अमेरिका में हमारे नेताओं को मिली ताली भारतीयों के स्वाभिमान को कितना दर्शाती है?

आपकी पार्टी भक्ति,अंधभक्ति,नेता भक्ति के संस्कार बेशक आपको सत्य को स्वीकार ना करने दें. परंतु सत्य यही है.
अपना सामाजिक स्टेटस मेंटेन रखने वाले यहाँ के स्वार्थी, कमजोर और सॉफ्ट लोग ही उन्हें वोट देते हैं जो आसान रास्तों के वादे करते हैं. पर सच्चाई है की ऐसा कोई आसान रास्ता नहीं होता.
कभी पार्टी और नेता को अपने मन से निकालकर राष्ट्र को केंद्र मे रखकर घटनाओ को समझने का प्रयास करना. http://goo.gl/so3ydH.
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दुनिया सूरज पर क्यूँ न पँहुच जाए , पर हमलोग अभी हमारी-तुम्हारी तालियों में ही अटके हैं.
प्रतिक्रिया कुछ ऐसी है जैसे किसी साहब ने अपने नौकर के लिए ताली बजा दी हो, अब नौकर के घर परिवार वालों को इस से ज़्यादा चाहिए ही क्या?
विदेशियों से आपको चाहे कितनी ही नफरत (?) हो , लेकिन उनकी तालियां अभी भी हमारी कमजोरी है.
सवा सौ करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व अपने आप में बेमिसाल है , उसे किसी ताली की जरूरत है क्या ?
वैसे हमारे यंहा ताली बजाने वालों को जो इज्जत बक्शी गई है , उसे देखकर लगता तो नहीं की हम तालियों के बहुत बड़े कद्रदान हैं ?
विदेशियों की ताली पर लाली और देशी ताली पर गाली , ये तो बहुत नाइंसाफी है !
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हमे स्वीकारना होगा की बदला कुछ भी नहीं है , आज भी विदेशियों द्वारा प्रशस्त प्रशंसा को पूजना हमारी पुरातन कमजोरी बनी हुई है.
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देशप्रेम की आड़ में भावनात्मक रूप से यहाँ की जनता को मीडिया द्वारा दिग्भ्रमित किया जा रहा है लेकिन प्रश्नचिन्ह भारतीयों की समझ, तर्कशक्ति और जागरूकता पर तो लग ही गया है.
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देश की जनता इस सामान्य सच को स्वीकार नहीं कर सकती, क्योंकि उन्हें समाज में अपना स्टेटस बनाना है, चाहे वो विदेशियों द्वारा भीख में दिए सुविधाओं का ही उपयोग का मामला क्यों न हो?
लेकिन जिनके पूर्वजों को चौदह सौ सालों से गुलामी में ही पैदा होकर मरने की आदत हो गयी हो, वो भला अपने वंशजों को क्यों ये समझायेंगे कि डेली समाचार हमारे देश की तमाम गतिविधियों जहाँ तक संभव हो वहां तक को फॉलो करते ही रहना चाहिए, और ये एक जागरूक जनता का कर्तव्य है. क्योंकि राष्ट्र के प्रति जागरूकता उनके रक्त में ही नहीं है.
किसी को अपने पूर्वजों के लिए बुरा लगा हो तो क्षमा प्रार्थना है.
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अधिकाँश पूर्वज तक चौदह सौ सालों की गुलामी में पैदा होने के कारण आजादी को बनाए रखने जैसे कर्तव्य को अपराध समझते हैं, विदेशियों द्वारा भीख में मिले सुविधाओं के उपयोग में अपना सम्मान समझते हैं. क्योंकि इतने शताब्दियों की गुलामी में अपना सम्मान करना भूल गए हैं, इनको भीख में मिली जिंदगी के बिनाह पर स्वाभिमान से गरीबी में जीना स्वीकार नहीं है !!
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इस देश के निवासियों को सिंगापुर के शुरूआती शासन व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए.
From third world to first बुक- सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली कुआन यु की बुक है. उनके बारे में जानने के बाद कुछ लोग कहेंगे की हम उन जैसा कभी बन ही नहीं सकते. ज्यादातर कहेंगे, सिंगापुर छोटे से शहर जैसा है, हम बहुत बड़े हैं, हम यह नहीं कर सकते.
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सिंगापुर और भारत के बीच का अंतर साधनों और आकार का बिलकुल नहीं है. बल्कि हमारा बड़ा होना, साधन संपन्न होना, बड़ी जनसंख्या का होना हर हाल में हमारी ताक़त है. हम उसी को अपनी नाकामी का बहाना बना कर बैठे हैं.
सिंगापुर और भारत के बीच का अंतर शासकों की सही और गलत प्राथमिकताओं का अंतर है.
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संक्षेप में सिंगापुर का इतिहास इस तरह है कि 1959 में सिंगापुर अंग्रेजों से आज़ाद हुआ. पर अंग्रेजी सेनाएं वहां बनी रहीं. 1963 में सिंगापुर मलेशिया के साथ मिल गया. पर चीनी बहुल सिंगापुर की मलाया मुस्लिम बहुल मलेशिया से बनी नहीं. 2 साल बाद मलेशिया ने सिंगापुर को अपने से अलग हो जाने को कहा - कुछ इस ख्याल से कि छोटा सा सिंगापुर अलग राज्य की तरह सर्वाइव ही नहीं कर पायेगा, और नष्ट हो जायेगा. किसी को भी एक स्वतंत्र सिंगापुर के सफल हो पाने की जरा सी भी उम्मीद नहीं थी.
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उन दिनों मलेशिया में मलाया और चीनी मूल के लोगों में खूब दंगे होते थे. और उसका असर सिंगापुर में भी देखने को मिलता था. सिंगापुर की अपनी कोई सेना नहीं थी. उनके पास सिर्फ 2 बटालियन थीं जिसमें मलाया सैनिक भरे पड़े थे, और सेना प्रमुख भी एक अरब मुस्लिम था.
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तभी इंग्लैंड ने घोषणा कर दी कि वह अगले 4 सालों में अपनी सेना सिंगापुर से हटा लेगा, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था में इसकी गुंजाईश नहीं थी. तब चीन और रूस के कम्युनिष्टों के आक्रमण का खतरा था, साथ ही मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे पड़ोसियों से भी अच्छे सम्बन्ध नहीं थे और वे सिंगापुर को निगलने को तैयार बैठे थे.
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सिंगापुर में कोई संसाधन नहीं थे, जमीन नहीं थी, और रोजगार के लिए पूरा सिंगापुर अपने पोर्ट से होने वाले दूसरों के व्यापार पर निर्भर था. ली ने समझा कि अगर सिंगापुर को अंतराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र बनना है तो वहां शांति और सुरक्षा होनी जरूरी है. साथ ही सिंगापुर को सर्वाइव करने के लिए अपने नागरिकों में असाधारण श्रेष्ठता की भावना भरनी जरूरी है.
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सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली कुआन यु की ने अपनी मजबूत सेना बनाने का फैसला किया क्योंकि सिंगापुर का अस्तित्व इसपर निर्भर था. उसने भारत से एक मिलिट्री एडवाइजर माँगा. शास्त्रीजी ने बदले में उसे सिर्फ एक सद्भावना और शांति की शुभकामना का सन्देश भेज दिया. इसके पीछे अपनी Military commitments के अलावा मलेशिया और इंडोनेशिया के मुस्लिमों को नाराज़ नहीं करने के कांग्रेसी संस्कार भी थे.
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तब इजराइल की मदद से अगले 5 सालों में सिंगापुर ने अपनी आर्मर्ड डिवीज़न, अपनी एयरफोर्स और नेवी तैयार की. हर सिंगापुर नागरिक को नेशनल सर्विस में सेना में कुछ दिन काम करना ही होता है. साथ ही देश के कुछ सबसे मेधावी छात्र सेना के लिए चुने जाते हैं, जहाँ उन्हें 8 साल काम करना होता है. इन 8 सालों में उन्हें स्कालरशिप पर ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज में डिग्री के लिए भेजा जाता है. साथ ही हॉर्वर्ड या स्टैनफोर्ड जैसी यूनिवर्सिटी में पब्लिक या बिज़नस एडमिनिस्ट्रेशन सीखने भी भेजा जाता है. 8 साल के अंत में वे सेना में रह सकते हैं, सिविल सर्विस में जा सकते हैं, या प्राइवेट सेक्टर में भी उनकी बहुत मांग है.
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आज सिंगापुर की सैन्य क्षमता भारत की कुल सेना की लगभग 1/4th है. साथ ही सैन्य सेवा सुरक्षा के साथ साथ राष्ट्र निर्माण का भी एक जबरदस्त माध्यम बना है.
इतनी लंबी कहानी के पीछे हमारे काम की दो बातें हैं -
1. हम विकास और अर्थव्यवस्था, इन दोनों शब्दों के पीछे चक्करघिन्नी की तरह नाच रहे हैं. पर यह भूल रहे हैं कि आर्थिक विकास के Viable होने के लिए आतंरिक सुरक्षा बेहद बेहद जरूरी है. हमारी आतंरिक सुरक्षा पर इतने बड़े-बड़े खतरे मंडरा रहे हैं, और हम उसे नज़रअंदाज़ कर, मालदा और रुड़की, केरल और बंगाल से आँखें बंद कर विकास की बात कर रहे हैं, यह पत्थरों की बारिश में शीशे का महल खड़ा करने जैसा होगा.
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2. राष्ट्र निर्माण का काम सिर्फ सड़क-बिजली-रेल चलाने तक सीमित नहीं है. राष्ट्र-निर्माण का अर्थ है राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण. और राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के संसाधन हैं शिक्षा, मीडिया, इतिहास लेखन, कला और साहित्य...उसे आपने अपने हाथ में नहीं रखा है, देशद्रोही शक्तियों के हाथ में छोड़ रखा है. उसपर वापस कब्ज़ा जमाने के लिए राजसत्ता का प्रयोग वांछित ही नहीं, आवश्यक भी है...पर उसके रास्ते में आपकी गांधीवादी नैतिकता आ जाती है...
दुःख से कहना पड़ रहा है, जब इतिहास अपना निर्णय लिखेगा, तब कोई भी भारतीय राजनेता ली कुआन यु के आसपास दूरदूर तक खड़ा नहीं दिखाई देगा...हमारे प्रिय मोदी जी भी नहीं..
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प्रधानमंत्री ली कुआन यु की ने मछुआरों के एक छोटे से गाँव से पोर्ट सिटी बने एक शहर को एक पीढ़ी के जीवनकाल में एक विकसित राष्ट्र बना दिया.
सिर्फ सम्पन्नता ही नहीं, राष्ट्रीयता भी मेन्यूफ़ैक्चर की. "राष्ट्रनिर्माण" को लगभग परिभाषित किया.
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राजनीती में रूचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इस व्यक्ति से अप्रभावित रहना आसान नहीं है.
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उनकी पुस्तक From Third World To First का कुछ अंश जो बातें भारत के लिए भी प्रासंगिक हैं, वो. बहुत कुछ जो हम कर रहे हैं, और कुछ जो हमें करना चाहिए-
अपनी कमजोरियों को पॉजिटिव होकर कुरेदिये, पर आहिस्ते से. अपनी ताक़तों पर भरोसा कीजिये - सीना ठोक कर. जो लोग हमारे घावों को कुरेदते हैं, नेगेटिविटी उड़ेलते हैं, वे हमारे मित्र नहीं हैं. उनका इरादा इन घावों को ठीक करना नहीं है. उनका टच एक डॉक्टर का हीलिंग टच नहीं है. इसलिए इस पोस्ट को भारत को कोसने, अपने आप को गालियाँ देने का अवसर कृपया ना बनाएंगे.
1968 में अँगरेज़ सिंगापुर को छोड़ कर जाने की तैयारी कर रहे थे. सिंगापुर के लिए इसका मतलब था, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का ठप्प होना. असुरक्षा, बेरोजगारी. क्योंकि सिंगापुर के रोजगार का बड़ा भाग इसपर निर्भर था.
तब ली ने देश को रेडियो कुछ यह सन्देश दिया -
"अगर हम कमजोर लोग होते, तो हम अबतक नष्ट हो चुके होते. कमजोर और सॉफ्ट लोग ही उन्हें वोट देंगे जो आसान रास्तों के वादे करते हैं. पर सच्चाई है की ऐसा कोई आसान रास्ता नहीं होता. सिंगापुर को दुनिया में कोई भी चीज मुफ़्त में नहीं मिलती. पीने का पानी भी मुफ़्त नहीं मिलता. दुनिया हमें मुफ़्त की रोटी देने का कोई वादा नहीं करती. हम भीख का कटोरा थामे नहीं जी सकते...जब अँगरेज़ यहाँ से चले जायेंगे, सिंगापुर एक खुशहाल और बढ़िया औद्योगिक, व्यापारिक और संचार का केंद्र बनेगा...."
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विदेशो के कई नेता, क्रांतिकारी हो चुके हैं, जिनसे यहाँ के तथाकथित नेता जो वस्तुतः स्वार्थी, अपने लिए भावुक व कमजोर हैं, वो उन क्रांतिकारियों नेताओं जिन्होंने अपनेदेश को फर्स्ट वर्ल्ड नेशन बनाया, उनसे कुछ सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती.
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वैसे ही उनके समर्थक भी हैं, जो अपनी बुद्धि डिब्बे में बंद कर ऐसे नेताओं के हर बात का समर्थन देते हैं, गलत का विरोध करना उन्हें आता ही नहीं, या करना नहीं चाहते, क्योंकि ये मामला शायद उनके अपने समाजिक स्टेटस जो कथित बीके हुए बड़े नेता का आदमी होकर मिलता है, विरोध करने पर न मिलेगा.
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जय हिन्द.

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