व्यावहारिक तौर पर (प्रक्टिकैली) अवतार क्या होते हैं?
अवतार :-
महात्मा विश्वामित्र के पास समस्त शास्त्रों एवं शस्त्रों का ज्ञान था, लेकिन फिर भी उन्होंने
अपने यज्ञ को सुरक्षित तरीके से पूरा करने के लिए राम-लक्षमण को साथ रखा था, इसका कारण
क्या है?
अपने यज्ञ को सुरक्षित तरीके से पूरा करने के लिए राम-लक्षमण को साथ रखा था, इसका कारण
क्या है?
समस्त शास्त्रों एवं शस्त्रों की जानकारी होने के बावजूद वे स्वयं ही अपने यज्ञ को सुरक्षित तरीके से
पूरा कर सकते थे?
बात ये है कि ये जो प्रकृति है, वो किसी एक व्यक्ति को अपनी सम्पूर्ण शक्तियां नहीं देती है. इसका
न्याय बड़ा ही विचित्र है.
किसी भी साधारण व्यक्ति के दो पक्ष होते हैं- एक चिंतन और दूसरा कर्म.
यह भी एक अदभुत नियम है कि जो चिंतन करता है, जो न्याय- अन्याय की बात सोचता है ,
सामाजिक कल्याण की बात सोचता है , उसके व्यक्तित्व का चिंतन-पक्ष विकसित होता है और
उसका कर्म पक्ष पीछे छूट जाता है.
चिन्तक सिर्फ सोचता है. वह जानता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित. समाज और देश में
क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए.
किन्तु चिंतन को कर्म में परिणति कर पाना, उसके वश में नहीं होता. उसकी कर्म शक्ति क्षीण हो
जाती है. वहां केवल मस्तिस्क रह जाता है.
दूसरी ओर न्याय और औचित्य है.
वहीँ पर कुछ मनुष्य राष्ट्र और समाज की बात न सोचते हुए सिर्फ अपने स्वार्थ वश होकर कर्म करते हैं,
वही कर्म उनको राक्षस बना देते है.
न्याय और अन्याय का विचार मनुष्य को ऋषि बना देता है.
दूसरी तरफ कुछ ऐसे ऐसे लोग भी कभी कभी होते हैं, जिनमे न्याय-अन्याय का विचार और
कर्म दोनों एक साथ उपस्थित रहते हैं, ऐसे अद्भुत लोग संसार में बहुत कम एवं कभी कभी मिलते है.
जनसामान्य में ऐसे ही लोगों को इश्वर का अवतार माना जाता है.
जब समस्त ज्ञान के साथ साथ न्यायपूर्ण कर्म करने की शक्ति किसी में आ जाय और
जनसामान्य का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर अन्याय का विरोध करे, तो उसमे प्रकृति की सारी
शक्तियां पूर्णता में साक्षात् हो उठती हैं.
साधारण लोगों में जब कर्म है, तब चिंतन नहीं है; पर जब आज चिंतन है, ज्ञान है, तो
कुछ लोग ऋषि कहलाते हैं, साधू कहाते हैं, लेकिन उनमें कर्म की शक्ति नहीं रहती है.
इसीलिये साधुओं को अपने कर्म करवाने के लिए किसी पूरक की आवश्यकता है. ऐसे लोग
साधुओं के पूरक कहलाते हैं.
इस तरह के संत, समाज एवं विश्व-कल्याण रुपी विचारों को कार्य में संपादित करने के लिए
अपने शिष्यों एवं अन्य लोगों को अपनी आवश्यकतानुसार बदलने की भी क्षमता रखते हैं,
किन्तु जब स्वयं ही न्याय- अन्याय, उचित-अनुचित को भली भांति जान पहचान कर समस्त
ज्ञान रखकर, स्वतंत्र एवं समर्थ कर्म किया जाता है तो वो अवतार कहलाता है. अवतारों को
समय समय पर इस धरती के विचलन से बचाने के लिए, साधु संतों सन्यासियों के मार्गदर्शन
की भी आवश्यकता पड़ती है.
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चूंकि दानव-समुदाय एवं उसके पालित-पोषित संगठन ऐसा नहीं होने देना चाहते इसलिए,
आजकल संतों को ही अपराधी बनाए जाने की एक प्रथा चल पड़ी है, जिससे लोग उनके
मार्गदर्शन में ना आ सकें एवं जो भी अब तक प्रभावित हुए थे, वे सभी वापस इस संसार
को बदल डालने वाले विचारों एवं कार्यों से, अपने बढ़ते कदम पीछे खींच लें. ऐसे जितने
भी संगठन हैं, वे सभी वास्तविक अपराधियों कुकृत्य करने वालों को एक मंच प्रस्तुत
करते हैं, जिससे साधारण जनता वास्तविक अपराधियों को एक वीर योद्धा के रूप में
ले सकें, और तरह तरह के अपराध तेजी से इस धरती पर पसर सके.
कहा जाता है कि जैसे जैसे इस पृथ्वी पे पाप का आचरण बढेगा, वैसे वैसे इस पृथ्वी पर
पानी वृक्षों एवं अन्य प्राकृतिक तत्त्वों पदार्थों की भी कमी होती चली जायेगी.
आप प्रत्यक्षतः देख सकते हैं, प्रकृति में जो जड़ी बूटियाँ थीं, उनमे काफी कमी आ गयी है.
जहाँ पहले झरने बहा करते थे, वहां अब छोटे छोटे धार दिखाई देते हैं. पृथ्वी का अक्ष भी
अपने स्थान से कुछ डिग्री झुक गया है हाल में(इस विषय पर आपको इन्टरनेट पर काफी
सामग्री मिल जायेगी).
बड़े बड़े बुद्धिजीवी तर्क देते फिरते हैंकी धर्म लूटने का माध्यम है, धर्म तो छोटा बड़ा बनाता है.
दरअसल ऐसे व्यक्तव्य देने वाले, पैशाचिक प्रवृत्ति के लोग होते हैं, जिससे उनको केवल तर्क
ही तर्क दिखलाई देता है, जिसका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता.
हमारे आदि चिन्तक जिन्हें हम साधु-महात्मा ऋषि-मुनि कहते थे, वे कोई मूर्ख नहीं थे,
जिनके अनुसार जल के सूखने का कारण वहां पाप बढ़ना है, आप सोच सकते हैं और इसे
ग्लोबल वार्मिंग से भी सम्बंधित कर सकते है.
ये पाप शब्द को परिभाषित करना किसी किसी के लिए इतना सरल नहीं है, क्यूंकि पाप तो
बुरा सोचने से भी होता है., पाप बुरी अवधारणाओं से भी होता है.
आप कितना भी वैज्ञानिक प्रयास कर लें की पानी की कमी ना हो, लेकिन इसे कोई नहीं
रोक सकता, क्यूंकि लोगों के ह्रदय भी पानी की ही तरह सद्भावनाओं के मामलों में
सूख चुके हैं. शहरों में ये बहुत तेजी से हुआ है, और अब ये गावों में भी फैलती जा रही है.
शहरों में तो कुत्ता संस्कृति के लोग अधिकतर रहते हैं, जिन्हें अन्य संस्कृति से
आये लोगों एवं अपने ही परिवार के दूर-दराज के रिश्तेदारों का आना एवं रहना
सही नहीं लगता. क्योंकि शहरी लोगों की मानसिकता अब वैसी नहीं रही.
अपने ही दूर के रिश्तेदारों का तो कहना ही छोड़ दीजिये, इन लोगों को
अपने ही समाज में अन्य समाज ले लोगों का रहना अखड़ता है. कमोबेसी
में यही संस्कृति(कुत्ता संस्कृति) अब गांवों में भी पसरने लगी है.
ऐसे समाज के लोगों की नजर में इस धरती पे केवल इन्हीं कुत्तों का राज है,
और कोई रहना नहीं चाहिए.
क्या इस पृथ्वी पे केवल मानवों का ही अधिकार है, अन्य जीवों का नहीं?
दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में सारे मनुष्य बराबर के हिस्सेदार हैं, लोगों ने इतनी भारी
गन्दगी फैलाई, लोब्बिंग करके इतने मनुष्यों को फैलने दिया, इतनी तीव्रता से कुछ
जातियां, कुछ धर्म, कुछ मनुष्य अपने साम दाम दंड भेद करके अपनी अपनी
रणनीतियां करके इतनी तेजी से इस धरती पर फैलीं कि उए सुन्दर सी पृथ्वी नरक बन गयी.
लोगों को अब सतर्क होना होगा, कीट-पतंगे भी शायद अब भांपने लगे होंगे की इस
धरती पर कुछ गड़बड़ चल रहा है.
इस रोती चीखती पृथ्वी को मदद की आवश्यकता है, और यह मदद अगर
साधु-सन्यासी एवं उनके शिष्य न दें, और अन्य लोग उसमे सहयोग न दें,
तो फिर इस पृथ्वी पे मानवों के उत्पन्न होने का कोई औचित्य नहीं है.
इसके लिए जो वैचारिक मतभेद एवं वैमनष्य स्थापित हो रहा है, लोगों में एक
प्रकार से कुत्ता संस्कृति पनपी है शहरीकरण के साथ साथ जो अब गांवों में भी
फ़ैल रही है, जिसमे एक कुत्ते के एरिया में अन्य क्षेत्र के कुत्ते कभी शामिल नहीं
हो सकते, ऐसी छोटी सोच पनप रही है. उसे खत्म होना ही होगा.
वर्तमान में प्रचलित धारा को बदलने का समय आ गया है, जिसके लिए पहले
आपको बदलना होगा.
ॐ
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.