छठ पर्व कैसे मनाया जाता है.

छठ पर्व मुझे तो बहुत ही सुंदर पर्व लगा, क्या कुछ नहीं है इसमें, पूरे भारत में यह मनना चाहिए था..
सूर्यषष्ठी (छठ) का वर्णन महाभारत काल में भी है, सूर्योपासना का महापर्व है ये।
बिहार में प्रचलित मान्यता है कि जब श्रीरामचंद्र जी को उनके माता-पिता ने वनवास की आज्ञा दे दी थी तब माँ सीता ने बिहार के मुंगेर के गंगा तट पर संपन्न की थी.
इसके बाद से महापर्व की शुरुआत हुई। श्री राम जब 14 वर्ष वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूय यज्ञ करने का फैसला लिया। इसके लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया था, लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान राम एवं सीता को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया। ऋषि की आज्ञा पर भगवान राम एवं सीता स्वयं यहां आए और उन्हें इसकी पूजा के बारे में बताया गया।
कालांतर में जाफर नगर दियारा क्षेत्र के लोगों ने वहां पर मंदिर का निर्माण करा दिया। यह सीताचरण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर हर वर्ष गंगा की बाढ़ में डूबता है। महीनों तक सीता के पदचिह्न वाला पत्थर गंगा के पानी में डूबा रहता है।
इसके बावजूद उनके पदचिह्न धूमिल नहीं पड़े हैं। श्रद्धालुओं की इस मंदिर एवं माता सीता के पदचिह्न पर गहरी आस्था है। ग्रामीण मालती देवी का कहना है कि दूसरे प्रदेशों से भी लोग पूरे साल यहां मत्था टेकने आते हैं।
यहां आने वाले श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मंदिर के पुरोहित के अनुसार सीताचरण मंदिर आने वाला कोई भी श्रद्धालु खाली हाथ नहीं लौटता।


चार दिनों का होता है,
◆ पहले दिन स्नान ध्यान, कद्दू भात खाया जाता है, गेहूँ सुखाया जाता है, अगर आप घर में नहीं पीसते है, तो पिसवाने वाला नँगे पाँव आटा चक्की तक जाता है, और जो चक्की है, वो पहले से साफ सुथरी और सामान्य कार्य के लिए बन्द कर दी गई होती है।
मतलब नहाय खाय के दिन से छठ पूजा का आटा अलग पिसाता है।
छठ पर्व की तैयारी में जो भी सामान लगता है उसकी खरीददारी यूँ तो पहले ही शुरू हो चुकी होती है, पर इस दिन से सब कुछ फुल स्पीड और कन्सन्ट्रेशन में शुरू हो जाता है, और एक कमरा अलग कर दिया जाता है, जहाँ छठ पूजा की सामग्री, मिट्टी का चूल्हा / गैस चूल्हा सब पवित्र कर के रख दिया जाता है। बिना नहाए और अपवित्र लोगों का प्रवेश निषेध होता है।
◆ दूसरे दिन खरना पूजा है। उस दिन खरना की पूजा होती है, और छठव्रती उपवास शुरू कर चुकी होती हैं। खरना का प्रसाद खाने के लिए भी लोगों को आमंत्रित किया जाता है। लोग पहुंच कर व्रती के पाँव छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। फिर प्रसाद पाते है।


◆ तीसरे दिन सुबह 2 या 3 बजे से या अधिक से अधिक 5 बजे से ठेकुआ बनना शुरू कर दिया जाता है। छठव्रती और घर के लोग इसमे हाथ बंटाते है।
आज अस्ताचलगामी यानी डूबते सूर्य को अर्घ्य देने का दिन होता है।
तो सब सामग्री यानी ऋतुफल, केरांव, कच्ची हल्दी, कच्ची अदरख (पौधा ) , ईख , नारियल, डाब निम्बू, अरखपात, मखाना , तिल जौ, आदि बहुत सारी चीजें हैं, जिनकी लिस्ट पूरी तरह से वेरिफाई कर ली जाती हैं। ये सब सूर्यदेव से अपने घर की समृद्धि के लिए पूजा करने हेतु उनको अर्पित किया जाता है।
छठघाट पहुंचा जाता है । डाला ( टोकरा ) सर पर रखकर घर का एक पुरुष नँगे पाँव घाट तक पैदल जाता है ।
घाट लीपा हुआ, साफ सुथरा हो, ये सुनिश्चित कर लिया जाता है। मिट्टी से भगवान जी बनाये जाते हैं घाट पे, अम्मा नाम नहीं बताई हैं, श्रीसोक्ता कहती हैं उनको। सूर्यास्त की दिशा में सूप सजाकर रख देते हैं।

सूप को हाथ में रख कर सूर्य की ओर मुख कर पानी में खड़ा होकर व्रती उनसे वरदान माँगती हैं, कि हे भगवान सबकी रक्षा करिए, सुख दीजिये, ज्ञान दीजिये, आरोग्य दीजिये। अर्घ्य दिया जाता है, बाँस का सूप और डाला पारम्परिक रूप से प्रयोग में लाया जाता है।
- > और एक बात बता दूँ, ये बाँस का काम करने वाले पारम्परिक रूप से बांसफोड़ कहते हैं खुदको, जाति देखने वाले पता करें कि कौन हैं ये।
सभी जाति के लोग इस पर्व को मनाते हैं, चाहे अमीर हो गरीब हो, कोई फर्क नहीं पड़ता, घाट पर सब एकदूसरे का डाला थामने में संकोच नहीं करते। अब तो हमने कई मुसलमान भी देखे हैं छठ करते हुए।
तो पिछड़ा कौन सा प्रदेश है ढपोरशंख लोगों ?
चलिये आगे, शाम का अर्घ्य देकर लोग डाला (दउरा/ टोकरी) में सब सामग्री लेकर वापस घर लौट आते है, कुछेक जगहों पर घाट पर भी रतजगा किया जाता है।
◆ चौथा यानी अंतिम दिन, आज उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, डाला लेकर लोग फिरसे घाट पहुंचते है, सुप भगवान के उगने की दिशा में सजाते हैं, सूर्य देव के उगने का इंतज़ार पानी में खड़े रहकर करती हैं छठव्रती , सूर्योदय होने लगता है तो सुप हाथ मे लेकर फिर से भगवान जी से सब कुछ माँगा जाता है।
घाट पर लोग व्रती के पाँव छूकर आशीर्वाद लेते हैं, प्रसाद पाते हैं।
फिरसे घर का एक सदस्य डाला सर पर रखकर नँगे पाँव घर को लौटता है। और बाकी सदस्य उसके साथ साथ आते हैं।

घर आकर व्रती घर पर पूजा करके व्रत तोड़ती हैं , ये व्रत खरना के दिन से चल रहा होता है। फिर घरवाले प्रसाद पाते हैं। और बाहर के लिए भी प्रसाद वितरण घर घर जाकर किया जाता है।
पूरा समाज इस तरह एक साथ मिल जाता है।
छठ पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं, आप सबका कल्याण हो।
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 बांसफोड़ हमारे यहाँ डोम या चमार होते हैं।
उनके बनाये बाँस के सूप के बिना छठ सम्भव नही। 
बाँसफोड़ वही हैं, जो नाम के अंत मे राम लगाते हैं। छठ पर्व में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा। जाता है। सामाजिक समता और प्रेम का इससे बड़ा उदाहरण नहीं है। सबलोग छठपूजा करते हैं बिहार में। अमीर गरीब, सभी जाति के लोग, अब तो मुसलमानों को भी देखा है छठ पूजा में पानी मे खड़े होकर अर्घ्य देते हुए, तो क्या कहूँ, नेताओं के चलते बिहार बदनाम है। इस प्रदेश की संस्कृति और इतिहास बाकियों से बेहतर ही है।

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