चैतन्य ब्रह्माण्ड का सप्तवायु


चैतन्य ब्रह्माण्ड का सप्तवायु

प्रवह आदि सप्तवायु के बारे में इण्टरनेट पर पूर्णतया भ्रामक सूचनायें सभी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं । इन तथाकथित हिन्दुओं में इतना विकासवादी अहङ्कार है कि ‘पिछड़े’ युग के वेदव्यास जी द्वारा सङ्कलित पुराणों तथा महाभारत को देखने का प्रयास भी नहीं करते और अपनी मनगढ़न्त बकवास को वेदव्यास जी के नाम पर उद्धृत करते रहते हैं । अपनी बकवास करनी ही है तो अपने नाम से करें,महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर झूठ बकना ऋषियज्ञ का विलोम फल देता है,किन्तु विकासवादियों को पाप−पुण्य भी ऋषियों के ‘पिछड़े’ युगों की बकवास लगती हैं । सप्तवायु का क्रम भी ये लोग गलत बताते हैं और अर्थ भी । पुराणों की तुलना में महाभारत अधिक विस्तार से इस विषय की जानकारी देता है । महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय−३१५ में सप्तवायु का क्रम निम्न है और मूल श्लोक संलग्न स्क्रीनशॉट में है जिसका अर्थ गीताप्रेस की हिन्दी टीका में देखें । 
संलग्न स्क्रीनशॉट के संस्कृत पाठ से गीताप्रेस के संस्कृत पाठ में कई स्थलों पर मैंने महत्वपूर्ण अन्तर देखे हैं,गीताप्रेस का मूल संस्कृत पाठ बेहतर है । श्लोक−३६ से प्रवहादि सप्तवायु का वर्णन आरम्भ है ।

१ प्रवह
२ आवह
३ उद्वह
४ संवह
५ विवह
६ परिवह
७ परावह

श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चदशाधिक−त्रिशततमोऽध्यायः ३१५॥१−५७॥

( अभी विस्तार से लिखने का समय मेरे पास नहीं है । महाभारत में भी “पृथिवी” वैदिक शब्दावली वाली अन्तरिक्ष में विस्तृत वस्तु ही है,"earth" वाली पृथ्वी नहीं ।)
चैतन्य ब्रह्माण्ड के सप्तवायु — २

पिछले पोस्ट का गीताप्रेस−संस्करण संलग्न है । अनुवादक से कहीं−कहीं गम्भीर त्रुटियाँ हुई हैं ।

उदाहरणार्थ,प्रथम वायु है “प्रवह” जो प्रथम मार्ग से प्र−वहन करता है । किसको वहन करता है?पृथ्वी से ऊपर जो कुछ भी चलायमान है उन सबको । जैसे कि “धुँध एवं उष्मा से उत्पन्न मेघों तथा उन मेघों के परस्पर संघातों को (जिनमें से सबसे प्रसिद्ध संघात है मानसून)” ।

(अभ्र का अर्थ मेघ है । संघात का अर्थ ओला नहीं होता,और ओला की गति प्रवह पर नहीं बल्कि गुरुत्व एवं वायु दोनों के सम्मिलित प्रभाव पर निर्भर करता है । गीताप्रेस का अनुवाद यहाँ गलत है ।)

यहाँ “धूम” का अर्थ नमी से युक्त धुँध है,न कि सूखा धूँआ (अग्नि से उत्पन्न सूखा धूँआ ऊपर उठता है,यद्यपि उसपर वायु का भी प्रभाव पड़ता है ।) । ऐसे विशाल संघातों को प्रवहवायु “प्रेरित” करता है । किधर प्रेरित करता है?विधाता द्वारा निर्दिष्ट पथों पर । पुराणों और सिद्धान्त ग्रन्थों में वर्णित है कि ग्रहों की गति को भी प्रवहवायु ही प्रेरित करता है,और यह भी उल्लेख है कि प्रवहवायु की गति सदैव सम रहती है । ग्रहों की वास्तविक गति सम है किन्तु ग्रहकक्षाओं की जटिलता के कारण हमें विषम गतियाँ दिखतीं हैं । इसी प्रकार मेघों की गतियाँ भी जटिल पथों के कारण हमें विषम प्रतीत होती हैं । किन्तु ज्योतिषशास्त्र सिद्ध करता है कि मेघों की गति भी ग्रहों की गतियों पर ही निर्भर है,अतः दोनों प्रकार की गतियाँ प्रवह पर ही आश्रित हैं और दोनों गतियाँ वस्तुतः सम ही हैं ।

ध्यातव्य है कि से सातों वायु दैत्यों की माता दिति के पुत्र हैं । इनके सात गोपनीय मार्ग हैं जो १६०० योजन की हमारी पृथ्वी से परे ५० करोड़ योजन की विशाल पृथिवी में फैले हुए हैं । अतः सप्तवायु को केवल भौतिक ऑक्सीजन नाइट्रोजन आदि तक सीमित करना भ्रामक है । वे दिव्य हैं ।

गीताप्रेस के अनुवादकों की दृष्टि इतनी गहन नहीं होती,और अगर हो भी जायें तो अधिकांश पण्डित अपनी कलियुगी भ्रान्तियों अथवा अहं के कारण विवाद खड़ा कर देंगे । सबसे अधिक विवाद तो आधुनिकतावाद के “मरीज” करेंगे । अतः गीताप्रेस की भी विवशता है । गीताप्रेस के अनुवाद को इसी प्रकार धात्वार्थ एवं समस्त प्राचीन शास्त्र के आलोक में सुधारकर पढ़ें ।

चैतन्य ब्रह्माण्ड के सप्तवायु — ३

प्रथम मार्ग से गमन करने वाले प्रवह वायु द्वारा प्रेरित हिन्द महासागर की भाप से उत्पन्न मेघों के संघात,जिसे आजकल मानसून कहा जाता है,का जोर जुलाई में सर्वाधिक रहता है जब अमरीका की National Centers for Environmental Prediction (NCEP) द्वारा भारतीय महासागर की हवाओं का मानचित्र संलग्न है ।

यह चित्र दिखाता है कि भारतीय महासागर के दक्षिणी भाग की हवायें नमी लेकर मेरु पर्वत की ओर खिंचती चली जाती हैं और फिर अफ्रीका न जाकर उधर से भारत का भरण करने के लिए पश्चिमी (अरब) सागर तथा पूर्वी सागर (बंगाल की खाड़ी) की ओर प्रवह द्वारा प्रेरित कर दी जाती हैं ।

इन हवाओं की गति हर मास एक जैसी नहीं रहतीं । विस्तृत जानकारी के लिए https://www.whoi.edu/cms/files/schott_mccreary_41948.pdf पर पूरा शोधलेख पढ़ सकते हैं ।

मानसून एक वायु−संघात का नाम है जिस कारण भारत एवं आसपास वर्षा होती है । अरबी शब्द “मौसम” का यह पुर्तगाली अपभ्रंश है । अरब व्यापारियों से सीखकर पुर्तगाली जहाज मानसूनी हवाओं का सहारा लेकर भारत की ओर व्यापार करने आते थे । मानसूनी हवाओं का सही ज्ञान होने पर ये जहाज हिन्देशिया और चीन तक चले जाते थे । चीन आदि पूर्वी एशिया में भी मानसून के कारण ही वर्षा होती है । मानसूनी वर्षा सबसे अधिक चतुर्थ हिन्दू सौरमास (जलवर्षक चन्द्रमा के चतुर्थ कर्कमास) में होती है जो लगभग मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक आजकल रहता है । सबसे अधिक मानसूनी वर्षा जिस नक्षत्र में होती है उसका नाम इसी कारण पुष्य है और इसी कारण उसे शुभ भी माना जाता है ।

आधुनिक वैज्ञानिक वर्षा जैसी परिघटनाओं का कारण पृथ्वी पर होने वाली घटनाओं में ढूँढने का असफल प्रयास करते हैं,जबकि वर्षा का कारण प्रवहवायु है जिसका “प्रथम मार्ग” ५० करोड़ योजन की विशाल पृथिवी में जटिल अदृश्य पथों में है । उन पथों को हम देख नहीं सकते किन्तु उन्हीं के कारण अभौतिक ग्रहों की गतियाँ होती हैं जो वर्षा कराते हैं । प्रवहवायु की गति सर्वत्र समान रहती है किन्तु त्रिविमीय अन्तरिक्ष में कोणीय झुकावों के कारण हमें असमान गतियों का भ्रम होता है ।

मानसून जनित वर्षा का मुख्य मार्ग बंगाल से लेकर मूलस्थान (मुल्तान) की ओर जाता है किन्तु अरब सागर तथा बंगाल खाड़ी की समस्त मानसूनी हवायें जिस “स्थल” की ओर प्रवह द्वारा प्रेरित की जाती हैं वहाँ पँहुचते−पँहुचते सारे मेघ लगभग सूख जाते हैं जिस कारण वहाँ मरुस्थल है । मरुस्थल का संक्षेप है “स्थल” जिसका अपभ्रंश है “थार” । समुद्र से प्रवह थार की ओर खिंचता है किन्तु थार में जल नहीं बरसता । मानसून आरम्भ होता है मेरु से और अन्त होता है अजमेरु प्रदेश में । मेरु से मरु तक मानसून का मौसम है । किन्तु इसका कारक शनि के पार भकक्षा तक बहने वाला प्रवहवायु है ।

Questions: श्री राम जो बाण समुद्र को सुखाने के लिए चलाने जा रहे थे, वही बाण उन्होंने समुद्र की विनती पर उत्तर दिशा स्थित किसी देश पर छोड़ दिया। इससे वह देश सूख कर मरू बन गया। आपके विचार में यह कौन सा क्षेत्र हो सकता है? इसका अर्थ यह भी हुआ कि श्री राम के बाण ने वायु की गति ही बदल डाली?
Answer: प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने की विधि मैंने कई बार लिखी है जिसपर आपने ध्यान नहीं दिया ।
प्रस्तुत प्रसङ्ग में प्रथम उल्लेखनीय बिन्दु यह है कि “उत्तर” का अर्थ यहाँपर “उत्तरदिशा” नहीं है,बल्कि “पश्चात” है । अर्थात् “समुद्र के पश्चात वह मरुभूमि है” । यदि समुद्रदेव के कथन का “उत्तरदिशा अर्थ लगायें तो गलत है क्योंकि तब श्लोक के अनुसार यह मानना पड़ेगा कि भारत और लङ्का के बीच जिस समुद्र की बात हो रही है उससे उत्तरदिशा में तमिल क्षेत्र में वह “द्रुमकुल्य” प्रदेश होता,क्योंकि श्लोक में समुद्रदेव स्पष्ट कह रहे हैं कि “मेरे उत्तर द्रुमकुल्य नाम का पुण्यतर (प्रदेश) है” । वहाँ के समुद्र से उत्तरदिशा में तमिलनाडु अथवा केरल है,राजस्थान नहीं ।
द्वितीय बिन्दु यह है कि ग्रन्थ के अनुसार द्रुमकुल्य प्रदेश समुद्रतट पर था जहाँ के आभीर समुद्र का जल पीते थे ( ! ) । संसार में अनेक मरुस्थल समुद्रतट पर हैं किन्तु थार अथवा कच्छ महाभारत काल में भी मरुस्थल नहीं था जैसा कि महाभारत में विस्तार से बलराम जी की तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में वर्णित है । ईसापूर्व ३२वीं शती में सरस्वति नदी की घाटी में अनेक सरोवर,वन और हरे−भरे तीर्थों का वर्णन महाभारत में है । हड़प्पाई युग में भी वनों के प्रमाण मिले हैं,मरुस्थल के नहीं,यद्यपि सरस्वति सूखने लगी थी ।
तृतीय बिन्दु यह है कि ग्रन्थ के अनुसार बाण चलने के पश्चात द्रुमकुल्य प्रदेश का नाम “मरुकान्तार” हो गया जहाँ के सारे भूगर्भ जलस्रोत सूख गये किन्तु श्रीराम ने वरदान दिया कि वह प्रदेश पशुसम्पन्न,अल्परोगयुक्त,फलमूलरस से युक्त,स्निग्ध पदार्थों और दूध सुगन्ध औषधियों से सम्पन्न रहेगी । “कान्तार” का अर्थ है “कमनीय वन” । बिना जलस्रोत वाला सुन्दर वन संसार में कहीं नहीं है जहाँ जलभाव होने पर भी पशुसम्पन्न,अल्परोगयुक्त,फलमूलरस से युक्त,स्निग्ध पदार्थों और दूध सुगन्ध औषधियों से सम्पन्न मरुभूमि हो । अतः वह प्रदेश दिव्यास्त्र एवं श्रीराम के वरदान के कारण कोई विचित्र भूभाग था । आज ये एक सहस्र वर्ष पहले के ग्रन्थों में वर्णित क्षेत्रों की पहचान ठीक से नहीं हो पाती है क्योंकि पिछले एक सहस्र वर्षों के नरसंहार,आगजनी,लूटपाट आदि के कारण भारतीय संस्कृति के बहुत से प्रमाण नष्ट हो चुके हैं । अतः पौने नौ लाख वर्ष पहले के रामायणकालीन भूगोल पर विश्वासपूर्वक निर्णय करना खतरनाक है । लगता है बाइबिलभक्तों की तरह आप भी विश्व इतिहास को ४००४ ईसापूर्व से पहले नहीं जाने देना चाहते — अचेतन तौर पर ।
“द्रुमकुल्य” प्रदेश समुद्र की कुक्षि थी,अर्थात् तीन ओर भूमि से समुद्र घिरा था । ऐसा मरुस्थल भारत में नहीं है । थार में मरुस्थल का आरम्भ ईसापूर्व तीसरी सहस्राब्दी में हुआ । कलियुग आरम्भ होने पर सरस्वति सूखने लगी और कलियुग के ५ सहस्र वर्ष बीतने पर गङ्गा का सूखना आरम्भ हुआ — टिहरी डैम बनाकर ।
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चैतन्य ब्रह्माण्ड — २४

पिछले पोस्ट में जो अमरीकी वैज्ञानिकों का चित्र था उसके एक पहलू की व्याख्या भौतिकविज्ञान द्वारा सम्भव है किन्तु अन्य पहलुओं की व्याख्या केवल सूर्यसिद्धान्त द्वारा ही सम्भव है जिस कारण आधुनिक वैज्ञानिक उन पहलुओं पर या तो मौन रहते हैं या मनमानी बकवास करते हैं ।

पहले उस पहलू की बात कर लें जिसकी व्याख्या दृक्पक्षीय विज्ञान कर सकता है । चित्र में विषुवत् रेखा से दक्षिण की जुलाई मास की हिन्द महासागरी हवायें औसतन पश्चिमोत्तर की ओर बहती हैं किन्तु उसी काल में विषुवत् रेखा से उत्तर की हवायें औसतन पूर्वोत्तर की ओर बहती हैं । विषुवत् के पास दोनों ओर की हवाओं की दिशा सर्वाधिक उत्तरमुखी रहती हैं किन्तु जैसे जैसे विषुवत् से दूर जाते हैं वैसे वैसे हवाओं की दिशा उत्तर में ईशानमुखी तथा दक्षिण में वायव्यमुखी होती जाती हैं । इसकी व्याख्या दृक्पक्षीय विज्ञान कर सकता है । जुलाई में उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म रहता है और दक्षिणी गोलार्ध में शीत । ठण्डी हवायें अपेक्षाकृत भारी होने के कारण समुद्रतल के पास रहती हैं जिस कारण पृथ्वी के दैनिक घूर्णन के कारण घूर्णन की दिशा के विपरीत (पश्चिम की ओर) बहती हैं । किन्तु गर्म हवायें हल्की होने के कारण ऊँचाई पर चली जाती हैं जिस कारण पृथ्वी के दैनिक घूर्णन का उनपर प्रभाव अल्प हो जाता है और पृथ्वी के सतह की तुलना में वे पृथ्वी के दैनिक घूर्णन की दिशा के विपरीत से पिछड़ती दिखती हैं । पृथ्वी के दैनिक घूर्णन की दिशा पश्चिममुखी है जिस कारण उत्तरी गोलार्ध की गर्म हवायें पूर्व की ओर जाती हैं । दक्षिण में शीत और उत्तर में ग्रीष्म के कारण जुलाई की हवायें दक्षिण के अधिक घनत्व वाले वायुमण्डल से उत्तर के विरल वायुमण्डल की ओर भी आने का प्रयास करती हैं । अतः उत्तर तथा पूर्व की ओर उक्त दोनों गतियों का वेक्टर फल कोणीय गति है — उत्तर में ईशानमुखी और दक्षिण में वायव्यमुखी ।

[ प्राचीन असुरों ने वैदिक तन्त्र का दुरुपयोग किया और उसे गुप्त बनाने का प्रयास भी किया जिस कारण नकली सेमेटिक व्याकरण बनाया गया । इसमें कल्पित किया गया कि सभी शब्दों का मूल तीन व्यञ्जनों का मूलधातु होता है जिसमें जहाँ−तहाँ स्वर जुड़ने पर विभिन्न शब्द बनते हैं । जैसे कि “क्+त्+ब्” (KTB) एक मूलधातु हुआ जिसमें स्वर लगाने पर किताब,कुतुब,कातिब आदि शब्द तो बनते ही हैं,म अथवा मु लगाकर मकतबा जैसे शब्द भी बनते हैं । इसी नकली सेमेटिक व्यकरण के कारण सेमेटिक भाषाओं का सम्बन्ध आर्य भाषाओं से जोड़ना सम्भव नहीं हो सका है,जबकि सारे भाषाविद् मानते हैं कि दोनों परिवारों के ९०% से अधिक मूलधातु एक ही स्रोत से निकले हैं और परस्पर सम्बद्ध हैं । समस्या यह है कि सेमेटिक में यहूदियों और मुसलमानों की भाषाओं के प्राचीनतम प्रमाण उनके धर्मग्रन्थों के हैं जिस कारण उन भाषाओं पर निष्पक्ष वैज्ञानिक अनुसन्धान करने का साहस भाषाविदों में नहीं है । आर्य परिवार के प्रचीनतम साक्ष्य भी वेद के हैं,किन्तु आधुनिक युग में दासता के कारण वेद के साथ मनमाना छेड़छाड़ किया गया । यही कारण है कि संस्कृत “उष्म” में नकली अरबी उपसर्ग “म” लगाकर “मौसम” और फिर उससे पुर्तगाली अपभ्रंश “मानसून” बना तो किसी में यह कहने का साहस नहीं हुआ कि उष्म मास की उष्म हवाओं को ही मानसून कहा गया । ]

इन मानसूनी हवाओं का प्रवेश केरल में होता है किन्तु उत्तर भारत की मानसूनी वर्षा बंगाल से आरम्भ होकर क्रमशः पंजाब की ओर अग्रसारित होती है । चित्र से स्पष्ट है कि अरब सागर से मानसूनी हवायें गुजरात और सिन्ध की ओर भी आती हैं किन्तु वहीं थार भी है जहाँ अपवादस्वरूप ही वर्षा हो पाती है,वह भारत का सर्वाधिक शुष्क प्रदेश है । भौतिकविज्ञान में इसकी कोई व्याख्या नहीं है । ऐतिहासिक प्रमाण भी बताते हैं कि ईसापूर्व दो सहस्र वर्ष से पहले वहाँ हरे-भरे वन थे जिनमें हाथी और गैण्डे विचरते थे और जलपूरित सरस्वति बहती थी । सरस्वति नदी के सूखने के मनमाने कारण बताये जाते हैं किन्तु इन “विशेषज्ञों” के पास कोई प्रमाण नहीं है जिस कारण वे आपस में इन बकवासों को लेकर झगड़ते रहते हैं । कभी कहते हैं कि वनों के कटने पर वर्षा घट गयी,तो कभी कहते हैं कि मानसून का रुख ही बदल गया!मानसून का रुख तभी बदल सकता है जब पृथ्वी की गति में ही भयङ्कर परिवर्तन हो जाय,और विशाल स्तर पर वनों को काटा गया इसका न तो प्रमाण है और न ही आधुनिक काल से पहले भारत के लोग वनों को नष्ट करते थे ।

तो फिर सरस्वति क्यों सूखी?और उसकी घाटी मरुस्थल में क्यों बदल गयी?इसकी व्याख्या संहारात्मक कालचक्र द्वारा ही सम्भव है जिसमें ईसापूर्व २२०० में कालचक्र का मध्यखण्ड आरम्भ हुआ — २००० ईस्वी में कालचक्र के समापन से ४२००० वर्ष पहले वर्तमान कालचक्र का आरम्भ हुआ और लॉगेरिथ्मिक पैमाने पर उसके तीन खण्डों में से मध्य खण्ड का आरम्भ २००० ईस्वी से ४२०० वर्ष पहले एवं अन्त २००० ई⋅ से ४२० वर्ष पहले हुआ । इस मध्य खण्ड में भारत का पतन हुआ,समूची पृथ्वी में धर्म का ह्रास हुआ,और मध्यखण्ड का अन्त होने पर आधुनिक विकसित देशों का उत्थानकाल आरम्भ हुआ जो कालचक्र का अन्तिम खण्ड है । धर्म का ह्रास हुआ तो सरस्वति सूखी,यद्यपि सरस्वान् (सिन्धु ⁄ हिन्द) महासागर से आने वाले मानसून की शक्ति पूर्ववत् ही थी । किन्तु उस शक्ति का लाभ भारत को मिलना घटने लगा । सिन्धु महासागर की नमी से भारतवर्ष की वर्षा होती है जिस कारण तीन सप्तसिन्धुओं को जल की आपूर्ति होती है । किन्तु धर्म का पतन हुआ तो ऋग्वेद (२⋅४१⋅१६-१८) में जिस सरस्वति को “नदियों में सर्वोत्तम” कहा गया वह सूखने लगी और संसार में धर्म के सबसे शक्तिशाली देश भारतवर्ष का पतन होने लगा :-

अम्बि॑तमे॒ नदी॑तमे॒ देवि॑तमे॒ सर॑स्वति ।
अ॒प्र॒श॒स्ता इ॑व स्मसि॒ प्रश॑स्तिमम्ब नस्कृधि ॥१६॥
त्वे विश्वा॑ सरस्वति श्रि॒तायूं॑षि दे॒व्याम् ।
शु॒नहो॑त्रेषु मत्स्व प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥१७॥
इ॒मा ब्रह्म॑ सरस्वति जु॒षस्व॑ वाजिनीवति ।
या ते॒ मन्म॑ गृत्सम॒दा ऋ॑तावरि प्रि॒या दे॒वेषु॒ जुह्व॑ति ॥१८॥

वेद भी वही है,मन्त्र भी वही हैं,किन्तु उनका अस्तित्व केवल पुस्तकालयों में बचा है,मानवों में नहीं;जिस कारण सरस्वति धर्महीन संसार के लिए अदृश्य हो गयी । आज से २५ वर्ष पहले सिर के बल नीचे गिरने पर बहुत देर तक मैं अचेत रहा और जब चेतना आयी तो गर्दन टूटने के कारण मैं उठने योग्य नहीं था,तब इसी मन्त्र−१६ ने मेरे शरीर को ठीक किया । “इ॒मा ब्रह्म॑ सरस्वति ⋅⋅⋅” का लाभ केवल ब्रह्मचारियों के लिए है । किसी युग में लोग ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का पालन करने पर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे जिस कारण गृहस्थ आश्रम में भी धर्म के अनुसार चलने पर उनकी गिनती ब्रह्मचारियों में ही होती थी जैसा कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बारे में बताया । अर्जुन भी अपने युग में अपवाद थे क्योंकि धर्म का अधिकांश समाज नष्ट कर चुका था और कलियुग दस्तक दे रहा था ।

कालचक्र के तीन खण्डों को स्थूल रूप से त्रिकोण में दो आड़ी रेखाओं को डालकर दिखाने की परम्परा है । संहारात्मक काल की शक्ति ही काली हैं । त्रिकोण स्थूल प्रतीक है । कालचक्र का वास्तविक रूप स्यूडोस्फेयर वाला होता है । उसका विस्तृत वर्णन आगे करूँगा । परन्तु उसे सही तरीके से केवल वही लोग समझ सकेंगे जिन्हों मानव चेतना के इतिहास को समझने का दीर्घकाल तक ईमानदारी से प्रयास किया है ।

“मानव चेतना का इतिहास” आधुनिक इतिहासकारों के भौतिकवादी कृत्रिम पुरातत्व से परे की चीज है । भौतिकवादी इतिहास में जो “वैदिक युग” पढ़ाया जाता है उसमें केवल झूठे नस्लवादी भाषाविज्ञान और कुम्हारों के बर्तनों द्वारा वेद को समझाने का ढोंग इतिहासकार रचते हैं । वस्तुतः “पुरातत्व” तो वह पुरातन तत्व है जो सभी तत्वों का स्रोत है । “मानव चेतना का इतिहास” में सम्पूर्ण समाज के साहित्य,कला,दर्शन आदि का इतिहास आता है;वह साहित्य,कला,दर्शन आदि नहीं जो केवल पुस्तकों में सिमटा है बल्कि वह सामूहिक चेतना जो जीते−जागते मनुष्यों के जीवन को सञ्चालित करता है । समाज की सामूहिक चेतना के अचेतन स्तर के नीचे वास्तविक पुरातत्व छुपा है जिसकी संज्ञा ब्रह्म है क्योंकि वह बृहत् है । उस बृहत् सतयुगी ज्योति से कलियुग के तमः की ओर अवसर्पण ही अवसर्पिणी कालचक्र की सहज गति है जिसकी आयु ४२००० वर्षों की है । २००० ई⋅ के पश्चात उत्सर्पिणी कालचक्र आरम्भ हुआ जिसमें वर्तमान मानवजाति का लोप और नवीन मानवजाति का प्रादुर्भाव १२०० वर्षों के दौरान होगा । अवसर्पिणी कालचक्र का संज्ञान तप द्वारा अर्जित किया जा सकता हैं । उत्सर्पिणी कालचक्र का ज्ञान मनुष्य हेतु पूर्णतया वर्जित है । इन दोनों को जोड़कर ४३२०० वर्षों का एक खण्डकल्प होता है । ऐसे दस खण्डों का एक युगपाद बनता है । दस युगपादों का एक महायुग होता है । सहस्र महायुगों का एक कल्प है । ७२००० कल्पों के एक ब्रह्मा जी होते हैं । तब श्रीविष्णु की नाभि से अगले ब्रह्मा जी निकलते हैं । ऐसे काल खण्डों को मिलाकर महाकाल का स्वरूप बनता है जिसका न कोई आदि है और न कोई अन्त ।

भारत में सर्वाधिक वर्षा सौरपक्षीय उत्तरायण के समापन पर होती है जब उत्तरायण के कारण सर्वाधिक नमी इकट्ठी होती है । दृक्पक्षीय भौतिकविज्ञान के अनुसार सर्वाधिक ठण्ड २२ दिसम्बर को पड़नी चाहिए और तभी से ठण्ड में गिरावट आरम्भ होनी चाहिए । किन्तु वास्तव में ऐसा २३ दिनों के उपरान्त सौरपक्षीय उत्तरायण के आरम्भ से होता है । इसी प्रकार सर्वाधिक वर्षा दृक्पक्षीय नहीं वरन् सौरपक्षीय उत्तरायण के समापन पर होती है । दृक्पक्षीय विज्ञान में इसकी व्याख्या नहीं है । आठवें नक्षत्र पुष्य का आरम्भ ९३°:२०˝ पर है और उत्तरायण का अन्त ९०° पर है । उत्तरायण के अन्त में सर्वाधिक नमी इकट्ठी हो जाती है किन्तु उसे भारत में बरसने में कुछ अतिरिक्त दिन (औसतन दस अतिरिक्त दिन) लग जाते हैं जिस कारण पुष्य में सर्वाधिक वर्षा होती है । भारतवर्ष में सर्वाधिक वर्षा का यही काल है । भारतवर्ष की तरह संसार में कुल नौ भौगोलिक वर्ष वेदव्यास जी ने बताये जिनका विभाजन वर्षा के चक्रों के अनुसार होता है । आधुनिक विज्ञान इस दिशा में मौन है ।

संलग्न चित्र से यह तो स्पष्ट है कि समूचे सरस्वान् (हिन्द) महासागर की नमी को समेटकर मानसून की अधिकांश वर्षा भारतवर्ष में होती है,यह स्पष्ट है कि सरस्वति ही सरस्वान् के जल को आकर्षित करती है,यह स्पष्ट है कि सरस्वति घाटी की ओर पश्चिमी (अरब) सागर तथा पूर्वी (बंगाल) सागर के दोनों मानसून दौड़ते हैं,किन्तु यह स्पष्ट नहीं होता कि सरस्वति कलियुग में क्यों सूख गयी !कालचक्र का विस्तृत वर्णन आगे करूँगा ।
(क्रमशः)

Vinay jha 

By Vinay Jha

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