राजसत्ता हर काल में धर्मसत्ता से छोटी ही रहेगी.

धर्मसत्ता राजसत्ता से बड़ी रहने से ही भारत सोने का शेर बन सकता है,इस सच्चाई को जान कर के ही पाश्चात्य शासको से शासित नेता हमारे संतो को बर्बाद करने पे तुली है. 
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धर्म देश के लिए होता है, जनता देश के लिए होती है, देश न तो धर्म के लिए है और न जनता के लिए, क्योंकि देश जनता और धर्म से अस्तित्व रखता है, देश उसे कहते हैं जो दसो दिशाओं में फैला है, और इस देश के अस्तित्व किसी काल में समाप्त नहीं हो सकता, भले ही एरिया घटे-बढे.
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इन्द्र से जब उनके गुरु रूठे, तभी इन्द्र निःसहाय हुए थे। जब गुरुकृपा मिली तो इन्द्र फिर सफल हुए। देवताओं को और उनके राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। दैत्यों और दैत्यों के राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। बुद्धिमान शिवाजी जैसों को भी गुरुकृपा चाहिए, और विवेकानन्द को भी गुरुकृपा चाहिए।
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भगवान कृष्ण अपने गुरु का आदर करते, उन्हें रथ में बिठाते और घोड़े खोलकर स्वयं रथ खींचते। श्रद्धाहीन निगुरे लोग क्या जानें गुरुभक्ति की महिमा, ईश्वरभक्ति की महिमा ! पाश्चात्य भोगविलास से जिनकी मति भोग के रंग से रँग गयी है, उनको क्या पता कि विवेकानंद को रामकृष्ण की करूणा-कृपा से क्या मिला था ! मीरा को संत रविदास की कृपा से क्या मिला था !
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वे क्या जानें समर्थ की निगाहों से शिवाजी को क्या मिला था ! वे क्या जानें लीलाशाहजी बापू की कृपा से आशाराम को क्या मिला था ! वे बेचारे क्या जानें ?
दोषदर्शन करके अपने अंतःकरण की मलिनता फैलाने वाले क्या जानें महापुरुषों की कृपा-प्रसादी !
नास्तिकता और अहं से भरा दिल क्या जाने सात्त्विकता और भगवत्प्रीति की सुगंध की महिमा !
कबीर जी ने ऐसे लोगों को सुधारने का यत्न कियाः
सुन लो चतुर सुजान, निगुरे नहीं रहना....
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना, चौरासी में आना जाना।
पड़े नरक की खान, निगुरे नहीं रहना....
निगुरा होता हिय (ह्रदय) का अंधा, खूब करे संसार का धंधा।
क्यों करता अभिमान, निगुरे नहीं रहना...
सुन लो....
और वे लोग संतों की निंदा करके पाठक संख्या या टी.आर.पी. बढ़ाना चाहते हैं, अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं। प्रचार के साधनों की टी.आर.पी. बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसे उल्लुओं को कबीरजी ने खुल्ला किया हैः
कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार।
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बुद्धिमान मनुष्य कंगाल होना पसंद करता है, निगुरा होना नहीं। वह निर्धन होना पसंद करता है, आत्मधन का त्याग नहीं। वह निःसहाय होना पसंद करता है, गुरु की सहायता का त्याग कभी नहीं। और जिसको गुरु की सहायता मिलती है, वह निःसहाय कैसे रह सकता है ! जिसके पास आत्मधन है, उसको बाहर के धन की परवाह कैसी !

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