क्यूँ वामपंथ को जर्मनी से भगाया गया और धन-माफियाओं ने अमेरिका के विश्वविद्यालयों में रोपाई किया ?

जिस प्रकार हिटलर ने वामपंथ को खत्म करने के लिए jews को मरवाया, वो वामपंथ को जर्मनी से भगाने के लायक था. इस्लाम वामपंथ का स्ट्राइक आर्म है. वामपंथ के पास इतना संख्या बल कभी नहीं होगा कि वे अपने बल पर सत्ता पर कब्जा कर सकें. उनका उपद्रव मूल्य (Nuisance value) है. वे अव्यवस्था और गंदगी फैला सकते हैं. पर शक्ति के लिए वे इस्लाम की शक्ति का प्रयोग करने से परहेज नहीं करेंगे. इस्लाम के लिए भी वे उपयोगी मूर्ख हैं...इस्लाम को भी उनका उपयोग करने से परहेज नहीं है. 
इस्लाम तलवार है...फिर इनकी ढाल क्या है?
ढाल है पॉलिटिकल करेक्टनेस. 
Rajeev Mishra

image courtesy- http://www.kickthemallout.info/article.php/Story-1933_Jews_Declare_War_On_Germany
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एक जनरलाइजेशन किसी भी समाज की विकृत तस्वीर ही देता है. जैसे गरीबी का जनरलाइजेशन भारत की गलत तस्वीर देता है, वैसे ही अनेक भारतीय भी पश्चिमी समाज की स्टीरियोटाइपिंग से उत्पन्न भ्रांतियों से ग्रस्त हैं. जैसे कि उन्हें लगता है कि गोरी लड़कियाँ सब फटाफट पट जाती हैं और सीधा बिस्तर पर चली जाती हैं.
हमारा समाज एक काम्प्लेक्स सिस्टम है जो विदेशियों की समझ से बिल्कुल बाहर है. वैसे ही पश्चिमी समाज भी जटिल है और अनेक अंतर्द्वंदों से गुजर रहा है. परंपरागत पश्चिमी समाज भी परिवार, मर्यादा, संस्कार और धर्म के बंधनों से बंधा है. और हम जिन परिवर्तनों और विकृतियों को पश्चिम का असर समझते हैं, पश्चिमी समाज में भी बहुत से लोग उन परिवर्तनों से वैसे ही व्यथित हैं. अमर्यादा, अविवेक, उच्छृंखलता के ये सूत्र इस समाज को भी बर्बाद कर रहे हैं और अनेक विचारशील अमेरिकन भी इससे उतने ही दुखी हैं.
अमेरिका पश्चिम का सांस्कृतिक श्रोत है. अमेरिका की देखादेखी इंग्लैंड और यूरोप भी हैलोवीन और थैंक्सगिविंग मना रहा है. अब भारत भी. पर अमेरिका में आई सांस्कृतिक विकृतियों का स्रोत क्या है?
20 के दशक में जर्मनी में फ़्रंकफ़र्ट यूनिवर्सिटी में एक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च नाम की संस्था बनी. बाद में हिटलर के समय ये सभी जर्मनी से भागे और इन्होंने अमेरिका में शरण ली. इन सभी को झुंड में एक साथ कोलंबिया यूनिवर्सिटी में जगह दी गई और इन लोगों ने इस तरह अमेरिकी शिक्षा तंत्र को संक्रमित किया. इन्हीं जर्मन बुद्धिजीवियों की विचारधारा फ्रैंकफर्ट स्कूल के नाम से जानी जाती है.
ये सभी मूलतः वामपंथी मार्क्सवादी थे. समझना कठिन नहीं है कि हिटलर इन्हें क्यों मारना चाहता था. किसी भी सभ्य समाज को इनके साथ यही करना चाहिए था. खैर, अमेरिका में ये सभी सिर्फ अपने घृणित व्यक्तित्व और मानसिकता के साथ सिर्फ जीवित ही नहीं रहे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अमेरिकी स्लोगन के तले खूब फले फूले. अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ऊँचे ऊँचे स्थानों तक पहुँचे, और आने वाली पीढ़ियों के मस्तिष्क में उन्हीं अमेरिकी मूल्यों के विरुद्ध खूब ज़हर बोया जिसने इन्हें शरण दी थी. यह कृतघ्नता वामियों के मूल गुण के रूप में पहचाना जाए.
इन वामियों की चिंता थी, मार्क्स असफल हो गया. मजदूरों ने इनकी क्रांति में भाग नहीं लिया. क्योंकि उन्होंने समाज के स्थापित मूल्यों के विरुद्ध मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को नकार दिया. उन्हें कोई वर्ग दिखाई नहीं दिया, कोई संघर्ष नहीं हुआ. लोग सामान्यतः अपनी जिंदगी से खुश थे और व्यवस्था को उलटने पलटने के बजाय उसमें अपनी स्थिति सुधारने में ज्यादा इंटरेस्टेड थे. तो इन बुद्धिजीवियों ने निष्कर्ष निकाला, और संभवतः सही निष्कर्ष निकाला कि लोगों की निष्ठा स्थापित मूल्यों में है और वे उनके साथ खुश हैं, यही उनकी समस्या है. अगर उन्हें अपनी ओर मोड़ना है तो पहले उनमें व्यवस्था के प्रति क्षोभ और आक्रोश पैदा करना होगा, स्थापित मूल्यों को तोड़ना होगा...राष्ट्र, धर्म, परिवार, नैतिकता, समर्पण, प्रेम...इन सभी मूल्यों को नष्ट करना होगा. एक असंतुष्ट, दुखी, संघर्षरत समाज बनाना होगा...अराजकता और अव्यवस्था फैलानी होगी. सांस्कृतिक अधिपत्य से ही राजनीतिक शक्ति आएगी. राजनीतिक शक्ति के औजार, पुलिस, सेना, कानून...ये सभी सांस्कृतिक अधिपत्य के इंस्टीट्यूशन्स शिक्षा, मीडिया, कला, साहित्य के सामने कमजोर हैं...पहले इनपर कब्जा करना होगा.
पहले ये वामपंथी इन सभी स्थानों पर घुसे. फिर उनका उद्देश्य था संवाद की, सोच की भाषा बदलना...तो इन्होंने एक यंत्र निकाला - क्रिटिकल थ्योरी. ध्यान से सुनें और याद रखें, आपको यह क्रिटिकल थ्योरी हर जगह दिखाई देगी. क्रिटिकल थ्योरी बहुत सरल है. इसका मूल है, हर बात को क्रिटिसाइज करना, हर चीज की आलोचना करना. इनका सिद्धांत था, कोई भी चीज आलोचना से परे नहीं है. किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक प्रतिमान की घोर आलोचना करो...करते रहो. कुछ भी सम्माननीय और पवित्र नहीं है. सबको कीचड़ में लपेटो...
आप देखते हैं उन्हें राम को गालियाँ देते, दुर्गा को वेश्या बोलते, कृष्ण को लम्पट बुलाते, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत का अपमान करते, हमारे धर्म और धार्मिक आस्थाओं पर प्रहार करते, त्योहारों का मजाक उड़ाते...परिवार की शुचिता पर प्रश्न करते, "पितृसत्तात्मक समाज" के विरोध के नामपर पारिवारिक अनुशासन की मर्यादाएँ तोड़ते....यह सब बस इसी "क्रिटिकल थ्योरी" की क्रियाशीलता है...
अक्सर इन्हें पता भी नहीं होता कि इनके इस व्यवहार का स्रोत क्या है, कहाँ से प्रेरित हो रहा है. बस, कर रहे हैं, किसी ने इतना समझा दिया है कि करो...यह बहुत ही किरान्तिकारी बात है...समाज के स्थापित मानकों को तोड़ दो, फोड़ दो, ध्वस्त कर दो...यह नहीं बताया है कि उसकी जगह जो निकल कर आएगा और उन्हें जिन नए मानकों से विस्थापित किया जाएगा वे क्या होंगे अभी यह नहीं बताया गया है.
जो नादान लोग उनकी क्रिटिकल थ्योरी को सब्सक्राइब करके हर बात पर कीचड़ उछाल रहे हैं, राम और सीता तक की मर्यादा को अपने नारीवाद से दूषित कर रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि यह कहीं नहीं रुकेगा. कुछ भी पवित्र और आउट ऑफ बाउंड नहीं होगा. सिर्फ धर्म और देश ही नहीं, परिवार भी...माँ-बाप भी नहीं. तो आज अगर कोई राम और सीता को, पद्मिनी और दुर्गा को अपशब्द बोल रहे हैं, उनकी संतानें इस परंपरा को और आगे ले जाएगी...तब उनके बच्चे पूछेंगे कि वे अपनी माँ या बहन से संभोग क्यों ना करें...पूछेंगे ही पूछेंगे, यही इस सिद्धांत की प्राकृतिक परिणति है.
बुद्धिजीवियों, प्रगतिशीलों...अपनी तर्क-शक्ति उस दिन के लिए बचाकर रखियेगा...पछतावे के काम आएँगे...
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प्रश्न: सबकी आलोचना करने वाले, क्रिटिकल थ्योरी वाले ये वामपंथी कभी भी इस्लाम की आलोचना क्यों नहीं करते ?
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उत्तर- प्रश्न वाजिब है, उत्तर सरल...किसी की भी तलवार और ढाल आपस में नहीं लड़ती....
इस्लाम वामपंथ का स्ट्राइक आर्म है. वामपंथ के पास इतना संख्या बल कभी नहीं होगा कि वे अपने बल पर सत्ता पर कब्जा कर सकें. उनका उपद्रव मूल्य (Nuisance value) है. वे अव्यवस्था और गंदगी फैला सकते हैं. पर शक्ति के लिए वे इस्लाम की शक्ति का प्रयोग करने से परहेज नहीं करेंगे. इस्लाम के लिए भी वे उपयोगी मूर्ख हैं...इस्लाम को भी उनका उपयोग करने से परहेज नहीं है.
इस्लाम तलवार है...फिर इनकी ढाल क्या है?
ढाल है पॉलिटिकल करेक्टनेस.
पॉलिटिकल करेक्टनेस का उपद्रव भी इसी फ्रैंकफर्ट स्कूल की देन है. 60 के दशक में इन्हीं में से एक ने (इन सभी बुद्धि-पिचाशों के अलग अलग नाम लेकर इन्हें प्रचार देने का इरादा नहीं है) एक कॉन्सेप्ट दिया - रिप्रेसिव टॉलरेन्स. इसे कुछ ऐसे परिभाषित किया गया कि समाज को स्थापित मूल्यों के प्रति असहिष्णु होना चाहिए और वैकल्पिक मूल्यों के लिए सहिष्णु होना चाहिए. यानि परंपरागत सामाजिक मूल्यों पर प्रहार जारी रखा जाए और इनके सुझाये मूल्यों के विरुद्ध कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता नहीं हो. लगभग उसी समय माओ ने चीन में सिद्धांत दिया कि समाज में सिर्फ मार्क्सवाद द्वारा प्रमाणित "वैज्ञानिक" जीवन मूल्यों को ही मान्यता दी जाए.
इस तरह से इन वामियों ने अपने चुने हुए कुछ मुहावरे समाज पर स्थापित कर दिए, और उनके विरुद्ध कुछ भी बोलना असहिष्णुता गिना जाने लगा. ये वैकल्पिक वामपंथी सिद्धांत "पॉलिटिकली करेक्ट" सिद्धांत गिने गए...इनके विरुद्ध कुछ भी बोलना सोचना संभव नहीं रह गया. नंगापन और यौन उच्छृंखलता नारीवाद के पीछे छुप गया, इस्लामिक आतंकवाद सेक्युलरिज्म और सर्व-धर्म सम्मान के पीछे छुप गया, कामचोरी और निकम्मापन समानता की माँग के पीछे छुप गया, अनुशासनहीनता और आपराधिक मनोवृति सामाजिक भेदभाव के विरोध के पीछे जाकर छुप गया. स्कूलों में खूब एग्रेसिव तरीके से इनकी "पॉलिटिकली करेक्ट" सोच को घुसा दिया गया. ये किसी के भी विरुद्ध, किसी भी स्थापित मूल्य के विरुद्ध कुछ भी अनर्गल बोल सकते हैं...वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है...आप उनके किसी भी असामाजिक, कुसांस्कृतिक, यहाँ तक कि देशद्रोही गतिविधि के विरुद्ध कुछ भी नहीं बोल सकते...आप उनके किसी ना किसी सिद्धांत को तोड़ रहे हैं, किसी "पॉलिटिकली करेक्ट" सीमा रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं...कहीं स्त्री के सम्मान का हनन हो रहा है, कहीं निजता के अधिकार का तो कहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का. वे लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला भी देते हैं...अगली ही साँस में लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए एक प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को अपशब्द कहकर अभिव्यक्ति वाली दीवाल के पीछे छुप जाते हैं. उनका हर योद्धा किसी ना किसी पॉलिटिकल करेक्टनेस की आड़ लेकर बैठा है...
हमारी समस्या यह है कि हम अक्सर अपने विमर्श में इन्हीं पॉलिटिकली करेक्ट मूल्यों को मान्यता दिए बैठे हैं. बिना यह समझे कि ये सारे शब्द जिनकी महत्ता और मर्यादा की दुहाई देते हुए हम आपस में लड़ते हैं, वे सभी किसी ना किसी देशविरोधी, धर्मविरोधी या समाजविरोधी शक्ति की ढाल हैं. एक देशद्रोही चैनल मीडिया की स्वतंत्रता के पीछे छुपा है, एक समाजविरोधी फिल्मकार कलात्मकता की स्वतंत्रता के पीछे, दो नंबर के पैसे को सफेद करने वाला एक दलाल समाजसेवा के पीछे छुपा है, तो नक्सलियों और जिहादियों की फौज धर्मनिरपेक्षता की ओट लिए खड़ी है...
सॉल अलिन्सकी के "रूल्स फ़ॉर रेडिकल्स" का पहला नियम है - शक्ति सिर्फ वह नहीं है जो आपके पास है...शक्ति वह भी है जो शत्रु समझता है कि आपके पास है. तो ये नियम सिर्फ वामपंथी ही इस्तेमाल करें जरूरी नहीं है...हमें भी समझने चाहिए. हमने इन वामियों को सामाजिक विमर्श की भाषा निर्धारित करने की शक्ति दे दी है, जो उनके पास वास्तव में नहीं है. यह शक्ति उनकी है, ऐसा सोचने से ही यह शक्ति उन्हें मिली है...हम जब वापस छीन लेंगे, नहीं रहेगी.
इन वामियों से इनकी शक्ति छीन लीजिये. इनका पॉलिटिकल करेक्टनेस का किला ढहा दीजिये...ये खुले में खड़े होंगे... नहीं, हम आपके बनाये हुए झूठे मानकों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गई तेल लेने...कलात्मक सम्प्रेषण दो पैसे की चीज नहीं है...किसने कहा कि सभी धर्मों को समान अधिकार हैं? संविधान ने? संविधान सौ दफा संशोधित हो चुका है...उसकी क्या औकात है? संविधान देश चलाने के लिए बनाया गया है...देश इस संविधान को खपाने के लिए नहीं है. नारीवाद क्या होता है? यह देश सीता और सावित्री जैसी नारियों की पूजा करता है, किसी वाद के बहाने से ताड़काएँ और पूतनाएँ सीताओं-सावित्रीयों की बराबरी नहीं कर सकतीं.
खुल कर प्रश्न कीजिये... पॉलिटिकल करेक्टनेस के हर मानक को अस्वीकार कीजिये...वह एक सिद्धांत नहीं है, शत्रु का बंकर है? वह टूटा तो शत्रु सामने होगा...और शस्त्र के नाम पर उसके पास अकेला शस्त्रसज्जित इस्लाम है...बिना पॉलिटिकल करेक्टनेस को अस्वीकृत और अनधिकृत किये यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती.

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