साहित्य का इतिहास

साहित्य का इतिहास लिखने वाले या काल-निर्धारण करने वाले को साहित्यकार नहीं कहा जाता, सच्चे साहित्य की सर्जना करने वाले को साहित्यकार कहा जाता है | साहित्य की सही परख में सक्षम व्यक्ति को आलोचक कहा जाता है |
समूचे हिन्दी साहित्य को ठीक से समझने वाले व्यक्ति को ही हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने का अधिकार है, ऐसा अधिकारी कौन है ? टी एस इलियट ने लिखा था कि जो साहित्य में असफल हो जाते हैं वे आलोचक बन जाते हैं, हिन्दी में भी लगभग सारे आलोचक ऐसे ही हैं, साहित्य की परिभाषा तक नहीं जानते, हिन्दी साहित्य को राजनैतिक खेमों में बांटकर गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं और अपने गुट के साहित्यकार को उछालकर पुरस्कार दिलाने में सारा समय गुजारते हैं | गधों की पुस्तकें पढने वाला भी गधा ही बनेगा |


एक उदाहरण देता हूँ -- धर्मवीर भारती की लिखी हुई "बन्द गली का आख़िरी मकान" आपने छात्रों को पढाई होगी | सारे आलोचकों को भुलाकर अपने दिमाग से सोचिये -- क्या वह ग्रन्थ रोमान्टिक है ? या यथार्थवादी है ? "वाद" का लेबल चिपकाने की आदत से बचें | "गुनाहों का देवता" को बहाना बनाकर शिवदान सिंह चौहान जैसे वामपन्थी खेमेबाजों ने धर्मवीर भारती पर रोमान्टिक लेबल चिपका दिया (और नागार्जुन जैसे घटिया लेखक को महान बना दिया), जिसका मुंहतोड़ जवाब धर्मवीर भारती ने "सूरज का सातवाँ घोड़ा" में दिया |
स्वतन्त्र चिन्तन करने की आदत डालें | कठोर प्राणायाम करेंगे तो असत्य को भेदकर भीतर छुपी सच्चाई को देखने की अन्तर्दृष्टि तीव्र होगी -- यह पतंजलि मुनि का कथन है |
साहित्य के पूरे इतिहास को समझना दुष्कर है, एक-एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ को बारी बारी से समझना पहले आवश्यक है | संसार की किसी भी भाषा के समूचे साहित्य का सर्वोत्तम इतिहास है "A History of English Literature" ( Emile Legouis, Louis Cazamian द्वारा)| सभी युगों के अंग्रेजी साहित्य के हज़ारों ग्रन्थ पढने के बाद ही यह पुस्तक ठीक से समझ में आ सकती है (मैं यह सब पापड बेल चुका हूँ, विश्व की दर्जनों प्राचीन एवं आधुनिक महत्वपूर्ण भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन किया है) , और उसके बाद जब कठोर प्राणायाम वर्षों तक करेंगे तब समझ में आयेगा कि साधारण लेखकों ने यह ग्रन्थ नहीं लिखा था, पूर्वजन्म के पुण्य के कारण जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी कुछ हद तक जागृत हो और सारा जीवन यह ग्रन्थ लिखने में खपा दिया हो वही व्यक्ति अंग्रेज जाति की सामूहिक चेतना को समझने में सक्षम ऐसा अनमोल ग्रन्थ लिख सकता है |
भारत का दुर्भाग्य है कि किसी भी भारतीय भाषा में साहित्य का सही इतिहास आजतक किसी ने नहीं लिखा |
"साहित्य के इतिहास" का वास्तविक अर्थ है उस जाति की सामूहिक चेतना का इतिहास !! आप जानते हैं सामने बैठे उस व्यक्ति की वास्तविक चेतना को समझना भी कितना कठिन है जिसके साथ आप पूरे जीवन रहे हैं , फिर पूरी जाति की सामूहिक चेतना के पूरे इतिहास को समझना कितना कठिन होगा ? किन्तु लगन हो और प्राणायाम करेंगे तो सम्भव है | साहित्य के शिक्षक का कर्तव्य यही है | हिन्दी आर्यों के मूल प्रदेश आर्यावर्त की आधुनिक भाषा है, संस्कृत की प्रमुख उत्तराधिकारिणी है, इसके पूरे इतिहास को समझने के लिए ऋषियों की चेतना को समझने की योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी |
(इस आलेख में कुछ और अंश जोड़ने हैं, जिन्हें नीचे टिप्पणी में भी जोड़ता रहूँगा, अतः कॉपी मत करें, शेयर करें, ताकि स्वतः अपडेट होता रहे |)
****************************
लेख में मैंने लिखा है कि साहित्य समाज की चेतना है, तो चेतना को दर्पण और समाज को यथार्थ कहने वाले लोग चैतन्य के विरोधी नास्तिक भौतिकवादी ही हुए न !!| "साहित्य समाज का दर्पण होता हैं" यह म्लेच्छों और खासकर मार्क्स जैसे समाजवादियों से सीखी हुई बकवास है, जिसका अर्थ यह है कि "समाज सत्य है" (यह मार्क्स की मूल प्रस्थापना थी) और साहित्य एक बेजान दर्पण है, माया है | भारतीय मान्यता ऐसी नहीं है | भारतीय मान्यता के अनुसार समाज अर्थात "लोक" मिथ्या है और साहित्य सत्य है क्योंकि वेदरूपी साहित्य ही ब्रह्मरूपी सत्य है | तब कलियुगी साहित्य की उत्पत्ति नहीं हुई थी और वेद मनुष्य के स-हित रहने वाला हित-कारी एकमात्र साहित्य था | कलियुगी साहित्य में भी जो सच्चाई है वही काल के थपेड़ों से बच पाती है और वह भी वेद या ज्ञान ही है | समाज है कुछ और दिखता ("लोक") दिखता कुछ और है, वास्तव में नश्वर है, जबकि जो वस्तुतः साहित्य है वह शब्दब्रह्म अनश्वर है, वही मनुष्य के अन्यथा निरर्थक जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है, अतः हितकारी है | साहित्य समाज का दर्पण नहीं हैं, बल्कि समाज तभी तक समाज है जबतक वह सच्चे साहित्य का सच्चा दर्पण है, वरना समाज एक बुद्धिविहीन झुण्ड के सिवा कुछ नहीं जिसे त्यागकर वन की शरण लेना श्रेयस्कर है | यही भारतीय मान्यता है जिसे अब विषविद्यालयों ने भुला दिया है |
****************************
साहित्य का इतिहास एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी दोनों ओर दो सीमाएं हैं, एक सीमा पार करें तो केवल साहित्य बचता है जिसका इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, और दूसरी सीमा पार करें तो केवल इतिहास बचता है जिसका साहित्य से वास्ता नहीं रहता |


जिस प्रकार मृत शरीर के सभी कटे हुए अंगों को जोड़कर जीवित पूर्ण शरीर बनाना सम्भव नहीं, उसी प्रकार सभी साहित्यकारों की कृतियों के इतिहास को इकट्ठा कर लेने से साहित्य का इतिहास नहीं बन सकता |
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी ने राष्ट्र को एक जीवन्त विराट पुरुष कहा था, जिसका अर्थ यह है कि राष्ट्र व्यक्तियों का झुण्ड नहीं बल्कि एक स्वतन्त्र प्राणी है | जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर में कोशिकाएं होती हैं उसी प्रकार किसी राष्ट्र के लिए विभिन्न व्यक्ति कोशिकाओं के तुल्य हैं जो सही तरीके से परस्पर मिलकर राष्ट्र बनाते हैं | उस राष्ट्र में विशिष्ट राष्ट्र-पुरुष बसता है | हज़ार वर्षों से सोये हुए उस राष्ट्र-पुरुष को जगाना ही दीनदयाल उपाध्याय जी का लक्ष्य था और मेरा भी वही लक्ष्य है |
भारतीय परम्परा है धर्म पर आधारित सांस्कृतिक इकाई को राष्ट्र मानने की | यूरोप में भाषाई इकाई को राष्ट्र माना जाता है | कैसे भी माने, जब राष्ट्र बन जाता है तो उसका स्वतन्त्र अस्तित्व होता है | "साहित्य के इतिहास" का अर्थ है उस भाषाई समूह की सामूहिक चेतना का इतिहास !! वह सामूहिक चेतना विभिन्न व्यक्तियों की चेतनाओं का जोड़ नहीं है, उससे अधिक है, और यह जो "अधिक" वाला अंश है वही सामूहिक चेतना है, समूह का पृथक अस्तित्व रखने वाला प्राण है | इसी विराट-पुरुष की सोच को साहित्य का इतिहास कहते हैं |
इस सहस्रशीर्षा सहस्राक्ष विराट-पुरुष का दर्शन केवल ऋषियज्ञ ही करा सकता है जो केवल पोथी पढने से ही सम्भव नहीं है | जो अपने जीवन और (आसपास के लोगों) को ईमानदारी से समझने और जीने का पूरी गम्भीरता से प्रयास करता है, कभी भी समाज के दवाबों और प्रलोभनों के चक्कर में नहीं पड़ता, वही विराट पुरुष की सामूहिक चेतना का दिग्दर्शन कर सकता है | एइमील लेइगुई और लुइ कज़म्याँ (Emile Legouis, Louis Cazamian) की उपरोक्त पुस्तक जो समझ सकेंगे वे ही मेरे इस लेख के मूल विषय को ठीक से समझ सकेंगे, वह पुस्तक मुफ्त में इन्टरनेट पर उपलब्ध है |
किन्तु शायद ही कोई फेसबुकिया व्यक्ति वैसी गम्भीर पुस्तक जीवन में कभी पढ़ और समझ सकेगा |

Vinay Jha 

Comments

Popular posts from this blog

चक्रवर्ती योग :--

जोधाबाई के काल्पनिक होने का पारसी प्रमाण:

क्या द्रौपदी ने सच में दुर्योधन का अपमान किया था? क्या उसने उसे अन्धपुत्र इत्यादि कहा था? क्या है सच ?

पृथ्वीराज चौहान के बारे में जो पता है, वो सब कुछ सच का उल्टा है .

ब्राह्मण का पतन और उत्थान

वैदिक परम्परा में मांसभक्षण का वर्णन विदेशियों-विधर्मियों द्वारा जोड़ा गया है. इसका प्रमाण क्या है?

द्वापर युग में महिलाएं सेनापति तक का दायित्त्व सभाल सकती थीं. जिसकी कल्पना करना आज करोड़ों प्रश्न उत्पन्न करता है. .

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में पुरुष का अर्थ

चिड़िया क्यूँ मरने दी जा रहीं हैं?

महारानी पद्मावती की ऐतिहासिकता के प्रमाण