देवपूजन: दैवीगुणों के विकास की वैज्ञानिक पद्धति
सनातन धर्म में अनेक देवी देवताओं के पूजन का विधान है. मानव को महामानव बनाने की एक ऐसी वैज्ञानिक पद्धति विश्व के किसी भी दुसरे धर्म में नहीं है. इसीलिए एनी वेसेंट ने कहा: "मैंने विश्व के सभी बड़े धर्मों का अध्ययन करके पाया कि हिन्दू धर्म के सामान पूर्ण, महान और वैज्ञानिक धर्म कोई नहीं है. यदि हिन्दू ही हिन्दू धर्म को न बचा सके तो और कौन बचाएगा? यदि भारत की संतान ही अपने धर्म पर दृढ न रही तो कोण उस धर्म की रक्षा करेगा?"
ईश्वर एक है परन्तु उसकी शक्तियां अनंत हैं. साधारण व्यक्ति के लिए ईश्वरीय शक्ति की भेद- विभेद को समझाना अत्यंत कठिन है. जन साधारण इस गुप्त भेद को समझकर उन दिव्य शक्तियों का समुचित लाभ उठा सके इसलिए हमारे सूक्ष्म दृष्टा ऋषियों ने "देव पूजन" की एक सरल वैज्ञानिक पद्धति बनाई.
समस्त प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो तप- साधना के द्वारा अपने भीतर ईश्वर की समस्त शक्तियों को विकसित कर सकता है. इस साधना में "ध्यान योग" प्रधान है क्योकि मनोविज्ञान के अनुसार हम जिसका गहराई से चिंतन करते हैं, उसके गुण हमारे अंदर प्रगट होने लगते हैं. ध्यान योग में मन को पूर्णता एकाग्र करके अपने आराध्य का गहन चितन किया जाता है.
अब समस्या यह है कि भगवान की शक्तियों का कोई आकार या रूप तो है नहीं. वे अतीन्द्रिय हैं. ऐसे अतीन्द्रिय विषय में योगीजन ही प्रवेश पा सकते हैं परन्तु हमारे ऋषियों का उद्देश्य तो "सर्वे भवन्तु सुखिन:" था. ध्यान- चिंतन तो उसी का हो सकता है, जिसके गुण रूप से हम परिचित हों. अत: हमारे ऋषियों ने ईश्वर की अलग- अलग शक्तियों को गुण एवं रूप में व्यक्त करके देवी- देवताओं के रूप में साकार किया. अब जिसको ईश्वर की जिस शक्ति को अपने में प्रगट करना है, वह उस देवता की आराधना करके प्राप्त कर सकने में सक्षम हो गया. कैसा सूक्ष्म और दिव्य ज्ञान है हमारे ऋषियों का!
जो लोग "मूर्ति पूजा को ढोंग और मूर्ति पूजक काफिर हैं", अथवा "तुम्हारे तो बहुत सारे भगवान हैं", "हमारा तो एक ही भगवान है" कहकर मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, ऐसे नासमझ लोगों को भगवान सद्बुद्धि दें ताकि वे भी ऋषियों के इस गूढ़ ज्ञान का लाभ उठाकर अपना जीवन उन्नत बना सकें.
मूर्तिपूजा अथवा देवपूजन एक निरर्थक व्यापार नहीं है, अपितु मूढ़, अज्ञानी एवं मनमुखी मानव को दिव्य गुणों से ओत- प्रोत कर महामानव बनाने की एक प्रतीकात्मक मनोवैज्ञानिक साधना पद्धति है.
देवपूजन का विरोध करने वालों को हम बताना चाहते हैं कि तुम हमारे समक्ष अभी अभी पैदा हुए शिशु हो. तुम एक ईश्वर कि बातें कर सकते हो परन्तु हमने तो उसकी अनंत शक्तियों को प्राप्त करने कि कला विकसित की है.
हमारे प्रत्येक देवता गुण एवं सामर्थ्य के प्रतीक रूप हैं. उनकी पूजा के द्वारा हम ईश्वरीय गुणों एवं शक्तियों की पूजा करते हैं, आत्मोन्नति के गुप्त तत्वों की पूजा करते हैं. ईश्वरीय शक्तियों को मूर्त रूप देकर उनकी पूजा के द्वारा दिव्य शक्तियों को प्राप्त करने की कैसी सरल साधना पद्धति बनायी है हमारे पूजनीय ऋषियों ने!!
हमारे प्रत्येक देवता गुण एवं सामर्थ्य के प्रतीक रूप हैं. उनकी पूजा के द्वारा हम ईश्वरीय गुणों एवं शक्तियों की पूजा करते हैं, आत्मोन्नति के गुप्त तत्वों की पूजा करते हैं. ईश्वरीय शक्तियों को मूर्त रूप देकर उनकी पूजा के द्वारा दिव्य शक्तियों को प्राप्त करने की कैसी सरल साधना पद्धति बनायी है हमारे पूजनीय ऋषियों ने!!
मनुष्य के मन का स्वभाव है कि वह अनुशासन के बिना उन्नत नहीं होता अपितु उच्छ्रंखल एवं नीच बन जाता है. जब तक वह जानता है कि कोई उसके कर्मों एवं विचारों को देख रहा है और थोड़ी देर में मुझे उसके समक्ष उपस्थित होना है तो वह सावधान रहता है. दिनभर कामकाज में व्यस्त मानव जब सुबह एवं शाम को अपने आराध्य की मूर्ति के समक्ष उपस्थित होता है तब उसे यह अनुभव होता है कि वह ईश्वर के सम्मुख है और उसे अपने सारे कर्म सामने दिखने लगते हैं. स्वार्थ के लिए कुछ भी कर डालने के स्वभाव वाले मनुष्य को बुरे कर्मों से बचाने का यह सुन्दर विज्ञान है.
आचार्य विनोबा भावे ने लिखा है: "मूर्ति न होती तो बगीचे में से फूल तोड़कर मनुष्य उसे केवल अपनी नाक तक ही लगाता किन्तु सात्विक भावना से ओत-प्रोत होकर मनुष्य ने उस फूल को भगवान की मूर्ति पर चढ़ाकर उसे अपनी गंध लेने की वासना को सयंत और उन्नत किया. अपनी वासना को सयंत, उन्नत एवं परिष्कृत करने के लिए मानव ने भगवान को समर्पित करने की युक्ति निकाली."
सनातन धर्म के संकारों से संपन्न सज्जन घर में कुछ भी अच्छी वस्तु आ जाने पर उसे पहले अपने इष्ट- आराध्य के चरणों में अर्पित करता है और इसके बाद उनका प्रसाद समझकर वस्तु का उपयोग करता है. उपनिषदों में भी तो कहा गया है- "तेन त्यक्तेन भुंजीथा", अर्थात त्यागपूर्वक उपभोग करो. पहले त्याग है बाद में भोग. भक्त यही करता है.प्रिय वस्तु पहले भगवान को अर्पण करता है फिर उसे प्रसाद समझकर भोगता है. भगवान की मूर्ति के पास चढ़ावा रखने के पीछे यही विज्ञान है कि मानव भोग में भी रहकर उपासना कर सके. उसकी वासना परिष्कृत होकर भक्ति बन जाए क्योकि वासना का सम्पूर्ण त्याग एक योगी के लिए ही संभव है किन्तु सनातन धर्म में मानव मात्र की उन्नति के सूत्र हैं. चाहे योगी हो अथवा भोगी, वह जिस अवस्था में है वही से ऊँचा उठाकर उसे ईश्वर से मिलाने का अद्भुत विज्ञान है सनातन धर्म.
हमारे धर्म की देवपूजन पद्धति में इस प्रकार के गुप्त एवं सूक्ष्म रहस्य कूट- कूटकर भरे हुए हैं. अत: इसे निरर्थक न मानकर इसके पीछे छिपे वास्तविक विज्ञान को समझने कि आवश्यकता
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कानूनों से फर्क पङता है. किसी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है जानना हो तो पता लगाओ की उस देश की न्याय प्रणाली कैसी है. देश में आर्थिक सामाजिक विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कड़ी न हो.
राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक-क्षमता में, अगर कोई देश अन्य देशों पर निर्भर रहता है तो उस देश का धर्म, न्याय, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, अनुसंधान व जनता तथा प्राकृतिक संसाधन कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता.
वही राष्ट्र सेक्युलर होता है, जो अन्य देशों पर हर हाल में निर्भर हो.