मानव योनि एक चौराहा य़ा चार-रस्ता


ब्रह्माण्ड में मानव शरीर को अति मूल्यवान माना गया है । 
मानव योनि वास्तव में एक ऐसा योनि है ज़िसे चौराहा य़ा चार-रस्ता  कहा जा सकता है, जहाँ से एक मार्ग संसार की ओर ज़िसमे दूसरी समस्त योनियो मे जाया जा सकता है, दूसरा मार्ग स्वर्ग की ओर ,तीसरा मार्ग नर्क की ओर और चौथा मार्ग जाता है मोक्ष की ओर। 

मोक्ष का अर्थ है जीते-जी ही कारण शरीर मे उपस्थित सभी दमित  समस्त इच्छाओं व तृष्णाओं से मुक्ती . 
जीते जी ही जीव की जैसी आत्मिक स्थिती रहती है तो उसके द्वारा शरीर त्यागने के बाद भी वही स्थिती रहती है. इसिलिये मोक्ष जीते जी ही प्राप्त करना करूरी है.

    परमात्मा द्वारा आदेशित कर्मो को न करने से ही जीव का  अनंत कालचक्रों मे आवागमन होता रहता है, यहीं से शुरू हो जाता है बार-बार जन्म और बार -बार मृत्यु का क्रम भी।

जैसे कि किसी ने किसी देवी-देवता य़ा परमात्मा य़ा उसकी किसी भी शक्ती का अनुष्ठान किया तो अनुष्ठान के फलस्वरूप यदि कोई   कोई आशीर्वाद स्वरूप आदेशित किया गया है और वो नहीं किया गया तो सम्बंधित को कालचक्र मे फंसना पड़ जाता है, फिर अनंत कर्मो को करते हुए अनेको बार आवागमन होता रहता है, यहीं से शुरू हो जाता है बार-बार जन्म और बार -बार मृत्यु का अनंत क्रम भी।

दोनों खण्डों का आत्मजन्य वियोग अत्यन्त असहनीय होता है। वे दोनों खंड वियोग की पीड़ा, वेदना लिए इसलिए बार-बार जन्म लेते हैं कि कभी तो मिलेंगे। कभी तो पुनः एक होंगे।

लेकिन उनकी आशा कब साकार होगी--यह निश्चित रूप से नहीं बतलाया जा सकता।

मानव योनि को छोड़ कर किसी भी अन्य योनि द्वारा भले ही वह देव योनि हो, यक्ष योनि हो, गन्धर्भ योनि हो या हो अन्य कोई उच्च योनि ,मोक्ष संभव नहीं।

       धर्म क्षेत्र के कही विधान रहस्य ऐसे भी है जो आम जनता तक प्रस्तुत नही किया या उन्ही विषयो को अन्य परंपरा बनाई ताकि लोगो को वो सामान्य लगे । 

शिव महापुराण मे वर्णित है : 

 " शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी ।’"

अर्थात्– समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं ।

      सृष्टि में तीन तत्व है-ऋण-धन-बीज जिसके जीवंत नाम है-पुरुष,स्त्री और बीज या इलेक्ट्रॉन,प्रोट्रान,न्युट्रान । ओर ये तब ही सम्भव होता है जब युगल कामक्रिया करे । 
पर काम विषय आते ही व्यर्थ तर्क वितर्क शुरू हो जाते है ।

    यो भी इसी प्राचीन कथाओं में पाओगे की ईश्वर और ईश्वरी के युगलावस्था को एकल ब्रह्म कहा है उसका मतलब है शिव या शक्ति भी अकेले है तो पूर्ण ब्रह्म नही है । जीव की जन्मयात्रामे महत्त्व स्वरूप भी दो या ज्यादा भागमे जब विभाजित हो जाता है और जब कर्म उपासना से जीव ब्रह्म भावको प्राप्त करने लगता है तब विभाजित अंश एक हो जाते है । दोनो के मिलनसे ही पूर्ण ब्रह्मत्व प्राप्त कर महाब्राह्म में विलीन हो सकता है । यही ही जीवकी पूर्ण मुक्ति मोक्ष । किसी भी प्रयोजन हेतु ब्रह्म भी अपनी अर्द्धशक्ति को साथ लाते है जैसे विष्णु के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी तब उन्ही के पृथ्वी रूप राम-सीता व कृष्ण-राधा या रुक्मणी है क्योकि ईश्वर को चतुर्थ धर्म का स्वयं पालन करते हुए समाज की चतुर्थ धर्म पालन का ज्ञान देना और प्रचारित करना पड़ता है उसके जाने के बाद उस सिद्धांत के अनेक आचार्य विवाहित या अविवाहित हो सकते है । पर इसमें कोई संदेह नही है उन्हें भी पूर्ण आत्मा स्वरूप होना ही पड़ता है । तंत्रमार्ग में भैरव ओर भैरवी स्वरूप बनकर उपासना का भी यही हेतु है । 

     सर्व प्रथम ब्रह्मा ने चार मानस पुत्र –सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार बनाए जो योग साधना में लीन होगये | पुनः संकल्प से नारद, भृगु, कर्म, प्रचेतस, पुलह, अन्गिरिसि, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, मरीचि --१० प्रजापति बनाए..वे भी साधना लीन रहे .... पुनः संकल्प द्वारा....९ पुत्र- भृगु, मरीचि, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, दक्ष, पुलह.. एवं -९ पुत्रियां --ख्याति, भूति , सम्भूति, प्रीति, क्षमा, प्रसूति आदि उत्पन्न कीं |

यद्यपि ये सभी संकल्प द्वारा संतति प्रवृत्त थे परन्तु कोई निश्चित, सतत स्वचालित प्रक्रिया व क्रम नहीं था ( सब एकान्गी थे--प्राणियों व वनस्पतियों में भी ), अतः ब्रह्मा का जीव-सृष्टि सृजन कार्य का तीब्र गति से प्रसार नहीं होरहा था अतः सृष्टि क्रम समाप्त नही हो पा रहा था | ब्रह्मा चिंतित व गंभीर समस्या के समाधान हेतु मननशील थे, कि वे इस प्रकार कब तक मानवों, प्राणियों को बनाते रहेंगे .... कोइ निश्चित स्वचालित प्रणाली होनी चाहिए कि जीव स्वयं ही उत्पन्न होता जाये एवं मेरा कार्य समाप्त हो |

चिन्तित ब्रह्मा ने पुनः प्रभु का स्मरण किया व तप किया--- तब अर्ध- नारीश्वर ( द्विलिन्गी) रूप में रूद्रदेव जो शम्भु- महेश्वर व माया का सम्मिलित रूप था, प्रकट हुए, जिसने स्वयम को --क्रूर-सौम्या; शान्त-अशान्त; श्यामा-गौरी; शीला-अशीला आदि ११ नारी भाव एवम ११ पुरुष भावों में विभक्त किया। रुद्रदेव के ये सभी ११-११ स्त्री-पुरुष भाव सभी जीवों में समाहित हुए, ये 11-स्थायी भाव.....जो अर्धनारीश्वर भाव में उत्पन्न हुए ...क्रमश: ...१. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, ९.निर्वेद,. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।... इस प्रकार काम सृष्टि का प्रादुर्भाव एवं लिंग चयन हुआ। उसी प्रकार ब्रह्मा ने भी स्वयम के दायें-बायें भाग से मनु व शतरूपा को प्रकट किया, जिनमे रुद्रदेव के ११-११ नर-नारी- भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव सृष्टि की रचना शुरू हुई ।

महादेव के अर्धनारेश्वर स्वरूप का यजन पूजन दाम्पत्य सुख , धन , धान्य, ऐश्वर्य प्रदान करता है । ब्रह्मचारी साधक , साधु , योगी अपनी प्रबल शक्तिसे विभाजित आत्म शक्ति को आकर्षित करके पूर्ण आत्मा स्वरूप धारण करके ब्रह्म में विलीन हो जाते है । अर्धनारेश्वर स्वरूप की कृपासे दाम्पत्य जीवन एवं भैरवी उपासना सहित अन्य तंत्र उपासना सफल होती है ।

आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर महामाया आदिशक्ति की सदैव कृपा रहे.

ऊँ 

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Nidhi Rajrani Radhika

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