समलैंगिकता पर न्याय व्यवस्था का बंध्याकरण व समाधान
जज समुदाय का मानना है कि - यौन एक प्राकृतिक आकर्षण है, दो वयस्क आपसी सहमति से यौन संबंध बना सकते हैं, नैतिकता की आड़ में किसी का अधिकार नहीं छीन सकते, व्यक्ति के पसंद की अनदेखी नहीं कर सकते, सबको यह स्वतंत्रता है कि उसे क्या चुनना है। समलैंगिक संबंध अपराध अब नहीं हैं, सरकार को किसी की जिंदगी में दखल का हक नहीं है। ऐसी ही कुछ मानसिकता का परिचय पांच न्यायाधीशों की खंड पीठ ने धारा 377 पर दिये हैं। अब इन माननीय न्यायाधीशों से प्रश्न है कि :- १) यौन आकर्षण प्राकृतिक है तो समय सीमा क्यो नाबालिगों को भी स्वाभाविक इच्छा होती होगी? क्या उनके अधिकारों का हनन नहीं? २) स्वाभाविक यौन आकर्षण में समय की सीमा रखकर आखिर कौन से चरित्र का आप पाठ पढ़ा लेंगे? आखिर बालिग होने पर उनको सब कुछ करने की स्वतंत्रता मिल ही जाएगी. ३) यौन आकर्षण प्राकृतिक है तो शम, दम आत्म संयम क्या पशुओं के लिये पारिभाषित है ? ४) क्या संयम के मार्ग पे चलने वाले लोग पशु माने जायेंगे? ५) दो वयस्क आपसी सहमति से सम्बन्ध बना सकते है वे कौन दो वयस्क एक माता के जने हुये सगे भाई आपस में? सगे बहिनें आपस में? या फिर ...