अखण्ड भारत की माँग विपरीत कालचक्र की पुकार है

अखण्ड भारत की माँग विपरीत कालचक्र की पुकार है. By Vinay Jha


“अखण्ड भारत की राह में आने वाले मिट जायेंगे” — मोहन भागवत ।

राह में आने वाले मिट जायेंगे
उसके पश्चात अखण्ड भारत बनायेंगे,

अभी बन जाय तो उनकी संख्या बहुत बढ़ जायगी ।
किन्तु अभी माँग उठाने का समय आ चुका है ।

मोहन भागवत साधारण व्यक्ति नहीं हैं,और न ही किसी वंशवादी परिवारवादी जातिवादी संगठन के प्रतिनिधि हैं । 
अखण्ड भारत की माँग विपरीत कालचक्र की पुकार है । 
पं⋅ दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि राष्ट्र एक जीवन्त संस्था है जो समय की माँग के अनुसार अपने अनुकूल अनुषङ्गी संस्थाओं को स्वयं खड़ा कर लेता है;मोहन भागवत जैसों को खड़ा कर देता है और उनके मुँह से राष्ट्र अपनी बात निकाल देता है ।

राष्ट्र केवल भारत है,अन्य सब तो कलि के मल हैं । चारों पुरुषार्थों द्वारा प्रजा का रञ्जन जो करे उसे राष्ट्र कहते हैं । वह राष्ट्र अभी अशक्त है,किन्तु विपरीत कालचक्र में राष्ट्र पुनः अपने स्वाभाविक गौरव को प्राप्त करेगा और प्रजाओं का सर्वविध रञ्जन करेगा । राह में आने वाले मिट जायेंगे ।

जो राष्ट्र के योग्य न हो वे हिन्दू भी मिट जायेंगे ।
________________________

पिछले लेख में मैंने लिखा था — “कुछ लोग मेरी बात नहीं पचा सकेंगे कि रूसी टीवी पर भारत सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया ।”  बहुतों को मेरी बात बुरी लगी किन्तु विरोध नहीं किया क्योंकि उनको पता था कि मेरी बात सही थी । किन्तु मैंने यह नहीं लिखा कि रूसी टीवी पर भारत सरकार द्वारा अघोषित प्रतिबन्ध लगाना सही था,क्योंकि नैटो का खुलकर विरोध करना अभी भारत के लिए सही नहीं होगा वरना नैटो यूक्रेन की तरह भारत में नौटंकीबाजों को खड़ा कर देगा । भारत में नौटंकीबाजों की कमी नहीं है,उनको नैटो का वरदहस्त न मिले इसके लिए रूसी टीवी पर प्रतिबन्ध आवश्यक है ।

भारत की शक्ति उत्तरोतर बढ़ेगी । अमरीका लाख छटपटाये,विपरीत कालचक्र में उसका नाश होने से कोई रोक नहीं सकेगा । रूस का भी नाश होगा । अभी रूस की गलती नहीं है,किन्तु पिछली चार शतियों में रूस ने भी बहुत पाप किये हैं,नवगोरोद के छोटे से राज्य ने विशाल महादेश को बलपूर्वक उपनिवेश बनाया ।

१९३९ ई⋅ से २२९९ ई⋅ तक के ३६०-मानववर्षीय दिव्यवर्ष के अभीतक केवल ८३ मानववर्ष बीते हैं,जिसका मेदिनीचक्र संलग्न है । अभी दीर्घकाल तक त्रिपुरासुरियों के उत्थान का काल है,शेष सबके लिए अशुभ है । किन्तु त्रिपुरासुरियों के उत्थान का अर्थ है उठा कर धोबियापाट चित । सनातनियों का सबसे अशुभ काल है २००० ई⋅ से कुछ पहले से लेकर कुछ आगे तक का काल । २००० ई⋅ से कुछ पहले का अर्थ है लगभग एक सहस्राब्दि की दासता एवं पाँच सहस्राब्दियों का कलिकाल । २००० ई⋅ से कुछ आगे का अर्थ है पीछे वाली अवसर्पिणी से ३६ गुणा अल्प काल ।

जो लोग कुण्डली सॉफ्टवेयर का प्रयोग करना जानते हैं उनको उपरोक्त दिव्यवर्ष की कुण्डली जाँचनी चाहिए । उसमें “चक्र” बटन द्वारा मेषारम्भ काल देखना चाहिए,जिसके अनुसार १९३९ ई⋅ में सूर्य का प्राधान्य था जो शत्रुभावस्थ होकर विश्वयुद्ध कराने लगा । उच्च का सूर्य शत्रुभाव में अत्यधिक अशुभ होता है । तत्पश्चात १९५७ ई⋅ में शत्रुभावस्थ लग्नेश केतु का काल आया जिस कारण अधिकांश उपनिवेशों को मुक्ति मिली । किन्तु शत्रुभाव के कारण शीतयुद्ध चलता रहा । १९६१ ई⋅ से १९९१ ई⋅ तक सप्तम भाव में स्थित भारत चीन कोरिया जापान आदि का काल आया । कालचक्र के अन्तिम अंश में मेरु से दूर चीन कोरिया जापान का उत्थान होता है,भारत का नहीं । १९९१ ई⋅ से २०२० ई⋅ के आरम्भ तक मृत्यु के अष्टम भाव का काल रहा जिसके आरम्भ होते ही सोवियत सङ्घ का विघटन एवं नैटो के वर्चस्व वाला एकध्रुवीय काल आया । मृत्यु के अवतार नैटो का वर्चस्व बढ़ा । मानचित्र पर यह काल साइबेरिया से लेकर पाकिस्तान के आसपास का है,साइबेरिया तो शुभ गुरु से विद्ध था किन्तु अफगानिस्तान पाकिस्तान आदि के लिए बुरा काल रहा । २०२० ई⋅ के पश्चात भाग्यभाव का तीस वर्ष है जिसमें रूस का उत्थान है । इस प्रकार सम्पूर्ण दिव्यवर्ष का फल देखना चाहिए,और इसी विधि से दिव्य मासफल आदि भी देखें । यहाँ केवल लग्नवर्ग का संक्षिप्त उदाहरण दिया गया है,अन्य वर्गों के प्रबल ग्रहों के फल भी इसी विधि से देखें ।

विपरीत कालचक्र में भारत का उत्थान होगा । किन्तु कलियुग जैसे−जैसे घना होगा,वैसे−वैसे उसका दुष्प्रभाव भी बढ़ेगा । काल दो प्रकार के हैं — कलनात्मक,जिसका फल सौरपक्षीय कुण्डलियों द्वारा प्राप्त होता है;तथा संहारात्मक जिसका प्रजातीय चक्र है ४२००० वर्षीय अवसर्पिणी एवं उसका युग्म १२०० वर्षीय उत्सर्पिणी । संहारात्मक कालचक्र रहस्यमय है जिसपर लिखने की परिपाटी नहीं रही है । किन्तु २००० ई⋅ में अवसर्पिणी बीत चुकी है,अतः इसपर अब विस्तार से लिखा जा सकता है । उत्सर्पिणी का ज्ञान मानवजाति के लिए वर्जित है । संहारात्मक उत्सर्पिणी में केवल कलनात्मक सौरपक्षीय कुण्डलियाँ ही मानवजाति के लिए ज्ञेय है ।

सूर्यसिद्धान्तीय सौरपक्ष के सिवा सबकुछ अविद्या है; 

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितम् मुखम् । यो असौ आदित्य पुरुषः सो असौ अहम् । ॐ खं ब्रह्म ॥ 

(नेट पर इस वेदमन्त्र के केवल दाक्षिणात्य पाठ मिलेंगे जो उत्तर भारतीयों के लिए वर्जित हैं । गीताप्रेस ने भी भूलवश दाक्षिणात्य पाठ का ही प्रचार किया ।)

Comments

Popular posts from this blog

चक्रवर्ती योग :--

जोधाबाई के काल्पनिक होने का पारसी प्रमाण:

क्या द्रौपदी ने सच में दुर्योधन का अपमान किया था? क्या उसने उसे अन्धपुत्र इत्यादि कहा था? क्या है सच ?

पृथ्वीराज चौहान के बारे में जो पता है, वो सब कुछ सच का उल्टा है .

ब्राह्मण का पतन और उत्थान

वैदिक परम्परा में मांसभक्षण का वर्णन विदेशियों-विधर्मियों द्वारा जोड़ा गया है. इसका प्रमाण क्या है?

द्वापर युग में महिलाएं सेनापति तक का दायित्त्व सभाल सकती थीं. जिसकी कल्पना करना आज करोड़ों प्रश्न उत्पन्न करता है. .

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में पुरुष का अर्थ

चिड़िया क्यूँ मरने दी जा रहीं हैं?

महारानी पद्मावती की ऐतिहासिकता के प्रमाण