पाटण के पटोळे
हमारे घरमें भी जुमलेबाजी चलती रहती है ।
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12वीं सदी में गुजरात बसे 700 परिवार में से अब मात्र तीन परिवार ही इस कला और व्यवसाय के साथ बने हुए हैं और अपने परिवार की कला विरासत को बचाने का प्रयत्न कर रहे है ।
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पाटण के पटोले किसी दुकान या शो-रूम में नही मिलते हैं । चाहिए तो खास ऑर्डर देकर बनवाना पडता है ।
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एक पटोला बनाने में चार कारीगर की टीम को तीन चार महिने लग जाते हैं । उसकी किमत देढ लाख से शुरु होकर सात-आठ लाख तक होती है । बनावट की बारिकियां और उसमें लगता समय और काम करते हाथ की संख्या उसकी किमत पर असर करते हैं ।
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समय समय पर कपडे की फॅशन बदलती रही है लेकिन पाटण के पटोले में उसके 900 साल के इतिहस में जरा-सी भी छेडखानी किये बीना एक ही डिजाईन चली आ रही है, क्योंकि पटोले की महत्व की बात उसकी डिजाईन और पालव है । हाथ से बने पटोले 80 साल तक जैसे के तैसे रहते हैं और 60 साल की गेरंटी तो उसके कलाकार देते हैं । उसका रंग 300 साल तक सलामत रहे ऐसी चीज से बनता है । जैसे सोना नारी की संपत्ती है ऐसे ही पटोला संपत्ती है । क्योंकि अपना पटोला को सालों बाद बेचो तो खरीद किमत से अधिक किमत मिलती है । जब की सामान्य कपडे को कोइ खरीदेगा नही ।
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आज मेक इन इन्डिया और अच्छे दिन चल रहे हैं, हर जगह मशीन और टेक्नोलोजी का बोलबाला है फिर भी यह साल्वि परिवार हाथ की मदद से ही पटोला बनाते हैं ।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1102359563250237&set=a.111793722306831.20813.100004286112571&type=3
बता रही थी कि पाटण के पटोळे बहुत मेहंगे हो गए हैं, २५ हजार थे अब लाख के हो गए हैं, और बूकिन्ग करने के दो साल बाद मिलते है ।
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जब रेडियो था तब आशा भोंसले का गाया पाटण के पटोळे का गीत बहुत सुना था लेकिन किसी महिला के शरीर पर पटोला कभी देखा नही है ।
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जब रेडियो था तब आशा भोंसले का गाया पाटण के पटोळे का गीत बहुत सुना था लेकिन किसी महिला के शरीर पर पटोला कभी देखा नही है ।
आशा भोंसले का गीत--‘છેલાજી રે મારી હાટું પાટણથી પટોળા મોંઘા લાવજો..’
https://www.youtube.com/watch?v=Vk8sauaYxV0
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बताया गया कि पाटण में सिर्फ एक ही परिवार बचा है जो पटोला बनाता है । साल भर में मात्र तीनचार पीस ही बनाते हैं ।
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बताया गया कि पाटण में सिर्फ एक ही परिवार बचा है जो पटोला बनाता है । साल भर में मात्र तीनचार पीस ही बनाते हैं ।
जुमले का सत्य जानने की कोशीश की तो पूरा इतिहास सामने आ गया ।
पटोले बनाने की शुरुआत 12वीं सदी में महाराष्ट्रके साल्वि परिवारने की थी । उनके बनाए पटोले खरीद कर देश विदेश के राजा रजवाडे अपनी शान बढाते थे । रेशम को पवित्र माना जाता था । १२ वीं सदी के जैन राजा कुमारपाल को पूजा विधि में हर रोज रेशम के नये वस्त्र की जरूरत पडती थी । वो गुजरात में बने पटोले पहनता था वो इतने पवित्र नही थे । उसे महाराष्ट्र के साल्वि परिवार द्वारा बने पटोले अधिक पवित्र लगे और उसे पसंद आ गये । उसने महाराष्ट्र के ७०० साल्वि परिवार को पाटण में आमंत्रित किए और उनकी कला का कदरदान बनके उनको प्रोत्साहन दिया ।
पाटण पटोले का कलाकेन्द्र बन गया ।
पाटण पटोले का कलाकेन्द्र बन गया ।
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12वीं सदी में गुजरात बसे 700 परिवार में से अब मात्र तीन परिवार ही इस कला और व्यवसाय के साथ बने हुए हैं और अपने परिवार की कला विरासत को बचाने का प्रयत्न कर रहे है ।
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पाटण के पटोले किसी दुकान या शो-रूम में नही मिलते हैं । चाहिए तो खास ऑर्डर देकर बनवाना पडता है ।
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एक पटोला बनाने में चार कारीगर की टीम को तीन चार महिने लग जाते हैं । उसकी किमत देढ लाख से शुरु होकर सात-आठ लाख तक होती है । बनावट की बारिकियां और उसमें लगता समय और काम करते हाथ की संख्या उसकी किमत पर असर करते हैं ।
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समय समय पर कपडे की फॅशन बदलती रही है लेकिन पाटण के पटोले में उसके 900 साल के इतिहस में जरा-सी भी छेडखानी किये बीना एक ही डिजाईन चली आ रही है, क्योंकि पटोले की महत्व की बात उसकी डिजाईन और पालव है । हाथ से बने पटोले 80 साल तक जैसे के तैसे रहते हैं और 60 साल की गेरंटी तो उसके कलाकार देते हैं । उसका रंग 300 साल तक सलामत रहे ऐसी चीज से बनता है । जैसे सोना नारी की संपत्ती है ऐसे ही पटोला संपत्ती है । क्योंकि अपना पटोला को सालों बाद बेचो तो खरीद किमत से अधिक किमत मिलती है । जब की सामान्य कपडे को कोइ खरीदेगा नही ।
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आज मेक इन इन्डिया और अच्छे दिन चल रहे हैं, हर जगह मशीन और टेक्नोलोजी का बोलबाला है फिर भी यह साल्वि परिवार हाथ की मदद से ही पटोला बनाते हैं ।
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इन्दिरा गांधी पाटण आयी थी तो उनको पटोले का लाभ मिला था । नरगीस दत्त सहित नेता अभिनेता और सभी वीआईपी समुदाय की देसी महिलाएं पाटन के पटोले के लिए पागल है, जिन्स वालियों को भले इसकी कदर ना हो।
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एक जुमला है कि पटोला बनानेवाले बंद दरवाजे छुपकर काम करते हैं ताकी अन्य लोग इसे बनाने की रित सिख ना ले । लेकिन अशोकभाई साल्वि खूद कहते हैं कि हम तो इस कला को आगे ले जाना चाहते हैं, अन्य को सिखाना चाहते हैं ।
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ये कला है, धंधा नही, इसलिए कोइ करोडपति नही बना है । नया आनेवाला सौ बार सोचता है इस काम को अपनाने में ।
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.