भगवान के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन- महाभारत, उद्योग पर्व

भगवान के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन (Part-1)
 महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 69 अथवा 70 

भगवान समस्त प्राणियों के निवास स्थान हैं तथा वे सब भूतों मे वास करते हैं, इसलिये ‘वसु’ हैं एवं देवताओं की उत्पत्ति के स्थान होने से और समस्त देवता उनमें वास करते हैं, इसलिये उन्हें ‘देव’ कहा जाता है। अतएव उनका नाम ‘वासुदेव’ है, ऐसा जानना चाहिये। बृहत अर्थात व्यापक होने के कारण वे ही ‘विष्‍णु’ कहलाते हैं।
"वसनात् सर्वभूतानां वसु त्वाद् देवयोनितः।
वासुदेवस् ततो वेद्यो बृहत्त्वाद् विष्णुरुच्यते ॥३॥"

हे भारत! मौन, ध्‍यान और योग से उनका बोध अथवा साक्षात्कार होता है; इसलिये आप उन्हें ‘माधव’ समझें। मधु शब्द से प्रतिपादित पृथ्वी आदि सम्पूर्ण तत्त्वों के उत्पादन एवं अधिष्‍ठान होने के कारण भगवान् मधुसूदन को ‘मधुहा’ कहा गया है। 
"मौनाद् ध्यनाच्च योगाच्च विद्दि भारत माधवम्।
सर्व तत्त्व लयाच्चैव मधुहा मधुसूदनः ॥४॥"

‘कृष’ धातु , सत्ता अर्थ का वाचक है और ‘ण’ शब्द आनन्द अर्थ का बोध कराता है, इन दोनों भावों से युक्त होने के कारण नित्य आनन्दस्वरूप श्रीविष्‍णु ‘कृष्‍ण’ कहलाते हैं।
"कृषिर्भूवाचकः शब्दो गश्च निर्वृति वाचकः।
विष्णुस् तद्भाव योगाच्च कृष्णो भवति सात्वतः ॥५॥"

नित्य, अक्षय, अविनाशी एवं परम भगवद्धाम का नाम पुण्डरीक है। उसमें स्थित होकर जो अक्षतभाव से विराजते हैं, वे भगवान ‘पुण्‍डरीकाक्ष’ कहलाते हैं। दस्युजनों को त्रास (अर्दन/पीड़ा) देने के कारण उनको ‘जनार्दन’ कहते हैं।
"पुण्डरीकं परं धाम नित्यमक्षयम व्ययम् ।
तद्भावात् पुण्डरीकाक्षो दस्यु त्रासाज् जानार्दनः ॥६॥"

वे सत्य से कभी च्युत नहीं होते और न सत्त्व से अलग ही होते हैं, इसलिये सद्भाव के सम्बन्ध से उनका नाम ‘सात्वत’ है। आर्ष कहते हैं वेद को, उससे भासित होने के कारण भगवान का एक नाम ‘आर्षभ’ है। आर्षभ के योग से ही वे ‘वृषभेक्षण’ कहलाते हैं। वृषभ का अर्थ है वेद, वही ईक्षण-नेत्र के समान उनका ज्ञापक है; इस व्युत्पत्ति के अनुसार वृषभेक्षण नाम की सिद्धि होती है।
"यतः सत्वं न च्यवते यच्च यत्वान्न हीयते।
सात्वतः सात्वतस् तस्मादार्षभाद् वृषभेक्षणः ॥७॥"

शत्रु सेनाओं पर विजय पाने वाले ये भगवान किसी जन्मदाता के द्वारा जन्म ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिये ‘अज’ कहलाते हैं। देवता स्वयं प्रकाशरूप होते हैं, अत: उत्कृष्‍ट रूप से प्रकाशित होने के कारण भगवान को ‘उदर’ कहा गया है और दम (इन्द्रियसंयम) नामक गुण से सम्पन्न होने के कारण उनका नाम ‘दाम’ है। इस प्रकार दाम और उदर इन दोनों शब्दों के संयोग से वे ‘दामोदर’ कहलाते हैं।
"न जायते जनित्राऽयमजस् तस्मादनीकजित् ।
देवानां स्वप्रकाशत्वाद्दमाद् दामोदरो विभुः ॥८॥"
🎋 🌺 🌻

भगवान के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन (Part-2)
महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 69 अथवा 70 

भगवान् हर्ष अथवा सुख से यु‍क्त होने के कारण हृषीक हैं और सुख-ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण ‘ईश’ कहे गये हैं। इस प्रकार वे भगवान ‘हृषीकश’ नाम धारण करते हैं। अपनी दोनों बाहुओं द्वारा भगवान इस पृथ्वी और आकाश को धारण करते हैं, इसलिये उनका नाम ‘महाबाहु’ हैं। 
हर्षात् सुखात् सुखैश्वर्याद् धृषीकेशत्वमश्रुते ।
बाहुभ्यां रोदसी बिभ्रन् महाबाहुरिति स्मृतः ॥९॥

भगवान् कभी नीचे गिरकर क्षीण नहीं होते अथवा अधोगति को प्राप्त नहीं होते, इसलिए 'अधोक्षज’ कहलाते हैं। वे नरों (जीवात्माओं) के अयन (आश्रय) हैं, इसलिये उन्हें ‘नारायण’ भी कहते हैं। 
अघो न क्षीयते जातु यस्मात्तस्मादधोक्षजः।
नराणामयनाच्चापि ततो नारायणः स्मृतः ॥१०॥

वे सर्वत्र परि‍पूर्ण हैं तथा सबके निवास स्थान हैं, इसलिये ‘पुरुष’ हैं और सब पुरुषों में उत्तम होने के कारण उनकी ‘पुरुषोत्तम’ संज्ञा है। वे सत और असत सबकी उत्पत्ति और लय के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबका ज्ञान रखते हैं; इसलिये उन्हें ‘सर्व’ कहते हैं। 
पूरणात्सदनाच्चापि ततोऽसौ पुरुषोत्तमः।
असतश्च सतश्चैव सर्वस्य प्रभवाप्ययात्। 
सर्वस्य च सदा ज्ञानात् सर्वमेतं प्रचक्षते ॥ ११॥

भगवान् कृष्‍ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है। भगवान् गोविन्द सत्य से भी उत्कृष्‍ट सत्य हैं। अत: उनका एक नाम ‘सत्य’ (सतनाम) भी है।
सत्ये प्रतिष्ठितः कृष्णः सत्यमत्र प्रतिष्ठितम्।
सत्यात् सत्यं तु गोविन्दस् तस्मात् सत्योपि नामतः ॥१२॥
 
विक्रमण (वामनावतार में तीनों लोकों को कदमों के अधीन) करने के कारण भी वे 'विष्‍णु’ कहलाते हैं, सब पर विजय पाने से ‘जिष्‍णु’, शाश्वत (नित्य) होने से ‘अनन्त’, तथा गौओं (इन्द्रियों) के ज्ञाता और प्रकाशक होने के कारण (गां विन्दति) इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘गोविन्द’ कहलाते हैं। 
विष्णुर् विक्रमणाद् देवो जयनाञ्जिष्णुरुच्यते।
शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद्भवाम् ॥१३॥  

वे अपनी सत्ता-स्फूर्ति देकर असत्य को भी सत्य-सा कर देते हैं और इस प्रकार सारी प्रजा को मोह में डाल देते हैं। निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले उन भगवान् मधुसूदन का स्वरूप ऐसा ही है। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले महाबाहु भगवान् कौरवों पर कृपा करने के लिये यहाँ पधारने वाले हैं।
अतत्त्वं कुरुते तत्त्वं तेन मोहयते प्रजाः ॥१४॥
एवंविधो धर्मनित्यो भगवान् मधुसूदनः ।
आगन्ता हि महाबाहुरानृशंस्यार्थमच्युतः ॥१५॥

🎋        🌺           🌻

Comments

Popular posts from this blog

चक्रवर्ती योग :--

जोधाबाई के काल्पनिक होने का पारसी प्रमाण:

क्या द्रौपदी ने सच में दुर्योधन का अपमान किया था? क्या उसने उसे अन्धपुत्र इत्यादि कहा था? क्या है सच ?

पृथ्वीराज चौहान के बारे में जो पता है, वो सब कुछ सच का उल्टा है .

ब्राह्मण का पतन और उत्थान

वैदिक परम्परा में मांसभक्षण का वर्णन विदेशियों-विधर्मियों द्वारा जोड़ा गया है. इसका प्रमाण क्या है?

द्वापर युग में महिलाएं सेनापति तक का दायित्त्व सभाल सकती थीं. जिसकी कल्पना करना आज करोड़ों प्रश्न उत्पन्न करता है. .

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में पुरुष का अर्थ

चिड़िया क्यूँ मरने दी जा रहीं हैं?

महारानी पद्मावती की ऐतिहासिकता के प्रमाण