अपने धर्म के साथ‌ बेअदबी क्या हिंदुओं के ही नसीब में लिखी‌‌ हुई है?


अपार वैदिक वाङ्मय, उपनिषद, पुराण, स्तुति, स्तोत्रों तथा असंख्य सहस्त्रनामावलियों को छोड़कर धर्म के व्यापारियों ने‌ चालाकी के ‌साथ सबसे सरल हनुमानचालीसा चुनी है। 

लेकिन यह भी शायद किसी को ही शुद्ध कंठस्थ हो! सोशलमीडिया पर देखा गया है कि ऐसे अद्भुत प्राणी न वन्देमातरम् सुनाना जानते हैं, न राष्ट्रगान। इन्हें तो शायद संघ की ध्वजवंदना भी पूरी न‌ आती हो। 

हिंदूधर्म के निजीकरण के उपरांत अब मदारी की तरह इसके मालिकान हनुमान जी को गली-गली ‌घुमा रहे‌ हैं। क्या तुलसीदास जी ने इसी काम के लिए हनुमान चालीसा रची थी? 

ईसाई और मुसलमान तो छोड़िए ही, क्या अपना सिख‌-समाज भी किसी प्रोटेस्ट के लिए गुरुग्रंथ साहिब का चौराहे-चौराहे पाठ कर सकता है? अपने धर्म के साथ‌ बेअदबी क्या हिंदुओं के ही नसीब में लिखी‌‌ हुई है?

जब मेरे शैशव में चैतन्यता का समावेश होने लगा वही‌ समय‌ था, पंडित नेहरू का देहावसान हुआ था। राजसत्ता में लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा जी, जगजीवनराम, चंद्रभानु गुप्त, पंडित कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनेता थे। विपक्ष में दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. बलराज मधोक, अटलबिहारी बाजपेई, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर जैसे जनवादी दिग्गज हुआ करते थे। सभी के नाम गिनाना संभव नहीं है।

शीर्ष धर्माचार्यों में पूज्य करपात्री जी महाराज, चारों पीठों के शंकराचार्य, श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी, प्रवचन मंचों के आदरणीय विभूतियों में अखंडानंद जी महाराज, डोंगरे जी महाराज और पंडित रामकिंकर उपाध्याय आदि अग्रगण्य रहे।

मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरे जीवन के प्रौढ़ काल में इकट्ठा सभी क्षेत्रों में इस कदर की गिरावट देखने को मिलेगी। राजनीति और राजनेताओं की बात मैं करना नहीं चाहता और करने लायक है भी नहीं। लेकिन जब धर्म क्षेत्र पर दृष्टिपात करता हूं तो लगता है कि मुगलकाल और अंग्रेजों के समय में भी उसकी जो मर्यादा साबूत और सुरक्षित बची हुई थी, आज सड़क पर लुट रही है।

तुलसीदास जी ने जब रामचरितमानस और हनुमान चालीसा की काशी में रचना की तो देश पर कोई हिंदू हृदय सम्राट नहीं, मुगल राज्य करते थे। रामचरितमानस की रचना के बाद अयोध्या जी में इसका समारोह पूर्वक शुभारंभ भी हुआ लेकिन इस कार्य में किसी तरह के राजकीय अथवा सांप्रदायिक अवरोध का इतिहास नहीं मिलता। तब भी तुलसीदास को तंग करने का काम किसी मुसलमान ने नहीं, अपितु अहंकारी धर्माचार्यों ने ही किया था। 

तुलसीदास जी के जीवन पर आधारित "मानस का हंस" पुस्तक में प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने लिखा है कि काशी के संकटमोचन मंदिर के लिए अब्दुल रहीम खानखाना ने गोस्वामी जी को प्रचुर आर्थिक सहयोग भी किया था। तुलसीदास जी की विदुषी धर्मपत्नी के पास अकबर के संदेशवाहक सम्राट का संदेश लेकर ज्योतिष विचार कराने बाअदब आया-जाया करते थे। परित्यक्ता रत्नावली की देखभाल उनकी अंतिम सांस तक राजापुर के‌ एक फरीदी मियां ने किया था।

आज मर्यादापुरुषोत्तम राम की बेशक बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं‌ हैं, मंदिर निर्माण हो रहा है, उनके नाम के रंग-बिरंगे नारे हैं। लेकिन राम की मर्यादा‌ विलुप्त-प्राय है। आज भगवान का नाम, उनकी स्तुति, उनकी चालीसा आत्मशांति के स्थान पर लोकजीवन में अशांति बांट रहे हैं। सनातनधर्म के जिस माधुर्य पर दूसरे धर्म ‌के‌ भी लोगों का मन भंवरे की तरह मडराता था, आज हिन्दुओं को ही इस प्रकार के हिंदुत्व पर घिन आती है। आज धर्म देखने में मोटा तगड़ा तन्दुरुस्त लगता जरूर है, लेकिन भीतर से खोखला और निर्बल हो रहा है। इसकी जीवनीशक्ति को राजनीतिक मंसूबे चाट कर बराबर करते जा रहे हैं।

आज का सनातन धर्म का वाह्य विकास बस जलोदर के उस मरीज जैसा है, जिसका शरीर फूल कर चिकना और सुडौल दिखाई पड़ता है लेकिन प्रतिदिन वह एक-एक कदम मृत्यु की ओर बढ़ता हुआ होता है। उसकी स्थूलता स्वास्थ्य नहीं व्याधि का लक्षण होती है।

स्वयंभू धर्माचार्य, शंकराचार्य, कथित फलाना सरकार, ढिमाका सरकार हनुमान जी, शंकर जी, काली जी और देवी-देवताओं की आड़ लेकर मनमाना प्रलाप करते हुए लोगों में अन्धविश्वास, डर और प्रतिशोध का‌ बीज बो रहे हैं। शस्त्र उठाने और हिंसा का आवाहन कर रहे हैं। बच्चा पैदा करने के लिए फूहड़ किस्म की सलाह दे रहे हैं। यह लोग सब कुछ कर रहे हैं किंतु वही नहीं कर पा रहे हैं जिसकी इनसे उम्मीद की जानी चाहिए।

भोलीभाली धर्मभीरु और अपने दुखों से आर्त जनता इन धर्माचार्यों और राजनीतिक मठाधीशों द्वारा एक ही सलीके से ठगी जा रही है। स्वयंभू संत अब सरकार के नाम से जाने जा रहे हैं। केंद्रीय और प्रदेश सरकारों के अलावा इन बाबाओं की भी अब सरकार होने लगी है। सरकार कहलाने का फैशन बढ़ रहा है। अपनी भीड़ और अकूत कमाई के बल पर राजसत्ता के संपर्क में बने हुए हैं। जिन्हें ऐसे बाबाओं पर लगाम लगानी चाहिए उनकी लगाम भी‌ खुद बाबाओं के हाथ में‌ होती है। 

असहनीय दुख तो तब होता है जब इन पाखंडियों के मंचपर कुछ अच्छे-भले समझे जाने वाले संत और भागवताचार्य जाकर इनकी कारगुजारी को अपनी प्रसिद्धि और विद्वत्ता के‌ पर्दे में ढांक देते हैं। जब धूर्तता का राजतिलक किया जाता है तब उसकी गति और विकराल हो जाती है।

ऐसे पाखंडी दरबार लगाकर नाम हनुमानजी का लेंगे और भीड़ को भूतप्रेत के चक्कर में डालकर खुद के सर्व शक्तिमान होने का मेगा शो चला रहे हैं। इन्हें कोई पूछे कि जब सब काम हनुमानजी को करना है तो बीच में बैठकर आप क्यों पुजवा रहे हो भाई? क्या अकेले हनुमान जी संकट हरण में समर्थ नहीं हैं? कोरोना की लहर में जब जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी, आप‌की‌‌ अलौकिक सिद्धियां कहां चली गई थीं? आपने हनुमान जी की बदनामी क्यों कराई?

हमारा सनातनधर्म ‌विश्व-मानवता का पथप्रदर्शक ‌ रहा है। यह आत्मा का धर्म है, अध्यात्म का धर्म है। यह मानव निर्माण की प्रयोगशाला है। इसकी जरूरत केवल हिंदुओं को और हिंदुस्तानियों को नहीं बल्कि सारे संसार को है। इसलिए जो सच्चे धर्मावलंबी हैं उन्हें धर्मरक्षा के लिए आवाज उठानी होगी और कालनेमि के चंगुल से हनुमानजी को बाहर लाना होगा तभी संजीवनी लक्ष्मण के प्राण बचा पाएगी।

संतो-गुरुओं का कर्तव्य समाज को अंधकार में धकेलना नहीं, उससे उद्धार करने का होता है। हमें अंधश्रद्धा अंधविश्वास, अंधभक्ति और अंधी चाल से उबारने की जिम्मेदारी हमारी खुद की है। अपने इसी‌ स्वधर्म का चिंतन करते हुए मैं उल्टी हवा में अपने विचार व्यक्त करने हेतु विवश होता हूं।

अंत में एक बार फिर से समझ लें और ठीक से समझ लें कि हमारे धर्म को इस समय किसी अन्य से नहीं बल्कि उन लोगों से बचाने की जरूरत पैदा हो गई है जिन्होंने इस धर्म बचाने का जिम्मा ले रखा है। सिर्फ वे यदि धर्म बचाना छोड़ दें तो वह अपने आप बचा रहेगा।

#श्रीकेशव

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