यूक्रेन सङ्कट — १

यूक्रेन सङ्कट — १

अमरीका से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना भारत के लिये आवश्यक है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि आज भी पाकिस्तान के बारे में अमरीका की नीति भारत के विरुद्ध ही है । अमरीकी सहायता के कारण ही पाकिस्तान भारत को परेशान करने का साहस कर सकता है । अमरीका का कहना है कि जबतक भारत आणविक शस्त्र का पूर्ण त्याग करके NPT को स्वीकार न ले तबतक अमरीका कोई भी महत्वपूर्ण शस्त्र भारत को नहीं दे सकता । परन्तु यही नियम पाकिस्तान पर अमरीका लागू नहीं करता ।

आज भी भारत का सबसे बड़ा सामरिक सहायक रूस ही है । अमरीका से घूस खाने वाले कई लोग भारत में प्रचार करते हैं कि रूस अपने हथियार बेचकर लाभ कमाने के लिये भारत को बाजार बनाना चाहता है । सच्चाई यह है कि जब मिग विमान संसार के सबसे अच्छे युद्धयानों में गिने जाते थे तब भी सोवियत संघ ने उसका कारखाना ही भारत को दे दिया था । ब्रह्मोस मिसाइल का इञ्जन रूस ने ही दिया,वैसा इञ्जन भारत नहीं बना सकता । भारत की सहायता करने में रूस को लाभ यह है कि भारत की शक्ति बढ़ाकर वह अमरीका का वर्चस्व घटाना चाहता है । रूस को लाभ हो वा न हो,रूस से अच्छे सम्बन्ध रखने में भारत को तो लाभ है ही ।

फिर भी खेद की बात है कि यूक्रेन सङ्कट पर अमरीकी सरकार के झूठे दुष्प्रचार को भारतीय मीडिया दुहराती रहती है । भारतीय मीडिया को प्रभावित करने के लिये अमरीकी गुप्तचर संस्था CIA सदैव सक्रिय रहती है ।

कुछ सप्ताह पहले भारत में प्रचार किया गया था कि उत्तर कोरिया एक पागल देश है जहाँ हँसने की मनाही है!उस समाचार का मूल स्रोत मैंने ढूँढा तो अमरीका की संरकारी संस्था मिली जिसके बारे में विकिपेडिया ने बताया कि चीन और उत्तर कोरिया के बारे में अमरीकी सरकार के पक्ष में प्रचार करने के लिये उस संस्था की स्थापना की गयी थी!ऐसी संस्था क्यों बतायेगी कि उत्तर कोरिया ने अपने समूचे इतिहास में कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया और अमरीका के नेतृत्व में २८ देशों ने उत्तर कोरिया पर १९५०−१ में आक्रमण किया जिसमें नेहरू ने अमरीका की सहायता में भारतीय सैनिक भी भेजे थे!चीन से सहायता मिलने पर उत्तर कोरिया की जान बची ।

उत्तर कोरिया और वियतनाम पर आक्रमण करने में अमरीका का तर्क यह था कि किसी भी देश में कम्युनिष्ट सरकार नहीं बनने दिया जायगा । संसार में किस देश में किस पार्टी की सरकार बननी चाहिये यह तय करने का अधिकार गॉड ने अमरीका को दिया है?

सोवियत संघ की स्थापना होने पर अमरीका सहित १६ विकसित देशों ने उसपर आक्रमण किया जिसकी चर्चा इतिहास की पुस्तकों में नहीं की जाती और उसे केवल गृहयुद्ध बताया जाता है । उस युद्ध में सोवियत संघ के दो तिहाई भूभाग पर अमरीका,जापान और पश्चिमी यूरोप के आक्रमणकारी देशों ने आधिपत्य जमा लिया था और यह तय था कि बचे हुए क्षेत्र भी शीघ्र ही लेनिन के हाथ से निकल जायेंगे । परन्तु मीडिया द्वारा सच्चाई को छुपाने के बावजूद पश्चिमी देशों में खबर फैल गयी कि सोवियत संघ पर आक्रमण हुआ है तो अमरीका सहित उन देशों के श्रमिक वर्ग ने व्यापक हड़ताल कर दी और युद्धसामग्री की आपूर्ति बन्द करा दी । तब आक्रमणकारी सेनाओं को लौटना पड़ा ।

उत्तर कोरिया के साथ भी सात दशकों से सौतेला व्यवहार हो रहा है । अमरीका उसकी घेराबन्दी हटा दे और उसे विश्व समुदाय में मिलने−जुलने दे तो जर्मनी की तरह दोनों कोरिया शीघ्र ही मिल जायेंगे और कम्युनिष्टों का शासन स्वतः समाप्त हो जायगा । परन्तु अमरीका में हथियार के सौदागरों का राज है । उनकी रुचि तनाव बनाये रखने में है,शान्ति में नहीं ।

रूस में तीन दशक पहले ही कम्युनिष्टों का शासन समाप्त हो गया । कम्युनिष्ट पार्टी को प्रतिबन्धित भी कर दिया गया । फिर भी रूस के प्रति अमरीका का व्यवहार सौतेला ही रहा । जब सोवियत संघ ने वार्सा सन्धि को नष्ट किया तभी नैटो को भी बन्द कर देना चाहिये था । विश्व में शान्ति छा जाती । किन्तु अमरीका ने उलटा किया,रूस की घेराबन्दी पहले से भी अधिक बढ़ा दी और सोवियत संघ के उपग्रह देशों को नैटो का सदस्य बनाना आरम्भ कर दिया ।

रूस को नैटो का सदस्य बनाना सम्भव नहीं है क्योंकि तब नैटो में अमरीका का वर्चस्व समाप्त हो जायगा । फ्रांस पहले से ही अमरीका के वर्चस्व का विरोधी रहा है और जर्मनी भी उर्जा के लिये रूस पर निर्भर है । अतः रूस यदि नैटो का सदस्य बन जाय तो फ्रांस और जर्मनी की सहायता से रूस नैटो पर ही आधिपत्य जमा लेगा ऐसा भय अमरीका को है । यूरोपियन यूनियन में फ्रांस और जर्मनी के सामने ब्रिटेन की दादागिरी नहीं चलती तो वह  यूरोपियन यूनियन ही छोड़ देता है । ब्रिटेन के जितने भी वंशज देश हैं,जैसे कि अमरीका कनाडा और ऑस्ट्रेलिया,वे ही रूस के भी शत्रु हैं और भारत के भी । भारत में हिजाब पर विवाद हो तो इन देशों द्वारा तत्क्षण मिथ्या दुष्प्रचार आरम्भ हो जाता है । ये सारे देश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नौकर हैं — वह कम्पनी तो १८५८ ई⋅ में ही बन्द कर दी गयी किन्तु उसके मालिक आज भी उक्त देशों के मालिक हैं । पेट्रोलियम उत्पादक अरब देशों पर भी उनका ही राज है ।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नौकरों द्वारा भारतीय मीडिया में भी यूक्रेन के मसले पर झूठा प्रचार किया जा रहा है ।

यूक्रेन (उक्राइना) के विवाद की जड़ में है अमरीका,ब्रिटेन आदि की यह ईच्छा कि रूस की शक्ति सदा के लिये नष्ट कर दी जाय । क्रीमिया से रूस को भगाने के लिये ब्रिटेन और फ्रांस ने तुर्क साम्राज्य की सहायता में रूस के विरुद्ध १८५३−५६ ई⋅ में युद्ध लड़ा । तीन विश्व शक्तियों के विरुद्ध रूस अकेला पड़ गया किन्तु ब्रिटेन और फ्रांस में भी तुर्कों का समर्थन करने के कारण जनाक्रोश भड़कने लगा जिस कारण सन्धि हुई । रूस को क्षेत्र की क्षति नहीं हुई किन्तु तुर्की की जिद पर रूस को मानना पड़ा कि बाल्टिक सागर में रूस नौसेना नहीं रखेगा ।

आज भी तुर्की नैटो का सदस्य है और रूस को नैटो शत्रु मानता है । क्रीमिया और पूर्वी यूक्रेन को लेकर आजकल युद्ध का खतरा है किन्तु भारत एवं पश्चिम की मीडिया सच्चाई को छुपाती है । सच्चाई यह है कि यूक्रेन और रूस मूलतः एक ही राष्ट्र थे जिसका नाम “रूस” था । यूक्रेन के लिखित इतिहास का आरम्भ ही “किएफ रूस” नाम के राज्य से हुआ । किएफ (Kiev) यूक्रेन की राजधानी रही है और “रूस” उसका मूल नाम था । किन्तु तुर्क साम्राज्यवाद के उत्थानकाल में रूस अशक्त था जिस कारण वर्तमान यूक्रेन प्रदेश पर रूस का आधिपत्य नहीं रहा,कभी तुर्कों का आधिपत्य रहा तो कभी पोलैण्ड वा ऑस्ट्रिया−हंगरी का । 

इसी दौरान रूस और यूक्रेन में सांस्कृतिक एवं भाषाई विभेद हुआ । १९१७ ई⋅ में सोवियत क्रान्ति के पश्चात जब सोलह पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो उन आक्रमणकारी देशों की सहायता से जारशाही समर्थक सेनाओं ने सोवियत संघ के अनेक प्रदेशों में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी,जिनमें से यूक्रेन भी था । किन्तु शीघ्र ही आक्रमणकारी सेनायें चली गयी और सोवियत संघ में यूक्रेन एक स्वायत्त गणराज्य के तौर पर सम्मिलित हुआ ।

पूर्वी यूक्रेन और क्रीमिया में कभी भी यूक्रेनी लोगों का बहुमत नहीं रहा । क्रीमिया एवं पूर्वी यूक्रेन में सैकड़ों वर्षों तक तातार तुर्कों का शासन था । भारोपीय आर्य परिवार की स्थानीय रूसी जातियों के पुरुषों का नरसंहार करके और उनकी स्त्रियों का अपहरण करके मध्य एशिया से आने वाली आक्रमणकारी तुर्क सेना पूर्वी यूक्रेन और क्रीमिया में बस गयी । उनको ही “तातार” कहा गया । हिटलर ने जब क्रीमिया पर आधिपत्य जमाया तो तातारों एवं तुर्क साम्राज्य के अन्य समर्थकों ने हिटलर की सहायता की जिस कारण बाद में स्तालिन ने अधिकांश तातारों को वहाँ से खदेड़कर उनके मूल प्रदेश मध्य एशिया भगा दिया । उन मुसलमान तातारों की सहानुभूति में ब्रिटेन और अमरीका ने स्तालिन का विरोध किया था ।  “क्रीमिया” का नाम ही तातार तुर्क “कीरिम” पर पड़ा जो “करीम खान” का अपभ्रंश था । क्रीमिया एवं पूर्वी यूक्रेन में यूक्रेनी लोग सदैव अल्पमत में ही थे,सबसे अधिक रूसी थे और हैं,एवं रूसियों के पश्चात क्रीमिया में दूसरी बड़ा जनसंख्या तातारों की है । क्रीमिया कभी भी यूक्रेन का हिस्सा भी नहीं था । परन्तु स्तालिन के पश्चात जब ख्रुश्चेव सोवियत संघ के प्रमुख बने तो सोवियत सत्ता−संघर्ष में अपने प्रदेश यूक्रेन का समर्थन पाने के लिये यूक्रेन को घूस में क्रीमिया दे दिया जो सोवियत कानून का भी उल्लङ्घन था ।

क्रीमिया में यूक्रेनियों की संख्या केवल ६% है,अतः उसे यूक्रेन को देना गलत था । हाल में जब यूक्रेन में रूस विरोधी सरकार बनी और उस सरकार ने यूक्रेन में सदा से बसे रूसियों का नरसंहार आरम्भ किया तो पुतिन ने क्रीमिया पर आधिपत्य जमा लिया । इसे रूस द्वारा यूक्रेन के प्रान्त क्रीमिया पर आक्रमण और कब्जा कहा जा रहा है,जबकि क्रीमिया केवल कुछ काल तक यूक्रेन का हिस्सा था और वह भी गलत तरीके से । पूर्वी यूक्रेन के जिन दो प्रान्तों को आज रूस ने मान्यता दी है वे भी रूसी बहुमत वाले क्षेत्र हैं । झगड़े का मूल कारण यह है कि अमरीका की शह पर वहाँ रूसियों का नरसंहार यूक्रेन की सेना कर रही है । लाखों रूसी पूर्वी यूक्रेन से भागकर रूस जा चुके हैं । पाश्चात्य और भारतीय मीडिया इस नरसंहार की चर्चा नहीं करती । किन्तु पुतिन यदि यूक्रेन में रूसियों के नरसंहार पर चुप रहेंगे तो रूस की जनता पुतिन की विरोधी बन जायगी ।

पेट्रो−डॉलर की सहायता से चुनाव में धाँधली करके जो बाइडेन अमरीका के राष्ट्रपति बने हैं । पेट्रो−डॉलर वालों को प्रसन्न करने के लिये तालिबान को अफगानिस्तान सौंपा । अब पेट्रो−डॉलर वालों के चहेते तुर्की को प्रसन्न करने के लिये रूस के विरुद्ध बाइडेन युद्धोन्माद भड़का रहे हैं । अमरीका में कोरोना के कारण जो मन्दी है उससे निबटने के लिये युद्ध भड़काकर हथियार बेचने से अमरीका में मन्दी समाप्त हो सकेगी ऐसी आशा युद्धोन्माद का दूसरा कारण है ।

पेट्रो−डॉलर के शान्तिदूत शेखों एवं हथियार के यहूदी सौदागरों का विश्व में वर्चस्व है । यह लॉबी भारत की भी विरोधी है और पाकिस्तान को पैदा करके भारत के विरुद्ध सशक्त बनाने के पीछे यही लॉबी है । अतः रूस के विरुद्ध मिथ्या विषवमन करके भारतीय मीडिया भारत के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह कर रही है । रूस में कम्यूनिज्म नहीं है,अतः रूस को उत्तर कोरिया की तरह पागल देश घोषित करना बेवकूफी है । पूर्वी यूक्रेन एवं क्रीमिया में कीरिम खान के तुर्क राज्य को पुनः खड़ा करने में भारत को क्या लाभ है?उस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रूसी मारे जा चुके हैं,रूस भागने वाले शरणार्थी रूसियों को रूस की सीमा तक खदेड़कर यूक्रेन की सेना गोली मार रही है ऐसे अनेक समाचार आ चुके हैं । यूक्रेन नैटो का सदस्य नहीं है किन्तु उसके सारे शस्त्र नैटो ने ही दिये हैं । संसार का खलीफा बनने का सपना देखने वाले तुर्की का इस पूरे झमेले में बहुत बड़ा हाथ है । भारत में घुसपैठ करने वाले जिस F-16 को भारत ने गिराया था उसके समूचे ७५ युद्धविमान वाले पाकिस्तानी बेड़े का रख−रखाव तुर्की में ही होता है । तुर्की नैटो का सदस्य है,तुर्की के माध्यम से अमरीका सारी खुराफात कर रहा है । बाबर को भी तोपखाना तुर्की से ही मिला था और अहमदशाह अब्दाली को भी । कश्मीर मसले पर तुर्की खुलकर पाकिस्तान का साथ देता है ।

सोवियत युग में यूक्रेन सोवियत संघ का सबसे विकसित औद्योगिक गणराज्य था । आज यूक्रेन यूरोप का सबसे निर्धन देश है — भ्रष्ट सरकार के कारण । यूक्रेनी और रूसी एक ही नस्ल के हैं किन्तु हथियारों के सौदागर उनमें नकली नस्ली युद्ध करा रहे हैं । मीडिया झूठ कहती है कि रूस के कारण युद्ध का खतरा है । युद्ध पहले से चल रहा है और एकतरफा यूक्रेन द्वारा अपने ही रूसी नागरिकों के विरुद्ध हो रहा है जो नरसंहार है । पुतिन यदि उन दो क्षेत्रों को मान्यता न दे तो वहाँ कोई रूसी जीवित नहीं बचेगा । यूक्रेन की सरकार अमरीकी घूस के लोभ में पागल हो गयी है । किन्तु लोभ में भारत के पत्तलकार भी पागल हो गये हैं । मीडिया का कर्तव्य सही समाचार देना है,न कि घूस खाकर मिथ्या प्रचार करना ।

By Vinay Jha

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