चित्त, धारणा-ध्यान-समाधि व मानसिक व्याधि

Vinay Jha
8 May





















मोक्ष किसी बोध का नहीं, बल्कि सच्चे आनन्द की अवस्था का नाम है, सप्तकोशों में उच्चतम कोश का नाम आनन्दमय कोश है जिसे ब्रह्मानन्द भी कहा जाता है | आत्मबोध के बाद आनन्द का पथ खुलता है |
आत्मबोध बिना गुरु के असम्भव है | किन्तु गुरु अपने मन से नहीं ढूंढना चाहिए | योग के मार्ग पर चलते रहने से समय आने पर ईश्वर गुरु से मिला देते हैं |

समाधि विशुद्ध आनन्द की अवस्था है, आत्मा की अपनी स्वाभाविक अवस्था है | जबकि ऐन्द्रिक आनन्द वास्तव में आनन्द नहीं हैं, वे तो केवल इन्द्रियों का अपने विषयों की ओर आकर्षण है जिसका इन्द्रियों को लाखों योनियों में बारम्बार जन्मों से अभ्यास बना हुआ है | यह आकर्षण भी अनवरत नहीं रहता, इन्द्रियों की तुष्टि होने पर ऐन्द्रिक आनन्द नष्ट हो जाता है | अतः इसे आनन्द कहना भ्रम है, माया है | ऐन्द्रिक भोग से जो तुष्टि मिलती है वह इन्द्रियों और मन की जड़ तुष्टि है जिसे अविद्या के लम्बे अभ्यास के कारण जीव आनन्द समझ लेता है | आत्मा के चैतन्य आनन्द का उसे अनुभव नहीं, अनुभव हो जाय तो ऐन्द्रिक तुष्टियों से जीव को वितृष्णा होने लगती है | इसी वैराग्य के अभ्यास को सतत बढाते रहना चाहिए | चित्त जड़ है, अभ्यास का गुलाम है | इसे ऐन्द्रिक भोग का अभ्यास है जिसे योग के दीर्घ अभ्यास से ही सुधारा जा सकता है |

अहंकार के तीन भेद हैं, सात्विक, राजसिक और तामसिक |

जो अहंकार दूसरों को दुःख देने में ही आनन्द का अनुभव करे और स्वयं को धर्म से विमुख करे वह तामसिक है | तामसिक अहंकार अन्ततः पतन कराता है |

जो अहंकार सांसारिक सुखों की ओर उन्मुख कराये वह राजसिक है |

जो अहंकार धर्म की ओर ले जाय वह सात्विक है |

इन्हें क्रमश: त्यागना चाहिए, अन्त में सात्विक अहंकार को भी त्यागना पड़ता है, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती -- आपकी अस्मिता यदि अहंकार में स्थित है तो आपकी अस्मिता वास्तविक आत्मा में स्थित नहीं हो सकती | अस्मिता कहते हैं "मैं" के भाव को |

सात्विक अहंकार भी जब नष्ट हो जाता है तो समाधि लगती है, तब आत्मा और परमात्मा का भेद मिटने लगता है | समाधि की आरम्भिक अवस्था में जीव को बोध रहता है, अपना भी और संसार का भी, जिसे सम्प्रज्ञात समाधि अथवा अमौन (शाब्दिक ज्ञान और चिन्तन) कहते हैं | इसमें सभी लोकों के तीनों कालों का ज्ञान योगी इच्छानुसार पा सकता है | सम्प्रज्ञात समाधि में ज्ञाता और ज्ञान का भेद रहता है, प्रज्ञा कार्य करती है | किन्तु यह वास्तविक समाधि नहीं है, केवल उसका आरम्भ है |

समाधि की वास्तविक अवस्था "असम्प्रज्ञात समाधि" अथवा मौन है, तब शब्दों में चिन्तन समाप्त हो जाता है, ऐसे मौन योगी को मुनि कहते हैं | चित्त में विचार का अन्त हो जाता है, कोई भी वृत्ति नहीं बचती | केवल आत्मतत्व का अपना अनुभव बचता है, और तब वह आत्मतत्व सर्वत्र सभी लोकों और सभी कालों में व्याप्त रहता है क्योंकि विशुद्ध चैतन्य को सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता, व्यक्ति और परमात्मा में भेद नहीं रहता, ज्ञाता और ज्ञेय में अन्तर नहीं रहता, क्योंकि सृष्टि भी आत्मतत्व के ब्रह्मा-रूप की केवल कल्पना है, अतः सबकुछ आत्म ही है | जब सबकुछ "मैं" ही हूँ तो जानने वाला और जानने की वस्तु में भेद नहीं रहता, केवल एक अद्वैत तत्व बचता है, इस सत्य अवस्था से पहले की सारी अवस्थाएं माया हैं, असत हैं | एक "मैं" के सिवा ब्रह्माण्ड में और कुछ भी नहीं है | इस "मैं" को कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि "मैं" के सिवा कुछ है ही नहीं तो चाहा किसे जाय ? और जब चाहत ही नहीं, तो जन्म क्यों लें ?

समाधि विशुद्ध आनन्द की अवस्था है, आत्मा की अपनी स्वाभाविक अवस्था है | जबकि ऐन्द्रिक आनन्द वास्तव में आनन्द नहीं हैं, वे तो केवल इन्द्रियों का अपने विषयों की ओर आकर्षण है जिसका इन्द्रियों को लाखों योनियों में बारम्बार जन्मों से अभ्यास बना हुआ है | यह आकर्षण भी अनवरत नहीं रहता, इन्द्रियों की तुष्टि होने पर ऐन्द्रिक आनन्द नष्ट हो जाता है | अतः इसे आनन्द कहना भ्रम है, माया है | ऐन्द्रिक भोग से जो तुष्टि मिलती है वह इन्द्रियों और मन की जड़ तुष्टि है जिसे अविद्या के लम्बे अभ्यास के कारण जीव आनन्द समझ लेता है | आत्मा के चैतन्य आनन्द का उसे अनुभव नहीं, अनुभव हो जाय तो ऐन्द्रिक तुष्टियों से जीव को वितृष्णा होने लगती है | इसी वैराग्य के अभ्यास को सतत बढाते रहना चाहिए | चित्त जड़ है, अभ्यास का गुलाम है | इसे ऐन्द्रिक भोग का अभ्यास है जिसे योग के दीर्घ अभ्यास से ही सुधारा जा सकता है |
अहंकार के तीन भेद हैं, सात्विक, राजसिक और तामसिक |
जो अहंकार दूसरों को दुःख देने में ही आनन्द का अनुभव करे और स्वयं को धर्म से विमुख करे वह तामसिक है | तामसिक अहंकार अन्ततः पतन कराता है |
जो अहंकार सांसारिक सुखों की ओर उन्मुख कराये वह राजसिक है |
जो अहंकार धर्म की ओर ले जाय वह सात्विक है |
इन्हें क्रमश: त्यागना चाहिए, अन्त में सात्विक अहंकार को भी त्यागना पड़ता है, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती -- आपकी अस्मिता यदि अहंकार में स्थित है तो आपकी अस्मिता वास्तविक आत्मा में स्थित नहीं हो सकती | अस्मिता कहते हैं "मैं" के भाव को |
सात्विक अहंकार भी जब नष्ट हो जाता है तो समाधि लगती है, तब आत्मा और परमात्मा का भेद मिटने लगता है | समाधि की आरम्भिक अवस्था में जीव को बोध रहता है, अपना भी और संसार का भी, जिसे सम्प्रज्ञात समाधि अथवा अमौन (शाब्दिक ज्ञान और चिन्तन) कहते हैं | इसमें सभी लोकों के तीनों कालों का ज्ञान योगी इच्छानुसार पा सकता है | सम्प्रज्ञात समाधि में ज्ञाता और ज्ञान का भेद रहता है, प्रज्ञा कार्य करती है | किन्तु यह वास्तविक समाधि नहीं है, केवल उसका आरम्भ है |
समाधि की वास्तविक अवस्था "असम्प्रज्ञात समाधि" अथवा मौन है, तब शब्दों में चिन्तन समाप्त हो जाता है, ऐसे मौन योगी को मुनि कहते हैं | चित्त में विचार का अन्त हो जाता है, कोई भी वृत्ति नहीं बचती | केवल आत्मतत्व का अपना अनुभव बचता है, और तब वह आत्मतत्व सर्वत्र सभी लोकों और सभी कालों में व्याप्त रहता है क्योंकि विशुद्ध चैतन्य को सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता, व्यक्ति और परमात्मा में भेद नहीं रहता, ज्ञाता और ज्ञेय में अन्तर नहीं रहता, क्योंकि सृष्टि भी आत्मतत्व के ब्रह्मा-रूप की केवल कल्पना है, अतः सबकुछ आत्म ही है | जब सबकुछ "मैं" ही हूँ तो जानने वाला और जानने की वस्तु में भेद नहीं रहता, केवल एक अद्वैत तत्व बचता है, इस सत्य अवस्था से पहले की सारी अवस्थाएं माया हैं, असत हैं | एक "मैं" के सिवा ब्रह्माण्ड में और कुछ भी नहीं है | इस "मैं" को कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि "मैं" के सिवा कुछ है ही नहीं तो चाहा किसे जाय ? और जब चाहत ही नहीं, तो जन्म क्यों लें ?

.मुक्त पुरुष यदि चाहे तो जन्म ले सकता है किन्तु ऋषि की तरह केवल लोक-कल्याण के लिए, अपने किसी स्वार्थ के लिए नहीं | ब्रह्मा जी केवल सृष्टि बनाते हैं, प्रजा की उत्पत्ति तो ऋषियों को आकर करना पड़ता है | वे ही सभी गोत्रों के प्रवर्तक हैं |
किन्तु हर मुक्त पुरुष ऋषि नहीं बन सकते | वैदिक मन्त्र-दृष्टा को ऋषि कहते हैं | विशिष्ट सिद्धियों के विशेषज्ञ को "सिद्ध" कहते हैं | ऐसे कई प्रकार के मुक्त पुरुष हैं | यहाँ "पुरुष" केवल आत्मा का बोध कराता है, इसमें नारी-शक्तियाँ भी आतीं हैं | देवता भी दो प्रकार के होते हैं, सूर्य-चन्द्र की तरह आजान देव जो अमर होते हैं और इन्द्रादि की तरह कर्मदेव जो कर्मों के कारण देवपद पाते हैं और मन्वन्तर समाप्त होते ही इन्द्रपद में दूसरा जीव आ जाता है |

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चित्त क्या है? 

पूरे कारण-शरीर को ही चित्त भी कहते हैं, किन्तु जबतक जीव स्थूल शरीर से जुड़ा है अर्थात जीवित है तबतक उसे चित्त कहते हैं, देहत्याग करने के बाद उसी चित्त को कारण-शरीर कहते हैं क्योंकि वह पृथक अस्तित्व बना लेता है | (इस उत्तर को कहीं सहेज कर रखिये, किसी पुस्तक में इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिलेगा, आधुनिक लेखक तो और भी भ्रांतियाँ फैलाते हैं |) मन उसका एक करण है |




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