कटाक्ष धर्म और उसके रखवालों पर
कुछ लोग जो ये कहते हैं कि मंदिरों में गोरे नहीं जा सकते, क्या वे बता सकते हैं कि धर्म का कौन सा रंग है? गोरा या काला या गेहुआं रंग है? या पीला है?
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कुछ लोग कहेंगे कि बिना साडी पहने या पैंट-शर्ट पहनी महिला मंदिर नहीं जा सकती, क्या वे बता सकते हैं कि उनके धर्म ने कौन सा वस्त्र धारण किया है? धर्म ने साडी पहना है या फिर धोती या पेंट-शर्ट? अजीब बात है !! अब भगवान् वस्त्र आभरण देखके दर्शन देने लगे !!
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इस कलियुग में भक्तों को अपनी भक्ति कि परीक्षा की बजाये अब इन घमंडी पुरोहित-पंडित पंडों के चलते भगवान को ही अपनी पवित्रता की परीक्षा देनी पड़ेगी क्या?.
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कुछ लोग कहते हैं कि अमुक अमुक मंदिर में महिलाओं-पुरुषों के जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है व उनके भगवान ही अपवित्र हो जाते हैं, क्या ऐसे लोग जवाब दे सकते हैं कि उनके भगवान ने उनको बनाकर अपने अछूत होने का प्रमाण दिया या नहीं?
उनके भगवान ने स्त्रियों को बनाकर उनके ही द्वारा जल चढाने से वही भगवान किस प्रकार अपवित्र हो गए?
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केरल में तिरुमाला की पहाड़ी का मंदिर में स्त्रियों को जाना मना है क्योंकि वहां के स्वामी-अयप्पा के भगतों का कहना है कि उनके स्वामी-अयप्पा कुंवारे थे, इसीलिए बच्चियों व बूढियों को छोड़कर अन्य महिला वहां नहीं जा सकती, क्या वे बता सकते है कि उनके अयप्पा भगवान को महिलाओं से नफरत थी क्या या नहीं? और अगर वे कुंवारे थे तो जवान महिलाओं को देखकर उनको शर्म वर्म तो नहीं आती है? या फिर शादी करने का इरादा था उनके भगवान का?
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यकीनन उके भगतों ने अपने घमंड के पोषण के लिए ही उपरोक्त सभी तरह की अफवाहें फैला रखीं है, कि किस प्रकार से दबी हुई आवाज़ वाले सामाजिक तबके को दूर रखा जाये अपने घमंड के पोषण एवं संरक्षण के लिए.
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कुछ पंडित कहेंगे कुंवारी लड़कियों को हनुमान जी कि पूजा इसलिए नहीं करनी चाहिए या उनको सिन्दूर इसलिए नहीं लगाना चाहिए क्योंकि हनुमानजी भी कुंवारे हैं? वाह !!
अब हनुमान जी कुंवारी लड़कियों के साथ डेट पे जायेंगे क्या जो पूजा में उनको सिन्दूर लगाना वर्जित बता दिया पंडितों-पुरोहितों ने? या हनुमान जी को सिन्दूर लेपन से बेचारे हनुमान जी लड़की से शादी कर लेंगे? अगर आपके भगवान का ही धर्म इतना ही कमजोर है तो क्यूँ उनको पूजा जाए और क्यूँ ऐसे धर्म को माना जाए?
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मेरा पर्सनल अनुभव ये है कि जब मैंने हनुमान जी कि पूजा किये जाने से मना करने पर पंडितजी को पूछा कि भगवान ने कब और कहाँ कहा था हम महिलाओं को पूजा नहीं करने का तो उन्होंने मुझे जोरदार गुस्से से देखा जैसे कि उनके अहंकार पर पानी फेर दिया हो किसी ने.
फिर मैंने उन पंडितजी से ये भी पूछा कि भगवान और मेरे बीच आप कौन हैं, तो फिर उनका चेहरा बिलकुल एक आम के जैसे लटक गया, वे देखने लायक थे.
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अगर किसी धर्म का भगवान इतना ही कमजोर है कि सिन्दूर लगा देने से या कुंवारी लड़कियों के मंदिर घुस जाने से या महिलाओं द्वारा जल-स्नान करा देने से उनका बेचारा भगवान ही अपवित्र हो जाता हो तो निश्चय ही ऐसा भगवान् पूजने योग्य नहीं है, और न ही ऐसा धर्म धारण किये जाने योग्य ही है.
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कुछ लोग कहेंगे कि बिना साडी पहने या पैंट-शर्ट पहनी महिला मंदिर नहीं जा सकती, क्या वे बता सकते हैं कि उनके धर्म ने कौन सा वस्त्र धारण किया है? धर्म ने साडी पहना है या फिर धोती या पेंट-शर्ट? अजीब बात है !! अब भगवान् वस्त्र आभरण देखके दर्शन देने लगे !!
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इस कलियुग में भक्तों को अपनी भक्ति कि परीक्षा की बजाये अब इन घमंडी पुरोहित-पंडित पंडों के चलते भगवान को ही अपनी पवित्रता की परीक्षा देनी पड़ेगी क्या?.
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कुछ लोग कहते हैं कि अमुक अमुक मंदिर में महिलाओं-पुरुषों के जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है व उनके भगवान ही अपवित्र हो जाते हैं, क्या ऐसे लोग जवाब दे सकते हैं कि उनके भगवान ने उनको बनाकर अपने अछूत होने का प्रमाण दिया या नहीं?
उनके भगवान ने स्त्रियों को बनाकर उनके ही द्वारा जल चढाने से वही भगवान किस प्रकार अपवित्र हो गए?
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केरल में तिरुमाला की पहाड़ी का मंदिर में स्त्रियों को जाना मना है क्योंकि वहां के स्वामी-अयप्पा के भगतों का कहना है कि उनके स्वामी-अयप्पा कुंवारे थे, इसीलिए बच्चियों व बूढियों को छोड़कर अन्य महिला वहां नहीं जा सकती, क्या वे बता सकते है कि उनके अयप्पा भगवान को महिलाओं से नफरत थी क्या या नहीं? और अगर वे कुंवारे थे तो जवान महिलाओं को देखकर उनको शर्म वर्म तो नहीं आती है? या फिर शादी करने का इरादा था उनके भगवान का?
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यकीनन उके भगतों ने अपने घमंड के पोषण के लिए ही उपरोक्त सभी तरह की अफवाहें फैला रखीं है, कि किस प्रकार से दबी हुई आवाज़ वाले सामाजिक तबके को दूर रखा जाये अपने घमंड के पोषण एवं संरक्षण के लिए.
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कुछ पंडित कहेंगे कुंवारी लड़कियों को हनुमान जी कि पूजा इसलिए नहीं करनी चाहिए या उनको सिन्दूर इसलिए नहीं लगाना चाहिए क्योंकि हनुमानजी भी कुंवारे हैं? वाह !!
अब हनुमान जी कुंवारी लड़कियों के साथ डेट पे जायेंगे क्या जो पूजा में उनको सिन्दूर लगाना वर्जित बता दिया पंडितों-पुरोहितों ने? या हनुमान जी को सिन्दूर लेपन से बेचारे हनुमान जी लड़की से शादी कर लेंगे? अगर आपके भगवान का ही धर्म इतना ही कमजोर है तो क्यूँ उनको पूजा जाए और क्यूँ ऐसे धर्म को माना जाए?
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मेरा पर्सनल अनुभव ये है कि जब मैंने हनुमान जी कि पूजा किये जाने से मना करने पर पंडितजी को पूछा कि भगवान ने कब और कहाँ कहा था हम महिलाओं को पूजा नहीं करने का तो उन्होंने मुझे जोरदार गुस्से से देखा जैसे कि उनके अहंकार पर पानी फेर दिया हो किसी ने.
फिर मैंने उन पंडितजी से ये भी पूछा कि भगवान और मेरे बीच आप कौन हैं, तो फिर उनका चेहरा बिलकुल एक आम के जैसे लटक गया, वे देखने लायक थे.
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अगर किसी धर्म का भगवान इतना ही कमजोर है कि सिन्दूर लगा देने से या कुंवारी लड़कियों के मंदिर घुस जाने से या महिलाओं द्वारा जल-स्नान करा देने से उनका बेचारा भगवान ही अपवित्र हो जाता हो तो निश्चय ही ऐसा भगवान् पूजने योग्य नहीं है, और न ही ऐसा धर्म धारण किये जाने योग्य ही है.
निष्कर्ष में यही है कि पंडितों पुरोहितों ने ही हिन्दू धर्म को बिगाड़ कर मुस्लिम धर्म के समकक्ष ला खडा कर दिया है, अतः कोई हिन्दू अगर मुस्लिम धर्म को अपनाता है तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता.
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खैर...आते हैं द्रौपदी के ऊपर लगी लान्छानाओं पर. कोई कहता है द्रौपदी ने पांच पति प्राप्त कर सही नहीं किया. ऐसे लोग पूर्व काल में राजाओं द्वारा सैकड़ों रानियों रखने को तो कभी अनुचित नहीं ठहराते, फिर द्रौपदी ने पांच पति अगर कर ही लिए तो लोगों को जलन क्यों होती है?
लोगों को द्रौपदी की पांच पतियों को संभालने वाली हिम्मत नहीं दीखती क्या?
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और भी बात ये है कि महिलावादी फेमिनिस्म किस्म के लोगों की नजर में महिलाएं ही हमेशा से दबाई कुचली हैं, जैसे की सीता का दुबारा वनवास या द्रौपदी का चीरहरण, ऐसे लोग ये शायद नहीं जानते कि राम का हरासमेंट उनकी माता केकयी और मंथरा जैसी महिलाओं ने नहीं किया था क्या जिसके चलते राम-सीता-लक्ष्मण को एक नहीं कुल चौदह साल का वनवास मिला?
यहाँ तो स्त्री जाती ने ही पुरुष और उसके परिवार के साथ अन्याय किया? अब फेमिन्सिम और पंडितजी क्या बोलेंगे?
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भारत में मासिक धर्म वाली स्त्रियों को लेकर समाज में अगर उनका रक्त-रंजित वस्त्र दिख गया तो अलग ही तरह का घृणा व्यक्त किया जाता है उन बाहर-भीतर जाने वाली नौकरी करने वाली महिलाओं को लेकर, ये लोग शायद ये नहीं जानते कि जिस रक्त को लेकर इतना मुंह बिचकाते हैं, उसी रक्त से उनका शरीर बना है, फिर उससे घृणा क्यों?
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इस कलियुग में भक्तों को अपनी भक्ति कि परीक्षा की बजाये अब भगवान को ही अपनी पवित्रता की परीक्षा देनी पड़ेगी ढोंगी पुरोहितों, पंडों, पंडितों के चलते.
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वैसे भी भविष्य-पुराण में संतों ने पहले ही कह दिया था कि कलियुग का मानव घमंड की पराकाष्ठा होगा, वो तभी भगवान को मानेगा जब विज्ञान सिद्ध करके ना दिखादे, इसीलिए तो कलियुग में दुखों की बाढ़ है बाढ़, और इस धरती पे सबसे दुखी व्यक्ति अगर कोई है तो वो नास्तिक है क्योंकि, जो आस्तिक हैं उन्हें अपने मन में ये विश्वाश होता है कि कोई है जिनपे वह आशा व विश्वाश रख सकता है दुःख में, लेकिन दुःख में नास्तिक किसपर विश्वाश करता होगा?
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नास्तिकता एक प्रकार से दुःख की जननी है और नास्तिकता को बढ़ावा देने का कार्य पुरोहित, पंडित, भविष्यवक्ता पण्डे काफी जिम्मेदारी से निभा रहे हैं.
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खैर...आते हैं द्रौपदी के ऊपर लगी लान्छानाओं पर. कोई कहता है द्रौपदी ने पांच पति प्राप्त कर सही नहीं किया. ऐसे लोग पूर्व काल में राजाओं द्वारा सैकड़ों रानियों रखने को तो कभी अनुचित नहीं ठहराते, फिर द्रौपदी ने पांच पति अगर कर ही लिए तो लोगों को जलन क्यों होती है?
लोगों को द्रौपदी की पांच पतियों को संभालने वाली हिम्मत नहीं दीखती क्या?
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और भी बात ये है कि महिलावादी फेमिनिस्म किस्म के लोगों की नजर में महिलाएं ही हमेशा से दबाई कुचली हैं, जैसे की सीता का दुबारा वनवास या द्रौपदी का चीरहरण, ऐसे लोग ये शायद नहीं जानते कि राम का हरासमेंट उनकी माता केकयी और मंथरा जैसी महिलाओं ने नहीं किया था क्या जिसके चलते राम-सीता-लक्ष्मण को एक नहीं कुल चौदह साल का वनवास मिला?
यहाँ तो स्त्री जाती ने ही पुरुष और उसके परिवार के साथ अन्याय किया? अब फेमिन्सिम और पंडितजी क्या बोलेंगे?
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भारत में मासिक धर्म वाली स्त्रियों को लेकर समाज में अगर उनका रक्त-रंजित वस्त्र दिख गया तो अलग ही तरह का घृणा व्यक्त किया जाता है उन बाहर-भीतर जाने वाली नौकरी करने वाली महिलाओं को लेकर, ये लोग शायद ये नहीं जानते कि जिस रक्त को लेकर इतना मुंह बिचकाते हैं, उसी रक्त से उनका शरीर बना है, फिर उससे घृणा क्यों?
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इस कलियुग में भक्तों को अपनी भक्ति कि परीक्षा की बजाये अब भगवान को ही अपनी पवित्रता की परीक्षा देनी पड़ेगी ढोंगी पुरोहितों, पंडों, पंडितों के चलते.
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वैसे भी भविष्य-पुराण में संतों ने पहले ही कह दिया था कि कलियुग का मानव घमंड की पराकाष्ठा होगा, वो तभी भगवान को मानेगा जब विज्ञान सिद्ध करके ना दिखादे, इसीलिए तो कलियुग में दुखों की बाढ़ है बाढ़, और इस धरती पे सबसे दुखी व्यक्ति अगर कोई है तो वो नास्तिक है क्योंकि, जो आस्तिक हैं उन्हें अपने मन में ये विश्वाश होता है कि कोई है जिनपे वह आशा व विश्वाश रख सकता है दुःख में, लेकिन दुःख में नास्तिक किसपर विश्वाश करता होगा?
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नास्तिकता एक प्रकार से दुःख की जननी है और नास्तिकता को बढ़ावा देने का कार्य पुरोहित, पंडित, भविष्यवक्ता पण्डे काफी जिम्मेदारी से निभा रहे हैं.
ऐसे पंडित पुरोहित तब अपना धर्म भूल जाते हैं जब मंदिर और उसकी संपत्ति को सरकार अपने नियंत्रण में लेकर मंदिर का सारा सोना विदेशियों को मात्र गोल्ड-सर्टिफिकेट के बदले बेच देती है.
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नास्तिकता-रखवालों कि जय हो.
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वैसे हम भारत के लोग कभी भी संकीर्ण मानसिकता के नहीं थे जैसे कि आजकल के पंडित-पुरोहित दिखाते हैं. आदिकाल से जब इस पृथ्वी पर कोई दूसरा संप्रदाय या धर्म न था, आज से पाँच हज़ार दस हज़ार वर्ष पहले तक या यु कहूँ की आज से लाखो वर्ष पहले तक, जब सिर्फ सनातन धर्म का ही इस भूभाग में अस्तित्व था तब भी हम संकीर्ण मानसिकता के न थे. हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता बहुत ज्यादा वैज्ञानिक और खुले विचारो वाली थी. बस फर्क इतना था कि उसमे हमने “मर्यादा” के बीज बोये थे.
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हम आज शराब या ड्रग्स पर प्रतिबन्ध की बात करते है, जबकि सच ये है की हमारे सनातन धर्मावलंबी अगोरी, नाथ, नागा, कालामुख इत्यादि सम्प्रदाय के सन्यासी रोज ही शराब, ड्रग्स इत्यादि का सेवन करते थे और करते है. बस फर्क सिर्फ इतना था की ये लोग समाज से दूर जंगलो में रहते थे.इसे ही कहते है “मर्यादा” क्योंकि ये लोग भी जानते थे की इनके कर्म इनके लिए उचित है किन्तु गृहस्थ समुदाय के लिए अनुचित है.
इसीलिए ये लोग समाज से दूर रहते थे और इसिलिए हमने मदिरापान को कभी भी सही या गलत के पैमाने से नहीं देखा क्योंकि किसी के लिए वो सही था और किसी के लिए वो गलत.
हम नग्न घूमने को भी सही या गलत के मापदंड पर नहीं तौल पाये क्योंकि नागा हो या दिगंबर जैन या अघोरी या वनो में निवास करने वाली भैरवी स्त्रीया ये सभी तो पूर्ण नग्न रहते थे. क्योंकि दिशाएं ही इनका आभूषण और वस्त्र थी और आज भी ये लोग वैसे ही रहते है. मगर इन्होंने भी स्वयं की मर्यादा तय की और कभी भी ये लोग समाज का हिस्सा नही बने. जिस से ये समाज असंतुलित न हो
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हमने कामसूत्र की रचना की, हमने खजुराहो, अजंता एलोरा का निर्माण कराया. हम तो भगवान कामदेव की पूजा भी करते है और कामरूप (असम) तो इसका गढ़ था और है, तो हम कब संकीर्ण मानसिकता के हुए ?
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संसार ने जो सोचा नहीं वो सब तो हम आर्य करके छोड़ चुके है और हर चीज को बिलकुल मर्यादा में किया. फिर हम कैसे मान ले की हम संकीर्ण मानसिकता के है ?
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क्योंकि हम नग्न मानसिकता के नहीं थे, क्योंकि हम भोगवादी मानसिकता के नहीं थे, हम अपने हर कार्य में जनकल्याण देखते थे. हमने सदैव मनुष्य होने पर गर्व किया, अन्य धर्मो की तरह धर्म के मद का व्यर्थ अहंकार नहीं किया, तभी तो इस आर्यावर्त (भारत) में संसार भर के अन्य धर्मो ने आक्रमण किया.
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हमने पोर्न फिल्मो को मान्यता नहीं दी, हमने जगह-जगह शराब की दुकानों का विरोध किया, हमने गली मोहल्ले में पशु हत्या के कसाई घरो का विरोध किया, इसीलिए हम संकीर्ण मानसिकता के हो गए क्योंकि भोगवादी लोग सिर्फ भोग करते है जबकि हम लोग भोग में भी योग की खोज करते थे हम अपनी मर्यादा से बाहर नहीं निकले.
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हमें गर्व है अपनी ऋषि परम्परा पर, हमें गर्व है अपनी सनातन धर्म पर, और आज कि पुरोहित-परम्परा पंडित परम्परा पर कोई गर्व नहीं है. नास्तिक परम्परा पर कोई गर नहीं, घमंडवादी परम्परा पर कोई गर्व नहीं.
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जय हिन्द.
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नास्तिकता-रखवालों कि जय हो.
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वैसे हम भारत के लोग कभी भी संकीर्ण मानसिकता के नहीं थे जैसे कि आजकल के पंडित-पुरोहित दिखाते हैं. आदिकाल से जब इस पृथ्वी पर कोई दूसरा संप्रदाय या धर्म न था, आज से पाँच हज़ार दस हज़ार वर्ष पहले तक या यु कहूँ की आज से लाखो वर्ष पहले तक, जब सिर्फ सनातन धर्म का ही इस भूभाग में अस्तित्व था तब भी हम संकीर्ण मानसिकता के न थे. हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता बहुत ज्यादा वैज्ञानिक और खुले विचारो वाली थी. बस फर्क इतना था कि उसमे हमने “मर्यादा” के बीज बोये थे.
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हम आज शराब या ड्रग्स पर प्रतिबन्ध की बात करते है, जबकि सच ये है की हमारे सनातन धर्मावलंबी अगोरी, नाथ, नागा, कालामुख इत्यादि सम्प्रदाय के सन्यासी रोज ही शराब, ड्रग्स इत्यादि का सेवन करते थे और करते है. बस फर्क सिर्फ इतना था की ये लोग समाज से दूर जंगलो में रहते थे.इसे ही कहते है “मर्यादा” क्योंकि ये लोग भी जानते थे की इनके कर्म इनके लिए उचित है किन्तु गृहस्थ समुदाय के लिए अनुचित है.
इसीलिए ये लोग समाज से दूर रहते थे और इसिलिए हमने मदिरापान को कभी भी सही या गलत के पैमाने से नहीं देखा क्योंकि किसी के लिए वो सही था और किसी के लिए वो गलत.
हम नग्न घूमने को भी सही या गलत के मापदंड पर नहीं तौल पाये क्योंकि नागा हो या दिगंबर जैन या अघोरी या वनो में निवास करने वाली भैरवी स्त्रीया ये सभी तो पूर्ण नग्न रहते थे. क्योंकि दिशाएं ही इनका आभूषण और वस्त्र थी और आज भी ये लोग वैसे ही रहते है. मगर इन्होंने भी स्वयं की मर्यादा तय की और कभी भी ये लोग समाज का हिस्सा नही बने. जिस से ये समाज असंतुलित न हो
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हमने कामसूत्र की रचना की, हमने खजुराहो, अजंता एलोरा का निर्माण कराया. हम तो भगवान कामदेव की पूजा भी करते है और कामरूप (असम) तो इसका गढ़ था और है, तो हम कब संकीर्ण मानसिकता के हुए ?
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संसार ने जो सोचा नहीं वो सब तो हम आर्य करके छोड़ चुके है और हर चीज को बिलकुल मर्यादा में किया. फिर हम कैसे मान ले की हम संकीर्ण मानसिकता के है ?
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क्योंकि हम नग्न मानसिकता के नहीं थे, क्योंकि हम भोगवादी मानसिकता के नहीं थे, हम अपने हर कार्य में जनकल्याण देखते थे. हमने सदैव मनुष्य होने पर गर्व किया, अन्य धर्मो की तरह धर्म के मद का व्यर्थ अहंकार नहीं किया, तभी तो इस आर्यावर्त (भारत) में संसार भर के अन्य धर्मो ने आक्रमण किया.
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हमने पोर्न फिल्मो को मान्यता नहीं दी, हमने जगह-जगह शराब की दुकानों का विरोध किया, हमने गली मोहल्ले में पशु हत्या के कसाई घरो का विरोध किया, इसीलिए हम संकीर्ण मानसिकता के हो गए क्योंकि भोगवादी लोग सिर्फ भोग करते है जबकि हम लोग भोग में भी योग की खोज करते थे हम अपनी मर्यादा से बाहर नहीं निकले.
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हमें गर्व है अपनी ऋषि परम्परा पर, हमें गर्व है अपनी सनातन धर्म पर, और आज कि पुरोहित-परम्परा पंडित परम्परा पर कोई गर्व नहीं है. नास्तिक परम्परा पर कोई गर नहीं, घमंडवादी परम्परा पर कोई गर्व नहीं.
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जय हिन्द.
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.