जी एम कंपनियों के लिए नीलाम होता भारतीय कृषि क्षेत्र एवं उपाय जो आप अभी कर सकते हैं


जी एम कंपनियों के लिए नीलाम होता भारतीय कृषि क्षेत्र एवं उपाय जो आप अभी कर सकते हैं :-
[इस लेख के मूल अंश श्रीमती अरुणा रोडरिग्स के द्वारा लेखान्वित किये गए हैं जो जी एम ओ मसले पर सुप्रीम कोर्ट में मुख्य याचिकाकर्ता हैं।]
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टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी की रिपोर्ट ऐसी चौथी रिपोर्ट है जिसमें भारत में जी एम फसलों का किसी प्रकार का सामूहिक या पृथक परिक्षण नहीं करने का सुझाव दिया गया है। इससे पहले फ़रवरी २०१० की जयराम रमेश रिपोर्ट ने कृषि प्राधिकरण के बी टी बैगन को बाज़ार में उतारने के फैसले को बदलते हुए अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने का फैसला दीया था। अगस्त २०१२ की सोपोरी कमिटी रिपोर्ट और अगस्त २०१२ की ही संसदीय स्टैन्डींग कमिटी रिपोर्ट ने भी जी एम फसलों को भारतीय कृषि के लिए हानिकारक बताते हुए इन पर प्रतिबन्ध लगाने का सुझाव दिया था। संसदीय स्टैन्डींग कमिटी नें जी एम ओ के प्रति सरकारी रवैये को सिर्फ मानवीय चुक न करार देते हुए सरकारी संस्थाओं और बीज कंपनियों के सांट-गाँठ का परिणाम बताया था।
इस रिपोर्ट में भारत में जेनेटिकली मॉडिफाइड ओर्गनिस्म्स (जी एम ओ) यानि जी एम फसलों की जांच में भारत सरकार के द्वारा संस्थानक विनियमों के घोर उलन्घनों को उजागर किया गया है।
बी.टी कपास की कहानी इस लेख के अंतिम हिस्से में दी गयी है, आप चाहे तो पहले उसे पढ़ सकते हैं, समझने में आसानी होगी.
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इस रिपोर्ट में बताया गया है की भारत में जी एम फसलों के दुस्प्रभाव के खतरे को बेहद गैर जिम्मेदाराना तरीके से बिना किसी वैज्ञानिक विधि के और अपारदर्शी तरीके से मापा गया। टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी नें सुप्रीम कोर्ट को यह कहा है की भारत सरकार के जी एम फसल के ऊपर ढुलमुल रवैये से भारतीय कृषि को अपरिवर्तनीय नुक्सान पहुँच सकता है।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन जी एम बिज विकसित करने की तकनीक को अप्राकृतिक मानता है। आमूमन जी एम फसलो के नुकसानदेह प्रभाव कई सालों के बाद दिखाई पढ़ते हैं और क्रियान्वित होने के बाद इन कुप्रभावों में सुधार की गुंजाईश काफी कम रह जाती है। टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी के सुझाव वैज्ञानिक आंकड़ों के विश्लेषण और भारतीय कृषि के व्यवाहरिक पहलुओं के आधार पर दिए गए हैं। कमिटी ने इस बात पर ख़ासा जोर दिया है की सरकार भारत में जी एम फसलों के अधिनियम के लिए लोकतान्त्रिक सहभागिता से एक सख्त, निष्पक्ष और वैज्ञानिक तथ्यों से परिपूर्ण निति बनाये जो जैविक कृषि के अनुकूल हो।
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गौरतलब है की हाल ही में यूरोपीय संघ नें यूरोपीय देशों में जी एम फसलों के उपयोग को वैज्ञानिक तथ्यों और समाजिक अस्वीकृति की वजह से प्रतिबंधित कर दिया और यूरोपीय संघ के इस निर्णय पर जी एम बीज बनाने वाली कम्पनी मोंसैंटो ने पुनर्विचार याचिका नहीं दायर करने का फैसला लिया है।
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वही मोंसैंटो भारत में यह निर्धारित कर रहा है की देश में बी टी कॉटन की कौन सी नसल उगाई जाएगी। आज भारत में उगाये जाने वाले कपास के ९० प्रतिशत से भी ज्यादा बीज मोंसैंटो कंपनी द्वारा बेचें जा रहे हैं और यह मोंसैंटो के लिए एक गाढ़ी कमाई का जरिया बन चूका है। इसके अलावा भारतीय कृषि मंत्रालय नें मोंसैंटो कंपनी को भारत के सभी कृषि शोध संस्थानों के दिशा निर्धारण में भूमिका निभाने की अनुमति दे दी है। इसका भारतीय कृषि निति पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है जिसकी वजह से जी एम फसलों के मामले में कृषि मंत्रालय के द्वारा जनहित में निष्पक्ष निर्णय नहीं लिए जा रहे हैं।
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भारत में जी एम फसलों के खेतिय परिक्षण के ऊपर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी नें अपना निर्णायक रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिया है। इस रिपोर्ट में भारत में जेनेटिकली मॉडिफाइड ओर्गनिस्म्स (जी एम ओ) यानि जी एम फसलों की जांच में भारत सरकार के द्वारा संस्थानक विनियमों के घोर उलन्घनों को उजागर किया गया है। कई मायनो में इस रिपोर्ट नें बिहार सरकार के जी एम फसलों को बिहार में प्रतिबंधित करने के फैसले को सही करार देता हुए मुहर लगा दिया है।
रिपोर्ट में बताया गया है की भारत में जी एम फसलों के दुस्प्रभाव के खतरे को बेहद गैर जिम्मेदाराना तरीके से बिना किसी वैज्ञानिक विधि के और अपारदर्शी तरीके से मापा गया। टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी नें सुप्रीम कोर्ट को यह कहा है की सरकार के जी एम फसल के ऊपर ढुलमुल रवैये से भारतीय कृषि को अपरिवर्तनीय नुक्सान पहुँच सकता है।
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सुप्रीम कोर्ट की टेक्निकल एक्सपर्ट कमिटी नें बी टी खाद्य फसलों के ऊपर खासा जोर देते हुये कहा है की जब तक जांच के सर्वांगी पहलुओं पर नियमबद्ध तरीके से सुधार नहीं किये जाते और जब तक आंकलन के लिए नयी विज्ञप्ति नहीं जारी की जाती तब तक जी एम फसलों के परिक्षण और बाजारीकरण पर अविलम्ब रोक लगनी चाहिये।
एक्सपर्ट कमिटियों की रिपोर्ट की में जी एम फसलों को प्रतिबंधित करने की सर्वसम्मति भारतीय कृषि संस्थानों के अवधारणा के प्रतिकूल हैं जो एक सुर में जी एम फसलों की वकालत करते रहे हैं। इसकी वजह भारतीय कृषि संस्थानों में जी एम बीज कंपनियों के हिमायती अधिकारीयों की मौजूदगी बताई जा रही है। इस वजह से भारत सरकार के द्वारा इस मसले पर पारदर्शिता से निर्णय होने के ऊपर सवालिया निशान लग रहे हैं।


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भारत को कृषि विविधताओं का मूल केंद्र बताते हुये जी एम ओ के किसी प्रकार के पर्यावरणीय निर्गमन को रोकने और तृणनाशक से बचने वाले फसलों को भी खेतिय परिक्षण से वर्जित रखने का सलाह दिया गया है। रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है की तृणनाशक से बचने वाले जी एम फसल भारतीय वातावरण के अनुकूल नहीं हैं। जैविक खेती के लिए अनुपयुक्त इन फसलों से पर्यावरण के ऊपर दुस्प्रभाव पड़ेगा और इनके उपयोग से किसानो को काफी घाटा उठाना पड़ेगा।
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जीएम्ओ खाद्यान्नों के मानव-स्वास्थ्य के ऊपर महा-कारपोरेशन के लोगों द्वारा संचालित होने वाले इन्टरनेट(अंतर्जाल) पर कोई सामग्री नहीं दी गयी है, जबकि इसको विलायती टमाटर के रूप में सबसे पहले १९९४ से उपयोग में लाया जाना शुरू किया गया.
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समाचारों में ऐसा भी है कि कोई कोई देशों में इसके उपयोग पर पाबंदी भी लगाई गयी है, तो जाहिर सी बात है, कि उन देशों ने अपने अपने खाद्यान्न के वैज्ञानिकी संस्थाओंमें अपने वैज्ञानिकों द्वारा ये परिक्षण करवाया ही होगा कि जीएम्ओ खाद्यान्नों का मानव-स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है..
अतः इन पच्चीस सालों तक तो इसका परिक्षण मानव-कोशिकाओं पर करवाया ही जा सकता था, जिसके बाद, ही अगर इन परीक्षणों का कोई नकारात्मक प्रभाव मानव-जीन एवं स्वास्थ्य पर दिखाई न देने के बाद ही, इसके उपयोग को कानूनी बनाया जाना चाहिए.
अतः आप सब इसके हिन्दुस्तान में रोकने के लिए अपने अपने सांसदों/विधयाकों/प्रधानमंत्री को ये आदेश भेजें, कि वे पक्षपात पूर्ण रिपोर्ट के आधार पर जी एम् ओ खाद्यान्नों को भारत में कानूनी बनाए जाने से रोकें, क्यूंकि इसके प्रभाव तुरंत नहीं दिखलाई देते बल्कि बीस-पच्चीस साल के बाद या अगली पीढ़ियों में नजर आने वाले हैं, इसका अर्थ ये है कि आपको चाहे कुछ हो या ना हो, लेकिन आपकी आने वाली पीढ़ियों को अनजान बीमारियाँ लगने एवं आयु कम होने से कोई नहीं बचा सकता.
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आप सबको यहाँ पारदर्शी शिकायत प्रणाली एवं सभी सरकारी पदों पर राईट-टू-रिकॉल के कानूनों को गजेट में प्रकाशित करवा कर तत्काल प्रभाव से क़ानून का रूप दिए जाने को लेकर अपने अपने सांसदों, विधायकों, प्रधानमंत्री को अपना एक जनतांत्रिक आदेश भेजकर उनपर नैतिक दबाव बनाना चाहिए.
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वर्तमान के संसदीय लोकतंत्र की प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शी शिकायत प्रणाली नहीं है, जिसमे जनता को सुनने वाला कोई नहीं है, एवं प्रस्तावित पारदर्शी शिकायत प्रणाली में जनता अपनी शिकायतों को मात्र एक एफिडेविट द्वारा माननीय प्रधानमंत्री जी की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से रख सकते हैं, जिसे देश के अन्य नागरिक बिना लाग-इन किये देख सकें, एवं मुद्दों से पार पाने के लिए कानूनी सुधार प्रक्रिया का प्रस्ताव रख सकें. एवं आप इसमें साबूतों को भी रखवा सकते हैं अगर आप चाहते हैं तो.
इस प्रक्रिया को ही पारदर्शी शिकायत प्रणाली कहते हैं, इसे राष्ट्रीय गजेट में प्रकाशित कर तत्काल प्रभाव से क़ानून का रूप देने की मांग अपने सांसदों/विधायकों से कर आप उनपर नैतिक दबाव बना सकते हैं.
इसे पारदर्शी इस लिए कहा जा रहा है क्योंकि इस व्यवस्था में पीड़ित से संपर्क साधना आसान हो जाएगा, जबकि अभी के मौजूदा व्यवस्था में पीड़ित से संपर्क साधना , उनके बारे में पता लगाना इतना आसान नहीं है.
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इस क़ानून का ड्राफ्ट आप यहाँ देख सकते हैं- rtrg.in/tcpsms.h (हिंदी) अंग्रेजी मेंwww.Tinyurl.com/PrintTCP देखें.
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आपअपने नेताओं को अपना जनतांत्रिक आदेश इस तरह भेजें, जैसे की-
"माननीय सांसद/विधायक/राष्ट्रपति/प्रधामंत्री महोदय, मैं अपने सांविधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए आपको भारत में पारदर्शी शिकायत प्रणाली के प्रस्तावित क़ानून ड्राफ्ट :-https://m.facebook.com/notes/830695397057800/ को गजेट में प्रकाशित कर तत्काल प्रभाव से क़ानून का रूप दिए जाने का आदेश देता /देती हूँ. वोटर-संख्या- xyz धन्यवाद "
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अपने सांसदों का फ़ोन नंबर/ईमेल एड्रेस/आवास पता यहाँ लिंक में देखे:www.nocorruption.in
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जब अपराध जनता के प्रति हुआ हो ना, तो सजा देने का अधिकार भी हम जनता को ही रहना चाहिए, न कि जजों इत्यादि को, क्योंकि जज व्यवस्था में, जो वकीलों एवं अपराधियों के साथ सांठ गाँठ कर न्यायिक प्रक्रिया पूरी की पूरी तरह से उनके ही पक्ष में देते हैं.
जनता द्वारा न्याय किये जाने को ज्यूरी सिस्टम बोलते हैं,इसके अलावा ज्यूरी सिस्टम जिसमे सरकार एवं अन्य बड़े व्यक्तियों द्वारा अखबारों में यदा कदा प्रकाशित होने वाले ज्यूरी सिस्टम जिसमे कहा जाता है कि ये बिक जाते हैं, जबकि सच्चाई में हमारे संगठन द्वारा प्रस्तावित ज्यूरी सिस्टम में इसके सदस्यों को मतदाताओं की सूची से अचानक से ही न्याय का कार्य दिया जाता है, और वो सदस्य कई वर्षों में मात्र एक बार ही इस समिति का सदस्य बन सकता है, एवं अभियुक्तों व पीड़ितों से सच उगलवाने वाले सार्वजनिक नार्को टेस्ट एवं ऐसे ही ्अन्य प्रस्तावित ड्राफ्ट्स के लिए यहाँ देखें-https://www.facebook.com/righttorecallC/posts/1045257802233875:0
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बी.टी कपास की कहानी: कीट, कीटनाशक और प्रचार की जुबानी एवं मोनसेंटो का कोरा झूठ, परम्परागत एवं बी.टी कपास में अंतर:-
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मोनसेंटो न केवल एक असफल प्रौद्योगिकी को भारतीय खेतों में थोपने पर लगा हुआ है, बल्कि वह जबरन ही हमारे छोटे-किसानों से राॅयल्टी वसूल कर उन्हें कर्ज की गर्त में फंसाने का का कुचक्र रच रहा है।
भारत के कई राज्यों मेें बीज पर राॅयल्टी के मामले दर्ज किए गये हैं। सरकार को चाहिए कि वह भ्रष्ट कम्पनियों को संरक्षण देने की बजाय किसान और कृषि को संरक्षण प्रदान करे। इन बड़ी बीज कम्पनियों द्वारा प्रौद्योगिक असफलता तथा राॅयल्टी वसूलने पर सरकार की पारदर्शिता नितांत आवश्यक है।
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विगत दिनों में पंजाब में सफेद मक्खी के कारण कपास की दो-तिहाई फसल बर्बाद हो गई। इस उपजाऊ क्षेत्र में इससे पूर्व सफेद मक्खी द्वारा ऐसा भयंकर प्रकोप देखने को न मिला। इस घटना से आहत होकर कपास उत्पादक 15 किसानों ने आत्महत्या कर दी।
इस हृदय विदारक घटना ने यह बात सामने रख दी कि जी.एम.ओ फसलों का खेतों में परीक्षण से किसान कर्ज की विकराल स्थिति में सकते हैं और इससे किसानों को आत्महत्या के लिए फिर से विवश होना पडे़गा। अब तक इन बी.टी. फसलों के कारण तीन-लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जोकि हमारे लिए भंयकर कृषि-आपदा है। इस कृषि संकट से देश को उबारने के लिए हमें अपनी खेती को जी.एम.ओ. के कुचक्र में धंसने से रोकना होगा, ताकि कर्ज और आत्महत्याओं की ऐसी गंभीर स्थिति से उभरा जा सके।
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पंजाब में बी.टी. उत्पादक किसानों ने अपनी फसल पर 10-12 बार कीट नाशकों के उन्मूलन के लिए कीट नाशकों का छिड़काव किया। देखा जाए, तो प्रत्येक छिड़काव की कीमत 3200 रूपये बैठती है। बी.टी. कपास की बुवाई के लिए इन किसानों के द्वारा मोनसेंटो, माइको से महंगा बीज खरीदा गया। वहीं, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब में जिन किसानों ने गैर-बी.टी. कपास को उगाया, उनकी इस फसल पर कीटों का कोई भी प्रभाव देखने को नहीं मिला। पंजाब में तो जैविक किसानों की फसल को सफेद मक्खी ने छुआ भी नहीं।
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उपरोक्त घटना पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह सिद्ध करते हैं कि रासायनिक तथा बी.टी. फसलें कीटों को बढ़ावा देती हैं, जबकि जैविक खेती कीटों को नियंत्रित करती है। पारस्थितिक प्रक्रिया ही इस तरह की हो जाती है कि बी.टी. फसलों तथा भारी मात्रा में रसायनों के प्रयोग से कीटों की संख्या बढ़ जाती है। यदि प्राकृतिक विज्ञान पर आधारित पारस्थितिक खेती को अपनाया जाए, स्थायी कीट-नियंत्रण प्रौद्योगिकी को बढ़ावा दिया जाए तो बी.टी. जैसे महंगे तथा असफल बीज के साथ ही महंगे रसायनों से छुटकारा पाया जा सकता है।
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जैव-प्रौद्योगिक समूह वैज्ञानिक तरीके से अपनी प्रतिक्रिया देने के बजाय मोंनसेंटों के झूठे वादों को दोहराते हैं, जिसके कारण हमारे लाखों किसान कर्ज के चंगुल में फंस चुके हैं और हजारों किसान आत्महत्या की ओर धकेले जा रहे हैं। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या तीन लाख किसानों की आत्महत्या किसी भी देश की आंखें खोलने के प्रयाप्त नहीं होती?
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कीटों को बढ़ावा देती औद्योगिक खेती-
औद्योगिक खेती एक ही तरह की फसल को बढ़ावा देती है। एकल पद्धति वाली खेती पर कीटों का प्रकोप अपेक्षाकृत अधिक होता है। ऐसी खेती में रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से कीट पौधों के प्रति अति संवेदनशील हो जाते हैं। कीटनाशकों के प्रकोप से कीटों की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीेरे बढ़ जाती है और मित्र कीट समाप्त हो जाते हैं जिससे कृषि पारस्थितिकी पर बहुत बुरा असर पड़ता है।
1. एकल कृषि को बढ़ावा देने से फसल पर होता है कीटों का अधिक प्रकोप।
2. रासायनिक उर्वरक बनाते हैं कीटों को पौधों के प्रति अधिक संवेदनशील।
3. कीटनाशकों के छिड़काव से बढ़ती है कीटों की प्रतिरोधक क्षमता।
4. कीट नाशकों से हानिकारक कीटों को नियंत्रण करने वाले मित्र कीटों की प्रजातियां कम हो जाती है जिससे कृषि-पारस्थितिकी का संतुलन बिगड़ जाता है।
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मोनसेंटो का कोरा झूठ:-
इन कीटों से बचाव के लिए बी.टी. फसल कतई विकल्प नहीं है। कीट नियंत्रण के लिए गैर-टिकाऊ रणनीति अपनाकर कीटों की संख्या नियंत्रित होने की बजाय नये कीटों का उद्भव होता है और फिर उन पर किसी भी प्रकार से नियंत्रण कर पाना बड़ा कठिन हो जाता है और अंततः वे सूपर कीट जैसे बन जाते हैं।
मोनसेंटो हमेशा से प्रचार करता आ रहा है कि बी.टी. कपास के लिए कीटनाशकों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं पड़ती। और इन बीजों को इसी बात को आधार मानकर पर फसलोत्पादन की अनुमति भी मिली थी, ताकि बी.टी. फसलों से कीटनाशकों के प्रयोग पर विराम लगेगा।
मोनसेंटो अपनी विवरणिका में कुछ कीड़ों की तस्वीर प्रदर्शित कर यह प्रचारित करता है कि ’अब कपास में ये कीट दिखाई दें तो चिंता करने की कोई बात नहीं, आगे से आपको बी.टी. फसलों में कीट नाशकों के छिड़काव की जरूरत नहीं पडे़गी।’
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मोनसेंटो ने अपने दावे में यहां तक बताया कि बी.टी. कपास में कीटनाशकों के छिड़काव से फसल की उत्पादकता में कमी आ जाती है। लेकिन प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता? पंजाब में फसल की तबाही से मोनसेंटो का कोरा झूठ स्पष्ट हो चुका है। बी.टी. कपास अपने अंदर कीटनाशक को उत्पन करने वाली ऐसी प्रजाति है जिसे, कीटों को नियंत्रण करने के मकसद से तैयार किया गया। ज्ञात हो कि अमेरिका में बी.टी कपास कीटनाशक उत्पाद की भांति ही पंजीकृत है।
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परम्परागत एवं बी.टी कपास में अंतर:-
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बी.टी. टाॅक्सिन प्रकृति में साॅयल बैक्ट्रियम परिवार बेसिलस थ्रुरिंजिसिस (बी.टी.) के द्वारा उत्पादित अणु हैं।
किसान तथा बागवान भाई अपने खेतो में बेसिलस थ्रुरिंजिसिस को एक जैविक खाद के रूप में पिछले 50 वर्षों में डालते आ रहे हैं।
वर्तमान में बेसिलस थ्रुरिंजिसिस का गुण सूत्र जैव-प्रौद्योगिकी के माध्यम से फसल के अंदर प्रवेश कराया गया है, ताकि इसका एक-एक कण विषाक्त हो सके।
अब यहां यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि प्रकृति में पाये जाने वाले बी.टी. तथा जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से शोधित फसलों वाला बी.टी. किसी भी तरह से एक समान नहीं हैं।
मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाला मृदा जीवाणु बी.टी. विष प्रवृति का होता है और अक्रिय अवस्था में होता है।
इसी कारण से यह गैर-लक्षित कीटों के लिए हानिप्रद नहीं होता।
इसे कम्बल कीडे़ में पाये जाने वाले एक एंजाइम के माध्यम से विषैला बना दिया जाता है।
बी.टी. पौध में एक बहुत ही सूक्ष्म जीन होता है, जिसे विषैला बनाने के लिए बहुत कम प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है।
इसी वजह से यह गैर-लक्षित कीटों के लिए उतना ही विषैला होता है जितना कि बाॅलवाॅर्म (कपास पर लगने वाला कीड़ा) के लिए।
प्राकृतिक रूप से मिलने वाले बी.टी और जैव प्रौद्योगिकी के आधार पर संशोधित बी.टी (पौधों में जडे़ गए) में यही अंतर होता है।
इसी वजह से बी.टी. कपास गैर-लक्षित कीटों पर भी प्रभाव डालता है।
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यहां जैव-प्रौद्योगिकी के झूठे दावों से विज्ञान के शोध को ढक दिया जाता है और प्रचार को विज्ञान के स्थान पर प्रतिस्थापित किया जाता है।
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फेल हो गई बी.टी:-
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जैव-यांत्रिक बी.टी. को टिकाऊ कीटनाशक की रणनीति के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है। लेकिन बी.टी. फसलें न तो प्रभावी हैं और ना ही पारस्थितिक रूप से टिकाऊ।
कीट-नियंत्रण करने के बजाय बी.टी. फसलें कीटों को और विकराल बना रही हैं। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण सफेद मक्खियां हैं, जिन्होंने 2015 में पंजाब में 80 प्रतिशत से अधिक बी.टी. फसल को चैपट कर दिया।
जब से भारत में बी.टी. फसलों को खेती हेतु अनुमति मिली, तब से अब तक के इतिहास में कपास पर लगने वाले कीड़ों ने गैर-बी.टी. कपास को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया।
राॅयल सोसाइटी ने अपने अध्ययन मेें पाया कि जैव-यांत्रिक प्रक्रिया से बी.टी. कपास बाॅलवार्म को गैर-लक्षित कीटों यथा एफिड आदि के प्रति अधिक ग्राही बना देता है। क्योंकि बी.टी. वाले पौध की प्रत्येक कोशा में बी.टी. विष अपना प्रदर्शन करता है। बी.टी. कपास टेरपेनाॅइड्स नामक पदार्थ की न्यूनतम मात्रा रखता है, जो कि दूसरे कीटों को आकर्षित करता है।
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सचेत हो सरकार:-
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मोनसेंटो न केवल एक असफल प्रौद्योगिकी को भारतीय खेतों में थोपने पर लगा हुआ है, बल्कि वह जबरन ही हमारे छोटे-किसानों से राॅयल्टी वसूल कर उन्हें कर्ज की गर्त में फंसाने का का कुचक्र रच रहा है। भारत के कई राज्यों मेें बीज पर राॅयल्टी के मामले दर्ज किए गये हैं। सरकार को चाहिए कि वह भ्रष्ट कम्पनियों को संरक्षण देने की बजाय किसान और कृषि को संरक्षण प्रदान करे। इन बड़ी बीज कम्पनियों द्वारा प्रौद्योगिक असफलता तथा राॅयल्टी वसूलने पर सरकार की पारदर्शिता नितांत आवश्यक है।
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अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें- Dinesh Chandra Semwal
09897293685 , dinesh777semwal@gmail.com
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जय हिन्द

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