श्राद्ध

श्राद्ध :--
[ आज 19 दिनों के बाद इन्टरनेट से जुड़ने का समय मिला है, वह भी टेबलेट पर (उत्तर बिहार के) धीमे इन्टरनेट से |]
कुछ लोगों ने सुझाव भेजे हैं कि श्राद्ध के भोज आदि में अनावश्यक खर्च न करें, न्यूनतम खर्च में अन्त्येष्टि कार्य संपन्न करें | कई लोग श्राद्ध के भोज का अर्थ नहीं समझते, पूँजीवादी अ-समाजशास्त्र और अनर्थशास्त्र के तथाकथित ज्ञाता यह नहीं बतलायेंगे कि सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर भोज की परम्परा प्राचीन  "वसुधैव कुटुम्बकं"  के दर्शन का अवशेष है जब दान से लाभ  मिलने पर लोगों का विश्वास था, आज दान के बदले  "बचत"  और बैंक-बैलेंस पर भरोसा है | सरकार भी गिफ्ट पर टैक्स ठोकती है, और बचत पर सूद देती है, जो प्राचीन धर्मशास्त्र के ठीक उलट है | धर्मशास्त्र उलटा था या आज का समाज उलटा हो गया है ? सत्य को जीवन में महत्व देने वाला सतयुग उलटा था या कलियुग का दुमुंहा सांप सरीखा मनुष्य उलटा हो गया है जो बातें तो बड़ी-बड़ी करता है लेकिन अपने सगे-संबंधियों  को भी उनकी मृत्यु होते ही कूड़ेदानी के लायक समझता है ? 
"श्राद्ध"  शब्द  'श्रद्धा'  से सम्बन्ध रखता है | जो लोग श्राद्ध में न्यूनतम खर्च की बात करते हैं उनके मन में दिवंगत आत्माओं के प्रति श्रद्धा नहीं है, क्योंकि जो दिखता है उसपर खर्च करने में विश्वास रखते है , और आत्मा तो दिखती नहीं, फिर उसके चक्कर में फालतू का खर्च क्यों ? ऐसे लोग न्यूनतम खर्च भी क्यों करते हैं, लाश को खुले में छोड़ दें, कम-से-कम गिद्ध तो हृदय से आशीर्वाद देंगे !! खर्च भी बचेगा | बहुत से लोग ऐसा करते भी हैं, यह दूसरी बात है कि ऐसे समुदाय का लोप होता जा रहा है, यद्यपि एक समय था जब प्राचीन विश्व के बड़े भूभाग पर उनके विशाल साम्राज्य थे - हख्मनी और सासानी | इस समुदाय के पास धन की कमी नहीं है, फिर भी जनसंख्या घटती जा रही है | जानते हैं लोप का कारण क्या है ?
मेरे बड़े भाई की श्राद्ध जैसे कार्यों में कोई आस्था नहीं थी | रूस, फ्रांस और कनाडा में दस वर्षों तक पढ़ाई की, प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का भी गहन अध्ययन किया, किन्तु जप-तप आदि से दूर रहे, भारतीय दर्शन की केवल किताबी समझ पा सके और उसी को सत्य समझते रहे | पिता और भाइयों का पैसा छल-बल से हड़पने को पुरुषार्थ मानते रहे, और स्वेच्छा से अपना अधिकार त्यागने वाले छोटे भाई को बेवकूफ समझते रहे (ब्रिटिश सरकार भी सन्यासियों को जनगणना में  "भिखाड़ी"  के अन्तर्गत रखती थी)| पिता के अन्त्येष्टि-संस्कार का उन्होंने बहिष्कार किया, यद्यपि सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के सैकड़ों नेताओं ने भी भाग लिया था | मेरा छोटा भाई पिता की अन्त्येष्टि में कर्ता बना | RAW का हाकिम है, पिता की तरह ही संस्कृत का भी ज्ञाता है | उसने केवल ग्यारह ब्राह्मणों को खिलाने की बात कही |
उसकी बात पर लोग भड़क गए, बोले अपने-अपने घरों से चावल-दाल लेकर आयेंगे और भोज करेंगे, दूसरे बहुत से गाँवों में ऐसा हुआ भी | मेरी जेब में तीन सौ से कुछ अधिक रूपये थे, क्योंकि थोड़ा भी पैसा इकट्ठा होने पर मैं सन्यासियों में बाँट दिया करता था, बैंक में कोई खाता रखता ही नहीं था | लोगों की बातें सुनकर मैंने घोषणा की कि सभी वर्णों के लोगों का भोज होगा और चारों ओर के गाँवों को न्यौता भेज दिया | मेरे छात्र ने कान में पूछा कि जेब में तो पाँच सौ का भी नोट नहीं है, ऐसी घोषणा किस बल पर कर रहे हैं ? मैंने उत्तर दिया कि जिस व्यक्ति के कारण लाखों घरों में चूल्हा जल रहा है उनकी अन्त्येष्टि में धनाभाव हो जाय तो मैं ऊपर वाले का जप करना छोड़ दूंगा, तुम देखते रहो कैसे भोज होता है | भोज मेरा विचार नहीं था, लोगों की इच्छा थी, जिसे ईश्वर ने पूरा किया | न कर्ज लिया, न कोई सम्पत्ति बेची | कुछ लोग विवाह, श्राद्ध, आदि में स्वेच्छा से जो (चुमाउन) देते हैं उसी से सारा भोज संपन्न हो गया, अन्त्येष्टि संस्कार के धार्मिक कर्म मेरे छोटे भाई ने अपने पैसे से किये | किन्तु लोग स्वेच्छा से कितना देंगे इस आशा में तो मैंने भोज की घोषणा नहीं की थी, मैने ईश्वर के भरोसे घोषणा की थी | भोज यदि धन की बर्बादी होती तो ईश्वर सहायता नहीं करते |
भर्तहरि ने लिखा था कि धन की तीन गतियाँ होती हैं -- दान, भोग और नाश | श्राद्ध के भोज में ये तीनों गुण होते हैं -- दान तो है ही, खाने वालों के लिए भोग है, और खिलाने वाले के धन का नाश है | किन्तु इस नाश के पीछे कुछ छुपा है जो बाहरी आँखों से नहीं दिखता |
मैंने भोज की व्यवस्था तो कराई, किन्तु बाल नहीं कटाए, क्योंकि मैं गृहस्थ नहीं हूँ | बड़े भाई के गलत व्यवहार के कारण अन्त्येष्टि में गया था ताकि छोटा भाई सुचारू रूप से कर्म कर सके, वरना अन्त्येष्टि में सम्मिलित होना मेरे लिए अनावश्यक था |
किन्तु इस बार बड़े भाई की अन्त्येष्टि में मैं कर्ता बना, सिर मुड़ाया, सिरपर सम्बन्धियों के ओले भी पड़े | किसी ने न तो मुझे कर्ता बनने के लिए कहा और न ही कर्ता बनने पर कारण पूछा | कहा इसलिए नहीं कि किस मुँह से कहते कि जिसने पिता को अग्नि देने से इनकार किया उसे मैं अग्नि क्यों दूँ ? पूछा इस कारण नहीं कि ऐसी बातों को समझने में अब लोगों की रुचि समाप्त हो गयी है, कुछ लोग परम्परा के नाम पर हिन्दू-संस्कारों को बिना समझे ढो रहे हैं, और कुछ लोग दकियानूसी रूढ़ी मानकर त्याग रहे हैं | वैदिक परम्पराओं को समझने से कोई लाभ होगा यह आस्था ही समाप्त होती जा रही है | बिना समझे त्यागने को प्रगति माना जाता है |
बड़े भाई के अग्नि संस्कार के समय महापात्र कर्ता (मुझ) को मन्त्र पढ़ा रहे थे | बीच में रोककर मैंने दूर के एक भतीजे को बुलाया और पण्डित से कहा कि अभी पढ़े गए मन्त्रों का अर्थ बताये | पण्डित को मेरे सामने बोलने में हिचक हुई कि कहीं गलती न पकड़ लूं, मुझे अर्थ कहना पड़ा, जिसपर पण्डित ने भी हामी भरी | मन्त्र का अर्थ यह था कि अपने गोत्र में सन्तति की वृद्धि के लिए मैं (कर्ता) यह अन्त्येष्टि कर्म कर रहा हूँ | भतीजे को मैंने कहा कि मैंने तो विवाह भी नहीं किया, मेरे दोनों भाइयों ने विवाह तो किया किन्तु किसी की सन्तान नहीं हुई (जिसकी भविष्यवाणी मैंने दशकों पहले कर दी थी)| फिर किसकी सन्तति की वृद्धि के लिए मैं यह कर्म कर रहा हूँ ? सन्यासियों को सन्तति की कामना नहीं होती, अतः अन्त्येष्टि कर्म से उन्हें छूट मिलती है |
मानवजाति के सात ही मूल गोत्र हैं, अन्य सभी गोत्र उन्हीं सप्तर्षियों से ही निकले हैं | सामान्य मनुष्य के बीज का प्रभाव कुछ ही पीढ़ियों तक रहता है, पितृपक्ष में सात वंशों तक और मातृपक्ष में छ वंशों तक | किन्तु गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों का प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता, महाकल्प के अन्त तक भी नहीं | अतः समगोत्री विवाह की धर्मशास्त्र अनुमति नहीं देता, यद्यपि नेहरु की जिद के कारण अम्बेडकर ने हिन्दू विवाह के क़ानून में समगोत्री विवाह को वैध ठहरा दिया, जबकि धर्मशास्त्र में संशोधन करने का नैतिक या धार्मिक अधिकार इन नेताओं को नहीं था, दोनों में से किसी को संस्कृत भी नहीं आती थी जिनमें धर्मशास्त्र के ग्रन्थ लिखे गए थे |
स्वगोत्र-सन्तति की वृद्धि का व्यापक अर्थ है | लगभग एक अरब लोग एक मौलिक  गोत्र के हैं, भले ही आज उनके सम्प्रदाय बदल गए हों और वे भूल गए हों कि वे भी आदिम ऋषियों की ही सन्तति हैं | श्रद्धा और विधि के सहित श्राद्ध-कर्म किया जाय तो स्वगोत्र-सन्तति की वृद्धि होती है, जिसका अर्थ यह है कि उस गोत्र में जो धार्मिक स्वभाव के लोग निकटतम सम्बन्ध वाले हैं उन्हें अधिक लाभ पंहुचता है, भले ही कर्ता का अपना कोई निजी परिवार न हो | मृत जीवात्मा को अपने कर्मों का फल मिलता है, श्राद्ध-कर्म करने का फल मृत व्यक्ति को नहीं मिलता, वह फल तो कर्ता को प्राप्त होता है, और कर्ता यदि अविवाहित हो तो निकट सम्बन्धियों को फल मिलता है | मृतात्मा को श्राद्ध का केवल एक ही फल प्राप्त होता है - प्रेतयोनि में भटकने से मुक्ति | प्रेत भी उसी को धरता है जिससे प्रेम होता है, प्रेम और प्रेत एक ही धातु से बने हैं | मेरे बड़े भाई को मुझसे कोई स्नेह नहीं था, केवल मेरे धन से प्रेम था | अतः यदि उनका श्राद्ध नहीं होता तो वे प्रेत बनकर उन्हीं लोगों को धरते जो मेरे विरुद्ध उनको आजीवन भड़काते रहे थे | जीते जी मेरा धन हड़पा और मरने के बाद श्राद्ध का पूरा खर्च मेरे सिरपर डाल दिया, भाभी ने भी झूठ कह दिया कि एक पैसा भी भाई साहब छोड़कर नहीं गए, जबकि उनके पैसे का पूरा हिसाब मुझे पता था | किन्तु मैंने बहस नहीं की | मेरे एक चाचा ने गाँव में हमलोगों की सारी पुश्तैनी सम्पत्ति हड़पकर हमें गाँव से निकालने में पूरी शक्ति लगा दी थी, किन्तु उनके मरने पर पूरे गाँव को मैंने श्राद्ध का भोज खिलाया, उनका बेटा गाँव आया ही नहीं |
मुझे मूर्ख समझने में मेरे बड़े भाई सही थे न !! गृहस्थों में कितनी अक्ल होती है -- मेरे जैसे मूर्खों का धन हड़प कर घर से निकाल भी देते हैं और फिर गृहस्थों का अपना सारा खर्च मेरे जैसे मूर्खों के ही सिरपर डाल देते हैं ! आज ही एक सम्बन्धी को मैंने कहा कि मधुमेह से मुक्ति पाने के लिए हीरे और पुखराज जड़ी अंगूठियाँ शुक्र और बृहस्पति की शान्ति हेतु लाभ देंगी (वे करोड़पति हैं), तो उत्तर मिला कि मैं अपने पैसे से ऐसी अंगूठियाँ भिजवा दूँ (यदि मैं ऐसा करूँ भी तो उनको कोई लाभ नहीं होगा, और तब मुझे मूर्ख कहा जाएगा)!!
अब समझ में आया न कि श्राद्ध-कर्म करने के बजाय गिद्धों के हवाले लाश किया जाय तो सन्तति का नाश होता है और बड़े-बड़े साम्राज्य विलुप्त हो जाते हैं ! "दूसरों" का वंश चले इसलिए मैंने कर्ज लेकर इस बार श्राद्धकर्म किया, नोटबन्दी के कारण कर्ज लेना पड़ा | यह  "दूसरा"  कौन है, कोई बताएगा ? मुझे तो कोई भी "दूसरा"  नहीं लगता ; बुद्धू हूँ न !
इस बार पैसे की दिक्कत थी अतः पूरे गाँव को भोज नहीं दे पाया | पैसा होता तो पूरे संसार को खिलाता | श्राद्ध का भोज धन की बर्बादी है, और लफंगों की कॉकटेल पार्टी में दुम वाले मुर्गे धन का सदुपयोग करते हैं ??? भोज नहीं दें तो धन का अचार डाले क्या ? श्राद्ध का कर्म और सामर्थ्यानुसार भोज करने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है, समूचे वंश (गोत्र) की वृद्धि और समृद्धि होती है |
जिन सम्प्रदायों ने वैदिक श्राद्ध को त्याग दिया था उनके सम्पूर्ण लोप का समय अब आ रहा है, क्योंकि उन सम्प्रदायों में पुनर्जन्म नहीं होता, प्रेतयोनि में जाना पड़ता है जिस कारण प्रेतलोक हाउसफुल हो गया है |
[ तेरहवीं या सत्रहवीं भी लोकाचार ही हैं | द्वादशा तक श्राद्धकर्म है जिसके दौरान कर्ता और पाचक को जीभ पर नियंत्रण रखना पड़ता है, केवल हविष्यान्न खाने की छूट रहती है, अतः तेरहवीं को असुरों ने एन्द्रिक भोग-विलास का आयोजन जोड़ दिया, मांसाहारियों ने माँस-मछली को भी तेरहवीं का हिस्सा बना दिया, जबकि द्वादशा तक नमक-तेल-मसाला भी वर्जित है | ]

गया के एक पंडा परिवार दाढ़ीवाले के बड़े भाई देवनाथ मेहरबार जी ने चर्चा में अपने यजमानों के विषय बताया के पंजाब में चार दिन में ही शॉर्टकट में श्राद्व कर्म निपटा देते हैं इसलिए उनके पास पंजाब से आये यजमानों में अधिकांश प्रेतबाधा से पीड़ित होते हैं।

अनार्यसमाज के मूर्खों को मैं ब्लॉक करता हूँ, क्योंकि इनके मस्तिष्क में जेहादियों वाला उन्माद और झूठ भरा रहता है जिसका कारण इनकी कुंडलियों में धर्मविरोधी ग्रहयोग है | चूँकि ये लोग ज्योतिष के भी विरोधी हैं, अतः ग्रहशान्ति द्वारा इनका दिमाग भी ठीक करना असम्भव है | ऐसा ही एक मूर्ख है अनिल गोयल जिसके कुतर्कों को देखकर आश्चर्य होता है कि किसी मनुष्य की खोपड़ी में इतनी मूर्खता कैसे समा सकती है ! महाभारत का झूठा प्रमाण दे रहा है : श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का भोजन इस कारण ठुकराया जैसे कि दुर्योधन का बाप मर गया था जिसके श्राद्ध में दुर्योधन मृत्युभोज दे रहा था !! धर्मग्रंथों में हिन्दू संस्कारों की बातें कर रहा है, किन्तु इस मूर्ख को पता ही नहीं है कि किन धर्मंग्रन्थों को हिन्दू संस्कारों का आधार माना जाता रहा है | हिन्दू संस्कारों के मुख्य आधार हैं विभिन्न गृह्य-सूत्र जो प्रत्येक गोत्र के लिए पृथक-पृथक हैं, और छ वेदांगों में प्रमुख "कल्प" के अन्तर्गत आते हैं | अनार्यसमाज ऐसा मूर्ख समाज है जो छ वेदांगों में कुछ को मानता है, जैसे कि व्याकरण, शिक्षा, छन्द तथा निरुक्त, और कुछ को ठुकराता है, जैसे कि ज्योतिष | ऐसा मनमानापन अहंकार और मूर्खता का सूचक है | "मृत्युभोज" शब्द ही इन मूर्खों का खोजा हुआ है | श्राद्ध का भोज मरने की प्रसन्नता में नहीं होता, मृतात्मा की प्रेतयोनि से मुक्ति के अनुष्ठान का हिस्सा है | शास्त्र के अनुसार केवल ब्राह्मण-भोज का विधान है, किन्तु आजकल सच्चे ब्राह्मण दुर्लभ हैं | प्राचीन शास्त्रों का संकलन करके मध्ययुग में कतिपय विस्तृत ग्रन्थ बनाए गए जो इस संस्कारों के विधान तथा प्राचीन शास्त्रीय प्रमाण विस्तार से बतलाते हैं, जैसे कि कृत्यसार-समुच्चय, धर्मसिन्धु , निर्णयसिन्धु आदि | जो अपने सगे-सम्बन्धियों को प्रेतयोनि में भेजने की जिद पाले हुए हैं, उनसे दूर रहें | खुलकर वेद का विरोध करने वालों से अधिक बुरे वे लोग हैं जो वेद के नाम पर वैदिक धर्म को नष्ट करना चाहते हैं - ये अनार्यसमाजी आस्तीन के साँप हैं | आजकल इनलोगों का मुख्य लक्ष्य केवल सनातन धर्म को मिटाना है |

बारह दिनों तक मिर्च-मसाला-नमक आदि से दूर रहने के कारण तेरहवें दिन असुरों को भोग-विलास की तीव्र इच्छा होती है, क्योंकि स्वेच्छा से तो बारह दिनों तक हविष्यान्न खाया नहीं, लोगों के दवाब के कारण परम्परा समझकर ऐसा किया |

लोग दूसरों में दोष ढूँढने के लिए इतने उतावले रहते हैं कि इस जोश में लेख ठीक से पढ़ने का होश ही नहीं रखते । उपरोक्त लेख में साफ़ लिखा है कि श्राद्ध का फल है सन्तान की वृद्धि जबकी मैंने विवाह ही नहीं किया, और उपरोक्त श्राद्ध से जिस गोत्र की वृद्धि होगी उसके लोग मुझे लूटने का प्रयास करते रहे हैं यह भी लिखा हुआ है, अतः श्राद्ध करने से मुझे किस पुण्य की प्राप्ति होगी जिसके क्षय की भविष्यवाणी जितेश मिश्र कर रहे हैं? बिचारे के माथे में लेख नहीं घुसा, क्योंकि जो लोग केवल स्वार्थवश ही सारे कार्य करते हैं वे कल्पना ही नहीं कर सकते कि संसार में कोई व्यक्ति निष्काम कर्म भी कर सकता है । संसार में नास्तिकों और दुष्टों सहित सभी मानवों की संख्या बढ़ती रहे इसकी इच्छा ईश्वर रखते हैं तो उनको कौन सा पुण्य होता है ? मोक्षमार्गी के लिए पुण्य और पाप दोनों बराबर हैं क्योंकि पुण्य का फल भोगने के लिए भी मोक्ष त्यागना पड़ता है । किन्तु दुष्टों के पल्ले धर्म और मोक्ष की बातें नहीं पड़ेगी ।


By Vinay Jha 

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