भक्तों के अनुसार नेहरू ने एनएसजी में भारत की सदस्यता के प्रस्ताव को ठुकराया था, लेकिन सच कुछ और ही है.

कुछ पार्टी-भक्त लिख रहे है मोदी NSG के लिए दिन रात मेहनत कर रहे है जबकि 1960 में अमेरिका ने नेहरू को NSG का सदस्य बनने का ऑफर दिया जिसको नेहरु जी ने ठुकरा दिया. हालाँकि, एनएसजी में सदस्यता न मिल पाने के जवाब में मोदी सरकार ने पेरिस क्लाइमेट अग्रीमेंट को अभी लागू न करने का निर्णय लिया है, जिसे ओबामा गवर्नमेंट का अभी तक का सबसे बड़ा उपलब्धि करार दिया जा रहा था. खैर..
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अब इन अंध भक्तो से पूछे की NSG बनी कब ?
1974 में जब श्रीमती इंदिरागाँधी ने परमाणु परीक्षण किया, उसका उत्तर देने के लिए NSG का गठन हुआ जिसकी पहली बैठक १९७५ में हुई थी. उसके बाद १९७८ तक कई बैठक हुई इसकी. Anyway..
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महीनो से जारी जिस राजनैतिक और कुटनीतिक घटना का पटाक्षेप हुआ हैं वैश्विक मंच पर वो खासतौर से विश्व के तीन राष्ट्र के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा ये तीन अमेरिका, भारत और चीन, बाकि के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जुड़े हैं जिनका भी योगदान और भूमिका काबिलेतारीफ रहा.
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परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह 
भारत के पहले परमाणु परिक्षण के बाद अस्तित्व में आया जिसका मकसद मुख्य रूप से यही था की कोई नयी ताकत उभर कर पश्चिम के बराबर में न खड़ी हो और जिसको बड़ी चालाकी से उन शक्तिशाली मुल्को ने शान्ति का लबादा पहना दिया लेकिन इसका अप्रत्यक्ष उद्देश्य शक्तिशाली और कमजोर के बीच मौजूद खाई को यथावत रखने, मालिक और दास की भूमिका का सार्थकता, बाजारवाद की नीति और राजनैतिक सन्दर्भ था जो समय के साथ साथ बदलता रहा शुरू से ही भारत इसका सदस्य नहीं रहा हैं और ऐसी अचानक क्या जरुरत आगयी की भारत के लिए इसकी सदस्यता जरुरी हो गयी इस समूह की सदस्यता के लिए कुछ अनिवार्य शर्त हैं जिसको बिना पूरा किये आप इसके सदस्य नहीं हो सकते फिर ये सबकुछ जानते हुए ऐसा कुटिल खेल क्यूँ खेला गया और भारतीय नेतृत्व दिन रात एक करके इसकी सदस्यता के लिए बेचैन था
इस समूह के सदस्य राष्ट्रों में चीन को छोड़कर कोई भी राष्ट्र खुलेआम विरोध में नहीं था
तुर्की, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मेक्सिको, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका ये राष्ट्र कभी सहमत नहीं हुए भारत की सदस्यता को लेकर फिर भी हमने प्रयास किया
अमेरिकी कूटनीतिक सहयोग
इस कूटनैतिक खेल में शुरू से ही अमेरिका की भूमिका संदिग्ध रही जो दिखती नहीं हैं सामने से लेकिन परदे के पीछे से अपना खेल बखूबी पूरा कर गयी और हर बार की तरह इस बार भी हम अमेरिकी कूटनीत के आगे बौने साबित हुए
सदस्यता अभियान के पहले अमेरिकी संसद में मोदी का जोरदार स्वागत और उसके बाद अमेरिकी ब्यान और प्रयास समर्थन के लिए कही न कही बीच में एक कड़ी को छोड़ कर आगे बढ़ रहे थे और वो समानता और आर्थिक फायदा था जो की अमेरिका कभी अपने नुक्सान के लिए नहीं करता. 
जितने मुल्क ने भारत का विरोध किया परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में वो सब अमेरिकी दबाव के आगे झुक जाते ये जगजाहिर हैं तुर्की अमेरिका का मोहरा और चाल हैं रूस के खिलाफ पश्चिम में, मेक्सिको, न्यूजीलैंड भी खिलाफ नहीं जाने वाला, स्विट्ज़रलैंड भी न नहीं करता, ऑस्ट्रेलिया से ऑस्ट्रिया तक लेकिन आखिर इनपर अमेरिका दबाव क्यूँ नहीं बना पाया भारत के लिए यह सोचने की बात हैं क्यूंकि मोदी सरकार के अमेरिका से आने के बाद ही भारत सरकार ने कई क्षेत्रो में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा दी जो की स्वयं कभी विपक्ष में रहते हुए इनके विरोध का मुख्य मूद्दा था खैर इतना सब होने के बाद जब सारे प्रयास विफल होगये तो महामहिम ओबामा ने फिर से घोषणा कर दिया की हम समर्थन जारी रखेंगे इस वर्ष के अंत तक भारत को सदस्य बनवा देंगे तो स्वत ही कुछ प्रश्न दिमाग में आते हैं की जब एक भी सदस्य विरोध कर देगा तो सदस्यता नहीं मिलेगी फिर अमेरिका ये पहले से ही हारी हुई बाजी क्यूँ खेल रहा हैं भारत के लिए क्यूँ अपनी कूटनीत दावं पर लगा रहा हैं यह हमेशा अनुतरित प्रश्न बने रहेंगे जब तक इस सदस्यता अभियान का पटाक्षेप नहीं हो जाता हैं
अमेरिका प्रत्यक्ष औरअप्रत्यक्ष रूप से भारत से अपने फायदे के लिए आर्थिक नीतिया बनवा रहा हैं यह कटु सत्य हैं चाहे हम माने या न माने.
क्यूंकि जिस सदन में मोदी का भव्य स्वागत हुआ उसी में कुछ दिन बाद पकिस्तान को दिए जाने वाले भारी भरकम प्रस्ताव को पेश किया जाता हैं भारत के विरोध में प्रस्ताव लाये जाते हैं जो बाद में टालमटोल के बाद पास भी हो जाते हैं
एक बात हमेशा याद रखना होगा की अमेरिका ऐसा मुल्क हैं जिसको जब फायदा दिखेगा खुद का वो उसके साथ हो लेगा पुरे विश्व में अमेरिका के दस हजार से ज्यादा कुटनीतिक कर्मचारी हैं ये इसी खेल की बाजी को पलटने के लिए रखे जाते हैं
हमे जरुरत हैं अमेरिका के सन्दर्भ में आत्म् मंथन करने की
क्यूंकि अब तक अमेरिका को फायदा हुआ हैं इन सब बड़े राजनैतिक दावों से
चीन विरोध भारत के सन्दर्भ में
ये जग जाहिर हैं की चीन हमारा शुरू से ही शत्रु रहा हैं लेकिन फिर भी हम भारतीयों की नीति रही हैं चीन के साथ पींगे बढाने की और आज वर्तमान में प्रत्यक्ष युद्ध सम्भव नहीं लेकिन नीतियों से युद्ध जरुर लड़े जा रहे हैं जिसमे हम चीन के सामने कही नही हैं एक दिन में सम्भव नहीं लेकिन कदम तो बढाये
चीनी नेता माओत्से तुंग का दो कथन हमेशा याद आता हैं
-एक जंगल/ पहाड़ में दो शेर नहीं रह सकते
-दुश्मन को हमेशा वार्ता के मेज पर झुकाना चाहिए
वर्तमान चीन आज भी इसी नीति पर चल रहा हैं और आगे भी चलता रहेगा भारत के सन्दर्भ में ये विरोध का कारण स्पष्ट हैं चीन अपने को पश्चिम के मुल्क, अमेरिका के समक्ष, रूस से ऊपर या बराबर देखना चाहता हैं इसलिए वो कभी नहीं चाहेगा की भारत को समान या वो स्थान मिले जिसका वो हकदार हैं और जिससे उसके स्वयं के सम्मान पर कोई आंच न आये और इसलिए उसने बड़ी चालाकी से पकिस्तान को अपना मोहरा बनाया चीन को सब बेहतर से पता था की पाकिस्तान
को समर्थन देने की बात करके मुददे को भटकाना हो या फिर भारत के प्रयास में अडंगा लगाने का कुटिल चाल चाहे जो कह ले लेकिन चीन को वैश्विक मंच पर जबर्दस्त फायदा हुआ उसके स्तर और वर्चस्व को लेकर एक तरह से उसने खुद को स्वयम्भू पैगम्बर बनाने के दिशा में कदम बढाये हैं जिसका दूरगामी परिणाम निसंदेह चीन के पक्ष में होगा और २०१८ तक चीन एक महशक्ति के रूप में उभर जाएगा
इसीलिए भारत राष्ट्र के कद और गरिमा को ध्यान में रखते हुए हमारे नेतृत्व को एक सशक्त निर्णय लेना होगा चीन के दोगली नीति के खिलाफ बिना किसी भय के
मिसाइल तकनीकी का सदस्यता 
इन सबसे अलग यह भारत के लिए सुखद रहा की इसमें भारत को सदस्यता मिलने के आसार ९९% है आज  की  तिथि में, जिसके लिए चीन वर्षो से प्रयासरत हैं हम इस मामले में एक कदम और आगे बढ़ गए हैं जो एक बराबरी का दर्जा देती हैं पश्चिम के मुल्को के समक्ष भविष्य में इसके और भी सुखद बदलाव दिखेंगे जो की भारत को एक शक्ति के रूप में स्थापित करने लिए काफी होंगे लेकिन इसके सतह साथ भारत को अपने स्वयं के तकनीक और शोध पर खर्च करने होंगे उनका दायरा बढ़ाना होगा ताकि इसका सदस्य रहकर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाया जा सके और अहिंसा का मिथ्या चोला उतार कर आक्रामक होना होगा
वर्तमान भारतीय कूटनीत और घरेलू  राजनीति 
वैश्विक मंच पर जो भी प्रयास हमारे तरफ से हुए हैं और जो अंजाम हुआ उसको देख कर इतना पता चल गया हैं की हम अभी भी कूटनीति रूप से विश्व में मजबूत स्थान में नहीं हैं जो पीछे से खेले जा रहे चालो को समझ सके सामने मंच पर जो बाते होती हैं और वार्ता होती हैं उसके पीछे प्यादे होते हैं निर्णय के लिए भारत को अपनी भूमिका बदलनी होगी और इनमे सेंध लगाना होगा राष्ट्र की खातिर ताकि भविष्य में ऐसे हालातो से बचा जा सके क्यूंकि यहाँ कूटनीति और विदेशनीति की हार नहीं मुल्क के सम्मान को जो धक्का पहुचता हैं वो कोई भी सरकार नही पूरा कर सकती. 
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इन सबसे इतर हमारे घरेलू  राजनीती में जिस तरह से आनन्द का माहौल बना मोदी को व्यक्तिगत रूप से लेकर वो निराशाजनक ही नहीं बल्कि मुल्क की अस्मिता को घायल करने का प्रयास था एकता को कमजोर करने का तरीका था 
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आपका राजनैतिक विरोध जयाज हैं लेकिन जब सरकार की नीति राष्ट्र के सीमा से बाहर हो जाती हैं तो आपका राजनैतिक विरोध उससे परे हो जाता हैं आप पद पर बैठे व्यक्ति को नही बल्कि राष्ट्र को नीचा करते हैं और वर्तमान में हमारे मुल्क का राजनैतिक समूह एक तरह से पतन के कगार पर खड़ा हैं सब एक दुसरे का विरोध करके सत्ता पाने का तरीका ढूंढते हैं
लेकिन सबसे जिम्मेदार कोई हैं तो हम आम जनता है जो अपने राजनैतिक दलों और मुर्ख नेता जी से उपर उठकर राष्ट्र के लिए नहीं सोचते वर्तमान में हम सोशल मीडिया के राष्ट्रवादी होकर रह गए हैं जिसका कोई फायदा नहीं
ब्रिटेन, यूरोपियन यूनियन और जनमत संग्रह 
इन सबसे अलग पश्चिम के राजनैतिक और आर्थिक मंच पर एक नए घटना का उदय हुआ ब्रिटेन से जुड़ा हुआ जिसका सूत्रपात इस्लाम ही हैं. अमेरिका और पश्चिम प्रायोजित आतंक ने मध्यपूर्व को तबाह कर दिया और जो शरणार्थी निकल कर यूरोप में प्रवेश किये वो यूरोपियन यूनियन के सदस्य राष्ट्रों पर बराबर में बाटने का दबाव पड़ा जिससे कुछ राष्ट्र अपनी संस्कृति और स्वतन्त्रता को लेकर चिंतित हुए जिनमे ब्रिटेन भी था जिसने इतना बड़ा कदम उठाया जो की आर्थिक रूप से भी पुरे वैश्विक आर्थिक गतिवधि को प्रभावित करेगा.
यूरोपियन यूनियन की स्थापना पचास के दशक में हुई तब से लेकर अब तक इसमें भी कई महत्वपूर्ण बदलाव आते रहे हैं लेकिन ब्रिटेन का घटना सबसे महत्वपूर्ण रहा इसके कुछ राष्ट्र रूस से टूटकर अलग हुए हैं कुछ शुरू से ही स्वतंत्र रहे हैं
इन सारे घटना के जड़ में इस्लाम ही हैं और आने वाले भविष्य में इस्लाम ही यूरोप में उथल पुथल का कारण बनेगा ये उनकी नीतियाँ ही निर्धारित कर रही हैं.
लेकिन जो जनमत संग्रह हुआ उसमे केवल 48 प्रतिशत ने विरोध में मत दिया 51 प्रतिशत ने अलग होने के लेकिन इनमे 12 लाख अप्रवाशियों की भूमिका जरुर महत्वपूर्ण रही इनमे सबसे ज्यादा भारतीय ही हैं ये जहा हैं वह राजनैतिक निर्णय को उलझाते हैं ब्रिटेन को इस्लाम से खतरा नजर आया और उसने ऐसा कदम उठाया
लेकिन इसके तुरंत बाद एक हस्ताक्षर अभियान शुरू हो गया जिसमे ब्रिटेन की यूरोपियन यूनियन में बने रहने की सहमती हैं और ब्रिटेन की संसद का एक नियम हैं की जिस किसी मुददे पर एक लाख से ज्यादा हस्ताक्षर हो जाते हैं वो संसद में चर्चा और बहस के लिए रखे जाते हैं और निसंदेह इस अभियान के साथ भी ऐसा ही होगा
आने वाला समय सब कुछ निर्धारित करेगा

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The NSG was founded in response to the Indian nuclear test in May 1974 and first met in November 1975. The test demonstrated that certain non-weapons specific nuclear technology could be readily turned to weapons development. Nations already signatories of the Nuclear Non-Proliferation Treaty (NPT) saw the need to further limit the export of nuclear equipment, materials or technology. Another benefit was that non-NPT and non-Zangger Committee nations, then specifically France, could be brought in.
A series of meetings in London from 1975 to 1978 resulted in agreements on the guidelines for export, these were published as INFCIRC/254 (essentially the Zangger "Trigger List") by the International Atomic Energy Agency. Listed items could only be exported to non-nuclear states if certain International Atomic Energy Agency safeguards were agreed to or if exceptional circumstances relating to safety existed.
The name of the "London Club" was due to the series of meetings in London. It has also been referred to as the London Group, or the London Suppliers Group.
The NSG did not meet again until 1991. The "Trigger List" remained unchanged until 1991, although the Zangger list was regularly updated. The revelations about the Iraqi weapons program following the first Gulf War led to a tightening of the export of so-called dual-use equipment. At the first meeting since 1978, held at the Hague in March 1991, the twenty-six participating governments agreed to the changes, which were published as the "Dual-use List" in 1992, and also to the extension of the original list to more closely match the up-to-date Zangger list. A regular series of plenary meetings was also arranged as was the regular updating of the two key lists.
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India has signed bilateral agreement few years back for co-operation for peaceful uses of nuclear energy with several countries including USA, France, Russia, Namibia, Argentina, Kazakhstan, South Korea and Canada. These agreements provide for export of nuclear equipment in accordance with the Export Control Procedures.
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However, India has not exported any nuclear material.
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India have not much R&D on nuclear materials and components researches, so there is no issue of export of nuclear components//materials etc.
First India should focus on eradicating corruptions and mafias in it's machineries, then only India has some point of being an active member of NSG, Otherwise this will be like -
" बन्दर के हाथ में अस्तूरा "
I think, that as per Make in India programme, Modi could had in his mind that foreign companies will come here and establish their own manufacturing industries for nuclear materials, then Modi Govt will export those materials/components etc under Make in India aka FDI.
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There is no need to be the member of NSG for India, Modi is just shaming our nuclear engineers and scientists.
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Modi should first focus on removing corruption, nepotism, bureaucracy in governance of India, then it will be of point to be an active member of NSG.
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No significant difference would have done if India were not included in NSG. It was actually more of a prestige issue than a need based one. (especially for a person like Mr. Modi) Because we currently don't have any crisis of nuclear raw material as our own Uranium mines in Jaduguda (Bihar) are providing appropriate qty of material. Plus, we're not in manufacturing of nuclear weapons or any other non-peaceful business. So there is no business crisis is going to happen for us. Our only requirement from foreign field is of heavy water for our nuclear energy plants which is being fulfilled sufficiently under current arrangement. Yes, it was good to be included in NSG to built up our PM's prestige (just like any 'aam' woman like me would feel after being included in elite kitty club of city. Ha ha) and also some export facilities (as mr. Dipak Seth explained above), which we aren't going to do in near future. Because, if we plan to do so, do you really think they (elite) would let us do so? 
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In fact all this process of hectic efforts by Mr. Modi in last 2-3 months, have done more loss to nation than profit. How? Well, he's travelled for more that one lacs kms. by air to 7-8 countries for lobbying on our (tax payers') money. He has agreed to many of their terms and conditions to get the business done, which may put us in importing more than necessary (we'll see in near future). The biggest such deal was made in USA when he opened our doors for full FDI in defence to get their favour but US had already made this "back stage" deal with China that, "China is not to say Yes to India so that the Yes from US is of no use to India AND in return, USA will give more relaxations in visa rules to Chinese students in US (which is the biggest population of Asians there)". They agreed to this and its effect is already visible there. I'm surprised how come our bureaucrats didn't get the smell of this game and let our PM become their puppet. Now soon the balloon of "Make in India" is going to fuse as sting of this FDI is coming to hit hard. P.S.-- The biggest hue n cry will be from our Ramdev baba.
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it was all the game plan of both USA (in background) and China (in front). Mr. Modi need to review his team of advisers, as he has not only made a down mark by touring so many countries but also unknowingly gave an equilibrium position to "20% sized" Pakistan (whose Mr. Nawaz Sharif didn't even buzz from his bed). PM should've sent his team members like Ms. Sushma, Rajnath, VK Singh, Jaitley etc. to such a tour for lobbying. But problem is that, Mr. Modi has cut wings of his team so much that neither any of them takes up lead, nor Modi trusts them this much. It happens in all one man shows..... But who lost in the end of this ego clash? India lost.
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And look, how US today comments that it will try to pursue China on the issue..... as they say, "Chor ki dadhi me tinka". If it were this much in favour, then why today, why not they did it then?

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