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58 प्रकार के पाप

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  58 प्रकार के पाप - इसी महादु:खदायी दक्षिण मार्ग में वैतरणी नदी है, उसमें जो पापी पुरुष जाते हैं, उन्हें मैं तुम्हें बताता हूँ – 1.जो ब्राह्मणों की हत्या करने वाले, 2. सुरापान करने वाले, 3.गोघाती, 4.बाल हत्यारे, 5.स्त्री की हत्या करने वाले, 6.गर्भपात करने वाले और 7.गुप्तरूप से पाप ( पराई नार का संसर्ग ) करने वाले हैं, 8.जो गुरु के धन को हरण करने वाले, 9.देवता, संत अथवा ब्राह्मण का धन हरण करने वाले, स्त्रीद्रव्यहारी, 10.बालद्रव्यहारी हैं, 11.जो ऋण लेकर उसे न लौटानेवाले, 12.धरोहर का अपहरण करने वाले, 13. विश्वासघात करने वाले, 14.विषान्न देकर मार डालने वाले, 15. दूसरे के दोष को ग्रहण करने वाले, 16.गुणों की प्रशंसा ना करने वाले, 17.गुणवानों के साथ डाह रखने वाले, 18.नीचों के साथ अनुराग रखने वाले, 19. मूढ़, 20.सत्संगति से दूर रहने वाले हैं, 21.जो तीर्थों, सज्जनों, सत्कर्मों, गुरुजनों और देवताओं की निन्दा करने वाले हैं, 22. पुराण, वेद, मीमांसा, न्याय और वेदान्त को दूषित करने वाले हैं ( अपना सांप्रदायिक मत सौंप देते है मिक्स करके ) 23. दु:खी व्यक्ति को देखकर प्रसन्न होने वाले, 24. प्रसन्न को

रावण का क्रियाकर्म

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रावण का क्रियाकर्म ------------------------------------------------- रावण का आजकल जो महिमामंडन हो रहा है उसके बारे में कुछ बातें आपको पॉइंट में बता देता हूँ। पोस्ट नहीं लिख रहा हूँ। सारी बातें वाल्मीकि रामायण से प्रमाणित कहूंगा।  1) रावण यज्ञों का विध्वंसक था। यज्ञों में मांस फिंकवाता था। 2) रावण असंख्य ब्राह्मणों और ऋषियों का हत्यारा था। वन में श्रीराम को रावण द्वारा मरवाए गए ऋषि मुनियों के कंकालों का ढेर मिला। 3) रावण ने सीता जी से भेंट करने पर उनपर अत्यंत अश्लील बातें कही। और भगवती सीताजी को जबरदस्ती जंघाओं से पकड़कर गोद में उठाकर लंका ले गया। रावण ने किसी स्त्री का स्पर्श नहीं किया यह शुद्ध बकवास है। यह वाल्मीकि रामायण में साफ साफ लिखा है। 4) सीताजी को उसने बार बार मानसिक प्रताड़ना देकर पत्नी बनने के लिए दबाव बनाया।  5) रावण की बहन शूर्पणखा दुनिया की सबसे बड़ी व्यभिचारी और सबसे पहली सेक्स के लिए human trafficking में धकेलने वाली औरत थी। उसने अत्यंत अश्लील वर्णन करके अपने भाई के मन में सीताजी को हरने का विचार बोया। उससे बड़ी व्यभिचारिणी आजतक कोई नहीं हुई। मॉर्डन फेमिनिज़्म की

होशियारी और समझदारी

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🔆 होशियारी और समझदारी 🔆 ===================== 🔶 होशियारी अच्छी है पर समझदारी उससे भी ज्यादा अच्छी है क्योंकि समझदारी उचित अनुचित का ध्यान रखती है!  🔷 एक नगर के बाहर एक गृहस्थ महात्मा जी रहते थे और उनके आश्रम मे दुर दुर से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने को आते थे और महात्मा जी भी सभी को समान रुप से शिक्षा देते थे! 🔶 एक बार एक युवक उनके पास आया जो बहुत ही होशियार था और उसने कहा की मैं भी आपके आश्रम मे शिक्षा-दीक्षा लेना चाहता हुं तो महात्मा जी ने कहा की ठीक है! फिर वो उस युवक को लेकर दुर नगर गये और वहाँ से जब वापस लोट रहे थे तो महात्मा जी बार बार अपने थेले को देख रहे थे और युवक इस दृश्य को बराबर देख रहा था! और फिर एक नदी के किनारे महात्मा जी ने कहा वत्स रात्री मे अब हम यही पर विश्राम करते है सुबह ही यहाँ से आश्रम के लिये निकलेंगे और पुरी रात महात्मा जी उस थेले को बारबार देख रहे थे! वो युवक बारबार उन्हे देख रहा था! 🔷 महात्मा जी ने कहा की वत्स तुम यही बैठना और इस थैले को सम्भाल के रखना मैं नदी मे स्नान कर के आता हुं और पहले महात्मा जी स्नान करने को गये और फिर वो युवक गया फि

धर्म बपौती नहीं है

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*धर्म बपौती नहीं है* और किसी को वंशक्रम से नहीं मिलता। धर्म प्रत्येक व्यक्ति की निजी उपलब्धि है और अपनी साधना से मिलता है. इस समय सारी जमीन जिस भूल में पड़ी है, वह भूल यह है कि हम उस धर्म को, जिसे कि चेष्टा से, साधना से, प्रयास से उपलब्ध करना होगा, उसे हम पैदाइश से उपलब्ध मान लेते हैं! इससे बड़ा धोखा नहीं हो सकता। और जो आपको यह धोखा देता है, वह आपका दुश्मन है। जो आपको इसलिए जैन कहता हो कि आप जैन घर में पैदा हुए, वह आपका दुश्मन है, क्योंकि वह आपको ठीक अर्थों में जैन होने से रोक रहा है। इसके पहले कि आप ठीक अर्थों में जैन हो सकें, आप गलत अर्थों में जो जैन हैं, उसे छोड़ देना होगा। इसके पहले कि कोई सत्य को पा सके, जो असत्य उसके मन में बैठा हुआ है, उसे अलग कर देना होगा। तो यह तो मैं आपके संबंध में कहूं कि आप अपने संबंध में यह निश्चित समझ लें कि अगर आपका प्रेम और श्रद्धा केवल इसलिए है, तो वह श्रद्धा झूठी है। और झूठी श्रद्धा मनुष्य को कहीं भी नहीं ले जाती। झूठी श्रद्धा भटकाती है, पहुंचाती नहीं है। झूठी श्रद्धा चलाती है, लेकिन किसी मंजिल को निकट नहीं लाने देती है। झूठी श्रद्धा अनंत चक्

राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है।

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5-हमने अपना अपना मूलमंत्र "वसुधैवकुटुंबकं" क्यो त्याग दिया ? मैं कल ही मेरे खिलाफ किसी हिंदू संन्यासी का लिखा हुआ एक पत्र करंट में छपा है, वह देख रहा था। उसने सरकार से प्रार्थना की है कि मैं देशद्रोही हूं मुझ पर अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिये उसकी बात ठीक है। सरकार को उसकी बात पर ध्यान देना चाहिये। मुझे देशद्रोही कहा जा सकता है, क्योंकि देशों में मेरा कोई भरोसा नहीं। न मुझे कोई देश है, न कोई परदेश है, मुझे यह सारी पृथ्वी अपनी मालूम होती है। जिस संन्यासी ने यह कहा है... हिंदू मतांधता.. उसे अड़चन होती होगी कि मैं अपने को हिंदू घोषित क्यों नहीं करता। मैं नहीं हूं! मैं किसी सीमा में बंधा नहीं हूं। मस्जिद भी मेरी है और मंदिर भी मेरा है और गिरजा भी और गुरुद्वारा भी। और राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है। मैं तो मानता हूं कि राष्ट्रों के कारण ही मनुष्य—जाति पीड़ित है। राष्ट्र मिट जाने चाहिए। हो चुके बहुत राष्ट्रगान, उड़ चुके बहुत झंडे, हो चुकीं बहुत मूढ़ताएं पृथ्वी पर, अब तो मनुष्य की एकता स्वीकार करो। अब तो एक पृथ्वी और एक मनुष्य.। ये राष्ट्रीय सरकारें जानी चाहिये। और जब

श्रीराधातत्त्वविमर्श

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श्रीराधातत्त्वविमर्श - ०१ & 02 शास्त्रों के परम्परागत ज्ञान और आचरण से विमुख जनों के मन में एक भ्रम बहुत शीघ्रता से व्याप्त हो रहा है कि राधा नामक कोई चरित्र था ही नहीं, यह बाद के कवियों या विधर्मियों ने भगवान् श्रीकृष्ण को बदनाम करने के लिए मिलावट कर दी। इस कुतर्क के पक्ष में वे यह कहते हैं कि यदि राधा का कोई अस्तित्व होता तो क्या श्रीमद्भागवत जैसे महत्वपूर्ण वैष्णव ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं होता ? अब इस बात का उत्तर देने के चक्कर में आज के कुछ अभिनव कथावाचक बिना सम्प्रदायानुगमन के ही श्रीमद्भागवत में कहीं भी र और ध शब्द की संगति देखकर वहीं हठपूर्वक राधाजी को सिद्ध करने बैठ जाते हैं।  वर्तमान में आधावन्तः/राधावन्तः शब्द में वितण्डापूर्वक राधाजी को सिद्ध करने का कुप्रयास प्रसिद्ध है ही। और राधावान् बताया भी किसे जा रहा है ? कबन्धों को। देवता तो अमृतपान कर चुके थे, सो उनका कबन्धीकरण सम्भव नहीं, वैसे भी कबन्ध तो सुरों के नहीं, असुरों के ही बने हैं - कबन्धा युयुधुर्देव्याः। तो कुछ महानुभाव कबन्धों को ही राधाभक्त सिद्ध करने लग गए।  गुरुजनों ने व्याकरण पढा है, वर्षों तक पढ