झूठ बताना अपराध है.

चौथी शताब्दी ई.पू. चीनी परिचर्चा में ड्यूक जहो ने ज्होऊ के राजा ली से कहा था कि “लोगों का मुंह ज़बरदस्ती बंद करना एक नदी को रोकने से भी ज्यादा खराब है”. “उसे सच बताओ, चाहे वो नाराज़ ही क्यूँ न हो”, आप समझ सकते हैं कि चौथी शताब्दी में भी लोगो मे यह समझ थी कि सेंसर शिप यानी जनता को सच बताने से महरूम रखना एक बड़ा अपराध हैं आज के मीडिया का मतलब क्या रह गया हैं ? क्या यह अब लोकतंत्र का चोकीदार, बेजुबानों की आवाज, चौथा स्तम्भ, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम, निडर निष्पक्ष ताकत रह गयाहैं ?
ऐसे वक्त में जब ये सारे शब्द अब अपनी चमक खोते जा रहे हैं ऑनलाइन मीडिया जर्नलिज्म अपने नए तेवर ओर तल्खी लेकर के सामने आया है, जो लोग सोशल मीडिया पर ब्लॉगिंग में या RTI में लगातार एक्टिव रहते आये हैं अब भ्रष्टाचारी सरकार को खटकने लगे हैं ओर सत्तासीन शक्तियों के द्वारा उसे भी डराने ओर धमकाने के प्रयास किये जा रहे हैं और यह स्थिति सिर्फ भारत मे ही नही पायी जा रही हैं अपितु यह स्थिति अब वैश्विक स्वरूप अख्तियार कर चुकी हैं कल हमने एक ऐसी ही शख्सियत को इस फ़ानी दुनिया से विदा लेते हुए देखा है , मै बात कर रहा हूँ पनामा लीक्स के लिए काम करने वाली डाफने कारुआना गालिजिया की,
डाफने कारुआना गालिजिया मूलतः एक ब्लॉगर थी , उनके ब्लॉग माल्टा की भ्रष्ट सरकार के कच्चे चिठ्ठे खोल रहे थे मौत से ठीक आधे घंटे पहले ही उन्होंने माल्टा के प्रधानमंत्री के चीफ स्टाफ कीथ शेम्बरी के खिलाफ एक ब्लॉग लिखा था. ब्लॉग में शेम्बरी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे , भारत के संदर्भ में देखा जाए तो कलबुर्गी, पानसरे, गौरी लंकेश जैसे लोगो ने अपने जर्जर हो चुके सामाजिक और राजनीतिक ढांचे पर लगातार कड़े प्रहार किए जो दक्षिण पंथी ताकतों को नागवार गुजरे , फलस्वरूप उन्हें भी रास्ते से हटा दिया गया
गुटेनबर्ग के बाद की दुनिया में लिखे गए शब्द बहुत ताकतवर होकर उभरे है गणेश शंकर विद्यार्थी के स्कूल से निकली पत्रकारिता रोज नया इम्तिहान लेती है और सच्चे लोगो की शहादत हमे अपना नजरिया चाक चौबंद करने में मदद करती हैं , फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म हैं
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[4] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
1 सनातन पन्ना
2 घने पहाड़
3 पवित्रता या ईश्वर से वियोग
4 देखने वाला

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