शाकाहार हिंदुत्व और नित्य-व्रत

Vinay Jha https://www.facebook.com/vinay.jha.906

मनुष्य शाकाहारी परिवार प्राइमेट्स से निकला है । अतः फल और सब्जियाँ मनुष्य का प्राकृतिक आहार है । जितना कम पकाया जाय या बिल्कुल न पकाया जाय उतना अच्छा । यदि टमाटर त्याग दें (जो विदेशी मूल का है, संस्कृत में इसके लिए शब्द नहीं है) तो वैदिक यज्ञ के अनुसार फल और सब्जियाँ "हविष्यान्न" के अन्तर्गत आती हैं , बशर्ते गाय के दूध-घी के अलावा भैंस का दूध-दही-घी और कोई भी नमक-तेल -मिर्च-मसाला भी त्याग दिया जाय । तब ऐसा भोजन जप-तप सहित किया जाय तो यज्ञ के तुल्य फल देता है और ग्रहशान्ति में सहायक बनता है , बशर्ते स्वयं पकाएं और दूषित संस्कारों वाले व्यक्ति को चूल्हा न छूने दें । अरवा चावल, मसूर के सिवा अन्य दालें, गेंहूँ या जौ का आटा , आदि भी हविष्यान्न के अंतर्गत आता है ।
बिना बाहरी जल दिए धीमी आँच पर सब्जी इस तरह पकाई जाय कि भाप कम से कम बाहर जाय तो स्वाद नष्ट नहीं होता । यदि ऐसे खेत की सब्जी और चावल आपको उपलब्ध हो सके जिसमें कभी भी कृत्रिम खाद नहीं पड़ा हो तो ऐसा स्वाद और सुगन्ध मिलेगा जो किसी मसाले में सम्भव नहीं है , साथ ही भरपूर पौष्टिकता और प्राकृतिक गुणों से पूरित , जो रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाएगी और औषधि का कार्य करेगी । यही कारण है कि प्राचीन ग्रन्थों में अन्न एवं सब्जी को भी "औषधि" माना जाता था ।
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लगातार हविष्यान्न के आहार का फल हुआ कि मेरे चश्मे की क्षमता -3.5 से घटकर -1.5 पर आ गयी और कभी भी कोई रोग नहीं हुआ । हविष्यान्न सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद वर्जित है । यदि स्पष्ट मध्याह्न के बाद और सूर्यास्त से पहले ऐसा भोजन प्रतिदिन केवल एक बार ही किया जाय तो "एकभुक्त व्रत" कहलाता है जो सर्वोत्तम व्रत है (पिछले दो दशकों से मैं कर रहा था) जिससे वर्तमान और पिछले जन्मों के पाप कटते हैं । वैदिक संस्कारों में हविष्यान्न अनिवार्य है, जैसे कि उपनयन, विवाह, श्राद्ध. आदि । गीता में वैश्वानर अग्निदेव को समस्त भोजन अर्पित करने का आदेश है, जिसका अर्थ हविष्यान्न ही है, क्योंकि वैदिक धर्म में देवों को केवल हविष्यान्न ही अर्पित किया जा सकता है । कलियुग में कई लोगों ने यज्ञ में हिंसा भी आरम्भ कर दी और मांस खाने लगे । वैश्वानर अग्निदेव को समस्त भोजन अर्पित करने का यह भी अर्थ है कि स्वयं खाने का भ्रम न पालें क्योंकि आत्मा दर्शक है जो भोक्ता होने का भ्रम तो पाल सकता है परन्तु खा नहीं सकता । ऐसा भोजन आत्मज्ञान में सहायक है । यही कारण है कि वैश्वानर अग्निदेव को समस्त भोजन अर्पित करने के स्थान पर जो स्वयं खाता है वह पापी पाप ही खाता है (-गीता).
बहुत से लोग जैविक कृषि के पक्ष में होते जा रहे हैं । अमेरिका के बड़े-बड़े होटलों और सेठों ने अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में बड़े-बड़े फार्म खरीदे हैं जहाँ बिना रासायनिक खादों के खेती की जाती है, क्योंकि ऐसे खेतों की फसलों का स्वाद वे जान चुके हैं ।.
ये बाद की बात नहीं है ; टालने वालों का कल कभी नहीं आता । कृत्रिम खादों का दीर्घकालीन प्रभाव DNA पर कैसा पड़ता है इसपर अभी वैज्ञानिकों के पास आंकड़ें भी नहीं हैं । जिस प्राकृतिक वातावरण में मानवीय DNA उद्भूत हुआ था, उससे हम दूर होते जाएंगे तो एक्सटिंक्शन नजदीक आता जायेगा । यदि सत्य का 100% पालन सम्भव नहीं, तो अधिकाधिक सम्भव पालन करना चाहिए, टालना नहीं चाहिए । मैं स्वयं कृषक नहीं हूँ, किन्तु कृषि में सही विधियों का प्रचार तो कर सकता हूँ , क्योंकि अन्न तो सबको खाना है । .
अन्न और पशुओं की जिन प्रजातियों को फिलीपींस या प्रयोगशालाओं से या जर्सी और फ्रिजिया से हमारे गाँवों में लाया जा रहा है वे उन प्रजातियों को सदा के लिए मिटाती जा रही हैं जो लाखों सालों से हमारे पर्यावरण के अनुकूल सिद्ध हुई हैं । कल यही वैज्ञानिक बोलेंगे कि भारत के मनुष्य भी घटिया हैं , इंग्लैण्ड के पुरुषों की सहायता से खाद-पानी देकर भारतीय महिलाओं को टेस्ट ट्यूब बेबी "उगाना" चाहिए ! इन तथाकथित वैज्ञानिक प्रजाति की फसलों को अधिक कृत्रिम खाद और पानी चाहिए, अतः केवल धनी किसानों के लिए ये उपयुक्त हैं, गरीब किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रही हैं । महाराष्ट्र से ब्राज़ील भेजी गयी भारतीय गायों ने वहां अच्छा भोजन और समुचित देखभाल मिलने पर दूध देने का विश्व-कीर्तिमान बनाया है । किन्तु हमारे मन्त्रालयों में लार्ड मैकॉले के मानसपुत्रों की भरमार हैं जो भारतीय गायों को कत्लखानों में भिजवाने के लिए जर्सी गायों को बढ़ावा दे रहे हैं । शास्त्रों के अनुसार कूबड़-विहीन गोजाति की तरह दिखने वाले पशुओं को गाय नहीं माना जा सकता । अतः जर्सी गाय वास्तव में गाय नहीं हैं । जर्सी बैल हल नहीं खींच सकते, अतः गोमांस का प्रचलन बढ़ेगा ।.
ब्रिटानिया कम्पनी के (जर्सी) गाय के घी की तुलना बाबा रामदेव के (देशी) गाय के घी से करके देखें, अन्तर मालूम पड़ जाएगा कि कौन गाय है और कौन गाय-सूअर का संकर ।.
मेरी बातों को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं लेना चाहिए , मैं किसी व्यक्ति का विरोध नहीं कर रहा हूँ, जो बातें हमारे देश और हमारी सभ्यता के लिए घातक हैं उनका विरोध कर रहा हूँ । ऐसी बातें हज़ार साल की गुलामी के दौरान इस देश में फैली हैं, ख़ास तौर पर लार्ड मैकॉले की शिक्षा प्रणाली थोपे जाने के बाद ।.
ये बाते बेमानी नहीं हैं, बहुत से लोग जैविक कृषि के पक्ष में होते जा रहे हैं । अमेरिका के बड़े-बड़े होटलों और सेठों ने अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में बड़े-बड़े फार्म खरीदे हैं जहाँ बिना रासायनिक खादों के खेती की जाती है, क्योंकि ऐसे खेतों की फसलों का स्वाद वे जान चुके हैं ।
जो स्वयं को सीमाओं में बान्ध लेते हैं, वे उस सत्य को दफना देते हैं जो शाश्वत और अन्तहीन है और सबके भीतर छुपा है । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता में ये पंक्तियाँ हैं :-
"खूँटियों पर टँगा आदमी रह जाएगा कब तक सोचता
कि उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है !"
मेरी बातों को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं लेना चाहिए , मैं किसी व्यक्ति का विरोध नहीं कर रहा हूँ, जो बातें हमारे देश और हमारी सभ्यता के लिए घातक हैं उनका विरोध कर रहा हूँ । ऐसी बातें हज़ार साल की गुलामी के दौरान इस देश में फैली हैं, ख़ास तौर पर लार्ड मैकॉले की शिक्षा प्रणाली थोपे जाने के बाद ।.
ये बाद की बात नहीं है ; टालने वालों का कल कभी नहीं आता । कृत्रिम खादों का दीर्घकालीन प्रभाव DNA पर कैसा पड़ता है इसपर अभी वैज्ञानिकों के पास आंकड़ें भी नहीं हैं । जिस प्राकृतिक वातावरण में मानवीय DNA उद्भूत हुआ था, उससे हम दूर होते जाएंगे तो एक्सटिंक्शन नजदीक आता जायेगा । यदि सत्य का 100% पालन सम्भव नहीं, तो अधिकाधिक सम्भव पालन करना चाहिए, टालना नहीं चाहिए । मैं स्वयं कृषक नहीं हूँ, किन्तु कृषि में सही विधियों का प्रचार तो कर सकता हूँ , क्योंकि अन्न तो सबको खाना है । अन्न और पशुओं की जिन प्रजातियों को फिलीपींस या प्रयोगशालाओं से या जर्सी और फ्रिजिया से हमारे गाँवों में लाया जा रहा है वे उन प्रजातियों को सदा के लिए मिटाती जा रही हैं जो लाखों सालों से हमारे पर्यावरण के अनुकूल सिद्ध हुई हैं । कल यही वैज्ञानिक बोलेंगे कि भारत के मनुष्य भी घटिया हैं , इंग्लैण्ड के पुरुषों की सहायता से खाद-पानी देकर भारतीय महिलाओं को टेस्ट ट्यूब बेबी "उगाना" चाहिए ! इन तथाकथित वैज्ञानिक प्रजाति की फसलों को अधिक कृत्रिम खाद और पानी चाहिए, अतः केवल धनी किसानों के लिए ये उपयुक्त हैं, गरीब किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रही हैं । महाराष्ट्र से ब्राज़ील भेजी गयी भारतीय गायों ने वहां अच्छा भोजन और समुचित देखभाल मिलने पर दूध देने का विश्व-कीर्तिमान बनाया है । किन्तु हमारे मन्त्रालयों में लार्ड मैकॉले के मानसपुत्रों की भरमार हैं जो भारतीय गायों को कत्लखानों में भिजवाने के लिए जर्सी गायों को बढ़ावा दे रहे हैं । शास्त्रों के अनुसार कूबड़-विहीन गोजाति की तरह दिखने वाले पशुओं को गाय नहीं माना जा सकता । अतः जर्सी गाय वास्तव में गाय नहीं हैं । जर्सी बैल हल नहीं खींच सकते, अतः गोमांस का प्रचलन बढ़ेगा ।.
किसी इन्सान को मैं मजे लेने की वस्तु नहीं समझता । 1981 के बाद से कई सालों तक मैं साप्ताहिक पत्र का सम्पादक था और व्यंग्य-स्तम्भ भी मेरे ही जिम्मे था । किन्तु मैं अशिष्टता और बेहूदगी को व्यंग्य नहीं समझता था, सत्य-असत्य के द्वन्द्व को स्पष्ट करने का हथियार था 'व्यंग्य' मेरे लिए (आशा है आप 'व्यंग्य' की साहित्यिक परिभाषा जानते होंगे)। हर दल के शीर्षस्थ नेता मेरे व्यंग्य के लक्ष्य रहते थे , भाजपा से लेकर कोंग्रेसी और कम्युनिस्ट तक । उन दिनों मैं कुछ हद तक आपकी ही तरह आध्यात्मिक रूप से भटका हुआ था , किन्तु धर्म और सम्प्रदायों पर कुत्ते की तरह पेशाब नहीं करता था जैसा कि कतिपय फेसबुकिये साहित्यिक-आलोचकों को करते देखा जा सकता है । जानते हैं आदमी का सबसे वफादार दोस्त होने के बावजूद लोग "कुत्ता" शब्द को गाली क्यों समझते हैं ? क्योंकि कुत्ता घर का सबसे पवित्र स्थल चुनता है पेशाब करने के लिये : नीपा हुआ चूल्हा या तुलसी का चौरा । आपका आलेख ["धार्मिक संगठनों (पंथों) की आयी बाढ को देख कर"] पढ़ने के बाद ही मैंने आपका मैत्री-निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया था (किन्तु ठुकराया भी नहीं था, आज ठुकरा रहा हूँ और आपको ब्लॉक भी कर रहा हूँ, मुझे फेसबुक पर लोकप्रिय बनने का शौक नहीं है) । आपको पूरा अधिकार है नास्तिक या कुछ और बनने का, किन्तु हिन्दुओं की धार्मिक भावना पर कुछ "बुद्धिजीवियों" द्वारा हमलों को देखकर मुझे सुकरात के नाम से प्रसिद्ध उक्ति याद आती है जिसके अनुसार देह बेचने वाली वेश्याओं से बड़ी वेश्याएं है दिमाग बेचने वाले बुद्धिजीवी क्योंकि देह से ऊँची चीज है दिमाग । बेचने का अर्थ केवल पैसे के लिए ही बेचना नहीं होता ; यश का लोभ सबसे बुरा लोभ है जो बुद्धिजीवियों का पिण्ड तो और भी कठिनाई से छोड़ता है । धर्म और सम्प्रदाय का अर्थ आपको समझाने की मूर्खता मैं नहीं करूंगा क्योंकि आपके मष्तिष्क में इतना ज्ञान पहले से ही भरा हुआ है कि किसी अन्य बात के लिए जगह ही नहीं है । आजकल जिन आध्यात्मिक गुरुओं को देखकर आप प्राचीन काल के सम्प्रदायों की उत्पत्ति का अनुमान लगा रहे हैं, वैसे कलियुगी महन्थों को वेद व्यास जी ने "धर्मध्वजी" की संज्ञा दी थी (महाभारत)। जाते जाते इतना बता दूँ कि जिस धरफड़ी में आप मेरे आलेख पढ़ते हैं वह आपके मूल्यवान समय की बर्बादी है क्योंकि आप तो मेरा नाम भी नहीं पढ़ पाये , झा और ओझा में अन्तर नहीं जानते ।.
मैं संघ तो क्या, किसी भी संगठन का सदस्य नहीं हूँ, और छात्रावस्था में Bunch of Thoughts के सिवा कभी भी संघ का कोई प्रकाशन मैंने नहीं पढ़ा । दूसरी तरफ जितने पेशेवर पण्डित मुझे जानते हैं , प्रायः सब के सब मेरे खून के प्यासे हैं , क्योंकि धर्म को पेशा बनाने के विरुद्ध शास्त्र का आदेश मैं उन्हें सुनाता रहता हूँ । मठों और महन्थों से भी मैं दूर रहता हूँ, यद्यपि उनमे कई अच्छे लोग भी हैं । अतः मेरे जैसे एकान्तवासी और अकेले जीव पर व्यंग्यबाणों का प्रहार करना आपको आसान लगा । हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के समस्त सम्प्रदायों पर आपके घृणित विचारों के कारण मैं आपसे दूरी बनाकर रहना चाहता हूँ । आप जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी केवल हिन्दुत्व से ही चिढ़ते हैं, इस्लाम पर लिखते आप लोगों की नानी मरती है । आपके विचार गलत लगने के बावजूद मैंने विरोध नहीं किया, अनदेखा किया । आपको मैं बुरा लगा तो मुझे सहन नहीं कर सके, उलटे मुझपर "असहिष्णु" होने का आरोप लगाने लगे !
("फेसबुक को प्रवचन की वेदी") क्या फेसबुक आपके बाप की जागीर है ? मेरे सन्देश पढ़ने के लिए कोई आपको विवश तो नहीं कर रहा। मैंने ठीक ही कहा था : सनातन धर्म की बात सुनते ही एक ख़ास प्रजाति के प्राणी पेशाब करने चले आते हैं । मेरा यह सन्देश शाकाहार और हिन्दू धर्मशास्त्र में वर्णित हविष्यान्न पर था जिसमे आपको केवल मेरा "अहंकार और दूसरों को न सहने की प्रवृत्ति" ही दिखी ! जिन्हे राक्षसी भोजन पसन्द होगा वे ही न शाकाहार पर आलेख देखते ही टाँग उठाकर गन्दा करने चले आएंगे ! मनुस्मृति पढ़ें, मांस-मदिरा का सेवन मातृगमन के तुल्य कहा गया है । मेरे जैसे "अहंकारी" व्यक्ति से आपको अधिकतम सम्भव दूरी पर रहना चाहिए । फेसबुक पर आप जैसे लोग हैं ही "रचनात्‍मक" योगदान करने के लिए (यद्यपि टी एस एलियट ने कहा था जो साहित्य में असफल हो जाते हैं वे आलोचक बन जाते हैं ), एकाध मेरे जैसे प्राणी भी हों तो इतनी खुजली क्यों हो गयी ? मुझे कहाँ-कहाँ से हटाइएगा ?
झा और ओझा दोनों की उत्पत्ति उपाध्याय (>*उपाझा) से हुई है । किन्तु आपका यह तर्क झूठा बहाना है, क्योंकि आप भली-भाँति जानते हैं कि मैथिलों में ओझा नहीं होते । मैंने जानबूझकर "झा" आस्पद नहीं त्यागा, यद्यपि मैं गृहस्थ नहीं हूँ, ताकि किसी व्यक्ति के कर्म से अधिक जाति, उपजाति, और आस्पद पर ध्यान देने वाले आप जैसे लोग मुझे अपने कूपमण्डूकी चश्मे से देखेंगे तो उन्हें पहचानने में मुझे कम समय लगेगा ।
थोड़ा लंबा पोस्ट हो गया, "जन-गण-मन" पर दूसरा सन्देश भेज रहा हूँ, यद्यपि आपको पचेगा नहीं।.
(II) :--"जन-गण-मन" पर नेहरू के चमचों ("इतिहास के जानकार लोगों") की बातें आप प्रचारित करते रहें, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । किन्तु इतनी सच्चाई आपको भी भली-भाँति मालूम होगी कि इस गीत का प्रथम गान 1911 ईस्वी में कांग्रेस के महाधिवेशन के दूसरे दिन हुआ था जिस दिन मुख्य एजेण्डा था सम्राट जॉर्ज पञ्चम का दो दिन बाद भारत आगमन का स्वागत । 10 नव. 1937 को टैगोर ने पुलिन बिहारी सेन को पत्र लिखा की सम्राट के एक पदाधिकारी ने उनसे 1911 में आग्रह किया था कि वे सम्राट के स्वागत में एक गीत लिखें , किन्तु टैगोर ने तब जो गीत लिखा उसमे जिस "भारत भाग्य विधाता" का उल्लेख किया वह टैगोर के अनुसार सम्राट नहीं बल्कि गॉड थे । अतः टैगोर ने स्वयं स्वीकारा कि उन्होंने सम्राट जॉर्ज पञ्चम के स्वागत में "जन-गण-मन" लिखा था, और यह भी अकाट्य तथ्य है कि जिस दिन कांग्रेस के महाधिवेशन का पूरा दिन सम्राट के स्वागत हेतु समर्पित था उसी दिन उसी मञ्च पर इस गीत का प्रथम गान हुआ । और यह भी सत्य है कि 1913 में नोबेल पुरस्कार लेने से पहले टैगोर ने एक बार भी नहीं कहा कि "भारत भाग्य विधाता" ब्रिटिश सम्राट नहीं बल्कि ब्रह्म-समाज के गॉड थे, ऐसा कहते तो नोबेल पुरस्कार नहीं मिलता । दशकों बाद झूठी सफाई सूझी ! सम्पूर्ण इतिहास में एक भी उद्धरण खोज दें जिसमें "अधिनायक" ईश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ हो । अधिनायकवाद को अंग्रेजी में dictatorship कहते हैं यह तो मालूम होगा न ! टैगोर स्वयं गोमांस खाते थे इसे भी झुठलाइएगा ? उनके पुरखे भी मुसलमानों के संग खान-पान के कारण जाति से बहिष्कृत होकर "पिराली" घोषित किये गए थे यह भी स्वीकारने में आपको संकोच होगा ! आप जैसे "बुद्धिजीवियों" के लिए सुकरात ने नाहक ही शब्द खर्च नहीं किये थे !.
डार्विन के बाप भी फेसबुक पर हैं जिन्हें न तो आधुनिक जीवविज्ञान से कोई सरोकार है और न धर्मशास्त्र से , इनकी आसुरी जिह्वा को जो अच्छा लगे वही एकमात्र सत्य है | वेद के सिवा सभी ग्रन्थों में असुरों ने प्रक्षिप्त अंश जोड़े जिन्हें सावधानीपूर्वक पहचानने के लिए वेद का ज्ञान चाहिए क्योंकि हिन्दू परम्परा में वेद ही अन्तिम प्रमाण है | मूर्खों से मैं बहस नहीं करता क्योंकि मनुस्मृति में आदेश है कि मांसाहारियों से वार्तालाप करना भी पाप है (और उसी मनुस्मृति में असुरों ने मांसाहार के पक्ष में भी श्लोक जोड़ दिए -- आधुनिक असुर इतना भी नहीं सोचते कि दोनों बातें एक ही लेखक द्वारा कैसे संभव हैं)!


Vinay Jha
6 January 2016 ·

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