क्या सरकार द्वारा लिए गए फैसले को उनके नियत से परखा जाना चाहिये या पड़ने वाले प्रभाव से परखना चाहिए?
फ़ैसले की नीयत तो सही है लेकिन…. !! कैशलेस" का नारा दरअसल ग़रीबों के ख़िलाफ़ युद्ध का नारा है - ग़रीबी के ख़िलाफ़ नहीं। फ़्रिज़्बी के मुताबिक़ जिस तरह से इसकी वकालत की जा रही है, उन नारों को सुनेंगे तो लगेगा कि नगद का इस्तमाल करने वाले लोग अपराधी हैं। आतंकवादी हैं। टैक्स चोर हैं।
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२०१४ से पहले मोदी को सुनना अच्छा लगता था! ८ नवम्बर २०१६ तक मोदी की नीतियों पर गुस्सा आता था ! और अब मोदी की नीयत और अपने आप के २०१४ से पहले मोदी पर किए भरोसे से घृणा आती है !
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मैंने कभी नीयत के आधार पर किसी फैसले की ऐसी तारीफ नहीं देखी। मोदी जी की नीयत फैसले के असर से भी बड़ी हो गई है। नोटबंदी के दो पार्ट है। पहला, नीयत और दूसरा लागू होने के नाम पर कोहराम।
दुनिया का यह पहला फ़ैसला है, जो कम से कम दस दिनों तक बुरी तरह फ़ेल है, इसके बाद भी फ़ैसला लेने के इरादे के पैमाने पर ज़िला भर में टॉप है। लल्लन टॉप है।
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मतलब जिस फैसले से आपका अस्सी फीसदी बिज़नेस चौपट हो जाए, फिर भी आप उसकी तारीफ कर रहे हैं क्योंकि फ़ैसला लेने का इरादा सही था ! क्या किसी फैसले का ऐसा इरादा ठीक है कि आपका अस्सी फीसदी बिज़नेस डूब जाए। आपका इरादा तो ठीक है न !
आठ नवंबर की मध्यरात्रि से नोटबंदी ही नहीं हुई है, बल्कि उस दिन से फैसले की एक नई समीक्षा भी बाज़ार में लाँच की गई। तय हुआ कि सही या ग़लत होना इसके लागू होने से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता है क्योंकि फैसले के लिए जाने का इरादा ठीक था। ऐतिहासिक था। साहसिक था। नीयत अच्छी थी। बोलने वाला कह रहा है कि उसके धंधे की मैय्यत निकल गई है मगर फैसले की नीयत सही है। अगर नोटबंदी से प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ हासिल किया है तो वो यही कि उनके इरादे की विश्वसनीयता बढ़ी है। लागू करने की विश्वसनीयता घटी है। अबकी बार नीयत सरकार। भारत एक नीयत प्रधान देश हो गया है। हर कोई यहाँ नीयत का डाक्टर है। इससे प्रेरित होकर अब प्रधानमंत्री जी कुछ भी फ़ैसला ले सकते हैं। उनकी नीयत पर जनादेश आ गया है। बल्कि अब वे लागू होने पर समय बर्बाद न करें। सिर्फ फ़ैसला लेने की नीयत का ख़्याल रखें।
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२०१४ से पहले मोदी को सुनना अच्छा लगता था! ८ नवम्बर २०१६ तक मोदी की नीतियों पर गुस्सा आता था ! और अब मोदी की नीयत और अपने आप के २०१४ से पहले मोदी पर किए भरोसे से घृणा आती है !
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मैंने कभी नीयत के आधार पर किसी फैसले की ऐसी तारीफ नहीं देखी। मोदी जी की नीयत फैसले के असर से भी बड़ी हो गई है। नोटबंदी के दो पार्ट है। पहला, नीयत और दूसरा लागू होने के नाम पर कोहराम।
दुनिया का यह पहला फ़ैसला है, जो कम से कम दस दिनों तक बुरी तरह फ़ेल है, इसके बाद भी फ़ैसला लेने के इरादे के पैमाने पर ज़िला भर में टॉप है। लल्लन टॉप है।
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मतलब जिस फैसले से आपका अस्सी फीसदी बिज़नेस चौपट हो जाए, फिर भी आप उसकी तारीफ कर रहे हैं क्योंकि फ़ैसला लेने का इरादा सही था ! क्या किसी फैसले का ऐसा इरादा ठीक है कि आपका अस्सी फीसदी बिज़नेस डूब जाए। आपका इरादा तो ठीक है न !
आठ नवंबर की मध्यरात्रि से नोटबंदी ही नहीं हुई है, बल्कि उस दिन से फैसले की एक नई समीक्षा भी बाज़ार में लाँच की गई। तय हुआ कि सही या ग़लत होना इसके लागू होने से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता है क्योंकि फैसले के लिए जाने का इरादा ठीक था। ऐतिहासिक था। साहसिक था। नीयत अच्छी थी। बोलने वाला कह रहा है कि उसके धंधे की मैय्यत निकल गई है मगर फैसले की नीयत सही है। अगर नोटबंदी से प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ हासिल किया है तो वो यही कि उनके इरादे की विश्वसनीयता बढ़ी है। लागू करने की विश्वसनीयता घटी है। अबकी बार नीयत सरकार। भारत एक नीयत प्रधान देश हो गया है। हर कोई यहाँ नीयत का डाक्टर है। इससे प्रेरित होकर अब प्रधानमंत्री जी कुछ भी फ़ैसला ले सकते हैं। उनकी नीयत पर जनादेश आ गया है। बल्कि अब वे लागू होने पर समय बर्बाद न करें। सिर्फ फ़ैसला लेने की नीयत का ख़्याल रखें।
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मोदी ने फ़ैसला तो शानदार लिया है लेकिन…। सबकी ज़ुबान पर यह लाइन कहाँ से आ गई?
क्या मीडिया से सबने एक ही बात बोलना सीखा?
अचानक भारत में नीयत के एक्सपर्ट कहाँ से पैदा हो गए।
क्या लोग ‘लेकिन’ से भी पहले कुछ कहना चाहते हैं मगर कह नहीं पा रहे? यह कैसा फ़ैसला है जिसकी आलोचना ‘लेकिन’ रूपी इंटरवल के बाद से शुरू होती है। पचास से अधिक लोग नोटबंदी के तनाव के कारणों से मर गए। ग़रीब लोग पैसे के लिए तरस गए। मंडी सूख गई।
पावरलूम थम गया। किसान सहम गया। लोग अपना पैसा नहीं निकाल सकते। शादियों के घर में मारामारी है।
कई दिन तक दिहाड़ी मज़दूर कमाने नहीं निकले। बच्चे दूध के लिए तरस गए। बीमार दवा बिना मर गए। कोई लिख रहा है कि बाज़ार में मंदी रहेगी। देश की जीडीपी की रफ़्तार थम जाएगी। फिर भी यह अच्छा फ़ैसला है क्योंकि मोदी जी की नीयत सही थी। क्या यह सब उस फैसले का पार्ट नहीं है?
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क्या मोदी जी नीयत से फ़ैसला लेते हैं? तो मोदी जी की कैबिनेट क्या करती है? मंत्रालय क्या करते हैं? वित्त मंत्री क्या करते हैं? उनके अधिकारी क्या करते हैं? जब ये लोग कुछ नहीं करते तो फिर मोदी जी क्या करते हैं? उनकी कमेटियाँ क्या करती हैं? क्या भारत सरकार नीयत से चलती है ? छह महीने से क्या तैयारी चल रही थी ? क्या नीयत का अभ्यास हो रहा था ? नीयत की इतनी तारीफ हो रही है जैसे मोदी जी ने नीति नहीं नीयत लागू किया है । क्या हम तमाम नीतियों का मूल्याकंन इस पैमाने पर करेंगे कि जाने दो नीयत सही थी।
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अगर ऐसा है तो भारत सरकार को तुरंत नीति आयोग भंग कर देना चाहिए। नीयत आयोग बनाना चाहिए। नीयत आयोग हर फैसले को सर्टिफ़िकेट देगा। नीयत सही है तो कर चलो। भले ये लागू न हो सके। अब किसी नीति पर बहस ही न हो। कह दिया जाए कि मोदी जी की नीयत सही है। आप समंदर में कूद जाओ। डूब जाओ। फिर बोलो कि तैरने की मंशा सही थी पर तैरना नहीं आता था। लोगों को किस सूचना के आधार पर भरोसा है कि यह फ़ैसला नीयत के कारण सही है? उलटा कुछ दिनों की तकलीफ को तीन दिन बाद पचास दिनों की अफ़रातफ़री में कंवर्ट कर दिया गया। जैसे तकलीफ न हुई ब्लैक मनी हो गई!
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नोटबंदी का फ़ैसला लिया गया। अभी इसके सही गलत का सर्टिफ़िकेट कैसे दिया जा सकता है, जबकि ख़ुद मोदी जी ने पचास दिनों का समय माँगा है। कायदे से ये कहिए कि हमें पचास दिन बाद पता चलेगा कि फ़ैसला सही है या ग़लत है लेकिन अभी तो जान निकल गई है। फिर भी ये बात समझ में आती है। अच्छे अच्छों को पता नहीं है कि पचास दिन बाद क्या होगा। अर्थशास्त्री कभी कुछ लिखते हैं, कभी कुछ। मंत्री कभी कुछ बोलते हैं कभी कुछ। वित्त मंत्री कहते हैं कि भारत में कम लोग टैक्स देते हैं। अभी तो आप इस फैसले से आतंकवाद से लड़ रहे थे। अब टैक्स आधार बढ़ाने लगे?
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हो सकता है कि यह बहुत अच्छा फ़ैसला हो लेकिन क्या यह दावा किसी जानकारी के आधार पर है या नीयत ही जानकारी है।
सरकार ने बताया है कि पचास दिन बाद क्या होगा ?
हमने आपने देखा है कि बड़े लोगों का पैसा बर्बाद हो गया। हर जगह से कुछ कमीशन देकर पैसा सफेद होने की ख़बरें आ रही हैं।
यह कितना शर्मनाक है। जब यही बच गए तो फ़ैसला कैसे सही हुआ।
क्या सरकार बताएगी कि इतने डाक्टर इतने इंजीनियर के यहाँ से काला धन निकल गया।
दस पाँच छापे मारकर क्या हो जाएगा। वो तो ऐसे भी पड़ते रहते हैं।
रोज़ बताते हैं कि बैंकों में इतना लाख करोड़ जमा हुआ। यह नहीं बताते कि कितना पैसा काला धन जमा हुआ।
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अभियान काला धन समाप्त करने का है और आँकड़ा लघु बचत का दे रहे हैं।
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अर्थव्यवस्था एक जटिल विषय है। इसके अनगिनत पहलू हैं। फिलहाल तो हर तरफ हाहाकार है मगर नीयत के कारण फैसले की तारीफ हो रही है।
क्या लोग इस फैसले की नीयत की तारीफ इस खुशी में कर रहे हैं कि इसके कारण बैंकों में उनकी घरेलू बचत का ब्याज कम हो गया है?
अब उन्हें पहले से कम पैसे मिलेंगे? क्या इस खुशी में कर रहे हैं कि बैंकों का लाखों करोड़ों लेकर भागने वालों को फिर से क़र्ज़ मिलेगा?
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इस वक्त लोगों को जो भयावह परेशानी हो रही है वो उसी नीति के कारण है जिसकी नीयत सही बताई जा रही है।
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समस्या सिर्फ एटीएम की क़तार में नहीं है। बाज़ार व्यापार में भी है।
डर के मारे कोई बोल नहीं रहा।
सब नीयत की तारीफ कर बर्बादी का दर्द हल्का कर रहे हैं।
क्या इसकी नीयत ये है कि लोग परेशान हों?
उनकी अपनी कमाई कैसे खर्च हो ये सरकार तय करेगी, कैसे ?
क्या लोग इस आधार पर तमाम असफल फ़ैसलों को पास कर देंगे कि उनके लिए जाने की नीयत ठीक थी।
एक जनवरी से क्या होगा, हम नहीं जानते।
शानदार होगा तो हम भी कहेंगे कि फैसले का असर अच्छा है। लेकिन अभी कैसे शानदार कह सकते हैं।
किस आधार पर?
लोग परेशान हैं और हम कहें कि जाने दो किया तो देश के लिए न ।
अरे तो जो परेशान हुआ है वो भी तो उसी देश का है।
क्या उसकी नियति यही है कि उसे परेशान करने वाले फैसले की नीयत ठीक है !
ये मक़ाम मोदी जी को ही हासिल है कि फ़ैसला तो सही लेते हैं लेकिन…… के बाद से उनकी समीक्षा शुरू होती है। यानी आपकी आलोचना ‘लेकिन’ के बाद बैंकों की लाइन में लगी है ।
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मान लीजिए कि पूरी आबादी इलेक्ट्रानिक तरीके से लेन-देन करती है तो भी यह गारंटी कौन अर्थशास्त्री दे रहा है कि उन तमाम लेन-देन की निगरानी सरकारें कर लेंगी। क्या यह उनके लिए मुमकिन होगा। अगर ऐसा है तो सरकार सभी बैंक खातों की जांच कर ले। हमारे बैंक तो इलेक्ट्रानिक हैं न। कई लोग कहते हैं कि बैंकों में अभी भी लोगों के कई नाम से खाते खुले हैं। बैंक अपने ग्राहकों से पहचान पत्र मांगता है तब भी बैंकों में खाता खोलकर काला-धन रखा ही जाता है। आयकर विभाग तमाम शहरों के कुछ बड़े दुकानदारों या बिजनेसमैन के यहां छापे डालकर लोगों में भ्रम पैदा करती है, सरकार सबको पकड़ रही है। क्या आप यह बात आसानी से मान लेंगे कि सांसदों, विधायकों के पास काला धन नहीं है। क्या सभी दलों के सांसदों या विधायकों के यहां छापे की ख़बर आपने सुनी है।
दुनिया में आप कहीं भी टैक्स चोरों का प्रतिशत देखेंगे कि ज़्यादातर बड़ी कंपनियां टैक्स चोरी करती हैं। आप उन्हें चोर कहेंगे तो वे आपके सामने कई तरह के तकनीकि नामों वाले बहिखाते रख देंगे। लेकिन कोई किसान दो लाख का लोन न चुका पाये तो उसके लिए ऐसे नामों वाले बहिखाते नहीं होते। उसे या तो चोर बनने के डर से नहर में कूद कर जान देनी पड़ती है या ज़मीन गिरवी रखनी पड़ती है। क्या उनके लिए आपने सुना है कि कोई ट्राइब्यूनल है। 2015 में Independent Commission for the Reform of International Corporate Taxation(ICRIT) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट टैक्स सिस्टम बेकार हो चुकी है।
अब बताइये, जिसकी तरह हम होना चाहते हैं, उसे ही बेकार और रद्दी कहा जा रहा है। इंटरनेट सर्च के दौरान ब्रिटेन के अख़बार गार्डियन में इस रिपोर्ट का ज़िक्र मिला है। इतने तथ्य हैं और रिपोर्ट हैं कि आपको हर जानकारी को संशय के साथ देखना चाहिए। इस रिपोर्ट का कहना है कि मल्टीनेशनल कंपनियां जिस मात्रा में टैक्स चोरी करती हैं उसका भार अंत में सामान्य करदाताओं पर पड़ता है। क्योंकि सरकारें उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं। एक दो छापे मारकर अपना गुणगान करती रहती हैं। इन मल्टीनेशनल कंपनियों के टैक्स लूट के कारण सरकारें गरीबी दूर करने या लोककल्याण के कार्यक्रमों पर ख़र्चा कम कर देती हैं।
इसका मतलब यह है कि दुनिया भर की कर प्रणाली ऐसी है कि एक देश का अमीर दूसरे देश में अपना पैसा ले जाकर रख देगा। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। इसी साल इंडियन एक्सप्रेस ने पनामा पेपर्स पर कई हफ्तों की रिपोर्ट छापी कि कैसे यहां के बड़े बड़े लोग फर्ज़ी कंपनी और शेयर के ज़रिये विदेशों में अपना पैसा रखे हुए हैं। सरकार जांच-वांच का एलान करती है मगर इस रफ्तार से काम करती है कि अंतिम नतीजा आते आते आप सबकुछ भूल चुके होंगे। नोटबंदी के सिलसिले में सब स्लोगन बांच रहे हैं। काला धन चला जाएगा। टैक्स चोरी बंद हो जाएगी। क्या भारत में नेशनल और मल्टीनेशनल कंपनियों की टैक्स चोरी बंद हो जाएगी? इस विश्वास का आधार क्या है? क्या अमरीका में 30 लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी ग़रीब और आम आदमी करता है। वहां भी बड़ी कंपनियां टैक्स चोरी करती हैं। जानबूझ कर करती हैं ताकि टैक्स अदालतों में लंबे समय तक मामला चले और फिर अदालत के बाहर कुछ ले-दे कर सुलझा लिया जाए।
अमरीका में 70 प्रतिशत लोगों के पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड हैं। आखिर अमरीका जैसे अति विकसित देश में 30 प्रतिशत लोगों के पास कार्ड क्यों नहीं है। ज़ाहिर है वे निर्धन होंगे। उनके पास बैंक में रखने के लिए पैसे नहीं होंगे। बैंक भी सबका खाता नहीं खोलते हैं। ग़रीब लोगों को अमरीका क्या भारत में भी कंपनियां क्रेडिट कार्ड नहीं देती हैं। अमरीका में भी दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो नगद में कमाते हैं। वहां क्यों नहीं इसे पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया जो भारत में कुछ लोग इसे राष्ट्रवाद में लपेट कर धमकी भरे स्वर में बता रहे हैं कि यह आर्थिक तकलीफों से मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग है। गार्डियन अखबार में कैशलेश अर्थव्यवस्था पर आर्थिक पत्रकार Dominic Frisby का एक आलोचनात्मक लेख पढ़ा। इसमें उन्होंने कहा है कि कैशलेश का नारा दरअसल ग़रीबों के ख़िलाफ़ युद्ध का नारा है। ग़रीबी के ख़िलाफ़ नहीं। उन्होंने कहा है कि जिस तरह से इसकी वकालत की जा रही है, उन नारों को सुनेंगे तो लगेगा कि नगद का इस्तमाल करने वाले लोग अपराधी हैं। आतंकवादी हैं। टैक्स चोर हैं।
नोटबंदी ने हमें अपनी आर्थिक समझ का विस्तार करने का सुनहरा मौका दिया है। हमें नारों को ज्ञान नहीं समझना चाहिए। किसी बात को अंतिम रूप से स्वीकार करने की जगह, तमाम तरह की जानकारियों को जुटाइये। तरह तरह के सवाल पूछिये। फैसला सही है या नहीं है, इसके फेर में क्यों पड़े हैं। फैसला हो चुका है। इसके अच्छे-बुरे असर को जानना चाहिए और इसके बहाने समझ का विस्तार करना चाहिए। हम सब जानते हैं कि राजनीतिक रैलियों में लोग कैसे लाये जाते हैं। ज़ाहिर है अब नेता उन्हें हज़ार-पांच सौ का चेक देकर तो नहीं लायेंगे। नेता ही कहते हैं कि उनकी रैली में पैसे देकर लोग लाए गए थे। अब ऐसी रैली में अगर कोई काला धन की समाप्ति का एलान करे तो पैसे लेकर आई भीड़ ताली तो बजा देगी लेकिन जिस असलीयत को वह जानती है, उससे आंखें कैसे चुरा सकती है। एक काम हो सकता है कि जिस रैली में काला धन की समाप्ति का एलान हो, उसमें कहा जाए कि यहां आई जनता को पैसे देकर नहीं लाया गया है। इस रैली के आयोजन में इतना पैसा ख़र्च हुआ है, कुर्सी से लेकर माइक के लिए इतना इतना किराया देना पड़ा है, इन इन लोगों ने रैली के लिए चंदा दिया है।
बेहतर है कि नोटबंदी के लोग किये जा रहे दावों को छोड़ हम सवालों से देखें। हर जवाब हमारी आर्थिक समझदारी को विकसित करेगा। हम पत्रकार भी उतने योग्य नहीं है कि अर्थव्यवस्था के इन बारीक सवालों को दावे के साथ रख सकें। मैंने कोई अंतिम बात नहीं की है। आप भी अंतिम बात जानने का मोह छोड़ दें, नई बातें जानने की बेचैनियों का विस्तार करें
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.