वैदिक युग का अर्थ

वैदिक युग का अर्थ By Vinay Jha
‘युग’ का अर्थ है वह काल जब दो वस्तुओ वा परिघटनाओं में परस्पर योग हो ।

वेद नित्य और अनादि है किन्तु प्रत्येक महाप्रलय और प्रलय के पश्चात उसका योग संसार से होता है,वे कालखण्ड ही वैदिक युग हैं ।

उन कालखण्डों के पश्चात कलियुग तक केवल वेद का धीरे धीरे संसार से लोप होता है जिस कारण संसार का ही अन्ततः लोप हो जाता है और वेद द्वारा पुनः सर्जना होती है —  तब पुनः वैदिक युग से हर चतुर्युगी महायुग का आरम्भ होता है ।

उस आरम्भ बिन्दु पर भी दैवी और आसुरी लोग होते हैं तथा देवभाषा एवं म्लेच्छभाषायें होती हैं । असुरों का उच्चवर्ग वैदिक विद्याओं को सीखकर उनका दुरुपयोग करता है । कलियुग में असुर ऐसा भी नहीं करते,वेद का विरोध करते हैं और उसकी विद्याओं को बिना समझे दबाते हैं ।

कई बार आर्य वंशों में भी कुछ लोग विद्या द्वारा शक्ति अर्जित करने के लोभ में असुर बन जाते हैं,जैसा कि देवकी के भाई कंस । यजुर्वेद के अन्तिम अध्याय ईशोपनिषद में विद्या की उपासना का फल नरक बताया गया है । उपासना केवल उपास्य की ही करनी चाहिये ।

आर्य और अनार्य में नस्लगत विभेद नस्लवादी अंग्रेजों की कल्पना है जो ज्ञान से अधिक महत्व चमड़ी के रङ्ग को देते रहे हैं और सांसारिक शक्ति अर्जित करने के उपाय को ही विद्या मानते हैं — यही सोच मनुष्य को असुर बनाता है । असुर का धातु है अस्,जिससे “अस्तित्व” बना है ।

जो केवल अपने दैहिक एवं सांसारिक अस्तित्व के संवर्धन को ही महत्व दे वही असुर है,और यदि उसे देवलोक पर विश्वास हो जाय तो देवों की उपासना की बजाय उनपर आधिपत्य जमाने के प्रयास में लग जाय ।

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