किस तरह कोई धर्म कमजोर होकर नष्ट हो जाता है
किसी धर्म के धर्मानुरागी कार्यकर्ता यदि धर्म के इन दो आयामों में फर्क नहीं समझ पाए तो उनका धर्म नष्ट हो जाएगा ;
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धर्म के दो आयाम है -- १) मीमांसा २) परोपकार
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[ 1 ]
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मीमांसा - धर्म क्या कहता है, धार्मिक ग्रंथो में क्या लिखा है, धर्म का उपदेश क्या है, उत्सव क्या है, धर्म की शिक्षा क्या है, धर्म-अधर्म क्या है, पाप एवं पुण्य क्या है , पूर्व जन्म के फल क्या है, जन्नत-जहन्नुम क्या है , सृष्टि क्या है , किसने इसे रचा है , सत्य क्या है, इसका मालिक कौन है , माया क्या है , शैतान एवं फ़रिश्ते क्या है , इल्म क्या है, धर्म का तत्व और दर्शन क्या है आदि आदि तरह के विषयो पर विचार एवं उपदेश करना धर्म की मीमांसा है। किसी धर्म के टिके रहने या नष्ट हो जाने में धर्म की मीमांसा का कोई योगदान नहीं होता है। इस तरह की सभी बातें आभासी / आध्यात्मिक होती और इनकी जुगाली किसी के लिए दिमागी ऐयाशी है और किसी को यह मानसिक सम्बल देती है। यह एक प्रकार की चुहल है। पर जब ये चुहल ज्यादा बढ़ जाती है, और इस वजह से परोपकार के कार्यो में कमी आती है तो धर्म के पाँव उखड़ने लगते है।
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परोपकार - यह धर्म का वह निर्णायक तत्व है जो धर्म को टिकाये रखता है और उसे मजबूती प्रदान करता है। यदि किसी धर्म की धार्मिक संस्थाएं परोपकार के कार्य करती रहेगी तो ऊपर दी गयी मीमांसा करने के अवसर बने रहेंगे। यदि परोपकार घट जायेगा तो जिस धर्म की धार्मिक संस्थाएं ज्यादा परोपकार कर रही है वह धर्म अमुक धर्म के वंचित तबके को अपनी और खींच लेगा। क्योंकि रोटी और बुनियादी जरूरते पहली आवश्यकता है। जब पेट भर जाता है तब ही आदमी को चुहल सूझती है। ऐतिहासिक रूप से यह सिद्ध है कि, जिस धर्म की धार्मिक संस्थाओ ने परोपकार के कार्य किये उनका विस्तार होता गया और जिन्होंने अपनी शक्ति सिर्फ मीमांसा पर जाया कि वे सिकुड़ते चले गए। परोपकार कार्यो के अभाव में सिर्फ एक शर्त* पर ही धर्म टिका रह सकता है -- यदि उसे किसी प्रतिद्वंदी धर्म का सामना नहीं करना पड़े। जिस धर्म की धार्मिक संस्थाओ का प्रशासन बेहतर होता है उन धर्मो में परोपकार के कार्यो में वृद्धि होती है। अत: मजबूत प्रशासन वाला धर्म कमजोर प्रशासन वाले धर्म के अनुयायीओ पर कब्ज़ा कर लेता है।
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[ 2 ]
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मीमांसा की दृष्टी से सारे धर्म उपदेशक, पीर फ़क़ीर, पादरी, संत, स्वामी, महर्षि आदि कवि और कहानी कार है। और इनके मुखारविंद से निकली गयी कहानियों और कविताओं से धर्म के टिके रहने या नष्ट हो जाने का कोई लेना देना नहीं है। ये लोग समय समय पर आते है और अपना ज्ञान बाँट कर चले जाते है। किसी धर्म में कब कितना बड़ा उपदेशक या महात्मा हुआ इससे धर्म को कोई फर्क नहीं आता।
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पर इन कथित धर्म गुरुओ में से ही कभी कभी कोई उपदेशक श्रद्धालुओं को अपना तमाशा दिखा कर दान खींचता है और इस दान से ऐसी व्यवस्था कायम कर देता है जिससे अमुक धर्म में परोपकार के कार्यो में तेजी आ जाती है। कुछ इससे भी आगे बढ़ जाते है और ऐसी व्यवस्था रच देते है जिससे उनके मर जाने के बाद भी अमुक संस्था / धर्म में दान आता रहता है और परोपकार के कार्य होते रहते है। मेरी विचार में सिर्फ वही लोग असली धर्म गुरु एवं संत है जिन्होने अपने धर्म में परोपकार के कार्यो को सतत बनाये रखने के लिए व्यवस्था रची या इसके लिए ईमानदार प्रयास किये। और यदि ऐसे लोगो में चोरी चकारी की आदतें थी या उनका चरित्र कमतर / धूमिल था तब भी अनुकरणीय न होने बावजूद अपने धार्मिक योगदान के दृष्टिकोण से वे संत ही है।
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तो आप किसी भी धर्म से सरोकार रखते हो। इस बात पर ध्यान दीजिये कि आपके धर्म की संस्थाएं स्कूल / अस्पताल चलाना , दवाइयाँ / खाना बाँटना आदि परोपकार के कार्य कर रही है या नहीं। और यदि कर रही है तो क्या ये कार्य प्रतिद्वंदी धर्म के परोपकार कार्यो से कमतर है ? यदि प्रतिद्वंदी धर्म परोपकार के कार्यो में बढ़ा हुआ है तो आपका धर्म खतरे में है।
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(*) धर्म के नष्ट हो जाने की सबसे बड़ी वजह हथियार विहीन होना है। जिस धर्म के अनुयायियों के पास बेहतर हथियार होंगे वह धर्म अन्य धर्मो का अधिग्रहण कर लेगा।
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धर्म के दो आयाम है -- १) मीमांसा २) परोपकार
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मीमांसा - धर्म क्या कहता है, धार्मिक ग्रंथो में क्या लिखा है, धर्म का उपदेश क्या है, उत्सव क्या है, धर्म की शिक्षा क्या है, धर्म-अधर्म क्या है, पाप एवं पुण्य क्या है , पूर्व जन्म के फल क्या है, जन्नत-जहन्नुम क्या है , सृष्टि क्या है , किसने इसे रचा है , सत्य क्या है, इसका मालिक कौन है , माया क्या है , शैतान एवं फ़रिश्ते क्या है , इल्म क्या है, धर्म का तत्व और दर्शन क्या है आदि आदि तरह के विषयो पर विचार एवं उपदेश करना धर्म की मीमांसा है। किसी धर्म के टिके रहने या नष्ट हो जाने में धर्म की मीमांसा का कोई योगदान नहीं होता है। इस तरह की सभी बातें आभासी / आध्यात्मिक होती और इनकी जुगाली किसी के लिए दिमागी ऐयाशी है और किसी को यह मानसिक सम्बल देती है। यह एक प्रकार की चुहल है। पर जब ये चुहल ज्यादा बढ़ जाती है, और इस वजह से परोपकार के कार्यो में कमी आती है तो धर्म के पाँव उखड़ने लगते है।
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परोपकार - यह धर्म का वह निर्णायक तत्व है जो धर्म को टिकाये रखता है और उसे मजबूती प्रदान करता है। यदि किसी धर्म की धार्मिक संस्थाएं परोपकार के कार्य करती रहेगी तो ऊपर दी गयी मीमांसा करने के अवसर बने रहेंगे। यदि परोपकार घट जायेगा तो जिस धर्म की धार्मिक संस्थाएं ज्यादा परोपकार कर रही है वह धर्म अमुक धर्म के वंचित तबके को अपनी और खींच लेगा। क्योंकि रोटी और बुनियादी जरूरते पहली आवश्यकता है। जब पेट भर जाता है तब ही आदमी को चुहल सूझती है। ऐतिहासिक रूप से यह सिद्ध है कि, जिस धर्म की धार्मिक संस्थाओ ने परोपकार के कार्य किये उनका विस्तार होता गया और जिन्होंने अपनी शक्ति सिर्फ मीमांसा पर जाया कि वे सिकुड़ते चले गए। परोपकार कार्यो के अभाव में सिर्फ एक शर्त* पर ही धर्म टिका रह सकता है -- यदि उसे किसी प्रतिद्वंदी धर्म का सामना नहीं करना पड़े। जिस धर्म की धार्मिक संस्थाओ का प्रशासन बेहतर होता है उन धर्मो में परोपकार के कार्यो में वृद्धि होती है। अत: मजबूत प्रशासन वाला धर्म कमजोर प्रशासन वाले धर्म के अनुयायीओ पर कब्ज़ा कर लेता है।
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मीमांसा की दृष्टी से सारे धर्म उपदेशक, पीर फ़क़ीर, पादरी, संत, स्वामी, महर्षि आदि कवि और कहानी कार है। और इनके मुखारविंद से निकली गयी कहानियों और कविताओं से धर्म के टिके रहने या नष्ट हो जाने का कोई लेना देना नहीं है। ये लोग समय समय पर आते है और अपना ज्ञान बाँट कर चले जाते है। किसी धर्म में कब कितना बड़ा उपदेशक या महात्मा हुआ इससे धर्म को कोई फर्क नहीं आता।
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पर इन कथित धर्म गुरुओ में से ही कभी कभी कोई उपदेशक श्रद्धालुओं को अपना तमाशा दिखा कर दान खींचता है और इस दान से ऐसी व्यवस्था कायम कर देता है जिससे अमुक धर्म में परोपकार के कार्यो में तेजी आ जाती है। कुछ इससे भी आगे बढ़ जाते है और ऐसी व्यवस्था रच देते है जिससे उनके मर जाने के बाद भी अमुक संस्था / धर्म में दान आता रहता है और परोपकार के कार्य होते रहते है। मेरी विचार में सिर्फ वही लोग असली धर्म गुरु एवं संत है जिन्होने अपने धर्म में परोपकार के कार्यो को सतत बनाये रखने के लिए व्यवस्था रची या इसके लिए ईमानदार प्रयास किये। और यदि ऐसे लोगो में चोरी चकारी की आदतें थी या उनका चरित्र कमतर / धूमिल था तब भी अनुकरणीय न होने बावजूद अपने धार्मिक योगदान के दृष्टिकोण से वे संत ही है।
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तो आप किसी भी धर्म से सरोकार रखते हो। इस बात पर ध्यान दीजिये कि आपके धर्म की संस्थाएं स्कूल / अस्पताल चलाना , दवाइयाँ / खाना बाँटना आदि परोपकार के कार्य कर रही है या नहीं। और यदि कर रही है तो क्या ये कार्य प्रतिद्वंदी धर्म के परोपकार कार्यो से कमतर है ? यदि प्रतिद्वंदी धर्म परोपकार के कार्यो में बढ़ा हुआ है तो आपका धर्म खतरे में है।
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(*) धर्म के नष्ट हो जाने की सबसे बड़ी वजह हथियार विहीन होना है। जिस धर्म के अनुयायियों के पास बेहतर हथियार होंगे वह धर्म अन्य धर्मो का अधिग्रहण कर लेगा।
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.