क्या भारतीय राजनेताओं की कूटनीति में व भारतीय कानूनों की किताबों में आर्थिक विकास के संभव होने के लिए आतंरिक सुरक्षा का कोई योगदान नहीं है ?
हम विकास और अर्थव्यवस्था, इन दोनों शब्दों के पीछे चक्करघिन्नी की तरह नाच रहे हैं. पर यह भूल रहे हैं कि आर्थिक विकास के संभव होने के लिए आतंरिक सुरक्षा का होना बेहद बेहद जरूरी है.
हमारी आतंरिक सुरक्षा पर इतने बड़े-बड़े खतरे मंडरा रहे हैं, और हम उसे नज़रअंदाज़ कर, मालदा और रुड़की, केरल और बंगाल से आँखें बंद कर विकास की बात कर रहे हैं, यह पत्थरों की बारिश में शीशे का महल खड़ा करने जैसा होगा.
राष्ट्र निर्माण का काम सिर्फ सड़क-बिजली-रेल चलाने तक सीमित नहीं है. राष्ट्र-निर्माण का अर्थ है राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण. और राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के संसाधन हैं मूलभूत विज्ञान के क्षेत्र में रिसर्च का अभाव, शिक्षा, मीडिया, इतिहास में रिसर्च का अभाव, लेखन, कला और साहित्य...उसे आपने अपने हाथ में नहीं रखा है, देशद्रोही शक्तियों के हाथ में छोड़ रखा है. उसपर वापस कब्ज़ा जमाने के लिए राजसत्ता का प्रयोग वांछित ही नहीं, आवश्यक भी है...पर उसके रास्ते में आपकी गांधीवादी नैतिकता आ जाती है...
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अभी तक तो आलम यह है कि तत्कालीन सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल में अगले चुनाव के लिए वोटबैंक बनाता है बस. किये जाने वाले हर कार्य को वोटबैंक के दृष्टिकोंण से संपादित किया जाता है. यह एक राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.
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वैचारिक दृष्टी से राजनीतिज्ञ और जनता भी राष्ट्रवाद से मुँह मोड़ चुकी है. यहा की जनता मतलबी लालची और स्वार्थी है दिल्ली की आप पार्टी के समर्थन में मुफ्तखोर जनता इसका ताजा उदाहरण है इन्होने देशद्रोही आतंकवादी खालिस्तान समर्थकों से सम्बन्ध रखने वाले को अपना CM बनाया है.
हमारी आतंरिक सुरक्षा पर इतने बड़े-बड़े खतरे मंडरा रहे हैं, और हम उसे नज़रअंदाज़ कर, मालदा और रुड़की, केरल और बंगाल से आँखें बंद कर विकास की बात कर रहे हैं, यह पत्थरों की बारिश में शीशे का महल खड़ा करने जैसा होगा.
राष्ट्र निर्माण का काम सिर्फ सड़क-बिजली-रेल चलाने तक सीमित नहीं है. राष्ट्र-निर्माण का अर्थ है राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण. और राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के संसाधन हैं मूलभूत विज्ञान के क्षेत्र में रिसर्च का अभाव, शिक्षा, मीडिया, इतिहास में रिसर्च का अभाव, लेखन, कला और साहित्य...उसे आपने अपने हाथ में नहीं रखा है, देशद्रोही शक्तियों के हाथ में छोड़ रखा है. उसपर वापस कब्ज़ा जमाने के लिए राजसत्ता का प्रयोग वांछित ही नहीं, आवश्यक भी है...पर उसके रास्ते में आपकी गांधीवादी नैतिकता आ जाती है...
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अभी तक तो आलम यह है कि तत्कालीन सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल में अगले चुनाव के लिए वोटबैंक बनाता है बस. किये जाने वाले हर कार्य को वोटबैंक के दृष्टिकोंण से संपादित किया जाता है. यह एक राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.
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वैचारिक दृष्टी से राजनीतिज्ञ और जनता भी राष्ट्रवाद से मुँह मोड़ चुकी है. यहा की जनता मतलबी लालची और स्वार्थी है दिल्ली की आप पार्टी के समर्थन में मुफ्तखोर जनता इसका ताजा उदाहरण है इन्होने देशद्रोही आतंकवादी खालिस्तान समर्थकों से सम्बन्ध रखने वाले को अपना CM बनाया है.
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.