हिन्दू राष्ट्र के बदले धर्मराष्ट्र की स्थापना होगी


💐💐 हिन्दू राष्ट्र के बदले धर्मराष्ट्र की स्थापना होगी 💐💐

कोई भी रिलिजन धर्म नही होता है. किसी झुंड को अनुसरण करना धर्म नही है. 
धर्म काल एवं परिस्थिती के अनुसार सही एवं गलत की पहचान कराता है एवं धर्मार्थ कार्य करवाता है क्योकी जैसे विचार होते हैं तो कर्म भी वैसे ही किये जाते हैं. धर्म के दस लक्षण होते हैं जिसके पालन से धर्मार्थ कार्य होते हैं.

दुर्योधन व कंस एवं ज़रासंध समेत अनेक दुराचारी लोग भी सनातनी वर्ग का ही हिस्सा थे, स्वयं भीष्म को भी धर्म का जानकारी था लेकिन बौद्धिक प्रमाद के वशीभूत होकर अधर्मी कौरवो का साथ देते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए, धर्म को पहचानते हुए भी अधर्म किया और समूल नष्ट हुए. 
स्वयं श्रीकृष्ण भगवान के वंशज भी सात्यकी सहित धर्म का पालन न करते हुए एक साधु को अपमानित करने का श्राप पाकर आपस मे ही लड़कर दुर्गती को प्राप्त हो गए, जबकी वे सब के सब सनातनी थे.

अतैव हिन्दू राष्ट्र की मांग करने के बदले धर्मराष्ट्र की स्थापना की मांग करनी चाहिए . 

** भगवान श्री कृष्ण ने धर्म की वृद्धि और स्वजनों की रक्षा के लिए गरजते समुद्र में द्वारिका की स्थापना की। उसे सुधर्मा जैसा संसद भवन दिया जिसमें प्रवेश के बाद भूख, प्यास, छींक, जम्भाई, निद्रा, तंद्रा आदि का अभाव था। जिसमें प्रवेश के बाद समय की गति रुक जाती थी। जहां दिक्पाल आदि आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहते थे। जब तक द्वारिका में धर्म का प्रभुत्व बना रहा वे उस धर्म नगरी के लिए सदै चिंतित रहे। उसकी रक्षा के लिए सात्यकि और बलराम जी को नियोजित कर रखा था। वही द्वारिका पुरी जब उपद्रवी, उदण्ड, धर्मपथ भ्रष्ट नागरिकों से पूर्ण हो गयी तब भगवान ने उसकी रक्षा के लिए सोचना भी बंद कर दिया।अर्जुन ने पूछा था- वासुदेव ! आप समुद्र को क्यों नहीं आदेशित कर देते की वह द्वारिका को न डुबोये ?
भगवान ने कहा -- धर्मविमुख राज्य को बचाकर क्या होगा ? पार्थ ! मैंने कहा था - धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे। 
      इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना,धर्म की रक्षा और धर्म को जीना महत्तम उद्देश्य है। धर्म राष्ट्र, अधर्म राष्ट्र, विधर्म राष्ट्र में जीना किन्हीं कारणों से हो सकता है पर धर्मराष्ट्र के लिए जीना इस सृष्टि का परम उद्देश्य है। 

राष्ट्र का उपनिषद भाव निबन्ध में मैंने १९९६ में लिखा था -- संस्कृति की अखंडित सीमा और धर्म का सुभगोदय राष्ट्र का उपनिषद भाव होता है -- संस्कृतेर्यावती सीमा धर्मस्य सुभगोदयः। यावद खंडिता भूमिस्तावद् राष्ट्रमिहोच्यते ।। प्रपा ।।
राष्ट्रधर्म का तभी तक पालन करना चाहिए जब तक वह किसी मजहब या रिलीजन द्वारा हमारे धर्म को व्यापादित न करता हो। हमारा जन्म सनातन स्वरूप ज्ञान, आत्मज्ञान और स्वतन्त्र रहकर मोक्ष के लिए मिला होता है। इसमें किसी अन्य के दबाव और हस्तक्षेप को सहने के लिए यदि हम बाध्य होते हैं तो ऐसा राष्ट्रधर्म हमारे लिए अधर्म होता है।

** श्रीकृष्ण ने धर्म स्थापना के लिए अवतार ग्रहण किया और बार बार अवतरित होते रहने का वचन दिया।धर्म से सज्जित राष्ट्र पृथ्वी का भूषण होता है। जिस भूखण्ड में धर्म रक्षित हो और उसके लिए सतत यत्नशील रहा जाये वह राष्ट्र "" धर्मराष्ट्र "" होता है। वैसे भी मुझे जहाँ भी मिला "धर्मराज" लिखा मिला। राज हमेशा राजा ( शासक ) के चरित्र के अनुसार परिवर्तित होता है। धर्म का बाहरी दिखावटी रूप अलग होता है और आंतरिक अलग। अतः धर्म हमेशा स्वयं के भीतर का जीवित पक्ष होता है।

** एक अकेला व्यक्ति भी धर्मराष्ट्र की स्थापना के लिए प्रयत्न कर सकता है। वह व्यक्ति निःसंदेह धर्म के शौर्य को जानता होगा। धर्म राष्ट्र निर्माण की क्षमता भगवती महाशक्ति देती हैं। रात्रि में श्री विद्या की साधना और दिन में लोक कर्म करने वाला चाणक्य "" परशुराम कल्प "" के महत्त्व को जानते हैं। स्वयं भगवान परशुराम ने भगवती को प्रसन्न कर अखण्ड पृथ्वी को अधर्मी शासकों से मुक्ति दिलाने में सफलता प्राप्त की थी ----- ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गति-शुभाम् ।।

** केवल धर्म राष्ट्र की स्थापना महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि पुत्र पौत्र उस व्यवस्था को निरन्तर गतिशील रखें यह और अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। आईये इस धर्मराष्ट्र की गतिशीलता को तप और त्याग से 
आगे बढाया जाये।
साभार व सधन्यवाद‼️

By #Mohan_Singh_Madhur

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