राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है।


5-हमने अपना अपना मूलमंत्र "वसुधैवकुटुंबकं" क्यो त्याग दिया ?

मैं कल ही मेरे खिलाफ किसी हिंदू संन्यासी का लिखा हुआ एक पत्र करंट में छपा है, वह देख रहा था। उसने सरकार से प्रार्थना की है कि मैं देशद्रोही हूं मुझ पर अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिये उसकी बात ठीक है। सरकार को उसकी बात पर ध्यान देना चाहिये। मुझे देशद्रोही कहा जा सकता है, क्योंकि देशों में मेरा कोई भरोसा नहीं। न मुझे कोई देश है, न कोई परदेश है, मुझे यह सारी पृथ्वी अपनी मालूम होती है।

जिस संन्यासी ने यह कहा है... हिंदू मतांधता.. उसे अड़चन होती होगी कि मैं अपने को हिंदू घोषित क्यों नहीं करता। मैं नहीं हूं! मैं किसी सीमा में बंधा नहीं हूं। मस्जिद भी मेरी है और मंदिर भी मेरा है और गिरजा भी और गुरुद्वारा भी। और राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है। मैं तो मानता हूं कि राष्ट्रों के कारण ही मनुष्य—जाति पीड़ित है। राष्ट्र मिट जाने चाहिए। हो चुके बहुत राष्ट्रगान, उड़ चुके बहुत झंडे, हो चुकीं बहुत मूढ़ताएं पृथ्वी पर, अब तो मनुष्य की एकता स्वीकार करो। अब तो एक पृथ्वी और एक मनुष्य.। ये राष्ट्रीय सरकारें जानी चाहिये। और जब तक ये न जायेंगी तब तक मनुष्य की समस्याएं हल न हो सकेंगी, क्योंकि मनुष्य की समस्याएं अब राष्ट्रों से बड़ी समस्याएं हैं।

जैसे आज भारत गरीब है। भारत अपनी ही चेष्टा से इस गरीबी के बाहर नहीं निकल सकेगा, कोई उपाय नहीं है। भारत गरीबी के बाहर निकल सकता है, अगर सारी मनुष्यता का सहयोग मिले। क्योंकि अब मनुष्यता के पास इस तरह के तकनीक, इस तरह का विज्ञान मौजूद है कि इस देश की गरीबी मिट जाये। लेकिन अगर तुम अकड़े रहे कि हम अपनी गरीबी खुद ही मिटायेगे, तो तुम ही तो इस गरीबी को बनानेवाले हो,तुम मिटाओगे कैसे? तुम्हारी बुद्धि इसके भीतर आधार है, तुम इसे मिटाओगे कैसे? तुम्हें अपने द्वार—दरवाजे खोलने होंगे। तुम्हें अपना मस्तिष्क थोड़ा विस्तीर्ण करना होगा। तुम्हें मनुष्यता का सहयोग लेना होगा।

और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ भी देने को नहीं है। तुम्हारे पास कुछ देने को है दुनिया को। तुम दुनिया को ध्यान दे सकते हो। अगर अमरीका को ध्यान खोजना है तो अपने बलबूते नहीं खोज सकेगा अमरीका। उसे भारत की तरफ नजर उठानी पड़ेगी। मगर वे समझदार लोग हैं; ध्यान सीखने पूरब चले आते हैं। कोई अड़चन नहीं है उन्हें, कोई बाधा नहीं है।

बुद्धिमानी का लक्षण यही है कि जो जहा से मिल सकता हो ले लिया जाये। यह सारी पृथ्वी हमारी है। इसको खंडों में बांटकर हमने उपद्रव खड़ा कर लिया है। आज मनुष्य के पास ऐसे साधन मौजूद हैं कि अगर राष्ट्र मिट जायें, तो सारी समस्यायें मिट जायें। सारी मनुष्यता इकट्ठी होकर अगर उपाय करे तो कोई भी समस्या पृथ्वी पर बचने का कोई भी कारण नहीं है।

मगर पुरानी आदतें हैं। हमारा राष्ट्र—सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा…..! और इसी तरह की मूढ़ताएं और राष्ट्रों में भी हैं। उनको भी यही खयाल है। इन्हीं अहंकारों के कारण संघर्ष है। फिर संघर्ष और राष्ट्रों की सीमाओं के कारण मनुष्य की सारी शक्ति युद्धों में लग जाती है।

तुम्हें जानकर यह हैरानी होगी कि अब हमारे पास इतना युद्ध का सामान इकट्ठा हो गया है सारी दुनिया में, रूस और अमरीका में विशेषकर, कि एक—एक आदमी को एक—एक हजार बार मारा जा सकता है! हमारे पास एक हजार पृथ्वियों को नष्ट करने का साधन उपस्थित हो गया है; एक ही पृथ्वी है हालांकि। अंबार लगे जा रहे हैं अस्त्र—शस्त्रों के! और किसी भी दिन किसी एक पागल राजनीतिज्ञ की धुन और यह सारी पृथ्वी धूल का एक ढेर, राख का एक ढेर रह जायेगी।

और राजनीतिज्ञों से पागलपन की अपेक्षा की जा सकती है। और किससे करोगे? एक राजनीतिज्ञ के पागल होने से इस सारी दुनिया में ऐसा भयंकर उत्पात हो जायेगा कि तुम्हें सोचने—समझने का मौका भी नहीं मिलेगा। पांच—सात मिनट लगेंगे सारी दुनिया को राख हो जाने में। खबर भी नहीं पहुंच पायेगी और मौत आ जायेगी। जहां इतना भयंकर हिंसा का आयोजन हो गया हो, अब पुराने राष्ट्रों की धारणाएं काम नहीं दे सकतीं। अब खतरा है। इन्हीं राष्ट्रों के कारण ये अस्त्र—शस्त्र इकट्ठे हो रहे हैं—अपनी रक्षा करनी है..। कहीं दूसरा आगे न बढ़ जाये, उससे हमें आगे रहना है।

मनुष्य—जाति की अस्सी प्रतिशत क्षमता युद्ध में चली जाती है। यही अस्सी प्रतिशत क्षमता अगर खेतों में लगे,बगीचों में लगे, कारखानों में लगे, यह पृथ्वी स्वर्ग हो जाये! जो सपना तुम्हारे ऋषि—महर्षि देखते थे आकाश में स्वर्ग का, वह अब पृथ्वी पर बन सकता है, कोई रुकावट नहीं। लेकिन पुरानी आदतें...। यह हमारा देश, वह उनका देश। हमें भी लड़ना है,उन्हें भी लड़ना है। गरीब से गरीब देश भी अणुबम बनाने की चेष्टा में संलग्न हैं। भूखे मर रहे हैं, मगर अणुबम बनाना है! भारत जैसे देश के पीछे भी वही भाव है गहरे में। भूखे मर जायें, मगर अपनी शान रखनी है!

मैं तो राष्ट्रों में मानता नहीं। अगर मेरी सुनी जाये तो मैं तो कहूंगा कि भारत को पहला देश होना चाहिए जो राष्ट्रीयता छोड़ दे। यह अच्छा होगा कि कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि और गोरख का देश राष्ट्रीयता छोड़ दे और कह दे कि हम अंतर्राष्ट्रीय भूमि हैं। भारत को तो संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बन जानी चाहिए। कह देना चाहिए, यह पहला राष्ट्र है जो हम संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपते हैं—सम्हालो! कोई तो शुरुआत करे...। और यह शुरुआत हो जाये तो युद्धों की कोई जरूरत नहीं है। ये युद्ध जारी रहेंगे, जब तक सीमाएं रहेंगी। ये सीमाएं जानी चाहिये।

तो ठीक ही कहते हो, कह सकते हो मुझे देशद्रोही—इन अर्थों में कि मैं मानव—द्रोही नहीं हूं। लेकिन तुम्हारे सब देश—प्रेमी मानव—द्रोही हैं। देश—प्रेम का अर्थ ही होता है मानव—द्रोह। देश—प्रेम का अर्थ होता है खंडों में बांटो। तुमने देखा न, जो आदमी प्रदेश को प्रेम करता है वह देश का दुश्मन हो जाता है। और जो जिले को प्रेम करता है वह प्रदेश का भी दुश्मन हो जाता है। मैं दुश्मन नहीं हूं देश का, क्योंकि मेरी धारणा अंतर्राष्ट्रीय है। यह सारी पृथ्वी एक है। मैं बड़े के लिये छोटे को विसर्जित कर देना चाहता हूं।

और इन छोटे—छोटे घेरों ने, बागुडों ने मनुष्य को बहुत परेशान किया है। तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गये हैं। और पहले तो ठीक था कि तीर—कमान से चल रहे थे युद्ध, चलते रहते, कोई हर्जा नहीं था। थोड़े—बहुत लोग मरते थे तो कोई अड़चन नहीं हो जाती थी। अब युद्ध समग्र युद्ध है। अब यह पूरी मनुष्य—जाति की आत्महत्या है। अब सब जगह हिरोशिमा बन सकता है—किसी भी दिन, किसी भी क्षण..। इस युद्ध की विभीषिका को समझो और इसमें जितनी ऊर्जा जा रही है, वह सोचो। यही ऊर्जा सारी पृथ्वी को हरियाली से भर सकती है, वैभव से भर सकती है। मनुष्य पहली दफा आनंदमग्न हो नाच सकता है, प्रभु के गीत गा सकता है, ध्यान की तलाश कर सकता है।

लेकिन यह नहीं होगा। ये तुम्हारे तथाकथित देशप्रेमी,ये राष्ट्रवादी........।

राष्ट्रवाद महापाप है। इस राष्ट्रवाद के कारण ही दुनिया में सारे उपद्रव होते रहे। मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। मैं तो सारी सीमाएं तोड़ देना चाहता हूं। इस पृथ्वी पर जिन लोगों ने भी परमात्मा की छोटी—सी झलक पाई है उनकी कोई सीमाएं नहीं हैं। वे किसी देश, किसी जाति, किसी वर्ग, किसी संप्रदाय, किसी वर्ण के नहीं होते। वे सब के हैं, सब उनके हैं

ओशो
मरौ हे जोगी मरौ-6

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