जातिप्रथा और जातिवाद: क्या धर्म की अनिवार्यता हर समाज की आवश्यकता नहीं है?

जातिप्रथा और जातिवाद by Vinay Jha

(दूसरे के पोस्ट पर मैं अपनी पाँच वर्ष पुरानी टिप्पणी को पृथक पोस्ट के रूप में यहाँ डाल रहा हूँ क्योंकि वहाँ मुट्ठी भर लोग यह टिप्पणी पढ़ पाये थे ।)

45000 शाखाओं में बंटे ईसाई जब एकता की ब्राह्मणवाद की भेदभाव की बात करते हैं तो धूर्तता भी छोटा शब्द लगता है।
आरक्षण लैनै के लिये सभी नीची जाति मे सहजता के साथ स्वीकार कर लैगै, बस कोसना क्षत्रिय,और ब्राह्मणों को ही कौसना है I
पूजा-पाठ, शादी-विवाह सभी धार्मिक कार्य में ब्राह्मण चाहिए, फिर भी ब्राह्मण को गाली देंगे ।
क्या धर्म की अनिवार्यता हर समाज की आवश्यकता नहीं है?

जातिप्रथा और जातिवाद के बारे में अधिकांश लोग आजकल मैकॉलेपुत्रों के दुष्प्रचार से भ्रमित हैं |

जातिप्रथा और जातिवाद परस्पर भिन्न परिघटनाएं हैं | जातीय आधार पर परस्पर वैमनस्य और एक दूसरे के अधिकारों का हनन "जातिवाद" है जो हिन्दुओं की दासता के युग में पनपा और अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से इसे भड़काया |

जातियों (और जनजातियों) का अस्तित्व जातिप्रथा है जो मूलतः कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था से ही निकली है और भारत के स्वर्णिम काल की महानता का कारक है | जातियाँ जन्म पर आधारित हैं किन्तु ब्रिटिश राज के आरम्भ तक कर्म पर भी आधारित थीं, जैसे कि तेल का कार्य करने वाले तेली थे, किन्तु अंग्रेजों ने सबके उद्योग चौपट कर दिए जिस कारण गैर-खेतिहर जातियाँ भी खेतिहर बन गयीं | भारत की ९०⋅३% जातियाँ खेतिहर नहीं थीं | पुश्त-दर-पुश्त अपने वर्ण के अनुसार कार्य करने के कारण खानदानी कौशल बढ़ता गया जिस कारण हर क्षेत्र में भारत के वैश्य और शूद्र भी विश्व व्यापार और उद्योग पर सहस्रों वर्षों से आधिपत्य रखे हुए थे | ये श्रमिक और व्यापारी गिल्डो में संगठित थें जिनसे कालान्तर में सहस्रों जातियों की उत्पत्ति हुई | अधुनिक जातियों का प्राचीन ग्रन्थों में नाम तक नहीं मिलता, ये सब दासता के काल की उपज हैं जब रोमन साम्राज्य के पतन और इस्लाम के उदय के कारण भारतीय विदेश व्यापार और कारोबारों का विनाश हुआ, जिस कारण कारोबारी गिल्डो ने जातियों का रूप ले लिया | जातियों का सच्चा इतिहास पढ़ाया नहीं जाता और इस सामाजित-आर्थिक संरचना को हिन्दू धर्म की धार्मिक कुरीति कहकर हिन्दू धर्म को गरियाया जाता है, जबकि धर्मशास्त्र में वर्तमान जातियों का नाम भी नहीं मिलेगा | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का उल्लेख वर्ण के रूप में हैं जो कर्म पर आधारित थे | ब्राह्मण को खेती करने या कारोबार करने का अधिकार नहीं था, भीख मांगकर पढ़ाना पड़ता था, अतः सम्मान प्राप्त था | इसमें क्या बुराई थी ? यूरोप में जब बहुमत प्रजा को दास बनाकर बेचा जाता था तब भारत में वर्ण-व्यवस्था के कारण दासप्रथा हाशिये पर रही, क्योंकि उसके स्थान पर शूद्र थे | किन्तु शूद्र दास नहीं थे, उन्हें बेचना सम्भव नहीं था | अतः हिन्दू समाज को गरियाने वाले म्लेच्छों की तुलना में हिन्दू समाज अधिक मानवीय था | यूरोप और अमरीका में दासप्रथा तो १९वीं शती में समाप्त हुई और उनमें अन्य नस्लों के प्रति घृणा अभी भी है | हिन्दू समाज में चमड़ी के रंग के आधार पर नस्लवाद का अभाव रहा |
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इस विषय पर मेरे अनेक पोस्ट और टिप्पणियाँ हैं । सबको जोड़े तो विषय पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा । उदाहरणार्थ,१९०१ ई⋅ की जनगणना में ग्यारह सौ जातियाँ थीं,१९३१ ई⋅ में ४१ सौ हुईं,और २०११ ई⋅ की जनगणना में साढ़े पन्द्रह सहस्र — तो क्लाइव के काल में कितनी जातियाँ रही होंगी?मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन विदेशी क्षत्रियों ने अपना स्वधर्म त्यागा उनसे अनेक जातियों की उत्पत्ति हुई,जैसे कि यवन आदि ।

आजकल जातिवाद को गरियाने वालों का मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों का नाश है ताकि शास्त्रहीन नकली हिन्दुत्व की आड़ में चर्च और मुल्लों के एजेण्डों को बढ़ावा मिले । ये लोग सबसे अधिक जातिवाद करते हैं,आरक्षण द्वारा कल्पान्त तक जातिवाद को बचाये रखना चाहते हैं, किन्तु जातिवाद का ठीकरा केवल ब्राह्मणों पर फोड़ते हैं ।

जाति का सम्बन्ध जन्म से है । जिस समुदाय में जन्म हुआ है उसे नकार तो नहीं सकते । जिस प्रकार धान,बाँस,कुत्ते आदि की जातियाँ होती हैं उसी प्रकार मनुष्यों में जातियाँ हैं ।

सारी जातियाँ अच्छी हैं,केवल ब्राह्मण बुरा है क्योंकि इसने हिन्दू धर्मशास्त्र को बचाकर रखने का अपराध किया है — यही चर्च का एजेण्डा है जिसमें अनजाने बहुत से भोले−भाले हिन्दू भी फँसे हुए हैं ।

कलियुग में सभी वर्णों और जातियों का पतन हुआ है । ब्राह्मण का भी । देश भर के ब्राह्मणों से पूछा जाय कि उसे किसने सबसे अधिक परेशान किया है — तो अधिकांश लोग “ब्राह्मण” को दोष देंगे । ब्राह्मण को ब्राह्मण ही परेशान करता है । इतिहासकार दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने लिखा था कि प्राचीनतम काल से ब्राह्मणों में सबसे अधिक व्यक्तिवाद रहा है,कोई एक ईश्वर वा चर्च वा पोप मान्य नहीं,जितने ऋषि उतने पन्थ!

कोसाम्बी जी स्वयं ब्राह्मण थे किन्तु वामपन्थी नास्तिक थे । उनके पल्ले नहीं पड़ा कि सच्चा धर्म कभी किसी तानाशाही वाले एकेश्वरवाद,एक चर्च वा एक पोप की छत्रछाया में फलफूल नहीं सकता । अपने देवता को दूसरों पर बलपूर्वक थोपना ईसाईयों,मुस्लिमों और आर्यसमाजियों ने किया । धर्म को थोपना अधर्म है । सनातन धर्म किसी देवता,किसी महन्थ,किसी शङ्कराचार्य के पीछे आँख मूँदकर चलना नहीं सिखाता;सनातन धर्म केवल अपनी सच्ची पहचान को ढूँढने,समझने और उसे मुक्त करने का उपाय बताता है । शङ्कराचार्य ने भी यही कहा था । सनातन तत्व को धारण करने का उपाय ही सनातन धर्म है । वह सनातन तत्व हर व्यक्ति के अन्दर है किन्तु स्वयं को भूलकर अनात्म को आत्म समझ रहा है ।

आत्म की समझ जब विकसित होने लगती है तब पता चलता है कि दूसरों में भी वही आत्म तत्व है,अन्दर से हम सब परस्पर जुड़े हुए हैं । जन्म किसी भी नस्ल वा जाति में हो,नश्वर शरीर के अन्दर हमारा अनश्वर तत्व एक ही है और वह सर्वव्यापी है । उसी ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण है ।

जाति के अनुरूप कर्म न हो तो उसे वर्णसङ्कर कहते हैं । वेदव्यास जी ने कहा था कि कलियुग में वर्णसङ्करता बढ़ती है । कलियुग में लोग जाति का दम्भ भरते हैं किन्तु अपना स्वकर्म नहीं करते,स्वधर्म का पालन नहीं करते । यह दोष सभी जातियों में है । किन्तु दूसरों को ज्ञान देना ब्राह्मण का कर्तव्य माना गया है,अतः ब्राह्मण स्वधर्म का त्याग करे तो दूसरों से अधिक दोषी है । यही कारण है कि ब्राह्मण सबसे अधिक गाली सुनता है ।

जिनके पूर्वज भी सदैव यादव ही थे वे श्रीकृष्ण के सम्बन्धी चन्द्रवंशी क्षत्रिय हैं । जिनके पूवर्जों ने पिछली कुछ शतियों में,विशेषतया जनगणना आरम्भ होने के पश्चात “यादव” जोड़ना आरम्भ किया उनको अपने वंश के पुराने आस्पद के अनुरूप अपना वर्ण समझना चाहिए ।

जातियों पर इतना बड़ा scam हो रखा है तभी तो कई लोग अपना इतिहास नहीं जानते I

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