नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) : भाग−१ - Vinay Jha

नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) : भाग−१

यूक्रेन सङ्कट ने एक गड़े मुर्दे को उखाड़ दिया है जो अब विकसित देशों के वर्चस्व के अन्त का आरम्भ करेगा ।

सोवियत सङ्घ के विघटन से पहले के अन्तिम दशक में New International Economic Order (NIEO) की माँग जोड़ पकड़ने लगी थी । सोवियत सङ्घ के विघटन होते ही इस विषय को भुला दिया गया क्योंकि एकध्रुवीय नैटो−नियन्त्रित विश्व में इस माँग का अर्थ था किसी बहाने अमरीका द्वारा आक्रमण ।

NIEO की माँग का अर्थ था कि विकसित देशों के सङ्गठन OECD द्वारा थोपी गयी पुरानी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की लूट−खसोट से बहुत से देश अप्रसन्न थे । वह पुरानी व्यवस्था अभी भी पूरे विश्व पर हावी है किन्तु पूरे संसार की मीडिया और अर्थशास्त्रियों की बहसों में इसकी चर्चा नहीं की जाती — विकसित देशों के भय से ।

१८८४ ई⋅ में ही अमरीका सकल घरेलू उत्पाद (GNP) में ब्रिटेन को पछाड़ कर संसार की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका था — ऐसा अर्थशास्त्रियों द्वारा पढ़ाया जाता है । किन्तु इस तथ्य का प्रचार नहीं किया जाता कि उन्हीं लोगों के अनुसार १८८४ ई⋅ में अमरीका,ब्रिटेन और भारत की GNP लगभग बराबर थी,तत्कालीन मूल्य पर १⋅३ अरब पाउण्ड अथवा २०२२ ई⋅ के मूल्य पर लगभग २१८ अरब डॉलर । इसका अर्थ यह हुआ कि १८८४ ई⋅ में अमरीका ने GNP में भारत को पछाड़ा,उससे पहले भारत की GNP अनादि काल से विश्व में अग्रणी थी । चीन की प्रति व्यक्ति आय १९४९ ई⋅ तक भारत की आधी थी । किन्तु औपनिवेशिक लूट के कारण भारत की आर्थिक शक्ति का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था ।

औद्योगीकरण का आरम्भ पलाशी के युद्ध से हुआ था । १९वीं⋅ शती के मध्य में ब्रिटेन विश्व का एकमात्र पूर्ण औद्योगीकृत देश बन चुका था । उसके पश्चात ब्रिटेन पूँजी के निर्यात में अग्रणी तो था ही,उद्योगपतियों पर भी वित्तीय पूँजीपतियों का वर्चस्व स्थापित होने लगा था । वित्तीय पूँजीपति वे लोग थे जिनका उत्पादन से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं था,वे केवल पूँजी का लेन−देन करते थे और बैंकों पर नियन्त्रण रखते थे । उनमें सबसे महत्वपूर्ण था रॉथ्सचाइल्ड घराना । पूँजी का निर्यात आधुनिक साम्राज्यवाद का प्रमुख लक्षण है । आधुनिक साम्राज्यवाद में बलपूर्वक दूसरे देश पर आधिपत्य नहीं जमाया जाता,बल्कि वहाँ मनचाही सरकार बनवायी जाती है और उस देश के प्रशासन एवं अर्थव्यवस्था पर शिकंजा कसकर वहाँ अपनी पूँजी लगाकर मुनाफा कमाया जाता है ।

द्वितीय विश्वयुद्ध ने प्रत्यक्ष लूट−खसोट वाली औपनिवेशिक व्यवस्था का अन्त कर दिया । ब्रिटेन,फ्रांस जैसी सभी औपनिवेशिक शक्तियों की कमर टूट गयी और अमरीका महान आर्थिक शक्ति बनकर उभरा जिसकी GNP ब्रिटेन से से ६ गुणी और प⋅ जर्मनी से १२ गुणी अधिक थी । किन्तु अमरीका के पास एक भी महत्वपूर्ण उपनिवेश नहीं था । दूसरों के उपनिवेशों में उसे मुक्त व्यापार के नाम पर मुनाफा कमाने की छूट नहीं थी । किन्तु १९४५ ई⋅ में ऐसी परिस्थिति बन गयी कि अमरीका के सौजन्य से औपनिवेशिक व्यवस्था का अन्त किया जाने लगा ताकि अमरीका को अपनी शर्तों पर भूतपूर्व उपनिवेशों में मुनाफा कमाने का अवसर मिले । यूरोप के युद्धों से घबड़ाकर वहाँ की बहुत बड़ी पूँजी अमरीका भाग चुकी थी । किन्तु अमरीका जानता था कि अकेले पूरे विश्व को लूटेगा तो यूरोप सहन नहीं करेगा । अतः अमरीका के नेतृत्व में विकसित पूँजीवादी देशों का सङ्गठन OECD बनाया गया ताकि शेष विश्व की लूट में उन सबको हिस्सा मिले । जापान को भी इस व्यवस्था में इस शर्त पर सम्मिलित किया गया कि वह केवल आर्थिक विकास पर ध्यान देगा और सैन्य शक्ति नहीं बनेगा । जर्मनी और इटली पर भी यही शर्त थोपी गयी क्योंकि वे पराजित देश थे । पूँजीवाद का मुख्य शत्रु कम्युनिज्म था जिस कारण सभी प्रमुख पूँजीवादी देशों में परस्पर आर्थिक एवं सैन्य सहयोग आवश्यक था । एक ओर कम्युनिज्म को नष्ट करना अथवा घेरकर रखना एवं दूसरी ओर तृतीय विश्व को चालाकी से लूटते रहना इस नयी प्रणाली का लक्ष्य था जिसका आरम्भ १९४४ ई⋅ में ब्रेटन−वुड्स सम्मेलन में हुआ और वर्तमान रूप १९७१ ई⋅ में ब्रेटन−वुड्स व्यवस्था के अन्त से दिया गया ।

वैश्विक पूँजीवाद के सिरमौर अमरीका−ब्रिटेन की सुनियोजित गुप्त योजना द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध कराया गया । इसके बहुत से प्रमाण हैं । सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त तक हिटलर को पेट्रोलियम की आपूर्ति अमरीकी कम्पनी स्टैण्डर्ड ऑयल करती रही,वरना हिटलर के सारे विमान जलपोत टैंक धरे रह जाते । द्वितीय विश्वयुद्ध का उद्देश्य था सोवियत सङ्घ का विनाश । किन्तु स्तालिनग्राद से जब सोवियत सेना ने जर्मनों को फरवरी १९४३ के पश्चात खदेड़ना आरम्भ किया और अगस्त १९४३ ई⋅ तक कुर्स्क में जर्मन थलसेना की रीढ़ तोड़ दी तो स्पष्ट हो गया कि अब हिटलर की पराजय सुनिश्चित है । तभी से अमरीका और ब्रिटेन तैयारी करने लगे कि जर्मनी पर सोवियत सेना को अकेले आधिपत्य करने से रोका जाय । ४ जुलाई १९४४ ई⋅ (D-Day) को अमरीका और ब्रिटेन की सेना ने यूरोप की मुख्यभूमि पर पाँव रखे,उससे पहले वे दूर से हवाई फाइरिंग कर रहे थे । किन्तु उससे पहले ही लाल सेना २२ जून १९४४ ई⋅ से ऑपरेशन बगरतिओन आरम्भ कर चुकी थी जिसने पूर्वी यूरोप से जर्मनों को पश्चिम धकेलना आरम्भ किया । लाल सेना के ऑपरेशन बगरतिओन से ही घबड़ाकर ४ जुलाई १९४४ ई⋅ को अमरीका और ब्रिटेन ने जर्मनों से प्रत्यक्ष युद्ध आरम्भ किया । अमरीका यदि द्वितीय विश्वयुद्ध रोकना चाहता तो केवल पेट्रोलियम आपूर्ति बन्द करने की धमकी ही प्रयाप्त रहती,हिटलर लड़ने की सोचता भी नहीं । इतिहास की पुस्तकों में ये बातें नहीं बतायी जाती । महर्षि वेदव्यास जी ने ही कह दिया था कि कलियुग में लोग इतिहास भूल जाते हैं ।

द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले से ही अमरीका प्रयास कर रहा था कि संसार की औपनिवेशिक लूट में उसे हिस्सा मिले,किन्तु प⋅ यूरोप उसकी सुनता ही नहीं था । ब्रिटेन और फ्रांस तो जर्मनी को भी उसकी शक्ति के अनुरूप लूट में हिस्सा देना नहीं चाहते थे जिस कारण दो विश्वयुद्ध हुए । जापान को अमरीका अन्य देशों से मुक्त व्यापार करने से रोकता था जिस कारण जापान ने अमरीका पर आक्रमण किया ।

यूरोप की परम्परा ही रही है कि “सरकार” ही डकैतों की हो । मार्क्स ने लिखा था कि सभी डाकुओं की प्रतिस्पर्धा में जीतने वाला सबसे बड़ा डाकू ही राजा बनता था । मार्क्स को केवल यूरोप और मध्यपूर्व का इतिहास ही पता था,जिससे उसने “ऐतिहासिक भौतिकवाद” निकाला और मूर्खतावश पूरे संसार पर थोप दिया ।

१९४४ ई⋅ में स्पष्ट हो गया था कि पुरानी औपनिवेशिक व्यवस्था अब चलने वाली नहीं । ब्रिटेन की कमर टूट रही थी । फ्रांस पर जर्मनी का आधिपत्य था । जर्मनी सोवियत सङ्घ से हार रहा था । सोवियत सङ्घ में कम्युनिज्म था जिस कारण सोवियत सङ्घ को पूँजीवादी व्यवस्था से बाहर रखना आवश्यक था । किन्तु सोवियत सङ्घ नात्सी एक्सिस के विरुद्ध मित्रराष्ट्रों में था । अतः जब १९४४ ई⋅ में ब्रिटेन को अमरीका की माँग के आगे झुककर नयी व्यवस्था बनाने के लिए ब्रेटन−वुड्स सम्मेलन को स्वीकृति देनी पड़ी जिसमें भारत जैसे गुलामों को छोड़कर ४४ देशों को बुलाया गया तो उसमें सोवियत सङ्घ को भी बुलाना पड़ा । उसी में वर्ल्ड बैंक और IMF की स्थापना की गयी ताकि वैश्विक वित्त−व्यवस्था पर नियन्त्रण रखा जा सके । किन्तु स्वर्ण का मुद्राओं का आधार घोषित करने पर भी जब अमरीकी डॉलर को प्रधानता दी गयी तो सोवियत सङ्घ ने IMF का सदस्य बनने से मना कर दिया । इसी वित्तीय व्यवस्था को नैतिक मुखौटा पहनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सङ्घ की स्थापना की गयी ।

ब्रेटन−वुड्स व्यवस्था में डॉलर को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा माना गया और दूसरे देशों को छूट दी गयी कि वे जब चाहे अमरीका को डॉलर देकर उतने मूल्य का स्वर्ण ले सकते हैं । अतः डॉलर व्यवहार में स्वर्णमुद्रा के तुल्य था । दूसरी मुद्रायें प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप से डॉलर से बँधी थी,अतः परोक्ष रूप से सभी मुद्रायें स्वर्ण पर आधारित थीं । इस प्रकार वैश्विक मुद्रा व्यवस्था में स्थायित्व को बनाये रखना सम्भव हुआ ।

किन्तु १९७१ ई⋅ तक अन्य कई देश विकसित बन चुके थे और उन सबका सम्मिलित डॉलर−भण्डार अमरीका के डॉलर−भण्डार से भी बड़ा हो गया था । शीतयुद्ध एवं वियतनाम युद्ध के कारण डॉलर की क्रयशक्ति में भारी गिरावट आ गयी थी क्योंकि अमरीकी सरकार नये नोट छापकर युद्ध का खर्च पूरा करती थी जिस कारण मुद्रास्फीति बढ़ती थी । ब्रेटन−वुड्स व्यवस्था में घटती क्रयशक्ति वाले डॉलर पर निर्भरता के कारण उन देशों को घाटा होने लगा जिनकी अर्थव्यवस्था अमरीका से बेहतर थी । उनके विरोध के कारण १९७१ ई⋅ में अमरीका ने भी डॉलर के बदले स्वर्ण देना बन्द किया और १९७३ ई⋅ से फ्लोटिंग मुद्राओं का युग आरम्भ हुआ जिसमें वित्तीय बाजारों की माँग−आपूर्ति द्वारा मुद्राओं का विनिमय दर निर्धारित होने लगा और स्वर्ण वा डॉलर से बँधा रहना आवश्यक नहीं रहा ।

अतः “मुद्रा” की परिभाषा बदल गयी । प्राचीन काल से ही “वस्तु धन ⁄ मुद्रा” (commodity money) का प्रचलन सभी देशों में था जिसके अन्तर्गत स्वर्ण,रजत अथवा किसी महत्वपूर्ण एवं सुलभ वस्तु को मुद्रा के तौर पर प्रयुक्त किया जाता था । आरम्भ में इसे “मुद्रा” नहीं नहीं कहते थे,केवल धन कहते थे । कालान्तर में क्रयशक्ति के आधार पर स्वर्ण वा रजत के खण्ड पर मुद्रण करके मुद्रा का प्रचलन किया गया,वह भी “वस्तु मुद्रा” ही थी । बड़े स्तर के व्यापार में भारी मात्रा में स्वर्ण आदि का लेनदेन भार के कारण कठिन होने होने लगा तो कागज के नोट प्रचलन में आये जो प्रसिद्ध बैंकों द्वारा शपथपत्र थे कि ग्राहक जब चाहे उतने मूल्य का स्वर्ण बैंक देगा । इसे “प्रतिनिधि मुद्रा” कहते हैं क्योंकि कागज के नोट वस्तुतः बैंक में रखी स्वर्णमुद्रा के प्रतिनिधि हैं ।

“वस्तु मुद्रा” तथा “प्रतिनिधि मुद्रा” का आन्तरिक मूल्य होता है । “वस्तु मुद्रा” में स्वयं वस्तु ही उतने मूल्य की है । “प्रतिनिधि मुद्रा” में ग्राहक जब चाहे बैंक से नोट के बदले स्वर्ण बैंक से ले सकता है ।

अमरीका की सरकार नाममात्र खर्च पर १०० डॉलर का कागजी नोट छाप सकती है जबकि उतने डॉलर पाने के लिए दूसरे देशों को पसीना बहाना पड़ता है । युद्धोन्मादी अमरीका के अनियन्त्रित खर्च और घाटे के बजट के कारण अतिरिक्त डॉलर छापे जाते रहे जिस कारण डॉलर की क्रयशक्ति घटती गयी । अतः १९७३ ई⋅ से नयी व्यवस्था अस्तित्व में आयी जब प्रमुख मुद्रायें अपनी क्रयशक्ति तथा माँग के आधार पर बाजार में तिरने (Floating) के लिये मुक्त कर दी गयीं,स्वर्ण वा डॉलर से उनका सम्बन्ध नहीं रहा । एकाध अपवाद के सिवा किसी देश के पास उतना स्वर्ण नहीं था जितनी मुद्रा थी,और डॉलर मुद्रास्फीति के कारण विश्वसनीयता खो चुकी थी । इस प्रकार “फ्लोटिंग करेन्सी” का युग आरम्भ हुआ । कमजोर देशों की मुद्रायें हवा में न उड़ जायें इस कारण उनको किसी प्रमुख मुद्रा अथवा मुद्रा−समूह से बाँधा गया ।

इन मुद्राओं का कोई आन्तरिक मूल्य नहीं रहा । अब भी डॉलर अथवा रूपया के कागजी नोट पर लिखा रहता है कि वह नोट केवल शपथपत्र है जिसके बदले ग्राहक जब चाहे उतने मूल्य का स्वर्ण माँग सकता है । परन्तु माँगने पर कुछ मिलेगा नहीं । शपथपत्र न मानने पर ग्राहक न्यायालय भी नहीं जा सकता क्योंकि वहाँ रिजर्व बैंक कहेगी कि जितनी मुद्रा देश में है उतना स्वर्ण है ही नहीं तो कहाँ से दिया जाय!

जितना स्वर्ण है उतना ही नोट छापते!इससे किसी देश को कोई क्षति नहीं होगी । क्षति होगी वित्तीय पूँजीवाद के उन मगरमच्छों को जो कागजी नोट को स्वर्ण का विकल्प बनाकर मनमाने विनिमय द्वारा पूरे विश्व को लूटते रहते हैं और समूचे वैश्विक बाजार को जूआखाना बना दिये हैं । वर्तमान विश्व की सभी मुद्रायें इसी प्रकार की “फिएट मनी” (Fiat money) हैं जिनका कोई आन्तरिक मूल्य नहीं होता । सरकारें वा सेठों के समूह जब चाहें उन मुद्राओं का मनमाना मूल्य बदलकर सबको लूट सकते हैं । स्थायित्व का आधार स्वर्ण नहीं,इन मगरमच्छों का परस्पर तालमेल है । कोई राजपक्षे परिवार जब चाहे सभी वस्तुओं की कृत्रिम कमी कराकर समूची लंका को लूट सकता है!

संलग्न स्क्रीनशॉट दर्शाता है कि १९७३ ई⋅ के पश्चात ही ब्रिटिश पाउण्ड में भयानक तेजी से मुद्रास्फीति होने लगी । अन्य सभी मुद्राओं के साथ भी ऐसा ही हुआ । जानबूझकर अधिक नोट छापकर मुद्रास्फीति बढ़ाना सभी देशों की नीति है ताकि कागजी नोटों द्वारा सरकारें अपने फालतू खर्च को पूरा करे और मुद्रास्फीति के इस बोझ को आम जनता पर थोप दे । किसी वर्ष यदि देश का उत्पादन ५% बढ़ा है तो ५% ही नये नोट छापे जाने चाहिए,तब मुद्रास्फीति और मँहगाई में कोई वृद्धि नहीं होगी । किसी देश में कुल जितना सामान⁄सेवा है उतने ही नोट रहें तो नोट की क्रयशक्ति स्थिर रहेगी और मँहगाई शून्य होगी । वस्तुओं की मँहगाई का अधिकांश बोझ गरीबों और मध्यम वर्ग पर पड़ता है क्योंकि धनवानों के धन का बहुत अल्प अंश वस्तुओं के उपभोग पर खर्च होता है । रोटी का मूल्य २ रू⋅ से बढ़कर ३ रू⋅ हो जाय तो गरीब की कमर टूट जायगी किन्तु अम्बानी को कोई अन्तर नहीं पड़ेगा । मुद्रास्फीति बढ़ाकर जनता को लूटना जॉन कीन्स का अर्थशास्त्र (अनर्थशास्त्र) कहलाता है ।

अब तलवार के बलपर औपनिवेशिक लूट का युग नहीं रहा,“डेमोक्रेटिक” लूट का आधुनिक तरीका नकली मूल्य वाले नोट ही हैं जिन्होंने पूरे संसार को कैसिनो बना रखा है ।

नकली दर वाले डॉलर द्वारा भारत,रूस,चीन आदि की लूट कितनी हो रही है इसपर अगले अङ्क में । महमूद गजनवी सपने में भी इतनी लूट नहीं कर सकता था ।
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चार ब्रेकिंग न्यूज=
रिपब्लिक−भारत टीवी ने बताया है कि जब से युद्ध आरम्भ हुआ है तब से झेलेन्स्की की जितनी तस्वीरें आयीं हैं सबमें एक ही कपड़े पहने हैं ।
चालीस दिनों से कपड़े नहीं बदले!बंकर में पानी नहीं मिलता तो नहाये कैसे?
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दूसरा ब्रेकिंग न्यूज यह है कि उक्राइन में सैन्य ड्रेस केवल झेलेन्स्की पहनता है,रूसियों द्वारा मारे गये लोगों की जितनी लाशें उक्राइन प्रचारित कर रहा है सबके सब नागरिक वेश में हैं ।
अथवा उक्राइन की “बहादुर” सेना पुतिन के भय से नागरिक वेश धारण करती है?
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तीसरी ब्रेकिंग न्यूज यह है कि मैंने पहले ही लिख दिया था कि स्वीडन को नैटो में भर्ती करने के लिए अणुबम वाले रूसी विमानों की अफवाह फैलायी गयी थी ;आज नैटो से स्वीडन को आजाप्ता निमन्त्रण भेज दिया है ।
बिना स्वीडन के रूस से लड़ने की शक्ति नैटो में नहीं थी?स्वीडन आयेगा तब नैटो लड़ेगा?अथवा तब पाकिस्तान की सहायता नैटो चाहेगा?इमरान तो यही कह रहा है!
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चौथी ब्रेकिंग न्यूज यह है कि पूर्वी यूरोप में नैटो के सैनिक युद्धाभ्यास कर रहे हैं । अभी रूसियों से लड़ने योग्य अभ्यास पक्का नहीं हुआ है । उट्ठक−बैठक पूरी हो जाने पर लड़ेंगे ।

By Vinay Jha

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