बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया | मैं भी यदि टीवी सीरियल बनाऊँ और इस बात को उछालूँ को दुनिया भर के असुर मिलकर मेरे विरोध में आसमान सिर पर उठा लेंगे !!
पुरुस या पोरष मूर्खों का आधुनिक उच्चारण है | ग्रीक में आरंभिक एवं अन्तिम स का उच्चारण नहीं होता था | संस्कृत के अन्तिम हलन्त स् का यह अवशेष यवन मूर्खों में बचा था , वह अन्तिम हलंत स् असल में विसर्ग का प्रतीक है, व्यंजन स का नहीं | प्राचीन ग्रीक ग्रंथों में Purus और लैटिन में Porus लिखा जाता था जिसमें अन्तिम स का उच्चारण वर्जित था | यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं था, वैदिक जनपद "पुरु" का नाम था जिसके मुखिया को पराजित करके अलेक्सान्द्र ने अपने पक्ष में कर लिया | पूरे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जनतान्त्रिक जनपद भरे पड़े थे | नन्दवंश वाले मगध के सिवा भारत में सारे राज्य जनतांत्रिक थे | मेगास्थनीस ने भी साफ़ लिखा है कि भारत के लोग "डेमोक्रेटिक" थे | अंग्रेजों ने ऐसे तथ्यों को दबाया ताकि प्रचार कर सके कि आधुनिक भारत स्वशासन के योग्य नहीं है |
********************************
प्रश्नोत्तरी:
१) इस्लाम सिकन्दर को नबी कहता है जुनैद के नाम से
उत्तर: 124000 नबी इस्लाम मानता है, आखिरी मुहम्मद को | जितने भी प्रमुख असुर हुए हैं वे सब "नबी" थे | त्रिपुरासुर के अवतार अन्तिम नबी थे -- वेदव्यास जी के अनुसार |
२) अमात्य राक्षस के बारे में कुछ बताइए। बहुत नाम सुना है लेकिन उनके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है
अमात्य राक्षस धनानंद के अमात्य यांनी प्रधानमंत्री थे ...चाणक्य और उनके बीच कुटनीतीक लाढाइयों कि कई कहानिया प्रचलीत है . प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में नन्द वंश को डाकू बताया गया है | वैदिक नामकरण संस्कार में "राक्षस" जैसे नाम नहीं रखे जाते हैं | धनानन्द के महामन्त्री "राक्षस" का नाम स्पष्ट करता है कि ये लोग आसुरी मार्ग वाले थे, यद्यपि जन्म से 'राक्षस' ब्राह्मण था | चाणक्य की विचारधारा सनातनी थी | नन्द वंश का समूल नाश करने के बाद जब कोई बालक भी नहीं बचा तब 'राक्षस' ने चाणक्य का प्रस्ताव मानकर चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार किया, वह बहुत ही योग्य था | तब चाणक्य ने संन्यास लेकर वन की राह पकड़ी | किन्तु बौद्ध और जैन ग्रंथों में बहुत झूठ लिखा है | जैन ग्रंथों में चाणक्य को दक्षिण भारत का जैन बताया गया है और बौद्ध ग्रंथों में उन्हें हिंसक और कपटी बताया गया है | आरम्भिक बौद्ध और जैन झूठ नहीं लिखते थे, यह सब बहुत बाद के लोगों ने जोड़ा | किन्तु मौर्यकाल के ही ग्रन्थ 'पंचतन्त्र' में चाणक्य को ही विष्णुगुप्त और कौटिल्य कहा गया जो अर्थशास्त्र के रचयिता थे | अरिस्टोटल ने पूरे विश्व से सनातन धर्म को उखाड़ने की योजना बनायी थी जिसे चाणक्य ने नाकाम कर दिया |
सामान्य इतिहास की पुस्तकों में चाणक्य को काफी कम शब्दों में निपटा दिया गया है। चाणक्य नीति के वर्तमान समय में प्रासंगिक होने के वावजूद इसे पाठ्यक्रम से बिल्कुल दूर कर दिया गया है और अरिस्टोटल और प्लुटो का दर्शन हमें पढ़ाया जाता है।
मेगास्थनीस ने भारत के ब्राह्मणों के दर्शन की तुलना सुकरात के शिष्य प्लूटो से की"| अरिस्तोत्र असुर था जबकि उसके गुरु प्लूटो सनातनी यवन थे और सुकरात के सच्चे शिष्य थे .
मेगास्थनीज ने दांडायन जैसे ब्राह्मणों की प्रशंसा की जिनका पक्ष सभी ब्राह्मणों ने लिया था |
अलेक्सान्दर के जीवन की वह सबसे करारी हार थी | उसने दांडायन नाम के साधू को वन से पकड़कर लाने के लिए सैनिक भेजे, दांडायन ने इनकार किया और अद्वैत अध्यात्म की भाषा में उत्तर दिया -- कहा कि मेरे शरीर को तुमलोग मार सकते हो, मुझे नहीं मार सकते, तुम्हारा राजा ज़ीउस का पुत्र नहीं है, आधी पृथ्वी पर भी उसका राज नहीं है, उससे कहो कि पहले गंगा की घाटी में घुसकर दिखाए , मुझे वह ऐसा कुछ भी नहीं दे सकता है जो मुझे अभीष्ट है, अतः मैं उसके पास क्यों जाऊं ?
इन बातों का उल्लेख मेगास्थनीस ने विस्तार से किया और यूरोप के लेखकों ने उद्धृत किया | अलेक्सान्दर के सैनिक दांडायन का उत्तर सुनकर हतप्रभ रह गए और राजा की आज्ञा का पालन नहीं किया, दांडायन को बिना पकडे लौट आये | अलेक्सान्दर भी मन मसोसकर रह गया |
.
दांडायन के विषय में इतिहासकारों ने विस्तार से कुछ नहीं बताया है.
.
३) सिकंदर का वर्तमान में प्रचलित इतिहास उसकी मृत्यु के ३०० वर्ष बाद लिखा गया। अनेक मिथक और लोकोक्तियों को इतिहास बताया गया उसके बावजूद पश्चिम इतिहासकारो ने विश्व को यह मानने के लिए बाध्य किया कि यही असल इतिहास है। भारत में उस समय इतिहासकारो और अभिलेखको की कमी नहीं थी। कमी है तो आज के बुद्धिजीविओ में जो पश्चिम की बेवकूफिओ तक का अंधानुकरण करने को तैयार है परंतु स्वयं से नए सिरे से अध्ययन करने से डरते है।
उत्तर- वो अन्धानुकरण नहीं कर रहे थे बल्कि अपनी विचारधारा के अनुकूल चीजों को चुन रहे थे और भारतीयता और भारतीय संस्कृति से इन बुद्धिजीवियों का कोई लेना-देना नहीं था।अंतः वे उद्देश्यानुरूप अनुसंधान करते थे।
वामपंथी इतिहासकार भी इस सत्य को स्वीकार करते है कि मगध की विशाल सेना के बारे में सुनकर सिकंदर के सैनिकों में निराशा घर कर गयी थी ,फलतः सिकंदर ने व्यास तट से लौटना ही उचित समझा। फिर भी इस असत्य को स्वीकार करते है कि सिकन्दर विश्वविजेता है। कचरा इतिहास पढ़ाया जाता है।ब्राह्मण विरोध के कारण चाणक्य के योगदान की बात ही नहीं करता।
४) क्या मकदूनिया के लोग ग्रीक नहीं थे ? कई भारतीय विद्वान् ग्रीक्स को आर्य मानते हैं क्योंकि उनकी संस्कृति और देवी देवता बहुत हद तक हमारी परम्पराओं से मिलते हैं क्या आप इसे सत्य मानते हैं?
उत्तर- नहीं, प्राचीन काल से ही पृथक भाषा और राष्ट्र मानने की परम्परा है | आज के ग्रीस के उत्तरी भाग को भी प्राचीन काल में ग्रीस से बाहर माना जाता था, उसी उत्तरी भाग से एरिस्टोटल थे अतः वे भी ग्रीक नहीं थे | मकदूनिया उससे भी उत्तर है, आज भी पृथक देश है, युगोस्लाविया से काटकर बना है |
आर्य नहीं थे, म्लेच्छ थे, किन्तु आर्यों से ही निकले थे | अर्थात आसुरी प्रवत्तियों को अपनाकर म्लेच्छ हो गए.
.
५) वामपंथ और विदेशी इतिहासकारों से प्रेरित होकर लिखे गए इतिहास ने सब कबाड़ा किया हुआ है... एक रक्त पिपासु और दुर्दांत व्यक्ति को महान बताया जाता है जिसने केवल अपनी एक महत्वकांक्षा (सनक जादा उपयुक्त होगा) को पूरा करने के लिए लाखों लोगों का खून बहाया और अपने सगे सम्बंधियों तक को नही छोड़ा..जिसका उदय ही अपने पिता और भाइयों की हत्या करके हुआ हो और जो अपने मार्ग में आनेवालों को बेरहमी से मारता आया हो, भारत आते ही उसका अचानक ह्रदय परिवर्तन कैसे हो गया??वो इतना महान कैसे हो गया की उसने जीते हुये साम्राज्य लौटाने शुरू कर दिए.? क्या कारण थे जीसने विवश होकर उसने अपनी तथाकथित विश्वविजय की सनक से परे हटकर कार्य करने शुरू कर दिए??इस परिवर्तन की असल वजह थी राजा पुरू का शौर्य.. सिकन्दर की मुख्य सैन्य ताकत उसकी घुड़सवार सेना थी, जिसको राजा पुरू ने अपनी गज सेना से नाकों चने चबवा दिए... सिकन्दर की सेना ने हाथी जैसे विशालकाय जीव ही अपने जीवन काल में पहली बार भारत आकर देखे थे, प्रशिक्षित गज सेना तो दूर की कौड़ी थी उन अर्ध नग्न कच्छा धारियों के लिए... सिकन्दर अगर जीता होता तो हम हिन्दुस्तानी आज धोती कुर्ता नहीं बल्कि वो कच्छा पहनकर और सर पर लाल मुर्गा कलगी लगाकर घूमते होते.. सिकन्दर के सिंधु तट पर पहुंचने से पहले ही उसको सुचना मिल चुकी थी की राजा पुरू की सेना से भी कई गुना अधिक बड़ी (उस समय के सबसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक, मगध साम्राज्य) की सेना उसके स्वागत के लिए आतुर खड़ी है... भले ही मगध का नंद वंशी सम्राट धनानन्द अपने निजी जीवन में अय्याश किस्म का व्यक्ति रहा हो (इतिहास में जैसा उसे दर्शाया गया है) पर उसकी सेना और धनबल का उस समय कोई सानी नहीं था और इसी के मद में चूर था वह।ग्रीक इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार मगध की सेना में 2 लाख पैदल सिपाही, 80 हजार घुड़सवार भाला-तलवार धारी सैनिक, 8 हजार युद्धक रथ और 6 हजार से जादा की गज सेना थी, जो सिकन्दर की सम्पूर्ण सेना को एक पहर से भी कम समय में मुर्गी तीतर की तरह काट देने में सक्षम थी.. यह खबर लगते ही सिकन्दर के सेना में हड़कम्प मच गया था और वो दुम दबा कर भागने में ही अपनी भलाई समझते थे क्योंकि अभी तक सिंधु के उस पार तक जिन राज्यों की सेना से सामना हुआ था उनमें मगध की सेना जैसी कूबत नहीं थी.. सिंधु तट तक के सफर और मार्ग में युद्ध करते करते उसकी जयादातर मूल सेना ध्वस्त हो चुकी थी,उस समय तक उसकी सेना में हारे हुए राज्यों के सैनिकों की भरमार थी जिन्हें वह अपने साथ लाया था ताकि उसके जाने के बाद जीते हुए राज्यों में विद्रोह न हो सके..यह सब सुनकर और राजा पुरू से मिली टक्कर से जब सिकन्दर की सेना में और युद्ध न करने को लेकर विद्रोह हुआ तो उसने दुम दबा कर वापिस भागने में ही अपनी भलाई समझी.. राजा पुरू से हुए युद्ध में सिकन्दर की घुड़सवार सेंना ध्वस्त हो चुकी थी और सिकन्दर अपनी सेना के जिन प्रमुख योद्धाओं के सुरक्षा घेरे में लड़ता था वह टूट चूका था और राजा पुरू के भाई जिसका कद 7 फुट था उसके नेतृत्व में दुश्मन सेना उसमे प्रवेश कर चुकी थी,ऐसा पहली बार हुआ था।युद्ध में मिले शारीरिक और मानसिक घावों जिसमें प्रमुख था छाती में लगे भाले का घाव,और उसमें संक्रमण जिससे वापसी के मार्ग में ही म्रत्यु हो गई.. भारत आकर सिकन्दर के विजय रथ का पहिया थम चूका था और उसका विश्वविजय का स्वप्न चूर चूर हो गया... फिर कैसे एक आक्रांता को विश्वविजयी और महान कह महिमामण्डित किया जाता है, जब उसने सबसे समृद्ध और शक्तिशाली देश भारत को नहीं जीता...
उत्तर- कई बातें मनगढ़ंत कथाओं पर आधारित हैं | अलेक्सान्दर तीन बार गम्भीर रूप से घायल हुआ, किन्तु एक बार भी पुरु से युद्ध में नहीं | पुरु की सेना केवल बीस हज़ार की थी और सिकन्दर की दो लाख की, किन्तु हाथियों के कारण अलेक्सान्दर की सेना में भगदड़ मची | मगधराज धनानन्द की सेना में आप गंगारिदाई की सेना भी जोड़ रहे हैं, प्लूटार्क को सही तरीके से उद्धृत करें जिसने लिखा कि प्राची (मगध) और गंगारिदाई के राजाओं की सेनायें मिलाकर दो लाख पैदल और अस्सी हज़ार घुड़सवारों की थीं जिस कारण अलेक्सान्दर की सेना ने लड़ने से साफ़ इनकार कर दिया और अपने एक सेनापति Coenus के समझाने पर अलेक्सान्दर लौटा | पुरु से युद्ध में हाथियों के अलेक्सान्दर की घुड़सवार सेना में भगदड़ मची थी, ध्वस्त नहीं हुई थी | पुरु अंतत: पराजित हुआ और अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकार करके उसका सत्रप बन गया, जिसके बाद पुरु के राज में अलेक्सान्दर ने तोहफे के तौर पर कुछ और क्षेत्र दे दिए क्योंकि वह जानता था कि वापस लौटने के बाद बिना पुरु की सहायता के भारतीय क्षेत्रों पर उसका कब्जा नहीं रह पायेगा | पुरु को भारत के लोग आवश्यकता से अधिक उछालते हैं, भूल जाते हैं कि अन्त में उसने अलेक्सान्दर की अधीनता स्वीकारी, जैसे कि मानसिंह ने अकबर की स्वीकारी | किन्तु ये तथाकथुत राष्ट्रवादी लोग सच्चे वीरों का सम्मान नहीं करते -- मुल्तान के उन मालव वीरों को भुलाते हैं जिन्होंने अलेक्सान्दर को मरणान्तक रूप से घायल किया जिसके बाद अलेक्सान्दर रेगिस्तान के रास्ते भागा, सिन्धु प्रदेश के सभी जनपदों से उसकी कड़ी लडाइयां हुई और अलेक्सान्दर ने क्रोध में आकर दो नगरों मस्सग एवं ओरा में तैमूर लंग और नादिरशाह की तरह कत्लेआम कराया | जब ये सारे जनपद अलेक्सान्दर की अधीनता ठुकराकर जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे तब पुरु पहले से भी बड़ा राज्य पाकर चैन की वंशी बजा रहा था | यह भी सरासर झूठ है कि अलेक्सान्दर मगधराज धनानन्द के भय से भागा था | वह तो अन्त तक मगध पर आक्रमण के लिए कटिबद्ध था और यदि वह आक्रमण करता तो थकी हुई सेना के बावजूद जीतता क्योंकि अत्याचारी धनानन्द की ताकत दिखावटी थी जिसे अगले ही वर्ष चाणक्य ने सिद्ध कर दिया | राज्य की शक्ति केवल सेना की संख्या से ही नहीं होती, सेना के मनोबल और राजा के प्रति निष्ठा से भी होती है, जो धनानन्द के प्रति नहीं थी | धनानन्द के विरुद्ध असन्तोष के कारण ही चन्द्रगुप्त को सफलता मिली | अलेक्सान्दर को भी अपने गुप्तचरों के माध्यम से पता चल चुका था कि धनानन्द का राज्य खोखला हो चुका है, अतः वह युद्ध के लिए बेचैन था | किन्तु पश्चिम भारत के सारे जनपद उसके विरुद्ध एकजुट हो चुके थे और केवल दो राज्यों में जनतन्त्र नहीं था, राजतन्त्र था, जो अलेक्सान्दर के मित्र बन चुके थे -- आम्भी एवं पुरु | कम्बोज के दो जनपद -- अश्वायन तथा अश्वकायन -- आरम्भ से ही अलेक्सान्दर के शत्रु थे और उससे लड़ते रहे थे, और विशाखदत्त के अनुसार चन्द्रगुप्त के सहयोगी थे | विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के अन्य सहयोगियों के भी नाम गिनाये, जिनमें अधिकांश पश्चिमी भारत के ही थे और अलेक्सान्दर के शत्रु थे | दुःख की बात है कि प्राचीन साक्ष्यों के आधार पर मैं जिन तथ्यों को उद्धृत कर रहा हूँ उन्हें झुठलाकर आप जैसे लोग फ़िल्मी बातों का प्रचार कर रहे हैं | मैंने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे सिद्ध करते हैं कि चाणक्य के चक्रव्यूह के कारण अलेक्सान्दर भगा था, न कि धनानन्द के भय से | विशाखदत्त (मुद्राराक्षस का लेखक) के अनुसार चाणक्य के चक्रव्यूह में पश्चिम भारत के सारे जनपद थे , अतः मगध पर यदि अलेक्सान्दर आक्रमण करता तो वापस नहीं लौट पाता |
रत में बसने वाले सारे विदेशी ग्रीक भी कालान्तर में पूरे भारतीय बन गए | पहले से ही बहुत से यवन भारत में थे जो "पतित क्षत्रिय" कहलाते थे (-मनुस्मृति) , वे भारतीय भाषा बोलते थे (प्राकृत) और उनका शिक्षित वर्ग संस्कृत बोलता था -- यवनराजाओं के संस्कृत ग्रन्थ बचे हुए हैं -- मीनराज (मिनांदर, पाली में मिलिन्द) और स्फुटिध्वज के, जिन्हें आज भी भारत की पाठ्य पुस्तकों में ग्रीक भाषाई बताया जाता है ! उनके ग्रंथों का दर्शन 100% सनातनी है | अलेक्सान्दर ने जिन जनपदों को सताया था वे सब चाणक्य के साथ थे, यह विशाखदत्त के नाटक "मुद्राराक्षस" में वर्णित है |
.
६) Bindusaar: एलेन (सेल्यूकस की पुत्री Helen, ग्रीक में आरंभिक H कोई व्यंजन नहीं था, एक स्वराघात था) से चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह कूटनीतिक कारण से हुआ था, किन्तु चाणक्य की आज्ञा थी कि विदेशी का पुत्र राजा नहीं बने | चन्द्रगुप्त को मारने का षड्यन्त्र नन्द वंश का अमात्य राक्षस करता रहता था, जिस कारण चन्द्रगुप्त को हल्का विष चाणक्य प्रतिदिन दिया करते थे ताकि उसपर विष का प्रभाव न हो | चन्द्रगुप्त को इसकी जानकारी नहीं थी | एक दिन चन्द्रगुप्त ने वह दूध अपनी गर्भवती रानी को पिला दिया | चाणक्य को सूचना मिली कि रानी मर रही है, तो उन्होंने मरी हुई रानी को कटवाकर पेट से बच्चे को निकलवाया और सात दिनों तक प्रतिदिन एक मृत बकरी के पेट में रखकर उसे बचाया | बच्चे पर खून के बिन्दुओं के चिह्न देखकर उसका नाम "बिन्दुसार" रखा गया, वही राजा बना | हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट-पर्वन् के अनुसार बिन्दुसार की माँ का नाम दुर्धरा था, यद्यपि कुछ आधुनिक विदेशी इतिहासकार बिना प्रमाण के तुक्का लगाते हैं कि बिन्दुसार की माँ एलेन थी | मेगास्थनीस को उद्धृत करने वाले प्राचीन यूरोपियन ग्रंथों में बिन्दुसार को उसके दूसरे नाम अमित्रघात ( =शत्रु-हन्ता) से पुकारा गया | बौद्ध ग्रंथों दीपवंश और अशोकावदान में चन्द्रगुप्त के नाम को गायब कर दिया गया और बिन्दुसार को नन्दवंश का कहा गया जो स्पष्ट करता है कि सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले चाणक्य और चन्द्रगुप्त से घृणा करने वाले असुरों ने बाद में बौद्ध सम्प्रदाय में घुसपैठ करके उस सम्प्रदाय को भी विकृत किया और ऐतिहासिक तथ्यों को भी बिगाड़ा | जिस अशोकावदान को प्रामाणिक मानकर अशोक को बौद्ध कहा जाता है उसकी "प्रमाणिकता" का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है !! प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ महावंश में बिन्दुसार को चन्द्रगुप्त का पुत्र कहा गया | बिन्दुसार के कई नाम प्रचलित थे | विदेशी ग्रंथों में अमित्रघात नाम प्रचलित था तो वायु पुराण में भद्रसार एवं नन्दसार तथा भागवत पुराण में वारिसार कहा गया | संस्कृत से अनजान आधुनिक इतिहासकार इन नामों को लिपिकों की भूल कहते हैं, जबकि वारिसार और बिन्दुसार पर्यायवाची हैं, और नन्दसार का अर्थ नन्दवंश का सार नहीं है बल्कि मरते हुए नन्द को बचाकर वंश को सुरक्षित रखने वाला अर्थ है | सेल्यूकुस शब्द भी आसुरी शब्द था -- सूर्यकुश > सोल्यूकुश का अपभ्रंश था जिसका अर्थ था सूर्य को मारने की ईच्छा रखने वाला असुर | ऐसे असुरों की सन्तान को चाणक्य भारत का राज कैसे सौंपते ?
7) हमारे यहां राजतंत्र में भी प्रजा का रंजन ही किया जाता था यही तो भारत भूमि एवं सनातनी सम्राटों की महानता थी। जनतन्त्रों में भी आज जैसी मूर्खतापूर्ण डेमोक्रेसी तो नहीं होगी जहां घोड़े और गधे की एक कीमत होती है और यदि गधे संख्या में ज्यादा हैं तो सरकार भी बना लेंगे। वास्तव में म्लेच्छों ने राष्ट्र को बहुत हानि पहुंचाई है। प्लेटो या अफलातून के बारे में भी पढ़ा था। उनके विचारों को अफलातून ही मान लिया गया क्योंकि अरस्तु ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए। मेरे एक प्राध्यापक ने बताया था (इंग्लिश के प्राध्यापक होते हुए भी उनकी विचारधारा सनातनी है(मेरा कहने का अर्थ मात्र यह है कि अधिकतर शिक्षक वर्ग वामपंथी / सेक्युलर दिखने का प्रयास करता है)) कि भारतीय संस्कृति में गुरु ज्ञान को सर्वोच्च माना जाता है जबकि म्लेच्छ सभ्यता अपने गुरु की बातों को काटकर स्वयं को महान सिद्ध करती है(यहां उन्होंने अरस्तु का जिक्र किया था)। यह प्रश्न हमेशा मुझे भी खटकता था कि चाणक्य जैसे महाज्ञानी मात्र शरीर के उपहास के कारण तो साम्राज्य के विरुद्ध नहीं खड़े होंगे। आज आपने जिज्ञासा बड़े अच्छे से शांत कर दी। कलिंग महासंघ पर आपके लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
Ans- कलिंग महासंघ =
सो+वियत संघ (रूसी भाषा में सोवियत का अर्थ है "पंचायत", और संस्कृत उपसर्ग सु- का सो- बना) =
वियत+नाम =
(वियत असल में वैदिक संस्था विदथ का अपभ्रंश है और गाँव के वृद्ध विद्वानों की पंचायत का द्योतक है)
गाँधी का त्रिस्तरीय पंचायती हिन्द स्वराज (ग्राम पंचायत, मण्डल वा प्रांतीय पंचायत और राष्ट्रीय पंचायत या संसद) =
जर्मनों का प्राचीन देवतन > तेवतन > त्यूटन , देवत्स+लैंड या Deutsh
(रोम के असुर लोग घृणा से उनको जर्मन या germ कहते थे और वैदिक वर्ण-व्यवस्था वाले यूरोपियनों की भाषाओं को vern-acular ) कहते थे और Verna का अर्थ दास कर दिए) =
वैदिक जनपदों की प्रणाली पूरे विश्व में थी जिसे नगरों की आसुरी असभ्यता वाले घृणा से "कबीलाई" व्यवस्था कहते हैं |
कबीला अरबी शब्द है, जो कबीले के सम्प्रदाय और परम्परा को कबूल करे वह कबीले में रहने का अधिकारी है, कलियुग में यह नस्ल से जुड़ गया, प्राचीन काल में कर्म पर आधारित वर्ण प्रणाली पूरे विश्व में थी |
जब मैंने इंग्लैंड के संवैधानिक विकास के पूरे इतिहास का अध्ययन किया था तब पता चला कि वैदिक जनतांत्रिक पंचायती व्यवस्था सभी जर्मन कबीलों (जनपदों) में थी |
कलिंग महासंघ का प्रमाण शीघ्र प्रस्तुत करूंगा | अंग्रेजों ने जानबूझकर इन प्रमाणों को दबाया |.
Comments
Post a Comment
कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.