लंका और सिंहल
Vinay Jha
सभी प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में भू-व्यास 1600 योजन ही बताया गया है - सूर्यसिद्धान्त (जिसे वराहमिहिर ने वैदिक देवता सविता का सिद्धान्त बताया), नारद पुराण, ब्रह्मसिद्धान्त, सोमसिद्धान्त - यह तथ्य मुझे दुहराना पड़ रहा है | तथ्य और राय में अन्तर होता है | यह मेरी राय नहीं है, बल्कि सभी प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित तथ्य हैं | ये सभी ग्रन्थ इन्टरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है, मैं श्लोक की फोटो यहाँ दिखाने में अपना समय नष्ट नहीं करूंगा क्योंकि जो लोग मेरी बात का खण्डन करते हैं वे प्रमाण देखेंगे ही नहीं, व्यर्थ में मेरा समय नष्ट करेंगे | पृथ्वी का भू-व्यास 12756.328 किलोमीटर हुआ (कुछ स्रोतों में 33 मीटर अधिक मिलेगा) तो इसे 1600 योजन से भाग देने पर एक योजन 7.972705 किलोमीटर का हुआ, अर्थात लगभग आठ किलोमीटर का | ये सारी बातें मैं पहले भी लिख चुका हूँ| फिर भी बिना प्रमाण के कुछ लोग मनमाना बकवास फैलाते रहते हैं | गौतम बुद्ध से पहले के ये सारे ग्रन्थ हैं, अब अंग्रेज क्या कहते हैं उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं हैं क्योंकि उस समय उनके पूर्वज बन्दर थे |
रामायण में लंका की दूरी एक सौ योजन बतायी गयी है | तब भारत से लंका की दूरी आठ सौ किलोमीटर हुई, और लंका विषुवत रेखा पर हुआ | उपरोक्त सारे ग्रन्थ एवं अन्यान्य प्राचीन ग्रन्थ भी लंका को विषुवत पर ही बतलाते हैं |
उस लंका का नाम "श्रीलंका" कभी नहीं था | "श्रीलंका" अंग्रेजों का दिया आधुनिक नाम है जो सिंहल द्वीप के निवासियों को भारतीयों के विरुद्ध और बौद्धों को हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काने के उद्देश्य से अंग्रेजों की रणनीति का हिस्सा है | प्राचीन काल से ही "सिंहल" नाम चला आ रहा है, जिसका एक अन्य नाम कहीं-कहीं "ताम्रपर्णी" भी मिलता है, उसे "लंका" या "श्रीलंका" भी कहते थे ऐसा कोई प्रमाण आधुनिक काल से पहले नहीं मिलता | सिंहल को यूरोप के लोगों ने "सीलोन" बनाया जिसमें "का" जोड़कर अंग्रेजों ने सिंहल वासियों को सिखा दिया कि वे ही श्रीलंका (सीलोनका) के वासी हैं जिन्हें भारत के लोग घृणा से राक्षस कहते थे |
पाठ्यपुस्तकों में इस तथ्य का उल्लेख तक नहीं किया गया कि सिंहल भाषा मौर्यकालीन "मागधी" भाषा की ही एक बोली है | मागधी की दो शाखाएं निकलीं - पूर्वी और पश्चिमी | पूर्वी मागधी से कालान्तर में असमिया, बांग्ला और ओड़िया बनीं, और "पश्चिमी मागधी" से चार बोलियाँ निकलीं - मैथिली, भोजपुरी, मगही और सिंहल | सिंहल बोलने वाले सारे लोग सिंहल द्वीप चले गए ऐसी बात नहीं, "पश्चिमी मागधी" बोलने वाले लोग प्राचीन काल में अशोक से भी बहुत पहले सिंहल गए जिस कारण बिहार से सम्पर्क टूटने के परिणामस्वरूप वहाँ की "पश्चिमी मागधी" ने कालान्तर में "सिंहल" भाषा का रूप ले लिया | तुलनात्मक भाषाविज्ञान सीखते समय यह तथ्य मुझे पता चला था तो बड़ा दुःख हुआ था कि इतिहास के ग्रन्थों में इसकी जानकारी क्यों नहीं दी जाती है ! आज भी भारत के पत्रकार श्रीलंका के तमिल को भारतीय और वहाँ के सिंहलों को विदेशी कहते हैं !
आज का श्रीलंका रावण की लंका नहीं है | प्राचीन लंका विषुवत पर एक "दिव्य" नगर था जो बहुत बड़े दिव्य द्वीप पर था | यह देवों की नगरी थी जो कुबेर को प्राप्त हुई | रावण कुबेर का भाई ही था | पूरे महायुग का 70% सतयुग और त्रेतायुग होता है जिस दौरान लंका देवताओं की नगरी थी, राक्षसों की नहीं | त्रेतायुग के अन्त में मातृकुल का राक्षस धर्म अपनाकर रावण ने लंका को राक्षसों की नगरी बना दिया |
राक्षस भी मनुष्य नहीं होते, अतिमानवीय शक्तियों वाली एक योनि है जो कलियुग में नहीं रहती, श्रीकृष्ण द्वापर के अन्त में पृथ्वी को राक्षसों से विहीन करते हैं किन्तु लंका में विभीषण को कुछ नहीं कहते |
देवों की दिव्य नगरी में विभीषण की लंका मनुष्यों को दिख नहीं सकती |
यह सब प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित है | अब यह सत्य है या बकवास, वह दूसरी बात है | किन्तु विषुवत की उस दिव्य लंका को सिंहल में लाना अंग्रेजों की सोची समझी चाल है |
************************
रामायण का रामसेतु सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था - अर्थात आठ सौ किलोमीटर लम्बा विषुवत रेखा तक , जो अस्सी किलोमीटर चौड़ा था | अतएव रामसेतु का कुल क्षेत्रफल 48000 वर्ग किलोमीटर था और यदि भारत से विषुवत तक समुद्र की औसत गहराई दो किलोमीटर मान लें तो रामसेतु में 96000 घन किलोमीटर अथवा लगभग 4 लाख-अरब टन पत्थरों का उपयोग हुआ | दक्षिण भारत के सारे पहाड़ खोदकर समतल मैदान भी बना दें तो इतना पत्थर नहीं निकलेगा | ऐसी बातों को छात्र जीवन में मैं कपोल कल्पना मानता था |
************************
रामायण का रामसेतु सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था - अर्थात आठ सौ किलोमीटर लम्बा विषुवत रेखा तक , जो अस्सी किलोमीटर चौड़ा था | अतएव रामसेतु का कुल क्षेत्रफल 48000 वर्ग किलोमीटर था और यदि भारत से विषुवत तक समुद्र की औसत गहराई दो किलोमीटर मान लें तो रामसेतु में 96000 घन किलोमीटर अथवा लगभग 4 लाख-अरब टन पत्थरों का उपयोग हुआ | दक्षिण भारत के सारे पहाड़ खोदकर समतल मैदान भी बना दें तो इतना पत्थर नहीं निकलेगा | ऐसी बातों को छात्र जीवन में मैं कपोल कल्पना मानता था |
किन्तु दशकों तक मूल ऐतिहासिक दस्तावेजों, पुरातात्विक स्थलों के निरीक्षण, तुलनात्मक भाषाविज्ञान में बारह वर्षों तक अनुसन्धान, एवं दशकों तक कठोर प्राणायाम आदि करने के बाद रहस्य खुलने लगा कि वास्तव में देवताओं और अन्य अतिमानवीय प्राणियों का अस्तित्व था और है, जिन्हें हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, उनके ऐतिहासिक कार्यों के ठोस प्रमाण भी हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, क्योंकि देवगण नहीं चाहते कि बिना आत्मशुद्धि किये कोई मनुष्य देवों, उनकी वस्तुओं और उनके ज्ञान को देख या छू सके | सत्य का रास्ता गोल नहीं होता, असत्य की विपरीत दिशा में चलने पर हम सत्य तक कभी नहीं पँहुच सकते |
वर्तमान रामसेतु और श्रीलंका प्राचीन दिव्य लंका का छोटा सा बचा खुचा अवशेष मात्र है |
************************
पाली किसी भाषा या बोली का नाम नहीं है | मागधी में कुछ संस्कृत शब्द ठूँसकर अर्धशिक्षित बौद्धों ने विद्वान बनने का प्रयास किया, उस नकली तथाकथित भाषा को पाली कहते हैं | यहाँ "अर्धशिक्षित" शब्द का प्रयोग मैंने सोच-समझकर किया है, किन्तु अपमान करने के लिए नहीं | गौतम बुद्ध राजकुल के शिक्षित व्यक्ति थे, अतः निश्चित ही संस्कृत जानते थे ; किन्तु उनका उद्देश्य था आम जनता में जागृति फैलाना, जिस कारण उन्होंने लोकभाषा मागधी को चुना | किन्तु उनके सन्देशों में जानबूझकर संस्कृत शब्द ठूँसकर नकली पाली भाषा बनाना निस्सन्देह मूर्खों का कार्य था | मत भूलें कि बौद्धों के अनेक मूर्खतापूर्ण कार्यों के कारण ही आम लोगों ने उन्हें "बुद्धू" कहना आरम्भ कर दिया |
************************
पाली किसी भाषा या बोली का नाम नहीं है | मागधी में कुछ संस्कृत शब्द ठूँसकर अर्धशिक्षित बौद्धों ने विद्वान बनने का प्रयास किया, उस नकली तथाकथित भाषा को पाली कहते हैं | यहाँ "अर्धशिक्षित" शब्द का प्रयोग मैंने सोच-समझकर किया है, किन्तु अपमान करने के लिए नहीं | गौतम बुद्ध राजकुल के शिक्षित व्यक्ति थे, अतः निश्चित ही संस्कृत जानते थे ; किन्तु उनका उद्देश्य था आम जनता में जागृति फैलाना, जिस कारण उन्होंने लोकभाषा मागधी को चुना | किन्तु उनके सन्देशों में जानबूझकर संस्कृत शब्द ठूँसकर नकली पाली भाषा बनाना निस्सन्देह मूर्खों का कार्य था | मत भूलें कि बौद्धों के अनेक मूर्खतापूर्ण कार्यों के कारण ही आम लोगों ने उन्हें "बुद्धू" कहना आरम्भ कर दिया |
अर्धमागधी महाराष्ट्र की बोली थी, बुद्ध के क्षेत्र की नहीं | गौतम बुद्ध आजीवन जिन क्षेत्रों में घूमे उनसभी क्षेत्रों की एक ही भाषा थी - मागधी-प्राकृत, जिसमें नगण्य क्षेत्रीय प्रभेद थे | मथुरा से पंजाब-राजस्थान तक की भाषा शौरसेनी-प्राकृत थी (महाराज शूरसेन श्रीकृष्ण के दादा थे जिनके नाम पर यह नामकरण हुआ, किन्तु महाराज शूरसेन के काल में प्राकृत थी ही नहीं, सबलोग संस्कृत बोलते थे, यद्यपि कुछ आधुनिक मूर्ख प्राकृत को ही प्राचीन कहते हैं जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है))| गौतम बुद्ध के काल में "पाली" नाम की कोई चीज थी ही नहीं |
रामायण का रामसेतु सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था - अर्थात आठ सौ किलोमीटर लम्बा विषुवत रेखा तक , जो अस्सी किलोमीटर चौड़ा था | अतएव रामसेतु का कुल क्षेत्रफल 64000 वर्ग किलोमीटर था और यदि भारत से विषुवत तक समुद्र की औसत गहराई दो किलोमीटर मान लें तो रामसेतु में 128000 घन किलोमीटर अथवा लगभग सवा 5 लाख-अरब टन पत्थरों का उपयोग हुआ | दक्षिण भारत के सारे पहाड़ खोदकर समतल मैदान भी बना दें तो इतना पत्थर नहीं निकलेगा | ऐसी बातों को छात्र जीवन में मैं कपोल कल्पना मानता था |
किन्तु दशकों तक मूल ऐतिहासिक दस्तावेजों, पुरातात्विक स्थलों के निरीक्षण, तुलनात्मक भाषाविज्ञान में बारह वर्षों तक अनुसन्धान, एवं दशकों तक कठोर प्राणायाम आदि करने के बाद रहस्य खुलने लगा कि वास्तव में देवताओं और अन्य अतिमानवीय प्राणियों का अस्तित्व था और है, जिन्हें हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, उनके ऐतिहासिक कार्यों के ठोस प्रमाण भी हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, क्योंकि देवगण नहीं चाहते कि बिना आत्मशुद्धि किये कोई मनुष्य देवों, उनकी वस्तुओं और उनके ज्ञान को भविष्यववाणियों में मेरी रुचि नहीं।
जो भी होगा, सामने आ जाएगा। नहीं पँहुच सकते |
वर्तमान रामसेतु और श्रीलंका प्राचीन दिव्य लंका का छोटा सा बचा खुचा अवशेष मात्र है |
किन्तु दशकों तक मूल ऐतिहासिक दस्तावेजों, पुरातात्विक स्थलों के निरीक्षण, तुलनात्मक भाषाविज्ञान में बारह वर्षों तक अनुसन्धान, एवं दशकों तक कठोर प्राणायाम आदि करने के बाद रहस्य खुलने लगा कि वास्तव में देवताओं और अन्य अतिमानवीय प्राणियों का अस्तित्व था और है, जिन्हें हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, उनके ऐतिहासिक कार्यों के ठोस प्रमाण भी हम उनकी इच्छा होने पर ही देख सकते हैं, क्योंकि देवगण नहीं चाहते कि बिना आत्मशुद्धि किये कोई मनुष्य देवों, उनकी वस्तुओं और उनके ज्ञान को भविष्यववाणियों में मेरी रुचि नहीं।
जो भी होगा, सामने आ जाएगा। नहीं पँहुच सकते |
वर्तमान रामसेतु और श्रीलंका प्राचीन दिव्य लंका का छोटा सा बचा खुचा अवशेष मात्र है |
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में जिन द्वीपों के नाम प्राप्त होते हैं उनकी सूची मैं संलग्न चित्र में दे रहा हूँ, चित्र में दाहिनी ओर तीन द्वीपों के नाम हैं जो दूसरे प्राचीन सन्दर्भों से निकाले गए हैं ("प्रतिद्वीप" शब्द भी मिलता है किन्तु वह किसी द्वीप का नाम नहीं है)
पाली किसी भाषा या बोली का नाम नहीं है | मागधी में कुछ संस्कृत शब्द ठूँसकर अर्धशिक्षित बौद्धों ने विद्वान बनने का प्रयास किया, उस नकली तथाकथित भाषा को पाली कहते हैं | यहाँ "अर्धशिक्षित" शब्द का प्रयोग मैंने सोच-समझकर किया है, किन्तु अपमान करने के लिए नहीं | गौतम बुद्ध राजकुल के शिक्षित व्यक्ति थे, अतः निश्चित ही संस्कृत जानते थे ; किन्तु उनका उद्देश्य था आम जनता में जागृति फैलाना, जिस कारण उन्होंने लोकभाषा मागधी को चुना | किन्तु उनके सन्देशों में जानबूझकर संस्कृत शब्द ठूँसकर नकली पाली भाषा बनाना निस्सन्देह मूर्खों का कार्य था | मत भूलें कि बौद्धों के अनेक मूर्खतापूर्ण कार्यों के कारण ही आम लोगों ने उन्हें "बुद्धू" कहना आरम्भ कर दिया |
अर्धमागधी महाराष्ट्र की बोली थी, बुद्ध के क्षेत्र की नहीं | गौतम बुद्ध आजीवन जिन क्षेत्रों में घूमे उनसभी क्षेत्रों की एक ही भाषा थी - मागधी-प्राकृत, जिसमें नगण्य क्षेत्रीय प्रभेद थे | मथुरा से पंजाब-राजस्थान तक की भाषा शौरसेनी-प्राकृत थी (महाराज शूरसेन श्रीकृष्ण के दादा थे जिनके नाम पर यह नामकरण हुआ, किन्तु महाराज शूरसेन के काल में प्राकृत थी ही नहीं, सबलोग संस्कृत बोलते थे, यद्यपि कुछ आधुनिक मूर्ख प्राकृत को ही प्राचीन कहते हैं जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है))| गौतम बुद्ध के काल में "पाली" नाम की कोई चीज थी ही नहीं |
अर्धमागधी महाराष्ट्र की बोली थी, बुद्ध के क्षेत्र की नहीं | गौतम बुद्ध आजीवन जिन क्षेत्रों में घूमे उनसभी क्षेत्रों की एक ही भाषा थी - मागधी-प्राकृत, जिसमें नगण्य क्षेत्रीय प्रभेद थे | मथुरा से पंजाब-राजस्थान तक की भाषा शौरसेनी-प्राकृत थी (महाराज शूरसेन श्रीकृष्ण के दादा थे जिनके नाम पर यह नामकरण हुआ, किन्तु महाराज शूरसेन के काल में प्राकृत थी ही नहीं, सबलोग संस्कृत बोलते थे, यद्यपि कुछ आधुनिक मूर्ख प्राकृत को ही प्राचीन कहते हैं जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है))| गौतम बुद्ध के काल में "पाली" नाम की कोई चीज थी ही नहीं |
प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार श्रीराम का राज्यारोहण 878122 ईसापूर्व में हुआ था | अब या तो आप इसे काल्पनिक कह सकते हैं या सत्य, किन्तु इतने प्राचीन पुरातात्विक अवशेष ढूँढना मूर्खता है | कार्बन-14 डेटिंग भी कुछ ही हज़ार सालों में भयंकर त्रुटियाँ देने लगती हैं | लाखों साल पहले के अवशेषों का काल निर्धारण अत्यन्त कठिन है, और यदि ये अवशेष हिन्दू धर्म से सम्बंधित हों तो सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि जो लोग बाबरी मस्जिद के नीचे बने कुछ सौ साल पुराने राम मन्दिर के अकाट्य सबूतों को नहीं स्वीकार सकते , वे लाखों साल पहले के सबूतों के साथ कैसा बर्ताव करेंगे ! स्थानीय किंवदन्तियाँ कुछ ही शताब्दियों में "प्रामाणिक" और "दिव्य" बन जाती हैं
उच्चैठ में कालिदास की पाठशाला थी जहाँ वे पढ़ते थे , यह पुराने सर्वे के दस्तावेज कहते हैं (टोडरमल के) और वहाँ तालाब से गुप्तकाल की मूर्तियाँ भी बरामद हुई जो पटना संग्रहालय में हैं | उनकी पूरी कहानी एक प्राचीन लोकगाथा के रूप में बची हुई है जिसे विधान पार्षद संजय झा के चाचा लक्ष्मण झा जी (अरडिया-संग्राम) ने छपा दिया |
रामसेतु की गहराई 2000 मीटर के बदले 2 मीटर ही मान लें तो 4 लाख अरब टन के स्थान पर "केवल" 400 अरब टन पत्थरों कीआवश्यकता पड़ेगी | यदि मानें कि वे पत्थर पानी से भी हलके थे तो नल-नील द्वारा रामनाम लिखने के बाद न हलके हुए, खोदते और लाते समय तो सामान्य पत्थर ही थे न ! 400 अरब टन कितना होता है पता है ? संसार के सारे कोयला खानों से इतना कोयला निकालने में डेढ़ सौ साल लगेंगे | रामसेतु बनाने में कितना समय लगा था ? या तो चुपचाप मान लीजिये कि वानर दिव्ययोनि की जाति थी जैसा कि वाल्मीकि जी ने लिखा है, और रामसेतु दिव्य सेतु था, या फिर रामायण को काल्पनिक मानिए | आधुनिक भौतिक दृष्टि से आप रामसेतु को सत्यापित नहीं कर सकते | भौतिकवादियों के लिए भारतीय शास्त्र-पुराण-इतिहास नहीं लिखा गया (रामायण और महाभारत प्राचीनों के मतानुसार "इतिहास" हैं) |
"साइंटिफिक रिसर्च" वाले गोमाँस-भक्षकों के पल्ले रामायण नहीं पड़ेगी |
जैन धर्म के प्राचीन सन्देशों का संकलन वल्लभी में किया गया जो अर्धमागधी के क्षेत्र में आता था | मैं महावीर स्वामी जी के जन्मस्थान पर कई बार जा चुका हूँ, किन्तु इतिहासकारों को उस स्थान का ज्ञान नहीं है क्योंकि उन्हें डिग्री और ख्याति में ही रूचि है |
वल्लभी से पहले के संकलनों में से कुछ भी बचा नहीं, वल्लभी प्राचीनतम संकलन है जो बचा हुआ है | यही कारण है कि श्वेताम्बरों के सारे प्राचीनतम ग्रन्थ वल्लभी की अर्धमागधी भाषा में ही है जिस कारण कई लोगों को भ्रान्ति हो गयी कि महावीर स्वामी जी की भाषा भी अर्धमागधी थी | ये लोग इतना भी नहीं सोचते कि मगध की भाषा को मागधी कहते थे , अर्धमागधी शब्द का अर्थ ही हुआ कि जो मागधी से मिलती जुलती हो | जो लोग मगध की भाषा को "अर्धमागधी" सिद्ध करना चाहते हैं वे मागधी को जापान या कनाडा की भाषा मानेंगे ?
मेरे लेख में है :-- "अर्धमागधी महाराष्ट्र की बोली थी, बुद्ध के क्षेत्र की नहीं | गौतम बुद्ध आजीवन जिन क्षेत्रों में घूमे उनसभी क्षेत्रों की एक ही भाषा थी - मागधी-प्राकृत, जिसमें नगण्य क्षेत्रीय प्रभेद थे | मथुरा से पंजाब-राजस्थान तक की भाषा शौरसेनी-प्राकृत थी"|
"मथुरा से पंजाब-राजस्थान तक" शौरसेनी का क्षेत्र था, जबकि गुजरात के दक्षिण सौराष्ट्र क्षेत्र में वल्लभी पड़ता है |
मैंने लिखा कि "अर्धमागधी महाराष्ट्र की बोली थी", किन्तु इसका यह मूर्खतापूर्ण अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि आधुनिक महाराष्ट्र राज्य की जो सीमा है हूबहू वही सीमा प्राचीन काल में थी | अर्धमागधी का जो क्षेत्र था उसका मुख्य भाग महाराष्ट्र था किन्तु महाराष्ट्र के आसपास के अनेक क्षेत्रों में भी अर्धमागधी प्रचलित थी, खासकर गुजरात (और दक्षिण भारत)में |
राजस्थान से फैलने वाले गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य (जिसने सिन्ध तक पँहुचे अरब-मुस्लिमों से शेष भारत की रक्षा की) की गुर्जर शाखा ने दीर्घ काल तक गुजरात पर कब्ज़ा रखा जिस कारण गुजरात नाम भी पडा | गुर्जरों की भाषा आज गुजराती कहलाती है, किन्तु राजस्थान स्रोत होने के कारण राजस्थानी से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है, अतः शौरसेनी मूल की है |
किन्तु गुजरात में गुर्जरों का आगमन वल्लभी संकलन के बहुत बाद की घटना है, वल्लभी संकलन के काल में गुजरात की भाषा अर्ध-मागधी थी जो अब गुजरात में नहीं बची, महाराष्ट्र में बची है | महाराष्ट्र के मराठी प्रेमियों को "अर्धमागधी" शब्द ही अपमानजनक लगता है, खासकर बिहारियों (मागधों) से घृणा के कारण, जिस कारण अर्धमागधी को अब "महाराष्ट्री प्राकृत" कहा जाने लगा है, वरना राज ठाकरे के गुण्डे पीट डालेंगे | किन्तु सत्य छुपाये नहीं छुपता, एक प्रमाण प्रस्तुत है ("महाराष्ट्री प्राकृत" शीर्षक विकिपीडिया के लेख से , https://en.wikipedia.org/wiki/Maharashtri_Prakrit) जिसके अनुसार :--
"Works like Karpurmanjari and Saptashati (150 BC) were written in it. Maharashtri Prakrit was the most widely used Prakrit language in western and southern India. Maharashtri apabhraṃśas remained in use until the 13th century and was used widely in Jain literature and formed an important link in the evolution of Marathi."
विकिपीडिया का यह लेख बताता है कि "महाराष्ट्री प्राकृत" में जैन साहित्य का निर्माण हुआ | सब जानते हैं कि जैन साहित्य का निर्माण अर्धमागधी में हुआ | अब समझे न कि अर्धमागधी को ही "महाराष्ट्री प्राकृत" कहा जाने लगा है !
[आगे भाग-4 में ]
किन्तु गुजरात में गुर्जरों का आगमन वल्लभी संकलन के बहुत बाद की घटना है, वल्लभी संकलन के काल में गुजरात की भाषा अर्ध-मागधी थी जो अब गुजरात में नहीं बची, महाराष्ट्र में बची है | महाराष्ट्र के मराठी प्रेमियों को "अर्धमागधी" शब्द ही अपमानजनक लगता है, खासकर बिहारियों (मागधों) से घृणा के कारण, जिस कारण अर्धमागधी को अब "महाराष्ट्री प्राकृत" कहा जाने लगा है, वरना राज ठाकरे के गुण्डे पीट डालेंगे | किन्तु सत्य छुपाये नहीं छुपता, एक प्रमाण प्रस्तुत है ("महाराष्ट्री प्राकृत" शीर्षक विकिपीडिया के लेख से , https://en.wikipedia.org/wiki/Maharashtri_Prakrit) जिसके अनुसार :--
"Works like Karpurmanjari and Saptashati (150 BC) were written in it. Maharashtri Prakrit was the most widely used Prakrit language in western and southern India. Maharashtri apabhraṃśas remained in use until the 13th century and was used widely in Jain literature and formed an important link in the evolution of Marathi."
विकिपीडिया का यह लेख बताता है कि "महाराष्ट्री प्राकृत" में जैन साहित्य का निर्माण हुआ | सब जानते हैं कि जैन साहित्य का निर्माण अर्धमागधी में हुआ | अब समझे न कि अर्धमागधी को ही "महाराष्ट्री प्राकृत" कहा जाने लगा है !
[आगे भाग-4 में ]
भाग-4
विकिपीडिया के इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि "महाराष्ट्री प्राकृत" केवल महाराष्ट्र की ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत की भी मुख्य भाषा थी , किन्तु यह सच्चाई बताने में लोग डरते हैं कि इस अर्धमागधी से ही दक्षिण भारत की भाषाएँ भी निकली हैं क्योंकि द्रविड़-वादियों को सहन नहीं होगा ("आम" फल पर मैंने एक लेख दिया था जिसमें मैंने दिखाया था कि कैसे संस्कृत "आम्र" शब्द से ही दक्षिण भारत के भी "आम" के पर्याय शब्द महाराष्ट्र के रास्ते से निकले हैं, अर्थात "महाराष्ट्री प्राकृत" या अर्धमागधी से) |
मागधी और अर्धमागधी में बहुत अन्तर नहीं था, अर्धमागधी दरअसल मागधी का ही एक क्षेत्रीय प्रभेद (बोली) थी | शौरसेनी भी प्राचीन काल में मागधी से नाममात्र का अन्तर रखती थी, जिस कारण शौरसेनी क्षेत्र में अशोक के मागधी शिलालेख आम लोग पढ़ते थे | सच्चाई यह है कि मागधी पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जनभाषा थी जिसकी विभिन्न क्षेत्रीय बोलियाँ थीं |
भाषाविज्ञान के नियम के अनुसार यदि बिना सीखे आप किसी भाषा को समझ लेते हैं तो वह भाषा और आपकी भाषा किसी एक ही भाषा की बोलियाँ हैं | अतः पूरे भारतवर्ष की एक ही भाषा थी जिसमें कुछ क्षेत्रीय बोलीगत प्रभेद मात्र थे | किन्तु अंग्रेजों ने इन बोलियों को विभिन्न स्वतन्त्र प्राकृत भाषाएँ कहा ताकि भारत में भाषाई-सांस्कृतिक-धार्मिक अनेकता के उनके झूठे सिद्धान्त को प्रचारित किया जा सके | "मागधी" नाम ही गलत है जो मगध साम्राज्यवाद का प्रतीक है | अंग्रेजों और जर्मनों द्वारा जो गलत नाम प्रचारित किये गए हैं उनके स्थान पर केवल "प्राकृत" शब्द का प्रयोग करना चाहिए जो मौटे तौर पर बुद्ध के काल से मुस्लिम आधिपत्य तक के काल तक भारत की एकमात्र प्रचलित जनभाषा थी |
[आगे भाग-5 में ]
विकिपीडिया के इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि "महाराष्ट्री प्राकृत" केवल महाराष्ट्र की ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत की भी मुख्य भाषा थी , किन्तु यह सच्चाई बताने में लोग डरते हैं कि इस अर्धमागधी से ही दक्षिण भारत की भाषाएँ भी निकली हैं क्योंकि द्रविड़-वादियों को सहन नहीं होगा ("आम" फल पर मैंने एक लेख दिया था जिसमें मैंने दिखाया था कि कैसे संस्कृत "आम्र" शब्द से ही दक्षिण भारत के भी "आम" के पर्याय शब्द महाराष्ट्र के रास्ते से निकले हैं, अर्थात "महाराष्ट्री प्राकृत" या अर्धमागधी से) |
मागधी और अर्धमागधी में बहुत अन्तर नहीं था, अर्धमागधी दरअसल मागधी का ही एक क्षेत्रीय प्रभेद (बोली) थी | शौरसेनी भी प्राचीन काल में मागधी से नाममात्र का अन्तर रखती थी, जिस कारण शौरसेनी क्षेत्र में अशोक के मागधी शिलालेख आम लोग पढ़ते थे | सच्चाई यह है कि मागधी पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जनभाषा थी जिसकी विभिन्न क्षेत्रीय बोलियाँ थीं |
भाषाविज्ञान के नियम के अनुसार यदि बिना सीखे आप किसी भाषा को समझ लेते हैं तो वह भाषा और आपकी भाषा किसी एक ही भाषा की बोलियाँ हैं | अतः पूरे भारतवर्ष की एक ही भाषा थी जिसमें कुछ क्षेत्रीय बोलीगत प्रभेद मात्र थे | किन्तु अंग्रेजों ने इन बोलियों को विभिन्न स्वतन्त्र प्राकृत भाषाएँ कहा ताकि भारत में भाषाई-सांस्कृतिक-धार्मिक अनेकता के उनके झूठे सिद्धान्त को प्रचारित किया जा सके | "मागधी" नाम ही गलत है जो मगध साम्राज्यवाद का प्रतीक है | अंग्रेजों और जर्मनों द्वारा जो गलत नाम प्रचारित किये गए हैं उनके स्थान पर केवल "प्राकृत" शब्द का प्रयोग करना चाहिए जो मौटे तौर पर बुद्ध के काल से मुस्लिम आधिपत्य तक के काल तक भारत की एकमात्र प्रचलित जनभाषा थी |
[आगे भाग-5 में ]
आज से लगभग तीस वर्ष पहले जब मैं जैन विद्वान आचार्य हेमचन्द्र (~1100 ईस्वी, वल्लभी के पास खम्बात में दीक्षित) लिखित प्राकृत व्याकरण पढ़ रहा था तब पहली बार मुझे आभास हुआ था कि भारत की भाषाओं में जो विविधता आज है वह पहले नहीं थी, और जैसे-जैसे हम पिछले कालखण्डों की ओर जायेंगे वैसे-वैसे भारत की भाषाई-सांस्कृतिक-धार्मिक एकता उत्तरोतर बढ़ती हुई पायेंगे, और अन्ततः इस तथ्य तक पंहुचेंगे कि वेद ही समस्त भाषाओं की जननी है जिससे एक ओर प्राकृत निकली तो दूसरी ओर शिक्षित समुदाय की संस्कृत, जैसे कि आज भी एक ओर मानक हिन्दी है तो दूसरी ओर हिन्दी की अनेक बोलियाँ | द्रविड़ भाषाओं की भी वही उत्पत्ति है, यही कारण है कि तथाकथित द्रविड़ लेखकों के ब्रिटिश-पोषित संस्कृत-विरोध के बावजूद द्रविड़ समुदायों की सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ें वैदिक धर्म में ही हैं, किसी अन्य धर्म या संस्कृति में नहीं | चमड़ी के रंग से इंसानों को पहचानने वाले नस्लवादियों के माथे में मेरी बात नहीं घुसेगी | मेरा भाग्य अच्छा है कि करूणानिधि के चेले मेरे लेख नहीं पढ़ते, वरना मेरी हड्डियाँ तक नोच डालेंगे |
********* END
********* END
जैन धर्म के प्राचीन सन्देशों का संकलन वल्लभी (गुजरात) में किया गया जो अर्धमागधी के क्षेत्र में आता था" , उससे पहले के अर्धमागधी जैन ग्रन्थ संसार में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं | श्वेताम्बरों के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ये हे हैं | दिगम्बरों ने वल्लभी के ग्रन्थों को मान्यता नहीं दी | किन्तु अर्धमागधी में वल्लभी से पहले के ग्रन्थ दिगम्बरों के पास भी नहीं हैं, कुछ अन्य भाषाओं में हैं | विस्तार के लिए पढ़ें (विकिपीडिया में कई बार गलत सूचनाएँ भी रहती हैं, खासकर हिन्दू धर्म पर, अतः सावधानी बरतें) :--
https://en.wikipedia.org/wiki/Jain_literature
https://en.wikipedia.org/wiki/Jain_Agamas
https://en.wikipedia.org/wiki/Jain_literature
https://en.wikipedia.org/wiki/Jain_Agamas
मुहम्मद साहब से पहले अभी तक मैं किसी की सही कुण्डली या अन्य घटनाओं का ठीक से सत्यापन नहीं कर पाया हूँ, प्रयास भी नहीं करता क्योंकि ऐसे अनुसन्धानों में अत्यधिक समय लगता है और सही रहने पर भी लोग विश्वास नहीं करते | मुहम्मद साहब की कुण्डली की जाँच उनके जीवन की सारी घटनाओं से मैंने कर ली थी (2004 इस्वी में), किन्तु छपाने का लाभ नहीं क्योंकि जेहादी पगला जायेंगे | विश्व इतिहास की घटनाओं को समझने में ऐसी कुण्डलियाँ सहायता करती है | सिकन्दर की कुण्डली अधूरी बन पायी है, किन्तु यह जाँच पूरी हो गयी है कि उसने लाहौर- अमृतसर का सीधा रास्ता न चुनकर झेलम का टेढा रास्ता क्यों चुना और मगध-राज्य में ऐसी कौन सी कमजोरी हो गयी थी कि नन्द वंश का राज ध्वस्त हो गया | समस्या यह है कि इन्टरनेट के ज्योतिषियों को आधुनिक भौतिक विज्ञान से इतना लगाव है कि वे ऋषियों के प्राचीन ज्योतिषीय गणित द्वारा कुण्डली की जाँच भी नहीं करना चाहते | रामायण तो पौने नौ लाख साल पहले की घटना है, ज्योतिषीय जाँच करने का लाभ नहीं, लोग मानेंगे ही नहीं |
विकिपीडिया के सारे भारत-सम्बन्धी लेख उन सेक्युलरों के कब्जे मैं है जो पश्चिम के ईसाईयों से पैसे खाते हैं, समय नष्ट होगा |
सम्भवतः वह जिसे आजकल के कुछ दक्षिण लोग कुमारी कुन्दम द्वीप कहते है जिसका एक सिरा आस्ट्रेलिया और एक सिरा भारत के तमिळनाडु से जुड़ा था,लेकिन तब भी रामसेतु का वर्णन किसी ने नहीं किया वैसे यह एक कल्पना मात्र ही है ऐसा उनका कहना है ।ऐसी किवदंतिया अनेक ग्रामो की मैंने और सम्भवतः सभी ने सुनी ही होगी ।
Comments
Post a Comment
कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.