मिडिया एवं नेताओं का निर्माण
क्यों पेड मिडिया द्वारा 'नेता' गढ़े जाते है, और कैसे कार्यकर्ता इनकी चपेट में आकर इनका अनुसरण करने लगते है ?
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विज्ञापन व्यवसाय से जुड़े हुए व्यक्ति आपको बताएँगे कि किसी वस्तु या विचार को बेचने के धंधे में 'महिमामंडन' के सिद्धांत का पालन किया जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि --
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१. प्रत्येक व्यक्ति 'ख़ास बात' सुनना चाहता है। लेकिन उसकी शर्त है कि वह यह 'ख़ास बात' सिर्फ 'ख़ास व्यक्ति' के मुंह से ही सुनेगा।
ख़ास बात सुनने की इच्छा सभी में होती है, लेकिन लोग किसी ख़ास बात को ख़ास व्यक्ति के मुहँ से ही क्यों सुनना चाहते है --- क्योंकि किसी वस्तु या विचार के ख़ास होने का 'तत्काल' पता लगाना मुश्किल है। इसके लिए उसे प्रयोग में लाकर नतीजों का इन्तजार करना पड़ता है या उस पर गहरा विचार करना होता है। अत: नागरिक किसी नए उत्पाद की गुणवत्ता 'तत्काल' समझने में नाकाम रहते है। लेकिन किसी ख़ास व्यक्ति के बारे में सभी को पता होता है कि अमुक व्यक्ति 'ख़ास' है। अत: जब कोई ख़ास व्यक्ति कोई बात बोलता है तो उसकी बात को लोग ख़ास मानकर तत्काल सुनने लगते है। क्योंकि लोग यह मानते है कि बोलने वाला व्यक्ति ख़ास है, अत: उसकी बात भी ख़ास होगी।
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उदाहरण के लिए जब आपको डॉक्टर कोई निर्देश देता है तो आप औषधि के गुणों के बारे में तब भी विश्वास करते है, जबकि आपने अब तक इस औषधि का प्रयोग नहीं किया है। जब औषधि से आपको लाभ होता है तब इस पर आप अपने तई भरोसा करने लगते है। लोग जानते है कि शाहरुख, सचिन और करीना कपूर ख़ास लोग है, इसीलिए गोरा बनाने की क्रीम और कार्बोनेटेड शीतल पेय आदि जैसे उत्पादों को बेचने के लिए ऐसे ख़ास व्यक्तियों द्वारा विज्ञापन करवाया जाता है। लेकिन इसकी भी एक सीमा होती है। इस सिद्धांत का प्रयोग करके उस वस्तु को नहीं बेचा जा सकता जिसके परिणामों के बारे में आम लोग परिचित है। उदाहरण के लिए यदि आमिर खान टीवी पर आकर कहे कि सिरगेट पीने से फेफड़े मजबूत होते है और स्वास्थ्य लाभ होता है तो लोग विश्वास नहीं करेंगे।
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तो इस प्रकार यदि आपके पास कोई 'ख़ास व्यक्ति' नहीं है तो आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। चाहे वह बात कितनी ही ख़ास हो। यदि आप चाहते है कि व्यक्ति आपकी बात सुने तो उसे कहने के लिए आपके पास कोई ख़ास आदमी होना चाहिए। अब इसमें एक पेच यह निकल कर आता है कि, चूंकि लोग सिर्फ ख़ास आदमी के मुंह से ही कोई बात सुनना चाहते है, अत: इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अमुक ख़ास आदमी जो 'बात' कह रहा है वो ख़ास है भी या नहीं !! वे उस बात को ख़ास मानकर ही सुनेंगे। आशय यह हुआ कि -- "यदि कोई ख़ास व्यक्ति 'कुछ' कहता है तो लोगो द्वारा उसे स्वत: ही 'खास' मान लिया जाता है"। चाहे उसके द्वारा कही गयी बात कितनी भी साधारण हो। मतलब यदि आपके पास अपनी बात कहने के लिए कोई ख़ास आदमी है तो उस बात को ख़ास ही मानकर सुना जाएगा। अन्यथा साधारण व्यक्ति द्वारा कही गई ख़ास बात को भी साधारण ही माना जाता है। जब तक कि वह कसौटी पर खरी नहीं उतरे।
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उदाहरण के लिए जब कोई छोटी और नयी कम्पनी बाजार में कोई प्रोडक्ट लेकर आती है तो उसे अपने प्रोडक्ट की पहली खेप बेचने में भी काफ़ी मेहनत करनी होती है। क्योंकि आप उस प्रोडक्ट को आजमाने के लिए भी तैयार नहीं होते। आपको लगता है कि इसमें कुछ भी ख़ास होता तो कोई न कोई ख़ास व्यक्ति जरूर इस बारे में बोलता। इसी तरह से जब कोई स्वतंत्र कार्यकर्ता आपके पास आकर गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई आदि को कम करने के लिए आवश्यक किसी कानून ड्राफ्ट के बारे में बताता है तो आप उसे पढ़ने और यहाँ तक कि उसके बारे में प्राथमिक जानकारी जुटाने की भी जहमत उठाते। क्योंकि यह बात कहने वाल व्यक्ति एक आम व्यक्ति है, ख़ास नहीं। जबकि ज्यादातर लोगो की रुचि सिर्फ उन बातों में होती है, जिसे कोई ख़ास व्यक्ति कहे।
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'महिमामंडन' सिद्धांत के दूसरे नियम का प्रयोग लोगो के मानस को प्रभावित करने के लिए राजनीति में बड़े पैमाने पर किया जाता है। इस नियम कहता है कि :
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२. 'यदि आपके पास कोई साधारण बात कहने के लिए 'ख़ास व्यक्ति' उपलब्ध नहीं है तो किसी साधारण व्यक्ति को 'ख़ास व्यक्ति' बनाकर पेश कर दो'। इससे लोग साधारण बात को भी खास बात की तरह ग्रहण करेंगे।
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किसी साधारण व्यक्ति को 'ख़ास' कैसे बनाया जा सकता है ? यह काम पेड मिडिया आसानी से कर देता है।
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पेड मिडिया किसी भी साधारण व्यक्ति को खास कैसे बना देता है ?
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मिडिया में बहुत कम लोग जगह बना पाते है। इसीलिए यह माना जाता है कि मिडिया में आने वाला व्यक्ति खास होता है। लेकिन राजनीति के बारे में ऐसा नहीं है। राजनीति में पेड मिडिया के प्रायोजक अपने एजेंडे के अनुसार व्यक्तियों को मिडिया में जगह देते है।
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उदाहरण के लिए इसे लिखने वाला व्यक्ति साधारण श्रेणी से आता है और पाठक भी इसे साधारण लोगो की पहुँच वाले माध्यम से ही पढ़ रहा है, अत: इसे पढ़ने वाला व्यक्ति यह मानकर चलेगा कि यह साधारण बात है, क्योंकि इसे किसी साधारण व्यक्ति ने लिखा है। लेकिन यदि यही बात कोई व्यक्ति पेड मिडिया पर आकर कहेगा या यह अखबार में छपेगा तो इसके बारे में उत्सुकता और विश्वसनीयता बढ़ जायेगी। क्योंकि पाठक इस सूचना को पेड मिडिया से ग्रहण कर रहा है और वह जानता है कि मिडिया में आने वाला व्यक्ति ख़ास होता है।
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लेकिन असल में मिडिया में आने वाले कुछ लोग ख़ास नहीं भी हो सकते है। लेकिन चूंकि यह बात मानी जाती है कि मिडिया में ख़ास व्यक्ति को ही जगह मिलती है अत: इन ख़ास लोगों के भम्भड़ में कुछ साधारण लोगो को भी फिट कर दिया जाता है। और लोग समझते है कि अमुक व्यक्ति भी 'ख़ास' है। और जब लोग किसी व्यक्ति को ख़ास मान लेते है तो उसकी कही गयी बात को भी ख़ास मानने लगते है !!
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उदाहरण के लिए यह एक साधारण ही नहीं बल्कि उल्टी बात थी कि भूखा रहने से ताकत आती है। लेकिन अंग्रेजो द्वारा संचालित पेड मिडिया ने पहले मोहन गांधी नाम के एक व्यक्ति को लगातार कवरेज देकर ख़ास बनाया और फिर उनकी कही हर बात अवाम को कुछ समय के लिए 'ख़ास' लगने लगी। वक्त गुजरने के साथ जब लोगो ने इसके परिणाम देखे तो वे यह यह बात समझ गए कि यह कोरी बकवास है कि अनशन करने या चरखे चलाने से सरकार को झुकाया जा सकता है।
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आज के दौर में अन्ना हजारे, महात्मा अरविन्द गांधी, तृप्ति देसाई, हार्दिक पटेल और कन्हैया कुमार जैसे साधारण पांत के लोग इसके उदाहरण है, जिन्हे पेड मिडिया के प्रायोजकों ने अपने एजेंडे को जनता तक पहुंचाने के लिए 'ख़ास' बना दिया है। आप मिडिया में आने से पहले की इनकी उपलब्धियों पड़ताल करेंगे तो जान जाएंगे कि ये आपके और हमारे जैसे साधारण लोग है, जो सिर्फ इसीलिए ख़ास बन गए क्योंकि मिडिया ने अपनी बात कहलवाने के लिए इन्हें ख़ास बनाकर पेश कर दिया था।
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राजनीति में यह पैंतरा देश को इसीलिए नुक्सान पहुंचाता है कि पेड मिडिया यह नियंत्रित करता है कि किसे ख़ास माना जाएगा। जो व्यक्ति पेड मिडिया के प्रायोजकों के एजेंडे पर काम करते है मिडिया उन्हें कवरेज देता है। इस कवरेज के कारण कार्यकर्ता इन लोगो का अनुसरण करते है और गाहे बगाहे पेड मिडिया के प्रायोजकों के एजेंडे पर कार्य करते है।
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कुल मिलाकर जब कोई व्यक्ति देश की व्यवस्था में कोई बदलाव लाने के बारे में कहे तो हमें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि अमुक बात कहने वाला व्यक्ति ख़ास है या आम। बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि उसके द्वारा सुझाया गया समाधान कितना ख़ास है। हो सकता है कि ऐसी किसी बात के हानि लाभ को समझने के लिए आपको अपना समय और श्रम लगाना पड़े, लेकिन इससे आप पेड मिडिया द्वारा दिए जा रहे धोखे से बच जाएंगे।
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विज्ञापन व्यवसाय से जुड़े हुए व्यक्ति आपको बताएँगे कि किसी वस्तु या विचार को बेचने के धंधे में 'महिमामंडन' के सिद्धांत का पालन किया जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि --
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१. प्रत्येक व्यक्ति 'ख़ास बात' सुनना चाहता है। लेकिन उसकी शर्त है कि वह यह 'ख़ास बात' सिर्फ 'ख़ास व्यक्ति' के मुंह से ही सुनेगा।
ख़ास बात सुनने की इच्छा सभी में होती है, लेकिन लोग किसी ख़ास बात को ख़ास व्यक्ति के मुहँ से ही क्यों सुनना चाहते है --- क्योंकि किसी वस्तु या विचार के ख़ास होने का 'तत्काल' पता लगाना मुश्किल है। इसके लिए उसे प्रयोग में लाकर नतीजों का इन्तजार करना पड़ता है या उस पर गहरा विचार करना होता है। अत: नागरिक किसी नए उत्पाद की गुणवत्ता 'तत्काल' समझने में नाकाम रहते है। लेकिन किसी ख़ास व्यक्ति के बारे में सभी को पता होता है कि अमुक व्यक्ति 'ख़ास' है। अत: जब कोई ख़ास व्यक्ति कोई बात बोलता है तो उसकी बात को लोग ख़ास मानकर तत्काल सुनने लगते है। क्योंकि लोग यह मानते है कि बोलने वाला व्यक्ति ख़ास है, अत: उसकी बात भी ख़ास होगी।
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उदाहरण के लिए जब आपको डॉक्टर कोई निर्देश देता है तो आप औषधि के गुणों के बारे में तब भी विश्वास करते है, जबकि आपने अब तक इस औषधि का प्रयोग नहीं किया है। जब औषधि से आपको लाभ होता है तब इस पर आप अपने तई भरोसा करने लगते है। लोग जानते है कि शाहरुख, सचिन और करीना कपूर ख़ास लोग है, इसीलिए गोरा बनाने की क्रीम और कार्बोनेटेड शीतल पेय आदि जैसे उत्पादों को बेचने के लिए ऐसे ख़ास व्यक्तियों द्वारा विज्ञापन करवाया जाता है। लेकिन इसकी भी एक सीमा होती है। इस सिद्धांत का प्रयोग करके उस वस्तु को नहीं बेचा जा सकता जिसके परिणामों के बारे में आम लोग परिचित है। उदाहरण के लिए यदि आमिर खान टीवी पर आकर कहे कि सिरगेट पीने से फेफड़े मजबूत होते है और स्वास्थ्य लाभ होता है तो लोग विश्वास नहीं करेंगे।
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तो इस प्रकार यदि आपके पास कोई 'ख़ास व्यक्ति' नहीं है तो आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। चाहे वह बात कितनी ही ख़ास हो। यदि आप चाहते है कि व्यक्ति आपकी बात सुने तो उसे कहने के लिए आपके पास कोई ख़ास आदमी होना चाहिए। अब इसमें एक पेच यह निकल कर आता है कि, चूंकि लोग सिर्फ ख़ास आदमी के मुंह से ही कोई बात सुनना चाहते है, अत: इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अमुक ख़ास आदमी जो 'बात' कह रहा है वो ख़ास है भी या नहीं !! वे उस बात को ख़ास मानकर ही सुनेंगे। आशय यह हुआ कि -- "यदि कोई ख़ास व्यक्ति 'कुछ' कहता है तो लोगो द्वारा उसे स्वत: ही 'खास' मान लिया जाता है"। चाहे उसके द्वारा कही गयी बात कितनी भी साधारण हो। मतलब यदि आपके पास अपनी बात कहने के लिए कोई ख़ास आदमी है तो उस बात को ख़ास ही मानकर सुना जाएगा। अन्यथा साधारण व्यक्ति द्वारा कही गई ख़ास बात को भी साधारण ही माना जाता है। जब तक कि वह कसौटी पर खरी नहीं उतरे।
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उदाहरण के लिए जब कोई छोटी और नयी कम्पनी बाजार में कोई प्रोडक्ट लेकर आती है तो उसे अपने प्रोडक्ट की पहली खेप बेचने में भी काफ़ी मेहनत करनी होती है। क्योंकि आप उस प्रोडक्ट को आजमाने के लिए भी तैयार नहीं होते। आपको लगता है कि इसमें कुछ भी ख़ास होता तो कोई न कोई ख़ास व्यक्ति जरूर इस बारे में बोलता। इसी तरह से जब कोई स्वतंत्र कार्यकर्ता आपके पास आकर गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई आदि को कम करने के लिए आवश्यक किसी कानून ड्राफ्ट के बारे में बताता है तो आप उसे पढ़ने और यहाँ तक कि उसके बारे में प्राथमिक जानकारी जुटाने की भी जहमत उठाते। क्योंकि यह बात कहने वाल व्यक्ति एक आम व्यक्ति है, ख़ास नहीं। जबकि ज्यादातर लोगो की रुचि सिर्फ उन बातों में होती है, जिसे कोई ख़ास व्यक्ति कहे।
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'महिमामंडन' सिद्धांत के दूसरे नियम का प्रयोग लोगो के मानस को प्रभावित करने के लिए राजनीति में बड़े पैमाने पर किया जाता है। इस नियम कहता है कि :
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२. 'यदि आपके पास कोई साधारण बात कहने के लिए 'ख़ास व्यक्ति' उपलब्ध नहीं है तो किसी साधारण व्यक्ति को 'ख़ास व्यक्ति' बनाकर पेश कर दो'। इससे लोग साधारण बात को भी खास बात की तरह ग्रहण करेंगे।
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किसी साधारण व्यक्ति को 'ख़ास' कैसे बनाया जा सकता है ? यह काम पेड मिडिया आसानी से कर देता है।
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पेड मिडिया किसी भी साधारण व्यक्ति को खास कैसे बना देता है ?
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मिडिया में बहुत कम लोग जगह बना पाते है। इसीलिए यह माना जाता है कि मिडिया में आने वाला व्यक्ति खास होता है। लेकिन राजनीति के बारे में ऐसा नहीं है। राजनीति में पेड मिडिया के प्रायोजक अपने एजेंडे के अनुसार व्यक्तियों को मिडिया में जगह देते है।
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उदाहरण के लिए इसे लिखने वाला व्यक्ति साधारण श्रेणी से आता है और पाठक भी इसे साधारण लोगो की पहुँच वाले माध्यम से ही पढ़ रहा है, अत: इसे पढ़ने वाला व्यक्ति यह मानकर चलेगा कि यह साधारण बात है, क्योंकि इसे किसी साधारण व्यक्ति ने लिखा है। लेकिन यदि यही बात कोई व्यक्ति पेड मिडिया पर आकर कहेगा या यह अखबार में छपेगा तो इसके बारे में उत्सुकता और विश्वसनीयता बढ़ जायेगी। क्योंकि पाठक इस सूचना को पेड मिडिया से ग्रहण कर रहा है और वह जानता है कि मिडिया में आने वाला व्यक्ति ख़ास होता है।
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लेकिन असल में मिडिया में आने वाले कुछ लोग ख़ास नहीं भी हो सकते है। लेकिन चूंकि यह बात मानी जाती है कि मिडिया में ख़ास व्यक्ति को ही जगह मिलती है अत: इन ख़ास लोगों के भम्भड़ में कुछ साधारण लोगो को भी फिट कर दिया जाता है। और लोग समझते है कि अमुक व्यक्ति भी 'ख़ास' है। और जब लोग किसी व्यक्ति को ख़ास मान लेते है तो उसकी कही गयी बात को भी ख़ास मानने लगते है !!
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उदाहरण के लिए यह एक साधारण ही नहीं बल्कि उल्टी बात थी कि भूखा रहने से ताकत आती है। लेकिन अंग्रेजो द्वारा संचालित पेड मिडिया ने पहले मोहन गांधी नाम के एक व्यक्ति को लगातार कवरेज देकर ख़ास बनाया और फिर उनकी कही हर बात अवाम को कुछ समय के लिए 'ख़ास' लगने लगी। वक्त गुजरने के साथ जब लोगो ने इसके परिणाम देखे तो वे यह यह बात समझ गए कि यह कोरी बकवास है कि अनशन करने या चरखे चलाने से सरकार को झुकाया जा सकता है।
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आज के दौर में अन्ना हजारे, महात्मा अरविन्द गांधी, तृप्ति देसाई, हार्दिक पटेल और कन्हैया कुमार जैसे साधारण पांत के लोग इसके उदाहरण है, जिन्हे पेड मिडिया के प्रायोजकों ने अपने एजेंडे को जनता तक पहुंचाने के लिए 'ख़ास' बना दिया है। आप मिडिया में आने से पहले की इनकी उपलब्धियों पड़ताल करेंगे तो जान जाएंगे कि ये आपके और हमारे जैसे साधारण लोग है, जो सिर्फ इसीलिए ख़ास बन गए क्योंकि मिडिया ने अपनी बात कहलवाने के लिए इन्हें ख़ास बनाकर पेश कर दिया था।
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राजनीति में यह पैंतरा देश को इसीलिए नुक्सान पहुंचाता है कि पेड मिडिया यह नियंत्रित करता है कि किसे ख़ास माना जाएगा। जो व्यक्ति पेड मिडिया के प्रायोजकों के एजेंडे पर काम करते है मिडिया उन्हें कवरेज देता है। इस कवरेज के कारण कार्यकर्ता इन लोगो का अनुसरण करते है और गाहे बगाहे पेड मिडिया के प्रायोजकों के एजेंडे पर कार्य करते है।
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कुल मिलाकर जब कोई व्यक्ति देश की व्यवस्था में कोई बदलाव लाने के बारे में कहे तो हमें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि अमुक बात कहने वाला व्यक्ति ख़ास है या आम। बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि उसके द्वारा सुझाया गया समाधान कितना ख़ास है। हो सकता है कि ऐसी किसी बात के हानि लाभ को समझने के लिए आपको अपना समय और श्रम लगाना पड़े, लेकिन इससे आप पेड मिडिया द्वारा दिए जा रहे धोखे से बच जाएंगे।
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.