संहारात्मक कालचक्र

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🚩🚩🚩🚩🚩‼️ भक्तों की दृष्टि में भगवान्‼️🚩🚩🚩🚩🚩

🚩 भगवान् के लक्षण, गुण आदि के सन्दर्भ में चर्चा करने के पश्चात् उनके विषय में प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध तथा समाधि सिद्ध योगी क्या कहते हैं यह जानना आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण के समकालीन महर्षि व्यास और शुकदेव मुनि उनके लिए जो कहते हैं वह जान कर सनातन की महिमा और पृथ्वी पर मनुष्य जन्म लेने का चरम उद्देश्य पता चल जाता है❗

🚩 व्यास जी कहते हैं श्रीकृष्ण को प्रत्यक्ष देखने के बाद कोई भी शत्रु उनको मारने की इच्छा नहीं रखता। मगध नरेश जरासंध कहता है :-- कृष्ण! तुम कोमल बाल कहो मैं बल- राम से युद्ध करता हूँ। कालयवन के सामने कृष्ण जाते हैं तो वह कहता है :- तुम तो पैदल हो, अकेले हो। अतः  मैं तुमसे अकेले ही  युद्ध करूँगा । सेना का प्रयोग नहीं करूँगा। 
व्यास जी जब श्री कृष्ण के स्वरूप का  वर्णन करते हैं तब लगता है कि वसन्त हमेशा उनके इर्द गिर्द मंडरा रहा हो। ये तो आंखों देखा हाल है जो पूरे भागवत महा पुराण में भरा हुआ है❗

🚩 आदि शंकराचार्य कहते हैं :--- वासुदेव श्रीकृष्ण  ज्ञान,  ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य, तेज  से तो भरे ही हैं  साथ में वे त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया को भी रखे हुए हैं। वे अज,  अव्यय हैं और सभी प्राणियों के ईश्वर हैं। शुकदेव जी तो सभी वर्णनों को लांघ कर कहते हैं :-- श्रीकृष्ण श्रीपति, यज्ञ पति, प्रजापति, धीपति, लोकपति, धरापति, गतिपति, वृष्णि - पति, अन्धकपति, सात्वतपति तथा सज्जनों के पति हैं। वे मेरे ऊपर प्रसन्न हों। 
जैसे लगता है कृष्ण को देखने के बाद सभी के हृदय से कविता की नदी फूट पड़ती है❗

🚩 आदि शंकराचार्य संन्यासी और अद्वैत ब्रह्नवादी हैं फिर भी वे कहते हैं :-- वह ईश्वर शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव होते  हुए भी  देह धारण  कर  लोक कल्याण  करने  हेतु अवतार लेता है। रामानुजाचार्य कहते हैं भगवान में एक उज्ज्वलता  है, उनसे एक दिव्य सुगन्धि निकलती है, वे दिव्य कमलगन्धि हैं।उनके सौन्दर्य के सामने अनेकानेक कामदेव विफल हैं❗ सुकुमारता, लावण्य, यौवन, दिव्यरूप में उनके सामने सृष्टि में कोई हो ही नहीं सकता। उनके ऊपर जरा अवस्था का प्रभाव नहीं पड़ता। सौन्दर्य और लावण्य की परिभाषाएं उन्हें देखने के बाद बदलनी पड़ती हैं। उनके पास दिव्य आयुध होते हैं :-- शारंगधनु , कौमुदिकी गदा , सुदर्शन चक्र, 🌀🌀 पाञ्चजन्य शंख। उनके गले में वैजयन्ती माला है, वक्ष पर कौस्तुभ मणि है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष देना तथा भूमि का पापहरण करना भगवान का परम कार्य  है❗

🚩 करुणा के सागर हैं सनातन पुरुष भगवान❗ पूतना ने स्तन में कालकूट लपेट कर उन्हें पिलाया और वे उसके प्राण पी गए। उस हत्यारन को माता का लोक दिया क्योंकि उसके स्तनपान का सम्मान करना भगवान से ही लोक सीख सकता है। अयोध्या लौट कर आने के बाद सर्वप्रथम माता कैकयी से वे भेंट करते हैं। ये है भगवान की करुणा❗
🚩 भगवती भी उनके अनुकूल प्रत्येक अवतार में अपना
रूप ग्रहण करती हैं :--
 🌹विष्णो: देहानुरूपां वै करोत्यात्मनस्तनुम्❗🌹

🚩  प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में, यदि वह मनुष्य है,❤️❤️  परमात्मा अपनी उपस्थिति का आभास अवश्य कराता है।  इसका प्रमाण शास्त्रों में फैला है पर अनुभव में भी आता है। जब भी जीवन में इस तरह की अनुभूति हो उसे अपने भीतर ग्रहण कर लेना चाहिए और उस अनुभूति को संत,  साधक, ज्ञानी से विवेचित करना चाहिए❗

🚩 भगवान और भगवती एक दूसरे की शक्ति हैं। अपनी शक्ति की अध्यक्षता में वे अपना समस्त कार्य सिद्ध करा लेते हैं। भगवान सनातन हैं। हमारी आत्मा सनातन है। अतः जीवन में ईश्वर को जो अपना मित्र बना लेता है वह जीवन युद्ध को जीत लेता है। अपने भीतर के भगवान से हमारा प्रति दिन संवाद होते रहना चाहिए। शेष जो कुछ घटित हो रहा है उसमें कर्तव्य भाव से अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहना चाहिये। यह अनुभव आत्मीय बन्धुओं से बांटना उचित समझा। विश्व इसी दिशा में बढ़ रहा है। साक्षात्कार को  बाटते  रहने से अनुभव, सत्संगति और निरीहता की वृद्धि होती रहती है। सनातन भावों की ओर लौटना आत्म साक्षात्कार जैसा होता है। आइये स्वयं को तपायें‼️
✍️डॉ कामेश्वर उपाध्याय,अखिल भारतीय विद्वत्परिषद‼️

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🌀🌀🌀🌀🌀‼️संहारात्मक कालचक्र — १‼️🌀🌀🌀🌀🌀

🌀 काल के दो भेद हैं-- कलनात्मक काल और संहारात्मक काल ।गायत्री मन्त्र के देव सविता द्वारा प्रदत्त सूर्य सिद्धान्त के अनुसार कलनात्मक काल की गति सम  (यूनीफॉर्म) रहती है जिस कारण इसे “समय” कहते हैं । संहारात्मक काल को “समय” नहीं कहते ❗

🌀 कलनात्मक कालगणना का आधार सौर पक्षीय ( सूर्य -  सिद्धान्तीय ) ग्रह गति होती है ।  सौर पक्षीय ग्रह गति सदैव सम रहती है किन्तु पृथ्वी से देखने पर सम प्रतीत नहीं होती जिसका कारण है पृथ्वी से देखने पर ग्रह कक्षाओं का आड़ा  तिरछा दर्शन ❗

🌀 कलनात्मक काल के भी दो भेद हैं — सूक्ष्म अथवा अमूर्त जिसकी गति का प्रत्यक्ष दर्शन न हो,और स्थूल अथवा मूर्त जिसका प्राणियों के आम जीवन में उपयोग हो । प्राणियों द्वारा प्रयुक्त मूर्त काल का न्यूनतम मान है “प्राण” जो ४ सेकण्ड का होता है — एक सामान्य श्वास का काल । एक “प्राण” से न्यून काल को अमूर्त कहते हैं । “प्राण” से ही मूर्त स्वरूप में “प्राण” की प्रतिष्ठा होती है,अतः “प्राण” से ही मूर्त काल का आरम्भ है ❗

🌀 ज्योतिष का विषय है प्राणियों को कर्म फल की प्राप्ति के काल का निर्धारण । अमूर्त का भोग इन्द्रियाँ नहीं कर सकतीं । फल मूर्त होता है क्योंकि इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के भोग को ही फल कहते हैं, जाति और आयु तो जन्म के साथ ही नियत हो जाते हैं । जाति, आयु और भोग को मिला कर ही कर्म फल कहा जाता है । अतः प्राणियों के कर्म फल का शास्त्र प्राण काल से ही आरम्भ होता है । मन में कोई गलत संकल्प उठे अथवा किसी ज्ञानेन्द्रिय वा कर्मेन्द्रिय द्वारा कोई पाप हो तो उसी प्राण में उसका त्याग कर देने से वह कर्म नष्ट हो जाता है और उसका फल नहीं भोगना पड़ता । ‘उसी प्राण’ का अर्थ है अगली श्वास लेने से पहले। योग मार्ग में ऐसा करना अनिवार्य होता है । यही कारण है कि सूर्य सिद्धान्त में कलनात्मक काल का वर्णन प्राण से आरम्भ होने वाला मूर्त काल ही है ❗

🌀 अमूर्त काल का प्रयोजन सूक्ष्म प्रक्रियाओं से होता है,  जिसका उपयोग गोपनीय वैदिक तन्त्र में ही होता था जिनकी पात्रता कलियुग में नहीं । कलियुग में अमूर्तकाल का प्रयोग अब केवल सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में ही होता है । अमूर्त काल का व्यवहारिक ज्ञान न होने के कारण कलियुगी ✍️ ग्रन्थकारों ने निमेष काष्ठा त्रुटि परमाणु आदि अमूर्त काल खण्डों के मनमाने मान लिख डाले । मनुष्य द्वारा अमूर्तकाल के व्यावहारिक प्रयोग का एक उदाहरण है ब्रह्मास्त्र । तीनों लोकों पर प्रभाव डालने वाले ब्रह्मास्त्र की गति मूर्त काल से अत्यधिक सूक्ष्म होती है ❗

🌀 प्राण सहित किया गया संकल्प ही फलोत्पादक कर्म का हेतु बन सकता है । इसका यह अर्थ नहीं कि  हत्यारा अपनी श्वास को रोक कर किसी की हत्या कर दे तो उसे हत्या का पाप नहीं लगेगा — क्योंकि एक प्राण काल में हत्या का संकल्प और वास्तविक हत्या की घटना सम्भव नहीं । हत्या की योजना का आरम्भ है संकल्प;संकल्प के आरम्भ से लेकर हत्या करने तक दीर्घ काल लग ही जाता है । बिना संकल्प के कर्म का फल नहीं होता,जिस कारण मानवेतर जीवों को हिंसा का फल नहीं मिलता,केवल मनुष्य ही संकल्प करने में सक्षम है क्योंकि मनुष्य का मन संकल्प करने के लिये स्वतन्त्र है । मन के इसी लक्षण के कारण मनुष्य नाम पड़ा ‼️

🌀 इन्द्रियों द्वारा दिखने वाली “दृक्पक्षीय” ग्रह गति सम नहीं होती जिस कारण वैज्ञानिकों द्वारा अब सीजियम अणु की फ्रीक्वेन्सी पर आधारित आणविक घड़ी का प्रयोग किया जाता है । दृक्पक्षीय ग्रहगति को आधुनिक खगोल विज्ञान में एफेमेरिस टाइम (ET) कहते हैं जो सम नहीं है । “दृक्पक्षीय” ग्रहगति सम नहीं होने का कारण है सृष्टि केन्द्र मेरु का पर्यवेक्षण हेतु उपयोग न करना । मेरु के सिवा सृष्टि का कोई बिन्दु स्थिर नहीं है । जो बिन्दु स्वयं अस्थिर है उसे केन्द्र मानेंगे तो कलन सम नहीं हो सकता ❗

🌀 सूर्य सिद्धान्तीय दृक्पक्षीय गणित अलिखित है पर उसके कुछ लिखित प्रमाण अवशिष्ट हैं जैसे कि भास्कराचार्य रचित सिद्धान्त−शिरोमणि में अयन गति का सूत्र । सूर्य सिद्धान्तीय दृक्पक्षीय गणित लॉगेरिद्मिक (लघुगणकीय) पैमाने पर होता है जबकि सूर्य सिद्धान्तीय सौर पक्षीय गणित सम है ❗

🌀 आधुनिक विज्ञान में सारे पर्यवेक्षणीय आँकड़े 💦💦 अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक ईसाई कैलेण्डर के अनुसार सुरक्षित किये जाते हैं जिस कारण उनकी सही जाँच नहीं हो पाती और नित नये तथाकथित सिद्धान्त कल्पित करने पड़ते हैं जिनका कोई सिद्ध अन्त नहीं होता, एक डाल से दूसरी पर उछल कूद की इसी मर्कट गति को “वैज्ञानिक प्रगति” कहा जाता है । किन्तु सभी वैज्ञानिकों का मानना है कि प्राकृतिक परिघटनाओं की गति किसी भी सम काल के पैमाने की बजाय लॉगेरिद्मिक (लघुगणकीय) पैमाने पर बेहतर परि- लक्षित होती है । समाकलन इण्टेग्रल कैलकुलस के सूत्र तो नैसर्गिक रूप से लघुगणकीय लॉग स्केल पर ही चलते हैं ‼️

🌀 घड़ी मूर्खों के लिये बनती है ❗ 
सतयुग में यन्त्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । सूर्य सिद्धांत के द्वारा ब्रह्माण्ड और कारण शरीर की गति तक को विभिन्न मानकों के द्वारा पहचाना जा सकता है। वेद और प्रक्रियात्मक ब्राह्मण ग्रंथों में जितने प्रकार के लोकों का वर्णन है, सूर्य रश्मिओं का जीवों पर जो प्रभाव है वह सब कुछ सूर्य सिद्धांत से ही समझा जा सकता है। विश्व में केवल सूर्य सिद्धांत ही एक ऐसा गणित ग्रन्थ है जो पृथ्वी का जन्म और पृथ्वी पर प्राणियों का जन्म उनका मरण बतलाता है।आचार्य विनय झा जी द्वारा सूर्य सिद्धान्तीय गणित और आज का लेटेस्ट गणित का जो सूक्ष्म विवेचन किया गया है वह कहीं नहीं मिला,मिलेगा भी नहीं। सूर्य सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्मांड गणित के उठते सवालों को सनातन के लिए अवश्य बतलाइये। उदाहरदार्थ--- गीता में कहा है कि- दक्षिणायन में मरने पर स्वर्ग नहीं मिलता। इसका  दो आकाशीय स्तर पर निरीक्षण किया गया। सूर्य और चंद्र मार्ग से नक्षत्र वीथिओं का स्वर्ग मार्ग १४ जुलाई के बाद ओझल हो जाता है। केवल सिंह के सूर्य में १५ अंश तक पितृ लोक का मार्ग खुलता है। मैं जानता हूँ आप चाह जायें तो अन्य लोकों का मार्ग भी स्पष्ट हो जायेगा। दक्षिणायन में पितृलोक अथवा नरक लोक के अतिरिक्त लोकों का भी मार्ग खुलता है इसे आज का संस्कृतज्ञ जानता ही नहीं। यद्यपि पाप कर्म करने वाले उत्तरायण या दक्षिणायन किसी में मरें वे नरक जायेंगे ही। साथ ही दक्षिणायन में मृत्यु होने से ही पितृलोक की प्राप्ति होती है जो स्वर्ग तुल्य (पितृलोक) है❗

🌀 गीता के अध्याय−८ के श्लोक−२४ से २६ में उत्तरायण तथा दक्षिणायन में देहत्याग करने वालों की गति का जो वर्णन है वह केवल योगियों के बारे में ही है जैसा कि उससे ठीक पहले श्लोक−२३ में स्पष्ट कथन है ❗

🌀 नक्षत्र वीथियों के ज्ञान से सभी लोकों के गमन का ज्ञान हमारे महर्षियों को था। वे आत्मा का प्रत्यक्ष गमन भी देख लेते थे। अग्निपुराण में नक्षत्रवीथियों के नामों व आकाशीय विभागों का वर्णन है जिनके नामानुसार फल प्राप्त होते हैं‼️

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✍️✍️✍️संकलक = मार्कण्डेय मधुर ‼️

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